संत दरियादास / जीतेन्द्र वर्मा

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बिहार के रोहतास जिले में धरकंधा गाँव है। वहीं पीरनशाह नाम का एक दर्जी रहता था। उसकी पत्नी माँ बनने वाली थी।

एक दिन वह घर का काम निपटा रही थी। तभी किसी के गाने की आवाज सुनाई दी। उसने दरवाजे के बाहर झाँका। देखा कि एक फकीर सारंगी बजा कर गा रहा है।

फकीर की दाढ़ी अधपकी थी। चेहरा दमक रहा था। पीरनशाह की पत्नी ने हाथ जोड़ कर कहा - बाबा मेरी होने वाली संतान को आशीर्वाद दें।

फकीर ने आशीर्वाद देते हुए कहा - हरदम नेक काम करना। गरीबों को कभी मत सताना… और सुनों अपनी होने वाली संतान का नाम दरिया रखना।

फकीर गाते हुए मस्त चाल में आगे चला गया। कुछ महीने बाद पीरनशाह की पत्नी की गोद भर गई। उसको पुत्र हुआ। यह सन् 1674 की बात है। यही बालक आगे चल कर संत दरिया साहब के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

एक दिन की बात है। दरिया अपने भाइयों तथा साथियों के साथ मेला देखने गए। मेले में बड़ी गहमा-गहमी थी। छोटे-बड़े सभी खुश थे। दरिया की मडंली कभी इधर, कभी उधर घूम रही थी। सभी को मिठाई, खिलौने आदि खरीदने के लिए घर से पैसे मिले थे। सबने अपनी मनपसंद चीजें खरीदी। दरिया सोच रहे थे कि कोई अच्छी चीज खरीदी जाए।

एक जगह काफी भीड़ जमा थी। वहाँ एक हट्टा-कट्ठा व्यक्ति हाथ में तलवार लिए खड़ा था। बगल में कई खस्सी तथा एक भैंस सजा कर रखे गए थे। वे बड़े मासूम लग रहे थे। दरिया ने उनकी तरफ़ गौर से देखा। उन्हें लगा कि वे उनके दोस्त हैं। वे उन्हे प्यार से देखने लगे। तभी भीड़ में थोड़ी हलचल हुई। एक खस्सी आगे लाया गया। उसको खाने के लिए पकवान दिया गया। उसने खाना शुरू ही किया था कि हट्टे-कट्ठे व्यक्ति ने तलवार से उसकी गर्दन काट दी।

दरिया को बड़ा क्रोध् आया। उन्हें लगा कि यह बड़ा शैतान आदमी है। लोगों को इसे पकड़कर पीटना चाहिए। पर ऐसा नहीं हुआ। लोग जोश में देवी की जय-जयकार करने लगे। दरिया कुछ समझ नहीं पाए।

तभी एक और खस्सी लाया गया। वह सहमा हुआ था। एक व्यक्ति ने उसे पुचकारा और उसे खाने के लिए पकवान दिया। खस्सी ने अभी खाना शुरू ही किया था कि उसकी गर्दन कट गई। सबने फिर देवी की जय-जयकार की।

फिर तीसरा खस्सी लाया गया। उसने दरिया की ओर देखा। वह में .. में .. कर रोने लगा। उसे भी खाने के लिए पकवान दिया गया। अब उनसें नहीं रहा गया। वे बीच में कुद पड़े और उसे छुड़ाने लगे। उन्होंने पूछा-

इसे क्यों मार रहे हो? इसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?

लोगों को दरिया की बातें अच्छी नहीं लगीं। एक व्यक्ति ने डाँटते हुए कहा-

तुम्हें इससे क्या? हमने इसे खरीदा है। हमारा जो मन होगा वह करेंगे।

दरिया ने घर से मिले पैसे को जेब से निकाल कर कहा-

इसके बदले ये पैसे ले लो और इसे मत मारो।

तभी पंडित जी चिल्लाये-

अरे मुहूर्त निकला जा रहा है। इस मलेच्छ तो भगाओं यहाँ से। सब जगह चले आते हैं धर्म नाशने।

लोगों ने दरिया को ढ़केल कर बाहर कर दिया। वे रोने लगे। एक दयालु व्यक्ति ने उन्हें चुप कराते हुए कहा-

