संत की महानता / विनोबा भावे
संत अलवार की झोपड़ी में उसके सोनेभर की ही जगह थी। बारिश हो रही थी। किसी ने दरवाजे को खटखटाते हुए पूछा, "क्या अंदर जगह है?"
उसने जवाब दिया, "हां, यहां पर एक सो सकता है, पर दो बैठ सकते हैं। जरुर अंदर आइये।"
उसने उस भाई को अंदर ले लिया और दोनों बैठे रहे। इतने में तीसरा व्यक्ति आया और पूछने लगा, "क्या अंदर जगह है?"
संत अलवार ने जवाब दिया, "हो, यहां, पर दो तो बैठ सकते हैं, पर तीन खड़े हो सकते हैं। आप भी आइये।"
उसने उस भाई को भी अंदर बुला लिया और तीनों रातभर कोठरी में खड़े रहे।
उसने अगर यह कहा होता कि, "समाजवाद तो तब होता, जब मेरा मकान बड़ा होता और तभी आपको जगह दी जाती," तो क्या उसे यह शोभा देता? या अगर वह यह कहता कि, "मेरी कोठरी छोटी है, मेरे अकेले के ही सोने लायक है, इस हालत में मैं इसे कैसे बांट सकता हूं, अत: अन्य किसी के पास जाइये।" तो वह 'संत अलवार' नहीं बनता। वह एक सामान्य नीच मनुष्य ही होता, जिसे मनुष्य कहना भी मुश्किल है।