संदेह / एक्वेरियम / ममता व्यास
तुम्हारे साथ जितना वक्त गुजरा। देखा जाये तो वह वक्त आज तक नहीं गुजरा। उन दिनों जैसे हर शाम तुम अपनी बातों की पोटली लिए मुझ तक आते थे और मैं भी अपने दर्द की गठरी लिए तुम्हारे आने का इन्तजार करती थी।
बरसों बीत गए, लेकिन मैं आज भी हर शाम इस नदी किनारे अपनी गठरी लिए रोज आती हूँ। तुम्हारा इन्तजार करती हूँ कि तुम आओगे और मेरी बातों की गठरी खोलोगे। मैंने तुम्हारे लिए अनगिनत बातें संजोयी हैं।
कभी-कभी सोचती हूँ। तुम्हें कभी भरोसा ही नहीं हुआ न मेरे इस इंतजार पर, मेरे प्रेम पर, मेरे होने पर और मेरे रोने पर। तुम्हें शंका का रोग था। तुम न जाने क्या-क्या सोच लेते थे उन दिनों। जब भी मिलते शंका का ऐनक हमेशा नाक पर चढ़ा रहता था। संदेह का तराजू बगल में दबा रहता। तुम जब भी मौका मिलता मेरे प्रेम को तौलते रहते या इंची टेप से नापते रहते।
कभी-कभी तो तुम हद ही कर देते ज्योतिष की किताब के पन्ने उलटते रहते मेरा 'सन साइन' चेक करते। तो कभी किसी ओझा के पास जाकर मेरे होने या नहीं होने की तसल्ली करते। जबकि मैं अनगिनत बार कह चुकी थी कि मुझे मत आजमाओ मत परखो। अगर तुम्हें मेरे होने से इतनी ही घबराहट है, इतनी ही घुटन है तो दूर ही रहो न। लेकिन बार-बार ये आजमाइशें ठीक नहीं।
याद है? हम बचपन में जब इमली के बीजों को गीली मिट्टी में बो देते थे और सोचते थे, एक दिन ये बहुत बड़ा पेड़ बन जायेगा। वह बीज सचमुच एक बहुत बड़ा पेड़ बन सकता था, लेकिन हम दिन में दस बार मिट्टी खोद कर देखते थे कि आज कितना बड़ा हुआ? आज कितना उगा? हमारा मासूम, बचपन कभी भी ये बात नहीं समझ पाया कि नियम से पानी देने के बावजूद वह बीज इमली का पेड़ क्यों नहीं बना।
पेड़ तो बहुत दूर की बात वह पौधा भी नहीं बना। अरे, वह बीज कभी अंकुरित ही नहीं हो सका।
जानते हो? हमारा कौतूहल, हमारी जिज्ञासा, हमारी शंका हमें कहीं का नहीं छोड़ती। तुमने भी ऐसा ही किया। जब-जब भी मैंने प्रेम रचा, तुमने झट से उसे अपनी फूंक से उड़ा दिया। तुम कभी समझ ही नहीं सकोगे।
तुम्हें फूलों की खुशबू का विज्ञान खोजना था न, इसलिए तुमने उसकी पंखुरी-पंखुरी नोंच डाली। तुम्हें मिठास अनुभव करने से ज़्यादा मिठास का प्रतिशत ज्ञात करना था और तुमने अपने झोले में से एक बार फिर ग्लूकोमीटर निकाला और नाप डाली मेरी मिठास।
तुम्हें याद है? उस दिन तुमने 'वेइंग मशीन' पर रखकर मेरी सभी बातों को ही नाप लिया कि कितना वजन है मेरी हर बात में और तुम्हें मेरी बातें बहुत हल्की लगी थीं। तुम बड़ी देर तक हंसते रहे मेरी बातों के हल्केपन पर और मैं बहुत देर तक रोती रही तुम्हारे हल्केपन पर। दरअसल तुम एक चलती-फिरती प्रयोगशाला थे।
सुनो! मुझे तुम्हारे सभी प्रयोगों से कोई मतलब नहीं था। मेरे लिए इन टेस्टों की रिपोट्र्स का भी कोई मतलब नहीं था। तुम रखो उन्हें अपने पास। भविष्य में ये बहुत काम आने वाली है। इनकी सहायता से तुम एक अच्छे दार्शनिक, एक कुशल मनोवैज्ञानिक बन सकते हो।
मुझे समझने में अपना वक्त बर्बाद मत करो, मेरी हंसी स्वांग है या सच्ची। मेरा प्रेम मौलिक है या बनावटी, मेरी उदारता पाखंड है या सहज।
इन प्रश्नों में क्यों उलझते हो? इनके उत्तर तो तुम्हारे भीतर से ही आयेंगे एक बार खुद के भीतर झांको तो सही। खुद से पूछो तो सही किसकी प्यास है तुम्हें किसकी तलाश है। वह कौन है जो दिन-रात तुम्हारे ज़ेहन में चलता है। तुम तो खुशबुओं के ज्ञानी हो न। फिर कहाँ है तुम्हारी वह खुशबू जो तुम्हें भटकाती है। कौन है जो तुम्हारे साथ होकर भी नहीं होता, लेकिन कब नहीं होता।
कौन है जो तुम्हारे ठुकराने पर, अस्वीकार किये जाने पर भी तुम्हें छोड़ कभी नहीं जाता। तुम घर से निकलते हो वह अगले मोड़ पर खड़ा मिल जाता है तुम अनदेखी करते हो। वह खामोशी से तुम्हारे पीछे चलने लगता है। तुम थक के सुस्ताते हो, वह तुम्हारे कदमों के पास ही सो जाता है। तुम जब सो जाते हो बेखबर होकर, वह चौकस होकर पहरा देता है। तुम्हारी अलाएं-बलाएँ सब अपने सर ले लेता है।
दुनिया से लड़-झगड़ के जब तुम बहुत अकेले हो जाते हो वह तुम्हें गले लगा लेता है, बिना किसी शिकायत के.
देखो तो ज़रा तुम इन दिनों किसके घेरे में हो? कोई एक घेरा है जिसके भीतर तुम हो इन दिनों। हो न? न-न छूने से नहीं दिखेगा। बस तुम्हें आंखें बंद करके महसूसना होगा। एक बिजली-सी दौड़ती है, तुम्हारे चारों तरफ चमकती-सी.
देखो...रुको... तुम फिर गलती कर रहे हो, तुमने फिर दस्ताने पहन लिए और झोले में से टेस्टर निकाल लिया बिजली जांचने के लिए ...उफ्फ।