संतो सबद साधना कीजे / तुषार कान्त उपाध्याय
प्रिये शब्द-कौन प्रिये, कौन अप्रिय।
ये तो बोलने और सुनने वाले की नीयत और रिश्ते पर निर्भर करता है। जो शब्द युद्ध की शुरुआत करा देने का कारण बनता वही मन को गुदगुदाने वाला भी। भला बिना गाली सुने विवाह का भोजन सुरुचिपूर्ण हो सकता है।
एक शब्द सुखः खानि है, एक शब्द दुःखरासि।
एक शब्द बंधन कटे, एक शब्द गले फ़ासि॥
तो ये शब्द जन्मो का नाता जोड़ देता है और रिश्तो पर ना मिट सकने वाली खरोच भी। भला सोचिये—
कागा काको धन हरे, कोयल काको देत।
मीठा शब्द सुनाय के, जग अपनों करि लेत॥
शब्दों की आवृति मंत्रो का रूप ले उत्थान के शिकार पर ले जाती है। शब्द लोक और लोकोत्तर दोनों के बीच नेह का नाता जोड़ देता है।
नेह-भोजपुरी भाषी दुनिया का अप्रतिम शब्द। ये 'नेह' ही तो है जो घर, परिवार, समाज सबको जोड़ के रखता है। संयोग और वियोग दोनों ही स्थितियों में नेह ह्रदय के तार झंाकृत करता रहता है। एक विरहिणी का अपने परदेश में बसे प्रियतम के लिए वियोग के स्वर, उसके-उसके नेह भरे उलाहने में सुनिए-महेंदर मिसिर के शब्दों में-
नेहवा लगा के दुखवा दे गईले रे परदेशी सईयां
अपने त गईले पापी, लिखियो न भेजे पाती
अइसे निठुर श्याम हो गईले रे परदेशी सईया।
बिरहा जरावे छाती, निंदिया ना आवे राती
कठिन कठोर जियरा हो गईले रे परदेशी सईयां।
कहत महेंदर प्यारे, सुन हो परदेशी सईयां
उड़ी उड़ी भावरा रसवा ले गईले हो परदेशी सईयां।
ये नेह का रिस्ता मान भी ऐसा देता है कि न वह स्वयं ना अपने प्रिये को कही झुकने देता है। उसकी कामना होती उसका प्रिय सदैव ऊँचा रहे। झुकना और झुकIना उसे स्वीकार्य नहीं। अन्यथा वृन्दावन और मथुरा की दूरी कितनी थी। पर मानिनी गोपिया, विरह में दग्ध हो कर भी मथुरा के राजप्रासाद तक नहीं जातीं। विरह की असह्य वेदना झेलती हैं परन्तु अपने गाम्भीर्य के साथ। तभी तो घोर बुद्धिवादी उद्दव वृंदावन से लौटकर श्याम नाम की धुल में लोटने लगते है।
श्रमजीवी वर्ग के नेह और उससे उत्पन्न आत्म सम्मान की रेखा खीचते गोरख पाण्डेय का ये गीत देखिये।
तूँ हव श्रम के सुरुजवा हो, हम किरिनियाँ तोहार
तोहरा से भगली बनहंवा के रतिया
हमारा से हरियर भइली धरतीया
तू हव जग के परनवा हो, हम संसरिया तोहार।
तू हव...
हमारा छोड़ी जनि जइहा बिदेसवा
जइह त भुलिह न भेजल सनेसवा
तू हव नेहिया के पतिया हो, हम अछरिया तोहार
तूँ हव...
चाहे जहाँ रह जो न मथवा झुकइब
हमारा के हरदम संगे-संगे पइब
तूँ हव मुकुति के धरवा हो, हम लहरिया तोहार
तूँ हव...
तो नेह का मान देखिये-प्रियतम अपने प्रिये का हर हाल में साथ निभाने को प्रतिबद्ध है परन्तु शर्त है कि वह माथा झुकाने वाला न बने।
जीवन और उसके पार, नेह 'उससे' लगे माया के घन / बादलो के पार जाने आह्वान भी है। तुलसी की विनय पत्रिका से
जागु जागु जीव जड़, जो है जग जामिनि
देह-गेह-नेह जानि जैसे घन दामिनी।
इस नेह की अदृश्य और सर्वशक्तिमान डोर को जतन से संभालिये और ये धरती ही स्वर्ग बन जाएगी।