संपद / अपूर्व भूयाँ
शाम से ही उमड़-घुमड़ रहे मेघों के बीच आसमान अचानक विदीर्ण हो गया। रह-रहकर कड़कती बिजली और उसके बाद गड़-गड़ करते आसमान ने धरती पर मूसलाधार बारिश की बौछार कर दी। मानो आसमान ने अपनी पूर्ण तृप्ति से बारिश की लम्बी अंगलीयों से धरती को दबोच लिया और कामना विह्वल मिट्टी के सीने पर मधुर प्रहार कर दिया हो।
बरलीया टापू पर बांस-बेंत से बनीं झोपड़ियाँ बारिश-हवा के झोंके से कांप उठीं। ब्रह्मपुत्र नदी के बनाए बरलीया टापू में ये गाँव नए सिरे से बसा है। ब्रह्मपुत्र के भू-कटाव से दक्षिण माजुली के कई गाँव पानी में विलीन हो चुके हैं। बेघर हुए इन गांवों के लोगों ने बरलीया टापू पर आकर शरण ली है। ब्रह्मपुत्र एक ओर जहाँ कटाव करता है तो दूसरी ओर ऐसे टीले-टापू बना बेघर लोगों को शरण लेने के लिए स्थान भी दे देता है। यहीं जिसे जैसे सूझा बांस-खेर का जुगाड़ कर बसेरा बसा लिया है।
बरलीया टापू पर बलोराम ने भी दो कमरों का एक घर तैयार किया है। बगल में ही एक छप्पर डालकर रसोई घर भी बना लिया है। रूपाली को जब अपने घर लाएगा चूल्हे-चौके की जगह चाहिए होगी, यही सोचकर उसने पहले से ही छप्पर डालकर रसोई घर की व्यवस्था कर ली है। वरना उसके जैसे निखट्टू का घर कैसा? जहाँ रात, वहीं आराम-ऐसा करते ही दिन बीत रहे थे। बचपन में ही अनाथ-बेघर हो चुके बलोराम और उसका बड़ा भाई कब-कैसे अपने दम पर खाने-कमाने लगे, उन्हें इसका पता ही नहीं चला। उनके पैतृक खेत-खलिहान, यहाँ तक कि घर भी ब्रह्मपुत्र की जलराशि की भेंट चढ़ गए। सुना है बलोराम से उम्र में कुछ बड़ा उसका भाई भागते-फिरते उत्तर के धेमाजी शहर की ओर कहीं जाकर बस गया है। विवाह कर गृहस्थ भी बन गया है। इसके बाद तो वह बलोराम की सुध लेना ही भूल गया। बलोराम भी कद काठी से बलिष्ठ युवा है। ब्रह्मपुत्र पर उसे क्रोध नहीं आता है और वह माथे पर हाथ धरे भी नहीं बैठना चाहता। इसलिए अपने बलबूते कमा-धमाकर दो जून की रोटी का जुगाड़ करने लायक बनते ही बलोराम के मन में भी अपना एक संसार बसाने का विचार हिलकोरे मारने लगा और तो और रहदै टापू की रहने वाली रूपाली को देखते ही उसके मन में संसार बसाने की चिंगारी तेजी से भड़क उठी। रूपाली से भी सार्थक संकेत पा बलोराम ने इस बोहाग में उसके जुड़े में कपौ फूल लगाने और अपने घर लाने का वादा किया। इसलिए बीस दिन अभी चैत बीता भी नहीं था कि बलोराम रूपाली को भगाकर अपने नए घर ले आया। घर की आपत्ति की वज़ह से नहीं, बल्कि रूपाली की दो बड़ी विवाह योग्य बहनों के कारण। वह रूपाली को विवाह मंडप से नहीं ला सकता था। यह सामर्थ्य बलोराम में नहीं था। उधर रूपाली का मन मयूर भी पंख फड़फड़ाने लगा था।
