संदूक - 2 / ममता व्यास
वह एक नामी मूर्तिकार था। देश-विदेश में उसकी बनाई सैकड़ों मूर्तियाँ प्रसिद्ध थीं। बड़े-बड़े पहाड़ों को तोड़कर उन पर छैनी, हथौड़ा चलाना और पत्थरों को अपनी कल्पना के अनुरूप ढाल देना, यही उसका शौक था। तराशने का हुनर उसे अपने पिता से विरासत में मिला था। कहते हैं कि बहुत छोटी उम्र में ही उसने औजार उठा लिए थे। जब उसकी उम्र के बच्चे आस-पड़ोस में गेंद, गिल्ली-डंडा, पतंगबाजी, आंखमिचौली, छुपा-छिपी जैसे खेल खेलते और मस्ती करते थे, तब वह अपने घर के कच्चे आंगन में कोई कोना खोजकर बैठ जाता और अपने पास इक_ा किये पत्थरों के टुकड़ों पर हाथ आजमाता। उसके अन्य भाई-बहन सामान्य बच्चों की तरह जंगल में जाते, बेर, कच्ची केरी या कबीट तोड़ते और नमक लगाकर चाटते, पर वह पत्थरों के टुकड़ों के साथ ही उलझा रहता। माँ को उस पर विशेष प्रेम था और माँ उसकी पत्थरों से यारी देख मन ही मन खुश तो बहुत होती थी, लेकिन उसके भोले, सरल स्वभाव को लेकर अक्सर चिंतित भी रहती थी। जब वह उन बेजान पत्थरों से खेलकर उकता जाता तो अपनी माँ की गोद में सिमट जाता।
जब उसके साथ के बच्चे थोड़े बड़े हुए और दुनियादारी की बातें सीखने लगे तब भी वह छैनी-हथौड़ों में ही उलझा रहा, इसलिए दुनियादारी का पाठ कभी पढ़ न सका। उम्र बढ़ती गयी, उसका हुनर उम्र से बहुत आगे चल रहा था, लेकिन दुनियावी समझ उसमें अभी तक नहीं आई थी और इसी का लाभ उठाकर उसके भाइयों ने उसके हिस्से की ज़मीन हथिया ली और घर से निकाल दिया।
उसकी बनाईं मूर्तियाँ देश-विदेश में बहुत प्रसिद्ध थीं। एक तरफ़ सारी दुनिया उसे प्रेम कर रही थी, उसके हुनर के चर्चे थे, वहीं दूसरी तरफ़ घर के भीतर वह अकेला पड़ गया था। दुनिया के सामने हम कितनी भी मजबूती से खड़े हों, लेकिन मन की धरती पर हम बहुत अकेले होते हैं। वह बरसों पत्थरों के बीच रहा, इसलिए उसकी देह भी कठोर पत्थर के जैसी दिखती थी, लेकिन उसका मन फूलों से भी कोमल था। जि़न्दगी में उसके सच्चे साथी बस उसके पुश्तैनी छैनी-हथौड़े ही थे। जिनका उसके भाइयों के लिए कोई मोल नहीं था। जिन्हें लेकर वह एक दिन अंतहीन यात्रा पर निकल आया था।
समय अपनी गति से बीत रहा था। कई जगह भटक-भटककर आख़िर उसने स$फेद पत्थर की चट्टानों के बीच रहना चुना। वह एक ऐसा स्थान था जहाँ दूर-दूर तक कोई जीवन नहीं था। न कोई खेत, न कोई हरियाली, न कोई पेड़, न पौधे, जहाँ तक नज़र जाती सिर्फ़ पत्थर की चट्टानें दिखाई देती थीं। उस सुनसान, वीरान स्थान पर कोई स्त्री-पुरुष, जीव-जंतु तक दिखाई नहीं पड़ते थे। दुनियादारी से बहुत दूर रहकर उसने वहाँ हजारों मूर्तियाँ बनाईं। ऐसा लगता था मानो उसने अपनी एक अलग दुनिया बसा ली थी। अपने बचपन की कोमल स्मृति को पत्थरों में ढालना और उनसे बातें करना। उसका बस यही रोजगार था। उसने अपने मां-पिता, भाइयों, सहित उन सभी लोगों की सुन्दर मूर्तियाँ बनाईं, जो उसके जीवन में अच्छी या बुरी स्मृतियाँ रखते थे। उसने अपने अवचेतन में व्याप्त समस्त कल्पनाओं को सुन्दर मूर्तियों में ढाल दिया था और उनके बाकायदा नाम भी