संन्यास के उपरांत / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
जहाँ तक मुझे स्मरण है, मेरे संन्यास की बात पं. हरिनारायण पांडे के अलावे और किसी को पहले मालूम न थी। मगर गाजीपुर से हटते ही सनसनी मची और अगर मैं भूल नहीं करता हूँ तो मैंने संन्यासी होते ही घरवालों को एक पत्र भी लिख दिया कि अब मेरी आशा छोड़ दें। फिर क्या था, उन पर तो वज्र ही गिरा। किन-किन आशाओं से और मनोरथों को ले कर उन लोगों ने मुझे पढ़ाया था। घर-गिरस्ती के काम से मुझे बचपन से ही अलग रखा और मैं उन मामलों में अनभिज्ञ ही रहा।वे समझते थे, लड़का होनहार है, पढ़-लिख के कुछ अच्छा धन और यश कमाएगा और उनके कष्ट और आर्थिक संकट दूर करेगा। लेकिन एकाएक सभी चीजें खत्म हो गईं, जैसे मनोराज्य और सपने की दुनियाँ की रही हो! पीछे मैंने जो कुछ देखा उससे तो यही पता लगा कि सभी लोग अर्ध्दमृत से हो गए और बेहोश थे। श्री हरिनारायण जी पर तो उनके गुस्से का ठिकाना न रहा। क्योंकि उनने जानते हुए भी न बताया यह उन लोगों की धारणा जबर्दस्त थी।
खैर, तो खबर पाते ही कुछ आदमियों के साथ मेरे चचेरे भाई साहब अपारनाथ मठ में आए। उनने बड़ा रोना-गाना फैलाया, तूफान किया और मुझे एक बार घर ले चलना चाहा, ताकि और सबों को समझा-बुझा कर आश्वासन तो दे दूँ। मगर मैं कब सुननेवाला था?फिर गुरु जी को उन लोगों ने जा पकड़ा और किसी प्रकार कह-सुन के उन्हें राजी किया कि एक-दो दिनों के ही लिए मुझे ग्राम पर जाने की अनुमति दे दें। वे राजी हो गए और मुझे कहा कि जाने में कोई हर्ज नहीं है, जाओ और सभी को ढाँढ़स और आश्वासन दे कर लौट आना। फिर तो मुझे तैयार होना ही पड़ा। फलत: उन लोगों के साथ रेल पर बैठ कर एक बार पुन: ग्राम पर पहुँचा। लेकिन वहाँ तो गजब का तूफान था। चारों ओर से रोना-धोना जारी था। अजीब समा थी, निराला वायुमंडल था। देख कर पत्थर भी पिघल जाता। मालूम होता था, घर, दीवार, पेड़, खेत, आदमी सभी रोते और करुणार्द्र थे। लेकिन सर्वोपरि दुखिया पिता जी और चाची जी यही दो थे। उनसे तो बातें करना असंभव था। यद्यपि वैराग्य से मेरा दिल लबालब होने के कारण मोहममता छोड़ बैठा था और सख्त हो गया था। फिर भी कुछ-न-कुछ असर उस अत्यंत करुण वायुमंडल का होके ही रहा।
और लोगों से तो प्रश्नोत्तर हुए ही और मैंने यथाशक्ति सभी को निरुत्तर किया। गाँव और आस-पास के भी लोगों की भीड़ थी और नातेदार एवं सगे-संबंधी भी हाजिर थे। सभी के साथ मेरे इस काम के औचित्य-अनौचित्य के संबंध में वाद-विवाद होता रहा। पं. हरिनारायण पांडे जी भी आए मगर एक तरफ चुपचाप बैठे रहे। केवल उन्हीं को कोई शोक न था और भीतर से वे संभवत: खुश भी थे। वह भी उत्तर-प्रत्युत्तर सुनते रहे। चाची के साथ जो बातचीत हुई उससे मैं उन्हें किसी भी प्रकार आश्वासन देने में आखिर तक असमर्थ ही रहा, मुझे यही लक्षित हुआ। असल में माँ से कम मेरा लाड़-प्यार उन्होंने नहीं किया था और बुढ़ापे में मुझसे सुख की बड़ी आशा उन्हें थी जो पूरी न हुई। स्त्री का दिल बहुत नरम भी होता है। परलोकवाली मेरी बात वह समझ न सकीं और रोती ही रह गईं। इसी दर्द में पीछे कुछ ही वर्षों में उनका देहांत भी हो गया ऐसा मुझे मालूम हुआ। हाँ, पिता जी को तत्काल मैं आश्वासन दे सका ऐसा भान मुझे हुआ। उन्होंने बुढ़ापे में खबर लेने के लिए जब सवाल किए तो मैंने उत्तर दिया कि कई भाई तो अभी मौजूद ही हैं और अगर मेरे साथ आप चलें तो मैं आपकी बराबर सेवा करूँगा। मैंने यह भी कहा कि तीन भाई आपके लिए इस दुनियाँ में फिक्र करेंगे और मुझे परलोक के लिए रखिए। आखिर वहाँ भी तो कोई चाहिए। इस पर उन्होंने पूछा कि क्या तुम्हारे इस सुकर्म का फल मुझे परलोक में मिलेगा? मैंने उत्तर दिया कि जरूर। बस, फिर वह चुप हो गए। इसी से मैंने अंदाज किया कि उन्हें आंशिक आश्वासन मिला। मगर वह भी शोक के मारे संग्रहणी से ग्रस्त हुए और पता लगा कि उसी से मरे भी। चाची और पिता दोनों ही पचास वर्ष से कम के शायद न थे और इस महान शोक ने उन्हें संभलने न दिया।