प्रबल हवा-बारिश में बलोराम की झोपड़ी भी कंपकंपा उठी। हर-हर हवा और बारिश का पानी झोपड़ियों की टांट से रिसता हुआ अंदर घुसने लगा। आसमान में रह-रहकर कड़कती बिजली से बलोराम की झोपड़ी चमक उठती। प्रकृति के तांडव से हर कोई भयभीत...गाय-भैंस, कीट-पतंग। हवा के झोकों से बीच-बीच में उनका आर्तनाद सुनाई दे पड़ता। खैर, प्रकृति के इस उन्मादना को जाँच-पड़ताल करने का अवकाश बलोराम-रूपाली के पास भी नहीं है। उनकी देह भी उन्मादित हो चुकी है। गुड़गुड़...गम-गम...टूटते आसमान जैसे चौबीस वर्षीय बलोराम और अठारह वर्षीय रूपाली की उन्मुक्त देह भी टूटने को बेचैन हैं। ज़मीन पर बारिश के कोमल प्रहार की तरह उनकी देह पर मधुर उत्तेजना का प्रहार हो रहा है। आघात-प्रतिघात की परितृप्ति में दोनों के कामोक्त शरीर भी प्रकृति की तरह उन्मादी हो गए। बसंत की पहली फुहार जिस तरह प्रकृति के रुखे हृदय में प्राणों का संचार कर देती है, उसी तरह बलोराम-रूपाली भी संसार के दुख-वेदना को प्रेम के प्रथम आलिंगन में भुला देना चाहते हैं। उनकी परितृप्ति के स्फूट-अस्फूट शब्द बारिश के झर-झर शब्दों के साथ उड़ने लगे। पूर्ण परितृप्ति के पश्चात दोनों शांत हो गए। हवा-बारिश भी तब तक थमने लगी थी। नदी से आता ठंडी हवा का झोंका सीधे झोपड़ी में दस्तक देता है। परंतु वह भी युवा देह की तपन को कम नहीं कर पा रहा है। इनके सामने है सिर्फ़ आने वाले दिनों के सपने।
कमरे के बीच में बिछाई बड़ी चटाई पर दोनों निढाल पड़ जाते हैं। बलोराम के सीने से चिपकी रूपाली अचानक सिसक पड़ती है। उसकी आंखों से टपकते आंसू बंदू के बूंद बलोराम से सीने से फिसल रहे हैं।
"" अरे! ये अचानक क्या हो गया? "-बलोराम चौंक उठता है।
कुछ पल मौन रहते रूपाली गर्म श्वांस छोड़ते कहती है, "" डर लग रहा है? "
"" अरे प्यारी डर काहे का हाँ, मैं हूँ न। "-बलोराम हिम्मत बंधाता है।
"" नहीं, ऐसे ही..."-रूपाली मुंह खोल कुछ नहीं कहना चाहती।
"" बताओ तो ऐसे क्यों रोने लगी। मेरे पास आकर तुम्हें अच्छा नहीं लग रहा क्या? तुमने ही तो जल्दीबाजी की न। " बलोराम उलाहना भाव से कहता है।
"" ऐसा नहीं है। तुम्हारे पास नहीं आती तो भला मैं कैसे रह पाती। दीदीओं ने हमारे बारे में सुनकर धमकी दी थी, कह रही थीं बिना घर-घरवाह के आदमी के यहाँ जाकर पछताओगी। वैसे माँ ने ऐसा कुछ नहीं कहा। पिताजी की मौत के बाद से ही माँ बड़ा कष्ट उठा रही है। भैया, भाभी को भगा लाए और अब चूल्हा-चौका अलग कर लिया है। हमारी देखभाल नहीं करते। माँ ही इस घर, उस घर काम कर हमें दो वक़्त खिलाती है। हमें तो कई बार भूखे पेट ही सोना पड़ता है। भागकर तुम्हारे पास आ मैंने अच्छा ही किया। माँ का बोझ तो हल्का हुआ। अच्छा बताओ, हमारा संसार कैसे चलेगा? सामान-वमान जैसा तुम्हारे घर में तो कुछ है नहीं। " रूपाली एक सांस में कह गई।