रख दिए थे। वह उन्हें उनके नामों से पुकारता था और उनसे बातें किया करता था। इन बेजान मूर्तियों के परिवार में उसकी एक सबसे ख़ास मूर्ति भी थी, जो उसकी प्रेयसी की थी। कई बरसों से बंजर हो चुके मन को निचोड़कर जो भी भाव मिल सके थे वह सब उस मूर्ति में डाल दिए थे। वह इतनी सुन्दर मूर्ति बन पड़ी थी कि मूर्तिकार उसके प्रेम में पड़ गया। उसके सुख, उसके दुख उसका दर्द अब वह बेजान मूर्ति खामोशी से सुनती थी। कभी-कभी वह बहुत खुश होता और घंटों बातें करता तो कभी उन सभी बेजान मूर्तियों से बहुत नाराज हो जाता। उस समय वह अकेलेपन के दर्द से कराह उठता था और चिल्ला उठता, "तुम बोलती क्यों नहीं हो? मुझे मेरी बातों के जवाब क्यों नहीं देती हो? तुम सभी लोग क्यों नहीं बताते मुझे कि मैं क्या तलाश कर रहा हूँ? क्या खोज रहा हूँ मैं बरसों से। कहाँ से आया हूँ मैं? कहाँ जाना है मुझे।"
उसकी इस दारुण पुकार पर किसी भी मूर्ति ने कभी कोई जवाब नहीं दिया। उस दिन वह बहुत दुखी हो गया था। आख़िर वह भी एक इनसान था, अकेलापन, अवसाद, दुख, दर्द, उसे भी तो सताते थे। एक मनुष्य के मन को समझने के लिए दूसरे मनुष्य का होना बहुत आवश्यक है, बेजान मूर्तियाँ मन नहीं समझती थीं। एक दिन उसने क्रोध में आकर कहा "सुनो मूर्तियो! अगर तुम मुझसे बात नहीं कर सकतीं तो तुम्हारे यहाँ होने का कोई लाभ नहीं है और उसने नाराज होकर सभी मूर्तियों को नष्ट कर डाला। अपने प्राणों से प्रिय उस काल्पनिक प्रेयसी की मूर्ति के करीब जाकर बोला," कौन हो तुम? मेरे अवचेतन में तुम्हारी ये मुस्कुराती छवि कैसे आई? क्यों बनाया मैंने तुम्हें? तुम बोलती क्यों नही? तुम क्यों नहीं मिलती मुझे, क्यों करता हूँ तुम्हें इतना प्रेम? मैं अपनी इस बेचैनी से तंग आ चुका हूँ। चली जाओ तुम भी, जहाँ सब चले गये और उसने एक झटके में अपनी प्रिय मूर्ति के दो टुकड़े कर दिए।
सुन्दर मूर्तियों से सजा हुआ वह स्थान अब डरावना और भयानक-सा दिख रहा था। अब वहाँ सिर्फ़ पत्थर के बदसूरत टुकड़े ही टुकड़े दिखाई पड़ते थे।
क्रोध में होश खो बैठा मूर्तिकार जब ज़रा संभला तो अपने आसपास पत्थरों का ढेर देख दर्द और दुख से चिल्ला उठा। अपने ही सर्जन को नष्ट करने का अपार दुख ...अपनी ही कल्पनाओं को कुचलने का दुख, अपने अवचेतन की सुन्दर स्मृतियों को भस्म कर देने की पीड़ा। उ$फ...ये क्या कर दिया उसने, अपनी काल्पनिक प्रेयसी और अपने प्रेम का अंत करने के बाद पागलों की तरह उन टूटे-फूटे पत्थरों से सर मारता रहा। उसकी देह पत्थर की हो गयी थी। उसका मन पत्थर का हो चुका था। देखने में वह मूर्तिकार अब डरावना और वीभत्स हो गया था।