हम इन्हें मार नहीं रहें हैं। हम तो देवी को चढ़ा रहें हैं।

क्यों चढ़ा रहे हो? -दरिया ने सिसकते हुए पूछा।

उस व्यक्ति ने बताया- बलि देने से देवी प्रसन्न होती हैं। मनौती पूरी करती हैं।

क्या किसी निर्दोष की हत्या से देवी प्रसन्न हो सकती हैं? -दरिया ने फिर पूछा।

उस व्यक्ति ने सोचते हुए कहा - मै क्या जानूँ? पंडित जी ने तो ऐसा ही कहा है।

दरिया भारी मन लिए घर चले। वे बहुत उदास थे। उन्हें लगता था कि खस्सी उन्हें बुला रहें हैं। उनके भाई ने रास्ते में समझाया - तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था भइया। वे हिंदू हैं। उनके धर्म में हमें नहीं बोलना चाहिए।

पर हिंदू हैं और हम क्या हैं? - दरिया ने पूछा।

दूसरे भाई ने गुस्से में कहा - यह भी नहीं जानते। अरे, हम मुसलमान हैं।

पर वे क्यों हिंदू हैं? और हम क्यों मुसलमान हैं? - दरिया ने फिर पूछा।

क्यों......क्या?

किसी को कुछ समझ में नहीं आया। सभी चुप हो गए। पर दरिया का मन सच जानने के लिए बेचैन हो उठा।

दरिया हरदम गंभीर रहने लगे। घरवालों ने सोचा कि शायद शादी कर देने से ठीक हो जाए। नौ वर्ष की उम्र में उनकी शादी शाहमती से हुई। पर उनमें बदलाव नहीं आया। वे पहले की तरह की साचे में डूबे रहते। उनका मन सत्य की खोज में भटकता रहता। वे कभी हिंदू र्ध्म के बारे में सोचते तो कभी इस्लाम के बारे में। कभी सगुण-निर्गुण के बारें में तो कभी संसार के बारें में।

समय गुजरता गया। दरिया पंद्रह वर्ष के ही हुए थे। उनका मन सांसारिक छल-कपट से ऊब गया। वे लोगों को छोटी-छोटी बातों के लिए लड़ते देखते तो उन्हें दुःख होता।

दिनों-दिन दरिया का चिंतन और गंभीर होता गया। वे एकांत में बैठे रहते। वे सोते-जागते हरदम चिंतन में लीन रहते। उनकी यह स्थिति देख कर घर के लोग चिंतित हो उठे। बहन बुधिमती ने कहा-

पता नहीं, भइया क्या सोचते हैं? उन्हें खाने-पीने, उठने-बैठने, सोने-जागने किसी चीज की सुध् नहीं रहती।

पत्नी शाहमती ने कहा - मुझे तो कभी-कभी डर लगता है। वे सोते समय भी बोलने लगते हैं।

बीस वर्ष के होते-होते दरिया की साधना पूरी हो गई। उन्हें सत्य की प्राप्ति हुई। वे संत दरियादास हो गए। उन्होंने कबीर का मार्ग अपनाया-

सोई कहौं जो कहहिं कबीरा।

दरियादास पद पायो हीरा।।

यानी जो कबीर के कहा वही दरिया के मत हैं। कबीर के विचार हीरा हैं।

दरियादास अपने घर के बाहर ऊँचे आसन पर बैठ जाते। जो लोग उनके पास आते उन्हें सत्य का मार्ग दिखाते। लोगों को उनकी बातें अच्छी लगती।

धीरे-धीरे उनका प्रभाव बढ़ने लगा। वे लोगों को पाखंड से दूर रहने की सलाह देते। इससे पाखंडी लोगों को भारी चिंता हुईं।

उसी गाँव में गणेश नाम का एक पंडित रहता था। वह लोगों को धर्म के नाम पर ठगता था। उसने दरियादास के खिलाफ़ प्रचार करना शुरू किया।

एक दिन दरियादास और गणेश पंडित के बीच बहस हुई।

मूर्ति पूजा, बलि आदि से क्या भगवान मिल सकते हैं ? - दरिया ने प्रश्न पूछे।

पंडित ठीक-ठीक उत्तर नहीं दे पाया।

बाद में गणेश पंडित ने अपने मित्रों के साथ बैंठक की। सभी संत दरिया के बढ़ते प्रभाव से चिंतित थे।

एक ने कहा - यह दरिया तो हिंदू-मुस्लिम का रहा-सहा भेद भी मिटाने पर तुला है।

दूसरे ने कहा - अरे, तुम हिंदू-मुस्लिम के फरे में हो, वह तो जात-पात, छुआ-छूत कुछ नहीं मानता।

तीसरे ने कहा - वह शराब नहीं पीने, मांस-मछली नहीं खाने की सलाह देता है। पहले मैं ओझाई से इलाज करता था। इलाज में देवी पर चढ़ाने के लिए दारू, मांस माँगता था। अब लोग दरिया के कहने पर आते ही नहीं।

