संतानों की सांसों में जीवित पिता / जयप्रकाश चौकसे

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संतानों की सांसों में जीवित पिता
प्रकाशन तिथि :22 अप्रैल 2017


वर्ष 1947 से 1985 तक इंदौर में एक अखबार की लोकप्रियता चरम पर थी। वह शहर की आवाज माना जाता था। अगर राशन की दुकान पर लंबी कतार लगी है, तो उस अखबार के साधारण कर्मचारी से भी निवेदन किया जाता था कि वह पहले राशन ले गोयाकि हर कतार वहीं से शुरू होती थी,जहां उस अखबार का कोई कर्मचारी खड़ा हो। वह अखबार होने के साथ ही पत्रकारिता का स्कूल भी बन गया था और कुछ पाठक अपने पत्र नियमित रूप से भेजते थे, जिन्हें कालांतर में कुशल पत्रकार बनाया गया और उनमें से एक नई दिल्ली के राष्ट्रीय अखबार के संपादक भी बन गए।

अस्सी के दशक में रमेशजी अग्रवाल ने अपने अखबार का इंदौर संस्करण निकालने का निश्चय किया। उनके हितचिंतकों ने परामर्श दिया कि शेर को उसके ही जंगल में मत ललकारों। रमेशजी भलीभांति जानते थे कि असफलता से करोड़ों का घाटा हो सकता है लेकिन, उन्होंने चेतावनियों की परवाह नहीं की और शेर को उसके जंगल में दुम से पकड़कर चकरघिन्नी देने का साहसी निश्चय किया। प्रारंभिक दौर में विज्ञापन दर शिखर अखबार के मुकाबले उसकी चौथाई ही मिल पाती थी। अनुभवहीन युवा पत्रकारों को अवसर दिया। उनमें आत्मविश्वास जगाया। एक बार रमेशजी ने प्रोत्साहन देते हुए पत्रकारों को संदेश दिया कि वे खबर के बैंक से न केवल अपने हिस्से का कैश निकालें वरन राह में आने वाले अन्य बैंकों में भी खाता खोलें और खबरों की असीमित राशि पर अपनी निगाह रखें।' भारतीय व्यवस्था की यह तासीर है कि वह समृद्ध को और अधिक समृद्ध करते चलती है और इस व्यवस्था में सेंध मारते हुए उन्होंने कमोबेश यही नारा लगाया, 'साडा हक एथे रख।

एक दौर में राजवाड़े क्षेत्र में उपद्रव हो रहा था तो सुधीर अग्रवाल स्वयं वहां पहुंचे और आंखों देखा हाल अपने पत्रकार के माध्यम से पाठकों तक पहुंचाया। रमेशजी ने अपने तीनों पुत्रों को उन प्रतिबंधित क्षेत्रों में प्रवेश करने की शिक्षा दी, जहां देवता व दानव भी जाने से खौफ खाते हैं। सुधीर अग्रवाल संपादकीय पर पकड़ जमाए हैं, गिरीशजी मुंबई में मार्केटिंग देखते हैं और पवनजी एफएम केंद्रों के संचालक हैं और प्रिंटिंग मशीनों की टेक्नोलॉजी का ज्ञान विदेश से लेकर आए हैं गोयाकि भास्कर संसार के ब्रह्मा, विष्णु और महेश की तरह हैं तीनों भाई।

वर्तमान में अनेक देशों में अखबार केवल शनिवार व रविवार को ही जारी होते हैं और सप्ताह के अन्य दिनों में ई पेपर ही निकलता है परंतु दैनिक भास्कर सारे सप्ताह अपने तमाम संस्करणों के साथ प्रकाशित होता है। व्यापार की दृष्टि से अखबार व्यवसाय सूर्यास्त व्यापार है परंतु भास्कर का अर्थ ही सूर्य है अत: उनके चौबीसों घंटों में उजास है। भास्कर समूह ने गुजरात से गुजराती भाषा में 'दिव्य भास्कर' प्रकाशित किया है तथा मराठी भाषा में भी प्रकाशित होता है। उन्होंने हर स्थान पर दशकों से जमे हुए अखबारों से प्रतिस्पर्द्धा की और शिखर पर पहुंचे। यह उनकी अभिनव शैली है कि जिस शहर में आना चाहते थे, उस शहर में मोहल्ला दर मोहल्ला, मकान दर मकान तक जाकर लोगों से जानकारी प्राप्त की कि वे किस तरह का अखबार पढ़ना पसंद करेंगे गोयाकि लोकतंत्र के आदर्श, 'जनता की सरकार, जनता द्वारा,जनता के लिए' को पत्रकारिता में ढाला। वर्तमान के अघोषित आपातकाल जैसे दौर में निर्भीक होकर अखबार को आम आदमी के अवचेतन का आईना बनाना बड़े साहस का काम है। एक बार मुंबई एयरपोर्ट पर रमेशजी से मुलाकात हुई और वे मुझे अपने साथ वीआईपी लाउंज में ले जाना चाहते थे, जो क्लब क्लास टिकटधारियों के लिए अतिरिक्त सुविधा है परंतु मेरे पास इकोनॉमी क्लास का टिकट था, जिसके बावजूद वे क्लब क्लास लाउंज मेें ले जाना चाहते थे लेकिन, मेरी आनाकानी के कारण वे स्वयं मेरे साथ अन्य सामान्य यात्रियों के लिए बने भीड़भरे कक्ष में बैठे रहे। फ्लाइट में विलम्ब होने के कारण लंबा वक्त उन्होंने अवाम के साथ गुजारा। इतने विराट समूह का चेयरमैन होने के बाद भी अवाम की तरह अवाम से जुड़े रहना उन्हें पसंद था। अपने विशिष्ट व्यक्ति होने को उन्होंने हमेशा नज़रअंदाज ही किया। इस दुनिया की अदालत में उन्हें कभी जज बनकर बैठना पसंद नहीं था और न ही वे किसी को गुनाहगार के कठघरे में खड़े देखना चाहते थे।

निदा फाज़ली की एक नज़्म का सार कुछ इस तरह है- 'गलत है खबरें कि मेरे पिता का देहांत हो गया/भला कोई पिता भी कभी मरता है/ वहअपनी संतान की सांसों में जीवित रहता है।' इसी तरह पूर्व समूह संपादक श्रवण गर्ग की 'पिता' कविता की कुछ पंक्तियां इस तरह है- 'हे पिता वह जो पहाड़/खड़ा किया था तुमने/पत्थर के टुकड़ों को अपनी लगातार जख्मी होती पीठ पर ढो-ढोकर/ आज भी वैसा ही खड़ा है/कहीं भी कुछ नहीं बदला/सबकुछ वैसा ही सुरक्षित है/जैसे कि छोड़ गए थे तुम/सालों साल पहले।