"" होगा, सब कुछ होगा। तुम्हें फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं। मैंने इंतज़ाम कर लिया है। अब भैंस के पीछे-पीछे घूमने से नहीं चलने वाला, मैं समझता हूँ। इसलिए टापू पर कुछ बीघा ज़मीन में उड़द-सरसों लगा दिया है। गोपाल, नरेश्वर भी मदद कर रहे हैं। सरकार के बाँध बनाने के काम पर कल से ही जाऊंगा। वैसे हरकांत महाजन भी मुझे नहीं छोड़ना चाहता। उनकी भैंसों को चराने के लिए गोपाल, खगेन, नरेश्वर तो हैं ही। लेकिन हाँ, गोना भैंसा को मेरे अलावा और कोई संभाल नहीं पाता। मैं ही उसकी पीठ पर चढ़कर नथ खींचता हूँ तो काबू में आता है। उसके बड़े-बड़े सींग देखकर दूसरों की क्या कहें, ख़ुद महाजन भी उसके पास जाने से डरता है। " गर्व के साथ बलोराम ने कहा।
"" तो फिर उसे क्यों पाल रखा है? बेच देने पर महाजन को अच्छा-खासा दाम मिल जाएगा। " रूपाली बोली।
"" इस्स, अरे यह गोना भैंसा ही महाजन की शान है। उसका अभिमान है। बेचेगा क्यों? इसके जैसा भैंसा पूरे इलाके में नहीं है। इस बार माघ के भैंसा युद्ध में तुमने उसका प्रताप नहीं देखा क्या। एक-एक कर चार मस्तमौले भैसों को इसने पटकनी दे डाली। इस बार ही क्यों, हर वर्ष गोना के बहाने महाजन का सीना गर्व से फूल उठता है। मेरे लिए भी कम गर्व की बात नहीं है। आस-पास के बथानों में भैंसों को गाभिन करने के लिए इस गोना भैंसा कि ही मांग रहती है। " बलोराम ने कहा।
"" अच्छा, ऐसा है क्या? तुम भी गोना भैंसा जैसे हो। मेरी क्या हालत बना डाली...तुमने। " रूपाली ने छेड़ते हुए कहा।
बलोराम गंभीर हो उठता है। वह रूपाली से कहता है, "" जानती हो, कल मैंने महाजन से कह दिया कि उसके भैंसे की देखभाल अब और मैं नहीं कर सकता। हरकांत महाजन की दबंगई के बारे में इलाके के सब लोग जानते हैं। घर में एक सुंदर पत्नी है, बेटा-बेटी हैं, फिर भी महाजन ने रहदै टापू के नवीन मास्टर की विधवा से दूसरी शादी कर ली। मास्टर के ज़िंदा रहते ही ये सब चल रहा था। लोगों की कानाफूसी करने से क्या होता है? आफत-विपद में तो महाजन के सामने ही हाथ फ़ैलाना पड़ता है। अत: मुंह खोलकर कोई कुछ नहीं कह सकता। फिर भी मैंने महाजन को साफ-साफ कह दिया मैं सरकारी काम करूंगा, डर-सहमकर मैं उनकी बेगारी नहीं कर सकता। इस पर उसने कहा है कि वह मुझे देख लेगा। यानी फिर उसके पैरों में ही गिरना पड़ेगा। धत् तेरे कि...बलो को इतना कमजोर समझा है...सा...ल्ला... कहीं का। "
"" लेकिन सरकारी काम के बारे में तुमने तो मुझे बताया ही नहीं। " रूपाली ने शिकायती लहजे में कहा।
"" वो उस निमाटी घाट की ओर ब्रह्मपुत्र के बाँध का काम निकला है, वहीं जाकर काम करना है। सरकारी कार्ड दिया है, क्या कहते हैं मनरेगा या ऐसा ही कुछ। रूपेश्वर मास्टर के बड़े बेटे ने मेरा जुगाड़ लगाया है। वह पॉलिटिकल पार्टी का आदमी है। जानती हो, कल सवेरे ही जाकर मुझे वहाँ हाज़िर होना है। " बलोराम ने बताया।