पंडित गणेश चिंतित स्वर में बोला - अगर दरिया का उपदेश इसी तरह चलता रहा तो एक दिन हमारा धर्म नष्ट हो जाएगा। कोई हमारे पास नहीं आएगा। अब कोई ऐसा जतन करो कि लोग दरिया से नाराज हो जाएँ।

बहुत देर तक राय-मशवरा चलता रहा। अंत में, सबने मिलकर एक साजिश रची।

गाँव से कुछ दूर देवी दुर्गा की मूर्ति थी। एक रात वह मूर्ति लापता हो गई। पंडित गणेश ने प्रचार करवाया कि दरियादास ने दुर्गा की मूर्ति चुरवा कर तुड़वा दी है। वह हिंदू विरोधी है।

दरियादास को लोग जानते थे। उन्हें विश्वास था कि वे ऐसा नहीं कर सकते। जब पंडित गणेश की मंडली लोगों को भड़काती तो वे उनकी हँसी उड़ाते। कोई कहता - विश्वास कैसे कर लें। तुम तो सुबह से शाम तक झूठ बोलते हो।

कोई कहता – तुम लोग हरदम धर्म के नाम पर पैसा माँगते हो। भला पैसे से कहीं धर्म मिलता है।

कोई कहता - तुम्हीं लोगों ने मूर्ति चुराई होगी। दरियादास को बदनाम क्यों करते हो?

संत के अधिकांश शिष्य हिंदू ही थे। सभी ने एक स्वर में कहा - दरियादस ऐसा काम नहीं कर सकते। हम हरदम उन्हीं के साथ रहते हैं।

एक दिन लोगों ने देखा कि देवी की मूर्ति पुराने स्थान पर रखी हुई है। अब पंडित गणेश और उनके साथी यह प्रचार करने लगें कि दरिया ने हमसे बलि नहीं देने की प्रतिज्ञा करा कर मूर्ति रखी हैं। उन्होंने देवी का अपमान किया है। उन्हें इसका दंड मिलना चाहिए।

पोगांपथियों ने एक दिन दरिया को घेर लिया। वे लाठी, भाला, फरसा आदि लिए हुए थे। वे दरिया को देवी की मूर्ति के आगे बलि देकर मारना चाहते थे। संत घबराए नहीं। वे शांत भाव से उपेदश देते रहें - मनुष्य को ज्ञानी बनना चाहिए। ज्ञान रूपी तलवार से काम-वासना जैसे शत्रुओं को तुरंत मार देना चाहिए। पाँच और पच्चीस अर्थात पंच तत्त्व और उसके प्रपंच कर विजय प्राप्त कर लेनी चाहिए। कर्मकांडों का ढकोसला छोड देन चाहिए।

दरिया के कुछ भक्त घबड़ा गए। कुछ भक्तों ने हिम्मत से काम लिया। अगल-बगल से भी बहुत से भक्त आ गए। वे गणेश के दल से भिड़ गए। भक्तों ने बवालियों के हथियार छीन लिए। कुछ को चोंटे भी आईं। सभी बवाली भाग खड़े हुए।

संत दरिया की प्रसिधि तेजी से चारों तरपफ फैलने लगी। उनके प्रभाव में आकर लोग गलत रास्ता छोड़ देते। इसके कारण पाखंडी लोगों की चिंता बढ़ती गई। वे दरिया के खिलापफ दिन-रात कुछ-न-कुछ करते रहते। उन्होंने राजा सकरवार के कान भरे। उन्होंने कहा - दरिया आपके खिलापफ लोगों को भड़का रहा है। वह आपकी गद्दी हड़पना चाहता है।

राजा ने अपना एक दूत भेजकर दरियादास को बुलवाया। वे निर्भीक होकर दरबार में आए। उनके विरोधी राजा के पास ही खड़े थे। वे राजा को लगातार उनके खिलाफ भड़का रहे थे। एक ने धीरे से राजा से कहा- महाराज! यह आपका शत्रु है। इसकी बातों में नहीं आइएगा।

दूसरे ने कहा - महाराज! यह बड़ा भारी जादूगार है। बात से लोगों को फंसा लेता है। आप इसकी कोई बात नहीं सुनें।

दरिया को अपना शत्रु समझ कर राजा क्रोध् में आ गया। वह तलावार खीचकर जोर से चिल्लाया - मैं तुम्हें जान से मार डालूँगा।

दरिया जरा भी भयभीत नहीं हुए। उन्होंने राजा को जोर से डाँटा। उनकी निडरता देख सभी आश्चर्यचकित रह गए। राजा के हाथ से तलवार गिर गई। दरियादास ने समझाया - राजा सबका हितचिंतक होता हैं। बिना सत्य जाने क्रोध् करना पाप हैं।