कई दिनों तक वह यूं ही अचेत पड़ा रहा और फिर एक दिन होश में आते ही उसने फिर से औजार उठा लिए। अबकी बार चट्टानों को तराशना छोड़ अब वह पथरीली ज़मीन खोदने लगा था। कौन-सी प्यास, कौन-सी बेचैनी, कौन-सी नियति, कौन-सा श्राप, कौन-सा पाप, कौन-सा वरदान, कौन-सा भविष्य उसे खुदाई करने पर मजबूर कर रहा था, वह ख़ुद भी नहीं जानता था। उसने न दिन देखे न रात, धूप देखी न बरसात, बस उसे धुन लगी थी। कोई अनजानी अजनबी चीज उसे खींच रही थी उस धरती की गहराई में। न जाने उसने कितना खोद डाला, कितना खोज डाला कि उसके हाथों से औजार छूटकर नीचे गिर पड़े। उसके हाथों से खून रिस रहा था और वह थक कर धड़ाम से गिर पड़ा और कातर दृष्टि से आसमान को निहारने लगा। वह स्याह रात जब आसमानों में न चांद था न सितारे उसने पहली बार आसमान की तरफ़ देखकर एक बहुत दुख भरी आह भरी, मानो कह रहा हो "कब तक खोजना है, मुझे कब तक खोदना है मुझे और किसे खोजना है? कौन है वह जिसे खोजता और खोदता फिर रहा हूँ मैं, अभी मुझे कितना और दर्द सहना है ईश्वर अब रहम करो।"
उसकी सच्ची आह जैसे सातवें आसमान तक पहुँच गयी, तभी धरती डोली आसमान कांपा और धरती में कम्पन हुआ। कौन जाने धरती के भीतर कितनी परतें खिसकीं, कौन-सा हिस्सा कहाँ से मुड़ गया, कहाँ से जुड़ गया। दिशाएँ बदल गयीं, चांद अपनी जगह से सरक गया। समंदर हिल गए, देश बदल गए, एक पल में धरती के भीतर कई परिवर्तन हो गए। नियति अपना खेल-खेल चुकी थी।
मूर्तिकार ने ज़मीन पर पड़े-पड़े ही हाथ से उस ज़मीन को टटोला और मिट्टी को छुआ जो उसने खोदी थी तो उसे ऐसा महसूस हुआ कि वहाँ पत्थर नहीं हैं। उसने पूरी जि़न्दगी पत्थरों संग बितायी थी, एक छुअन से पत्थर की तासीर बता सकता था वो। ये पत्थर नहीं कुछ और है। जाने किस अदृश्य शक्ति का उसमें संचार हुआ और हिम्मत बटोरकर फिर खोदना शुरू किया तो देखा वहाँ एक संदूक गड़ा हुआ है, सोने का संदूक। मूर्तिकार ने जल्दी-जल्दी उस संदूक को ज़मीन से बाहर निकाला और खोला तो उसकी आंखें फटी की फटी रह गयी। उसमें एक सुन्दर युवती मुस्काती थी।
मूर्तिकार को लगा अब वह सच में पागल हो गया है उसने अपनी आंखों से मिट्टी साफ़ की तब तक वह युवती संदूक से निकलकर बाहर आ चुकी थी।
"कौन हो तुम? क्या नाम है तुम्हारा? और तुम मुझे जानी-पहचानी क्यों लगती हो? तुम्हें मैंने कहीं पहले देखा है।" वह दिमाग़ पर ज़ोर देने लगा, "ओह...याद आया। ऐसी मूर्ति मैंने बनाई थी, बिलकुल यही आंखें, यही नाक, यही होंठ, यही मुस्कान और यही हंसी।" वह दौड़कर टूटी-फूटी मूर्तियों के ढेर में से अपनी प्रेयसी की मूरत खोजने लगा, उसे वहाँ सिर्फ़ पत्थर का चूरा मिला। मूर्तिकार सर पकड़कर बैठ गया।
आज नियति ने उसके सामने उसकी काल्पनिक प्रेयसी को जीवित खड़ा कर दिया था, जिसकी देह से सुगंध आ रही थी एक ऐसी सुगंध जो उसने अपने जीवन में कभी महसूस नहीं की थी। वह जाने कब से इस बंजर भूमि और पत्थरों के देश में रह रहा था। उसे सदियाँ हो गयी थी किसी जीवित मनुष्य को देखे हुए। उसका अब तक का जीवन बेहद मलिन था, दुर्गन्ध युक्त था। सुन्दरता, सुगंध बस कल्पना में ही थी। वह सुगंधों को, फूलों को भूल चुका था। कोमलता को भूल गया था। उसके हाथों में सिर्फ़ छाले थे, मवाद था, खून था, नरमी की बात तो वह जानता तक नहीं था।