"" इस बारिश में बाँध बनाने का काम? सूखे के समय कहाँ मर गई थी सरकार। लोग कहते हैं बारिश में बाँध बनाने का काम अच्छा नहीं होता है। इसका मतलब इस बार भी बाढ़ बाँध ढाहेगी, हमारा घर-बार बहा ले जाएगी। " रूपाली ने किसी बुद्धिजीवी की तरह कहा।
"" छोड़ो भी वह सब। सरकार क्या करती है, करती रहे। मुझे काम मिला है, यही बड़ी बात है। अब सो जाओ। "
बलोराम ने करवट बदली। रूपाली काफ़ी देर तक अपने भविष्य के सपने बुनती रही। उसकी आंखों में नींद कब कैसे उतर आई, उसे पता ही नहीं चला। भोर में बलोराम के झकझोरने पर वह जगी। अब तक बलोराम नहा-धोकर पुरानी पैंट और कमीज पहन चुका था। काम पर जाते वक़्त अच्छे कपड़े नहीं पहनना ही ठीक रहता है। हाँ, शादी के लिए बुधवारी हाट से खरीद कर लाया एक जोड़ा अच्छा पैंट-शर्ट उसके पास है। हाट से ही रूपाली के लिए दो जोड़ा मेखेला-चादर खरीदा था। सिंदूर की डिबिया, सुंगधित तेल की एक शीशी खरीदने के लिए महाजन से रुपए लिए थे, जो अब ख़त्म हो चुके थे। बचत के नाम पर उसके पास कुछ नहीं था। बाद में लेने की सोचकर उसने कुछ रुपए महाजन के पास ही छोड़ रखे थे। बलोराम के पड़ोस के खगेन मास्टर की बेटी की कॉलेज पास करने के बाद डाकघर में नौकरी लग गई है। वही डाकघर में खाता खुलवाकर रुपए जमा करने के लिए बलोराम जैसों को कहती रहती है। बलोराम ने सोच रखा है सरकारी काम लगते ही वह खगेन मास्टर की बेटी के पास जाएगा। हाँ, बचत तो चाहिए ही।
बलोराम ने रूपाली से कहा, "" तुम जल्दी से नहा-धोकर मेरे लिए भात बना दो। नमक-मिर्च से ही खाकर निकल जाता हूँ। आज पहला काम पकड़ना है। बीस किलोमीटर दूर जाना है। बिहू से पहले ही कुछ रुपयों का जुगाड़ करना होगा। तुम्हारे घर भी तो एक बार जाना पड़ेगा है कि नहीं। खाली हाथ जाने से तो न होगा। "
रूपाली ने बड़े प्यार से भात परोसा। भात खाकर बलोराम जाने को तैयार। अभी तक सूरज नहीं निकला था। मौसम थोड़ा धूसर था, परंतु लग रहा था कि बस अब सूरज उगने ही वाला है। अपनी पुरानी साइकिल पर चढ़ते अचानक बलोराम पास खड़ी रूपाली का झट से एक चुंबन लेते कहता है, "" ठीक से रहना। शाम होने से पहले लौट आऊंगा। "
पास के मुंडेर पर बैठे कांव-कांव करते कौए को भगाते रूपाली कहती है, "" देखा न, क्या अपशुकन बोल रहा है। मैं आज देवी स्थान पर दीप जलाऊंगी। "
"" ठीक है जाना। पर किसी को साथ लेती जाना। अकेली मत जाना। "-बलोराम साइकिल पर चढ़ा।
बलोराम के घर लौटते शाम ढलने को थी। आते ही देखा कि द्वार पर बांस का फाटक आंगन में पड़ा है। नए रोपे गए केले-ताम्बुल के पौधों को लगता है गाय-भैंसों ने उजाड़ दिया क्या? क्या रूपाली नहीं देख सकती थी? रूपाली को पुकारते बलोराम दरवाजे को ठेलते कमरे में घुसता है। परंतु ये क्या?
