संजना कपूर क्यों भयभीत हैं ? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 28 अप्रैल 2014
शशि कपूर की बेटी संजना कपूर ने अपने एक लेख में अपने दादा पृथ्वीराज कपूर के द्वारा राज्यसभा में 1957 में दिए गए एक वक्तव्य का अंश उद्धृत किया है, 'थियेटर एक आश्चर्यजनक संस्था है जिसमें सभी धर्मों के कलाकार साथ मिलकर काम करते हंै, यह लोगों को जोडऩे का काम करता है। सभी धर्मों और क्षेत्रों से आए कलाकार साथ हंसते हैं, साथ रोते हैं और अवाम का मनोरंजन करते हुए कुछ सार्थक संदेश भी देते हैं। यह समग्र मानवता का मंदिर है।' ज्ञातव्य है कि स्वतंत्रता संग्राम के उन तूफानी वर्षों में पृथ्वीराज कपूर ने पृथ्वी थियेटर की स्थापना की जिसका मंत्र था, 'कला देश के लिए' और इस संस्था ने 1944 से 1957 तक 2300 शो देश के विभिन्न शहरों में किए। गांधीजी द्वारा 'भारत छोड़ो' आंदोलन (1942) के समय इंडियन पीपुल्स थियेटर ने भी बहुत अच्छा काम किया और इन दोनों संस्थाओं ने अनेक असाधारण प्रतिभाशाली कलाकारों को जन-मंच उपलब्ध कराया। वामपंथी विचारधारा के बुद्धिजीवियों ने इप्टा के माध्यम से अवाम को संबोधित किया। पृथ्वीराज का वामपंथ की ओर कोई झुकाव नहीं था परंतु नाटकों में शोषित पात्रों के प्रति करुणा का भाव उन्हें अपरोक्ष रूप से वामपंथ की ओर ले जाता है। पूंजीवादी देशों के बुद्धिजीवियों जैसे बर्टेन्ड रसेल बर्नाड शॉ, चाल्र्स डिकेन्स भी उपेक्षित के प्रति करुणा के कारण वामपंथी ही ध्वनित होते हैं।
बहरहाल संजना कपूर ने भारतीय जनता पार्टी के मैनीफेस्टो में संस्कृति को लेकर उनकी संकीर्णता की ओर ध्यान आकर्षित किया है। वे लिखती हैं कि संस्कृति के तहत अधिकांश बातें वे हैं जो पर्यावरण से जुड़ी हैं। उन्होंने उन कागजों और दस्तावेजों का अध्ययन भी किया है जो दिल्ली के लाल किले को रेस्टोरेशन के नाम पर हिन्दुकरण के विफल प्रयास को रेखांकित करती है और यह अटलजी के प्रधानमंत्री होने के समय किया गया था। संजना ने दु:ख के साथ लिखा है कि राजनीतिक हिन्दुत्व दरअसल उद्दात हिन्दू अवधारणा के भी खिलाफ है। हमें सामंतवादी ढंग से कला व संस्कृति का संरक्षण न करते हुए केवल ऐसी संस्थाएं और सहूलियतें देनी चाहिए जिनमें कला और संस्कृति का विकास हो। किसी तरह की तानाशाही और सेन्सरशिप इस क्षेत्र में केवल चीजों को विकृत करती है। यह हमारे यहां सचमुच अजीबोगरीब है कि सत्ता परिवर्तन का प्रभाव कला, साहित्य व संस्कृति के क्षेत्र पर पड़ता है जबकि अन्य देशों में नियमित रूप से सत्ता परिवर्तन होते रहते हैं और संस्कृति का शाश्वत क्षेत्र उससे प्रभावित नहीं होता। भारत में मंत्री के मूड का आकलन अधिकारी अपने ढंग से करता है और दमन चक्र प्रारंभ होता है। मसलन इंदिरा गांधी ने सत्यजीत राय से नेहरू पर वृत चित्र बनाने का आग्रह किया जो उन्होंने अस्वीकार कर दिया। कुछ दिन बाद सत्यजीत राय ने विदेशी मुद्रा के लिए प्रार्थना पत्र भेजा जो उस अधिकारी ने अस्वीकृत किया जिसे उपरोक्त घटना की जानकारी थी। एक पत्रकार द्वारा सत्य जानने पर इंदिरा जी ने अधिकारी को डांटा और राय महोदय से क्षमा मांगते हुए उन्हें विदेशी मुद्रा प्रदान की।
अन्य देश में सत्ता बदलने पर छुटभैये यह उम्मीद भी करते हैं कि प्रकृति तक अपने इंद्रधनुष को उनके दल की ध्वजा के रंग में प्रस्तुत करे। एक कविता का आशय यह है कि देखो अब सुबह सिंदूरी हो गई तो दूसरा बोला वर्षा होने दो धरती हरी हो जाएगी। राजनीतिक ध्रुवीकरण चुनाव तक सीमित नहीं रहता, संकीर्णता रहस्यमय ढंग से फैलती है। दिल्ली विश्वविद्यालय से '300 रामायण' हटा दी गई। पाठ्यक्रम में इतिहास बदलने की चेष्टा होती है।
सारांश यह है कि सत्ता में आए दल का नैतिक दायित्व है कि वह विचार की स्वतंत्रता का सम्मान करे और सांस्कृतिक आतंकवाद पर अंकुश रखे। यह आसान नहीं है क्योंकि हर दल में नकारात्मक शक्तियां सक्रिय हैं। दरअसल भारत का समाज कबीर की बुनी चदरिया है जिसमें विभिन्न धागे लगे हैं और भीतरी बुनावट की यह विविधता में ही उसका सौंदर्य है। राजनैतिक असहिष्णुता कबीर की चादर से कुछ धागे निकालना चाहती है। आप इंद्रधनुष के रंगों का चयन नहीं कर सकते। क्या वजह है कि कुछ प्रांतों के थानों में मंदिर बन जाते हैं और कुछ प्रांतों में थाने ही बेअसर कर दिए जाते हैं?
ग्यारह करोड़ युवा वोटर अगला वैलेन्टाइन कैसे मनाएंगे- यही सरकार की मंशा जाहिर करे तो दुखद है। इस चुनाव के दो मुद्दे हैं- व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सांस्कृतिक वातावरण में सहिष्णुता तथा पूंजीवाद को स्वीकारना। भारत का मिजाज मिश्रित अर्थ-व्यवस्था का रहा है। विगत सरकार ने पूंजीवाद में हिस्सा मांगने का अपराध कया, क्या इस बार उन्हें पूरी स्वतंत्रता दी जाएगी? क्या असीमित लाभ ही सांस्कृतिक मूल्य भी तय करेगा?