ये कैसी विचित्र स्त्री है, जिसकी देह से सुगंध आ रही। अब समझा... इस सुगंध को ही तो मैं खोज रहा था। ये स्त्री ही मेरे अवचेतन में समाई थी। इसे ही तो मैं खोज रहा था। मुझे इसे ही तो पाना था। बिलकुल यही सूरत, यही आंखें, यही होंठ। बरसों से पत्थरों में इसे ही ढाला था मैंने। मूर्तिकार उस युवती को पागलों की तरह छू-छूकर देख रहा था। कैसे वह हंसती है, कैसे वह बोलती है। मूर्तिकार ख़ुशी से पागल हो रहा था। कभी हंस रहा था, कभी रोने की कोशिश कर रहा था, उसकी आवाज़ भर्राई हुई थी, "मैंने बरसों से कोई जीवित मनुष्य नहीं देखा, कोई आवाज़ नहीं सुनी। तुम मुझसे बात करोगी न? तुम मेरी बात सुनोगी न? तुम ...तुम मुझे छू सकोगी न?" मूर्तिकार की दशा दयनीय थी। कोई नहीं थी तुम जैसी, तुम मेरी कल्पना, तुम ही मेरा अवचेतन हो...उसने युवती को बरबस चूम लेना चाहा, लेकिन उस मूर्तिकार के होंठ भी पत्थर हो चुके थे।
स्त्री मन ही मन उस मूर्तिकार के भोलेपन पर मुग्ध थी। वह मन ही मन सोचने लगी, "देखो तो ये मूर्तिकार कितना बेचैन था बरसों से। ये बहुत उजाड़ बहुत वीराने में और पत्थरों के संग रह-रहकर पूरा पत्थर ही बन गया है। इसका चेहरा पत्थर-सा सख्त है, जिस पर उसकी सूखी-सूखी आंखें हैं, इनमें कोई नमी नहीं। इसकी आंखें देख लगता है ये बरसों से किसी के लिए नहीं रोई। इसकी देह वज्र-सी कठोर है। इसके हाथ कठोर और बदसूरत हो गए हैं। छैनी-हथौड़ों ने इसे बेजान कर दिया है। ऐसी कुरूपता के बाद भी उसकी बनायीं मूर्तियाँ कितनी रूपवान हैं।" स्त्री ने टूटी हुई मूर्तियों को उठाकर देखा। युवती ख़ुद में गुम थी।
ये मूर्तिकार मुझे अपना-सा क्यों लगता है। संसार के सभी सुखों के बीच उस राजा के सोने के महल में मेरी सांस क्यों घुटती थी? यहाँ इस उजाड़ में, वीराने में इस पत्थर हो चुके व्यक्ति से अपनी जैसी सुगंध क्यों आ रही है। नियति ने मुझे इससे क्यों मिलवाया? तभी मूर्तिकार फिर बोल पड़ा "ओह कितनी मीठी सुगंध आती है तुम्हारी देह से। तुम्हें विधाता ने किस मनोरथ से गढ़ा है? यकीनन तुम्हें समस्त संसार में अपनी सुगंध फैलाने के लिए ही बनाया गया है।"
स्त्री ने आख़िर चुप्पी तोड़ी। बोली, "बहुत सुन्दर मूर्तियाँ बनाते हो कलाकार, लेकिन ये मूर्तियाँ बेजान हैं, ये स्थान वीरान है हम दोनों यहाँ सुगंध भर देंगे।" मूर्तिकार उस सुगन्धित देह वाली स्त्री को अपलक निहारते हुए बोला "सिर्फ तुम्हारी देह से ही नहीं, मन से भी सुगंध आती है, तुम्हारी देह में ही नहीं, तुम्हारे मन में भी सुगंध भरी है। तुम्हारा मन महकता ही तब ही तो देह महकती है।" मूर्तिकार मुस्काया।
" तुमने मेरी देह की सुगंध नहीं, मन की सुगंध पहचानी, तुम कमाल हो मूर्तिकार। नियति ने मुझे तुम्हारे पास इसी मनोरथ से भेजा है कि हम दुनिया में सुगंध फैलायें। आज मेरी सुगंध को सुगंधों का ज्ञानी मिल गया है और तुम्हारी बेचैनी ने तुम्हें तुम्हारी सुगंध से मिलवा दिया है। किसी को पाकर ही हम ख़ुद को पा सकते हैं। इतना कहकर स्त्री ने आगे बढ़कर मूर्तिकार को बांहों में भर लिया और उसके होठों को चूम लिया। मूर्तिकार हक्का-बक्का रह गया उसे कुछ समझ नहीं आया, लेकिन उस दिन से न जाने क्या हुआ, मूर्तिकार जिस भी पत्थर को छूता वह महकने लगता। उसकी बनाई हर मूर्ति से एक अविश्वसनीय सुगंध आने लगी।