संतुलन / परंतप मिश्र
प्रकृति के प्रतिकूल हुए आधुनिक अनुसन्धान की विस्तृत पवर्तमालाओं के साम्राज्य पर वैज्ञानिक उपलब्धियों के उन्नत शिखरों की निर्मम कठोरता भी मंद विरुप्य वायु के स्पर्शमात्र से छिन्न-भिन्न हो पत्थर के टुकड़ों में परिवर्तित हो रही है।
नि: शब्द शिलाओं से कल्पना कि कोमलता ने कौशल की छेनी व हथौड़ी से सरगम के रागों का परिचय करा, सुंदर आकृतियों में मुखर अभिवक्तियों के संगीत पिरोये थे। परन्तु कान के पर्दों पर दुर्गुणों की मैल अब इतनी जम गई है कि भावना के झरनों की सुरम्य म्रदयति संगीत मौन हो चली है और अब वहाँ पृथ्वी से अन्तरिक्ष तक गूँजती कर्कश कोलाहलपूर्ण ध्वनियाँ ही प्रवेश कर पाती हैं। संवेदनाओं की असीम शांति में मन का कोई कोना जब मौन मुखरित होता है तो अनहत नाद का झरना बह निकलता है।
सृष्टि के नियमों की अनदेखी करते स्वयम्भू सृष्टिकर्ताओं की स्वर्ग को स्पर्श करती महत्त्वाकांक्षी निःश्रेणिका के निर्बल दांडे तृष्णा के भारों का वहन करने में असमर्थ प्रतीत हो रहे हैं। सर्वशक्तिमान होने का मिथ्याभिमान तिलस्म एक दिवास्वप्न की भाँति सत्य के प्रकाश के समक्ष पराजित होकर नतमस्तक है। नियति की अपनी नीति हुआ करती है जो काल के वलय में प्रतीक्षित रहती है।
वैश्विक सभ्यताओं के अथाह महासगर की विशाल जलराशि में न जाने कितने देशों के संस्कृतियों की नदियों का जल समाहित है। सागर के मौजों की भयावह ललकार में नदी की धाराओं का मनमोहक गान उपस्थित होता है। शोर में नैतिक मूल्यों एवं आदर्शों की स्वर-लहरी हो सकता है मंद प्रतीत हो रही हो पर अस्तित्वहीन नहीं है। तभी तो शक्ति के कठोर उद्घोष में भी समर्पण का माधुर्य प्रवाहित हुआ करता है।
मानवीय सम्बन्धों के सुदृढ़ किनारे भी कृत्रिम व्यवहारों से निर्मित दूषित विचारों की बाढ़ से कट-कटकर स्वच्छ लहरों को मलिन करते साथ-साथ बह रहे हैं। स्वार्थ के अस्थायी द्वीपों पर कल्पित प्रतिमानों की काई इकट्ठी होती जा रही है, पर लहर-हर-लहर उसके विनाश की चेतावनी अपने कोमल स्पर्श से दे जाती है।
जीवन के यज्ञ में चर-अचर का स्वाभाविक आचरण धर्म की वेदी पर अर्पित कर्तव्यों की समिधा से फलित होता है। धर्म वह जो धारण किया जाय, जो स्वभाव है, जो जीवन है, जो नैसर्गिक अभिवयक्ति का आधार है, कर्तव्यों का निर्धारण है, नियमों का पालन है, जीव का आदर है, मानवता का सम्मान है, गुणों का परिमाण है, लक्षणों का विज्ञान है, मोक्ष का परिधान है।
स्वभाव के अनुरूप कर्म का प्रतिपादन धर्म का लक्षण और प्रकृति के साथ अनुकूलता इसका मुख्य गुण है। "धर्मो रक्षति रक्षितः" जब धर्म रक्षित होगा तो धर्म भी रक्षा करेगा। अर्थात् स्वधर्म का पालन ही आत्मरक्षा है। हमारे मनीषियों ने इसकी महत्ता को परस्पर सम्मान और सहजीविता कि स्वीकार्यता से सम्पादित किया था।
संतुलन की अनिवार्यता प्रकृति की प्रतिबद्धता है, फिर वह चाहे जैविक, रासायनिक, भौतिक, समाजिक, व्यवहारिक, इत्यादि किसी भी मानदण्डों के मापदण्डों की अवहेलना क्यों न हों उसे नियति के नियमों का पालन करना ही पड़ता है। समय के साथ अनुशासन निर्धारित होता है।
आपदाएँ, बिमारियाँ, महामारी, अकाल, सुनामी, भूकंप और बहुत सारे दुष्परिणामों के समक्ष मानवता असहाय होकर लज्जित हुआ करती है। सुपरिणाम-दुष्परिणाम के अनुभव की समीक्षा कर सहअस्तित्वबोध से आगे बढ़ना हमारे विवेक पर आधारित है। सुंदर संसार का निर्माण ईश्वर ने मानव को उपहार स्वरूप प्रदान किया है जिसमें "वसुधैव कुटुम्बकम्" की भावना निहित है।
मानव ईश्वर की सर्वोच्च रचना है और हमें उनके पथ का अनुसरण करते हुए निरन्तर आगे की और अग्रसर होते रहना है।
" संगच्छध्वं संवदध्वं सं वह मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे सज्जनाना उपासते॥"
हमसब एक साथ चलें / हमारा मार्ग एक हो; हमारा वचन एक हो / एक स्वर में बोलें; हमारे मन (विचार) एक हों। प्राचीन काल में ऐसा आचरण देवताओं का रहा है इसलिए वे वन्दनीय हैं।