संजय लीला भंसाली का प्रेम और क्रोध / जयप्रकाश चौकसे

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संजय लीला भंसाली का प्रेम और क्रोध
प्रकाशन तिथि :26 नवम्बर 2015


फिल्मों के प्रदर्शन के समय फिल्मकार के दिल में आशंका, आशा इत्यादि अनेक भाव होते हैं, क्योंकि उनके परिश्रम और प्रतिभा का मूल्यांकन प्रदर्शन के पहले दिन ही हो जाता है। प्रदर्शन पूर्व का समय प्रार्थना का समय होता है। यह रतजगे का समय भी होता है। प्राय: फिल्मकार धार्मिक स्थलों पर जाते हैं। राज कपूर 'संगम' के प्रदर्शन पूर्व बर्फ से बने शिव के दर्शन के लिए गए थे। प्रदर्शन पूर्व का समय एक तरह से फिल्मकार के लिए अपने गुनाह कबूल करने का समय भी है कि निर्माण के दौरान वह अत्यंत निर्मम रहा है और उसने संतुलन भी खोया है। यह समय एक तरह से शिशु जन्म के पहले मां के दर्द, चिंता, शंका और आशा के मिले-जुले भाव का समय होता है। अगर फिल्म सफल घोषित होती है तो फिल्मकार के चेहरे पर वैसी ही मुस्कान होती है जैसी मुस्कान शिशु के जन्म के बाद प्रसव पीड़ा से मुक्त हुई मां के चेहरे पर होती है। फिल्मकार और उसके यूनिट के लगभग दो सौ लोगों के दो वर्ष के परिश्रम पर दर्शक दो घंटे में अपना फैसला सुना देते हैं। राजनीति में चुनाव के नतीजे के पहले नेताओं की भी यही हालत होती है। उसमें भी अवाम का फैसला अंतिम फैसला होता है। फिल्मकार की तरह नेता अपने गुनाह कभी कबूल नहीं करता। वह तो धोखे से भी अपने पाप अपने मन में भी नहीं दोहराता कि कहीं कोई टेप रिकॉर्डर न छिपा हो, कोई अदृश्य स्टिंग नहीं हो रहा हो।

फिल्मकार अपने निजी स्वभाव व संस्कार के अनुरूप प्रदर्शन पूर्व का समय बिताते हैं। फिल्म के प्रदर्शन के पूर्व फिल्मकार फिल्म के लिए लिया धन व कलाकार एवं तकनीशियन को आखिरी किश्त भी चुकाते हैं, स्वयं उनका फुल एंड फाइनल पेमेंट तो दर्शक के निर्णय से होता है। इस खेल में एक लम्हे की गलती वर्षों तक चुकानी पड़ती है। प्राय: फिल्मकार धार्मिक स्थानों पर जाते हैं या अपनी चिंता को शराब पीकर कम करने का प्रयास करते हैं। शराब का वैज्ञानिक तथ्य यह है कि वह नैराश्य देती है और ऊर्जा हर लेती है परंतु शराबी उसे जोश बढ़ाने वाला समझते हैं। हर व्यसन नैराश्य बढ़ाता है, शरीर को कमजोर बनाता है परंतु व्यसन करने वाला उसे गम गलत करना कहता है। हमारी सारी परिभाषाएं सुविधानुरूप ही होती है।

बहरहाल, संजय लीला भंसाली ने अपनी भव्य और सबसे महंगी फिल्म 'बाजीराव मस्तानी' के प्रदर्शन के पूर्व एक साक्षात्कार में कहा है कि उनके गुस्सैल व क्रोधी होने की सारी बातें कपोल कल्पित हैं। फिल्म उद्योग में यह अफवाह हमेशा रही है कि वे अपशब्दों का इस्तेमाल करते हैं और गुस्सा आने पर हाथ में आई चीज फेंककर मारते हैं। उसकी तुनकमिजाजी के अनेक किस्से हैं। उनका स्पष्टीकरण है कि सृजन की लहर पर सवार वे कई बार अपना धैर्य खो देते हैं परंतु वे स्वभाव से दुष्ट व बदतमीज नहीं हैं। यह तो संभव है कि सृजन की लहर जुनून की तरह होती है परंतु अपना होश खोने वाले सच्चेे सृजनशील लोग स्वयं के प्रति निर्मम होते हैं न कि अपनी भड़ास दूसरों पर निकालते हैं। स्वयं से निर्मम हुए बिना सृजन नहीं होता। सृजनशील व्यक्ति के भीतर बहुत तोड़-फोड़ होती है। भीतर इमारतें ध्वस्त होने जैसा अहसास होता है गोयाकि बहुत कुछ नष्ट होकर कोई निर्माण होता है। संजय लीला भंसाली का बचपन बड़े अभावों से गुजरा है और शायद इसीलिए वे अपनी फिल्मों में भव्यता पर जोर देते हैं। उन्हें शायद यह भान नहीं कि भव्यता महानता का विकल्प नहीं है। झोपड़पट्‌टी में भी मानवीय संवेदना की महान फिल्में बनी हैं। उन्होंने 'देवदास' के अपने संस्करण में शरत बाबू के मूल पाठ से अलग पारो और चंद्रमुखी का एक नृत्य गीत प्रस्तुत किया था और अब उसी शैली मेें बाजीराव पेशवा की पत्नी व प्रेमिका मस्तानी का युगल नृत्य रखा है।

इतिहास के साथ इस छेड़छाड़ पर बाजीराव के वंशज नाराज हैं और यह स्वाभाविक भी है। इस नृत्य में प्रियंका चोपड़ा नृत्य व भाव प्रदर्शन में शिखर सितारा दीपिका पर भारी पड़ रही है। संजय अपनी फिल्म शैली पर शांताराम व राज कपूर की शैली के प्रभाव को स्वीकार करते हैं परंतु इन दोनों फिल्मकारों ने कभी भव्यता को मानवीय संवेदना पर भारी नहीं पड़ने दिया है। इन सबके बावजूद यह स्वीकार करना होगा कि भंसाली को लय-ताल का ज्ञान है और उनमें वह जुनून भी है, जिससे फिल्में बनती है। इतने वर्षों के बाद भी अभी तक वे कोई महान फिल्म नहीं रच पाए हैं। यह शांताराम और राज कपूर की तरह उनकी कोई फिल्म महान नहीं है। वे भव्यता से ओतप्रोत हैं।