हाँ, इसी दर्म्यान में एक और बात हो गई। लोगों ने मंसूबा बाँध कि होशियार लोगों के द्वारा समझा-बुझा के किसी प्रकार मुझे फिर घर में रख लिया जाए और गैरिक वस्त्र उतार फेंकवाया जाए। इसी दृष्टि से एक खाकी जी, जो बड़े महात्मा, फलाहारी, प्रतापी, पूज्य और प्रवीण माने जाते और आस-पास में ही रहते थे, बुलाए गए। उन्होंने मुझसे बहुत दलीलें कीं भी। असल में वे तो निरे खा कर मानेवाले ही थे, पढ़े-लिखे तो थे नहीं, फलत: तर्क-दलीलों में मेरे सामने टिक न सके। अंत में उन्होंने गाँव-घर के लोगों को कह दिया कि इनको रोक रखने की कोई आशा नहीं। यह विचार आप लोग छोड़ दें। यह काफी सोच-समझ कर इसमें पड़े हैं। इसके बाद ही खाकी जी दिन में जब सोने चले तो मैंने पूछा कि ऐसा क्यों?उन्होंने कहा कि मैं तो रात में जगता और दिन में ही सोता हूँ, क्योंकि गीता में कहा हैं कि या निशा सर्व भूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने: इस पर मैंने उनसे कहा कि गीता का यह वचन इस मामूली नींद और दिन-रात के संबंध में न हो कर विवेकी और अविवेकी के व्यवहार और विचार के बारे में है। मैंने इसे सुरेश्वरवार्तिक के काकोलूक निशेवायं संसारोऽध्यात्मवेदिनो आदि से सिद्ध किया जिसमें गीता के इसी बचन का उल्लेख है। इसी पर खाकी जी चुप हो गए। इस प्रकार पहली बार मैंने देखा कि साधु-महात्मा कहे जानेवाले लोग किस प्रकार अर्थ का अनर्थ करते हैं। गीता के उस श्लोक की यह निराली और नई व्याख्या मैंने पहले पहल सुनी।
लेकिन इन सभी बातों का असर यह हुआ कि मेरा बेहद सख्त-दिल धीरे-धीरे द्रवीभूत हो चला और मुझे खतरा हुआ कि यदि अधिक दिन ठहरा तो दलीलों और तर्कों से जो बात न हो सकी वह अनायास ही इस करुणापूर्ण वायुमंडल से हो जाएगी। फलत: मैं इस माया-मोह में पड़ कर संन्यास को छोड़ यहीं रहने को लाचार हो जाऊँगा। सच कहिए तो मैं एकाएक दहल उठा और घबरा कर काशी फौरन ही रवाना हो गया। यदि लोगों को इसका पता लगता तो न जाने क्या होता?पर, मैंने बताया नहीं और देर हो रही हैं यही दलील दे कर चलता बना।
वायुमंडल का मनुष्य के दिल और दिमाग पर कैसा आश्चर्यजनक असर होता है। इसका प्रत्यक्ष अनुभव मुझे वहीं पहली बार हुआ। लोग कहा करते हैं मौन प्रार्थना और मूकवेदना की बात और साधु-फकीरों या बड़े लोगों के द्वारा होनेवाले जादू के जैसे प्रभाव की बात। पतंजलि ने योग सूत्रों में योगी के चमत्कार की अनेक बातें लिखी है। कहते हैं कि स्वामी विवेकानंद जैसे घोर नास्तिक और विलक्षण तार्किक के दिल को श्री रामकृष्ण परमहंस के एक साधारण वाक्य ने पलट दिया। असल में वाक्यों, दलीलों, या जादू-मंतर की कोई बात नहीं है। जो बात आप कहते हैं करना चाहते हैं उसे हृदय से कहिए, कीजिए। उसके बारे में ईमानदारी और पूरी सच्चाई से काम लीजिए। जरा भी दिखावटीपना न रहने दीजिए। बाहर और भीतर एक ही ढंग की बात रहे। फिर देखिए कि आप के चारों ओर एक बिजली का सा वायुमंडल पैदा हो जाता है या नहीं और उसका फौरन असर और लोगों पर पड़ता है या नहीं। जो परिस्थिति और जो वायुमंडल अकृत्रिम होगा, स्वाभाविक होगा वह बिजली का सा असर जरूर करेगा। इसीलिए नीतिकारों ने कहा है कि जो बात सोचो, वही बोलो और वही करो तो महात्मा हो गए और अगर इसमें गड़बड़ हो तो दुरात्मा।
"मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्। मनस्यन्य द्वचस्यन्यत्कर्मण्यन्यद्दुरात्मनाम्"।
मैं मन (दिमाग), वचन (जबान) और कर्म (काम) के साथ दिल को अपनी ओर से जोड़ देता हूँ। इन चारों में एक ही बात रहने पर─इनमें परस्पर सामंजस्य रहने और मतभेद न रहने पर─इन्सान में अभूतपूर्व शक्ति पैदा हो जाती है। मैंने उस समय से ले कर आज तक इस सिद्धांत को हजारों बार स्वयं अनुभव किया और ऐसा करने के फल को आजमा देखा है। मैं अंग्रेजी की सिन्सीयरिटी (Sincerity) और ऑनेस्टी (Honesty) में ही इन चारों का समावेश मानता हूँ।