"रूपाली, ये तुम्हें क्या हुआ' कहते बलोराम रूपाली के पास आकर ठिठक गया। अंधेरे के आगोश में समा रहे कमरे में बिखरे बाल, तर-बितर कपड़े...पागल की तरह रूपाली दीवार से सटी पड़ी है। बलोराम को देख रूपाली चीख पड़ी," "मेरे करीब मत आओ। कुत्ते ने मुझे छू लिया।" वह दीवार में सर पीटने लगी।
बलोराम के पैरों तले जैसे ज़मीन ही खिसक गई। जैसे एक प्रबल भूकंप से उसका पूरा शरीर कांप उठा। तुरंत ही वह उत्तेजित हो गया। चिल्लाते हुए कहा, "" कौन है वह साल्ला, मुझे उसका नाम बताओ। मैं उसके टुकड़े कर दूंगा। "
रोती-बिलखती रूपाली बोली, "" वह जानवर तुम्हारा हरकांत महाजन था। तुम्हारे उसके यहाँ नहीं जाने पर वह तुम्हें यहाँ ढूंढ़ते आया था। मुझे देखते ही वह और गुस्से में आ गया। मैंने बताया कि तुम सरकारी काम पर गए हो। शायद मेरे लिए ही तुमने महाजन का काम छोड़ दिया है...और वह मुझ पर टूट पड़ा। तब मैं देवी स्थान से घर पहुँची ही थी। उसने मुझे तार-तार...कर दिया। मैं मर जाऊंगी बलो। " रूपाली ज़मीन पर ढहती-ढिमलाने लगी।
बलोराम...मानो काटो तो खून नहीं। उसका मुखमंडल कठोर हो गया। दीवार में खोंसकर रखा दाव निकाल झट से कमरे से बाहर निकल गया। तभी बाहर अचानक बारिश की बूंदें पड़नी शुरू हो गईं। उभड़ता हुआ आसमान में अचानक मेघों का गर्जन। बाहर निकलते ही बलोराम ने द्वार पर रोपे केले के पौधे को दाव से एक ही बार में काट डाला। मानो उसने महाजन की गर्दन उड़ा दी हो। वह धड़धड़ाते सामने खेतों की ओर दौड़ने लगा। खेत के उस पार हरकांत महाजन का घर है। लगा बलोराम गोना भैंसे की तरह युद्ध के लिए तैयार है। रूपाली उसके पीछे-पीछे दौड़ रही है। उसकी देह से चादर फिसल चुकी है। दौड़ते-दौड़ते वह बलोराम को पीछे से अपने आगोश में ले लेती है। वह बिलखती कहती है, "" तुम महाजन के घर नहीं जा सकते। महाजन को मारने जा रहे हो, तुम ही कहीं मारे न जाओ। तुम्हें कुछ हो गया तो मैं कैसे जीऊंगी। अपने सपनों के बारे में सोचो जरा...धीरज रखो बलो। " बलोराम निस्तब्ध। मन मार के रह जाता है। उसके शिथिल हाथों से दाव ज़मीन पर गिर पड़ता है। वह मुड़कर रूपाली को अपनी बांहों में भर लेता है। मूसलाधार बारिश में तर-बतर होती रूपाली बलोराम के सीने से चिपक सुबकने लगती है। बलोराम की आंखें भी बरस पड़ती हैं। संध्या के धूसर उजाले में रूपहला पानी की लहरें खेत को डुबोने लगती हैं।