संजय और सरस्वतीचंद्र / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 28 फरवरी 2013
संजय लीला भंसाली ने टेलीविजन के लिए 'सरस्वतीचंद्र' बनाया है। 'सरस्वतीचंद्र' गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी का उपन्यास है। इस उपन्यास पर दशकों पूर्व सफल फिल्म बन चुकी है, जिसकी नायिका नूतन थीं। कल्याणजी-आनंदजी का मधुर संगीत था। पहले एपिसोड में ही संजय लीला भंसाली के सिनेमा की कुछ विशेषताएं हमें इसमें भी दिखाई पड़ती हैं, मसलन नायिका कुमुद सुंदरी के पिता की हवेली भव्य है और आपको भंसाली के 'देवदास' की याद ताजा हो जाती है। सीरियल का प्रारंभ दुबई में बसे धनाढ्य भारतीय व्यक्ति और उनकी दूसरी पत्नी द्वारा दी गई जन्मदिन की दावत से प्रारंभ होता है और पहली पत्नी से प्राप्त पुत्र सरस्वतीचंद्र झील में सूर्य को अघ्र्य देकर अपने पिता के लंबे जीवन की कामना करता है। अपने मित्र को चंद्र कहने पर डांटता है कि उसकी मां का नाम उसके नाम के साथ जोड़कर उसे सरस्वतीचंद्र ही कहा जाए। संजय भी अपने नाम के साथ अपनी मां का नाम 'लीला' लगाना कभी नहीं भूलते, परंतु 'देवदास' उन्होंने पिता को समर्पित की, जिनके बारे में कहा जाता है कि फिल्म निर्माण में असफल होने पर वे शराब पीने लगे थे और श्रीमती लीला भंसाली ने ही परिश्रम करके अपने पुत्र व पुत्री को पाला था। श्रीमती लीला भंसाली ने गुजराती नाटक निर्देशित किए और अनेक नाटकों में नृत्य निर्देशन किया। स्त्री के प्रति संवेदनहीनता के इस दौर में संजय का अपने नाम के साथ अपनी मां का नाम लगाना मौलिक भी है और प्रशंसा के लायक भी। ज्ञातव्य है कि संजय ने भी अपना कॅरिअर विधु विनोद चोपड़ा की '१९४२ ए लव स्टोरी' के गीतों का निर्देशन कर किया था। उन्होंने पुणे फिल्म संस्थान से निर्देशन कला सीखी।
शरत बाबू का देवदास कलकत्ता पढऩे जाता है। संजय ने अपने देवदास को लंदन भेजा। शरत की पारो गरीब घर की है, संजय की पारो की कोठी देवदास की कोठी से थोड़ी-सी छोटी है और शरत बाबू की चंद्रमुखी का मामूली कोठा था, परंतु संजय की चंद्रमुखी का कोठा पारो के पति की हवेली की तरह भव्य है। दरअसल, भंसाली को भव्यता के प्रति गहरा मोह है, जो उसके बचपन के अभावों की प्रतिक्रिया स्वरूप जन्मा हो सकता है। उन्होंने सरस्वतीचंद्र के लिए भी भव्यता रची है। उनका बालक पात्र स्कूल में गरीबी पर निबंध इस तरह लिखता है कि उसका ड्राइवर गरीब है। बंगले में काम करने वाले दर्जनभर नौकर भी गरीब हैं। मेरे पिता मेरे चाचा की तुलना में गरीब हैं... इत्यादि।
आर्थिक उदारवाद के बाद विकास के आयात किए मॉडल की लोकप्रियता के कारण फिल्मकार भी भव्य इंडिया दिखाते हैं। वर्तमान में भव्यता के मोह से मध्यम वर्ग भी ग्रसित है। मनोरंजन जगत बाजार का हिस्सा है और उसकी सभी व्याधियों को आशीर्वाद की तरह ग्रहण करता है, जिसमें छुपे श्राप का ज्ञान होने तक बहुत देर हो चुकेगी। मोहभंग की जल्दी किसी को भी नहीं है। भव्यता हमारे सपनों तक जा पहुंची है। आजकल शादी-ब्याह के निमंत्रण-पत्रों पर गौर करें, वे एक बुकलेट की तरह आते हैं। इस सीरियल की नायिका को 'हम दिल दे चुके सनम' की ऐश्वर्या राय की तरह प्रस्तुत किया गया है। कहीं-कहीं वह देवदास की पारो की तरह दिखाई गई है। जैसे पारो ने देवदास की स्मृति का एक दीया कभी बुझने नहीं दिया, वैसे ही सरस्वतीचंद्र की कुमुद सुंदरी अपने पिता द्वारा दिया गया मोती दोबारा हासिल करने के लिए पानी में कूद पड़ती है। सरस्वतीचंद्र साहसी हैं और बंगी जंपिंग करते हैं। कथाओं का आधुनिकीकरण इस तरह किया जाता है, परंतु इसमें मूल की करुणा और मासूमियत के खोने का खतरा होता है। भंसाली ने जैसे शरतचंद्र के देवदास को अपनाया, वैसे ही गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी का सरस्वतीचंद्र भी अब लेखक का न रहकर उनका बन जाएगा।
यह गौरतलब है कि प्राय: फिल्मकार अपनी विगत सफलताओं के दृश्यों की ओर लौटते हैं। यह उनका मोह भी हो सकता है और सीमा भी तथा नया करने की अनिच्छा। कई बार चरवाहा नहीं होने पर भी मवेशी गोधूलि की बेला में स्वयं घर लौट आते हैं, पिंजरे से उड़ा पंछी भी कभी-कभी पिंजरे में लौट आता है, क्योंकि दासता में सुरक्षित रहने का भाव बहुत मजबूत होता है। आज अव्यवस्थित भारत को देखकर कुछ लोग अंग्रेजों के लौटने की आशा करते हैं, परंतु वे भूल जाते हैं कि अंगे्रज कभी गए ही नहीं - अंग्रेजियत हमारी जीवन प्रणाली का हिस्सा है, हमारे सोच में गहरे पैठी है। टेलीविजन पर लोकप्रियता के आकलन की टीआरपी विधि में छेद हैं और वह अपूर्ण एवं अवास्तविक है। इसलिए टेलीविजन की दुनिया में यह भ्रम स्थापित है कि टीआरपी की खातिर गुजराती परिवार की कहानियां बनानी चािए। यहां तक कि अदालत के एक एपिसोड में घटनाक्रम जयपुर का है, परंतु एक वकील साहब मेवाड़ी में बात करने वाले गवाहों से गुजराती में बात कर रहा है। एक सीरियल में न्यूयॉर्क के एक डिस्को में गुजरात से आया एक युवा अमेरिकन नृत्य करके गुजरात की अहमियत साबित कर रहा है। गुजरात पर्यटन के प्रचार की अमिताभ बच्चन अभिनीत विज्ञापन फिल्में बार-बार दिखाई जा रही हैं। क्या सब आगामी चुनाव प्रचार का हिस्सा है और इस सबका शेष भारत पर क्या प्रभाव पड़ता है - इसका आकलन असंभव है।