सन 1761 के नवंबर का महीना था। नवाब मीरकासिम एक बड़ी फौज लेकर भोजपुर पर चढ़ आया। उसने सभी किलों पर कब्जा जमा लिया।

भोजपुर जीतने के बाद मीरकासिम आगे बढ़ा। उसने घरकंधा से कुछ दूर दिनारा में अपना डेरा डाला। सभी लोग उसके पास जाते और सलाम बजाते। पर संत दरिया नहीं गए। वे नित्य की भाँति भगवान का स्मरण करते रहे। इसकी खबर मीरकासिम को लगी। उसे बड़ा क्रोध् आया। उसे लगा कि दरियादास उसकी सत्ता नहीं मान रहें हैं। मीरकासिम ने उनका घर तोप से उड़ा दिया। वह सोच रहा था कि वे डर कर उससे माफी माँगेगे। उसके मन में नफरत के भाव भरे थे।

घर को बर्बाद कर मीरकासिम संत के पास पहुँचा। वह उन्हें सजा देना चाहता था। पर सामने आते ही वह सब कुछ भूल गया। उसने क्षमा माँगते हुए कहा - मुझे माफ करें। मैं आपके लिए इससे अच्छा घर बनवा दूँगा। मुझे सत्य का मार्ग दिखाइए।

संत दरिया की दया उमड़ पड़ी। उन्होंने उस आशीर्वाद दिया। अपने उपदेश से उसे सही मार्ग दिखाया। मीरकासिम ने विदा लेते समय दरियादास को एक बहुमूल्य हीरा दिया। उसके चले जाने के बाद संत ने उसे बगल के तालाब में फेंक दिया।

कुछ दिनों बाद मीरकासिम को इसकी जानकारी हुई। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। वह सोचने लगा कि संत दरिया ने इतने कीमती हीरे को क्यों फेंक दिया?

वह संत के पास गया और अपना हीरा माँगा।

सभी सोचने लगे - अब क्या होगा? अब संत कहाँ से हीरा देंगे?

दरिया के विरोधी मन-ही-मन खुश थे। वे सोच रहे थे कि अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे। दरिया हीरा फेंकने की बात बताएंगे तो नवाब इसे अपना अपमान समझेगा। उनका सर धड से अलग कर देगा।

संत दरिया मीरकासिम की बात सुनकर मुस्कुराए। उन्होंने पानी में हाथ डालकर बाहर निकाला। उनकी हथेली पर कई हीरे जगमगा रहे थे। उन्होंने कहा - तू इनमें से अपना हीरा ले लें। मेरे लिए तो ये पत्थर के समान ही हैं। इसीलिए मैंने इन्हें पानी में फेक दिया है।

सभी चकित हो गए। मीर कासिम को अपने धन का बड़ा घमंड था। उसका घमंड चूर-चूर हो गया। वह बहुत लज्जित हुआ। उसने कहा - मै आपको भूमि, धन-दौलत देना चाहता हूँ।

संत दरिया ने हँस कर कहा - देने वाला तो सिर्फ भगवान है। तुम भला क्या दोगे!

पर वह नहीं माना। उसने एक सौ एक बीघा जमीन दरिया को देना चाहा। उन्होंने लेने से एकदम इंकार कर दिया। अंत में, वह जमीन उनके एक शिष्य को देकर चला गया।

दिन बीतते गए। संत दरिया वृद्ध हो गए थे। उनके शिष्यों की संख्या बहुत बड़ी हो गई थी। एक दिन उन्होंने अपने श्ष्यिों से कहा - अब तुम लोग मेरे बिना काम करने की आदत डालो। मेरे संसार से विदा होने का समय नजदीक आ रहा है।

सबकी आँखे भर आईं, ओठ फड़फड़ाने लगे। पर कोई कुछ कह नहीं पाया। सन् 1779 में उन्होंने अपने सबसे योग्य शिष्य गुनादास को महंत बनाया। सभी शिष्य अपना काम ठीक ढंग से करने लगे।

सन् 1780 में दरियादास का निधन हो गया। जीवन भर तरह-तरह के कष्टों को सहकर लोगों को सही राह दिखाने वाला संत इस संसार से विदा हो गया। दूर-दूर से लोग उनके अंमित दर्शन के लिए आए। सभी से आँखों से आँसू झर रहे थे।

उनके बताए हुए रास्ते को दरियापंथ कहा गया। आज भी अनेक जगहों पर उनके मठ हैं। लाखों लोग इस पंथ को मानने वाले हैं। वे छुआछूत, हिंदू-मुस्लिम के भेदभाव को नहीं मानते हैं।