संभालिए, कहीं रिटाइर न हो जाये आज़ादी / अमित त्यागी
इलाही ख़ैर वो हरदम नई बेदाद करते हैँ
हमेँ तोहमत लगाते हैँ जो हम फरियाद करते हैँ
सितम ऐसा नहीँ देखा जफ़ा ऐसी नहीँ देखी
वो चुप रहने को कहते हैँ जब हम फरियाद करते हैँ
ये अशआर राम प्रसाद बिस्मिल के हैं जिनका नाम स्वयं हमें क्रांतिकारियों के सम्मान मे झुकने को विवश कर देता है। 2014 मे देश की आज़ादी को 67 साल पूरे हो रहे हैं। एक पूरी पीढ़ी इस दौरान परिवर्तित हो चुकी है। 1947 मे जन्मे व्यक्ति देश की तरक़्क़ी मे अपना योगदान देकर रिटाइर भी हो चुके हैं। आज़ादी के 50 साल बाद पैदा हुए भारतीय नागरिक भी एक साल बाद देश के वोटर बन जाएंगे। ऐसे मे हमें आज़ादी और क्रांतिकारियों की गाथाओं से प्रेरणा लेते हुए राष्ट्र नव निर्माण की तरफ बढ्ना चाहिए। भूतकाल से प्रेरित होते हुए एक नए विश्वगुरु भारत की रूपरेखा ही आज़ाद भारत की सर्वश्रेष्ठ तस्वीर का निर्माण करेगी। सर्वश्रेष्ठ का कोई विकल्प नहीं होता है। सर्वश्रेष्ठ एक ही हो सकता है और उसके लिए अपनी कमियों को दूर भी करना होगा और नया सृजन भी करना होगा।
केवल भूतकाल की उपलब्धियां गिनाने मात्र से नव सृजन संभव नहीं हो सकता। अक्सर ऐसा भी होता है कि जब व्यक्ति का वर्तमान अच्छा न हो और भविष्य में आशा की कोई किरण न हो तब भी वह अपने भूतकाल की उपलब्धियों को गिनाने लगता हैं। 15 अगस्त मनाने का एक पारंपरिक तरीका यह है कि हम शहीदो को याद करें । देशभक्ति के गाने गायें। तिरंगा फहरायें। मिठाई खायें और दोपहर 12 बजे तक अपने अपने घर जाये। फिर घर जाकर टीवी पर वही कुछ चुनिंदा फिल्मे देखें जो 15 अगस्त 26 जनवरी के लिए अनुबंधित सी लगती हैं। इस पूरी प्रक्रिया में सिर्फ भूतकाल का गुणगान होता है। स्वयं को प्रेरित करने के लिए और पूर्वजों की गौरव गाथा के द्वारा संबल प्राप्त करने मे ये प्रक्रिया मददगार है इसमे कोई संदेह नहीं है किन्तु हमारा योगदान देश इससे भी कुछ ज़्यादा मांग रहा है।
15 अगस्त हम सबके लिए आत्मचिंतन का दिवस है। यह वह दिन है जब हमें विचार करना चाहिए कि हम अपनी आने वाली पीढियों के लिए क्या छोडकर जायेंगें हमारे पूर्वजो ने जो त्याग किये उसने हमे आजादी मनाने का संयोग प्रदान किया। अब हमारी वर्तमान पीढ़ी के लोग जो विलक्षण कार्य करेंगें उस पर हमारी आने वाली पीढिया फक्र करेंगी। हमें गौर करना चाहिए कि अशफाक बिस्मिल बोस की अगुवाइ मे हमे जो आजादी मिली है कहीं हमने उसे कुछ क्षेत्रों मे धूधला तो नहीं कर लिया है। भ्रष्ट भारत का सपना तो आज़ाद भारत के दीवानों ने नहीं देखा था। इस संदर्भ मे एक बात जानना आवश्यक है कि 1947 मे में भारत आजा़द नही हुआ था। सिर्फ एक सरकार के द्वारा दूसरे के हाथ मे सत्ता का स्थानांतरण हुआ था। यही वजह कि आज के बहुत से कानून और व्यवस्था अंग्रेजी सभ्यता के ज्यादा करीब नज़र आते हैं। अंजाने मे ही सही कुछ ऐसे कार्य अभी भी सतत रूप से हो रहे है जिनके द्वारा शहीदों को पर्याप्त सम्मान नहीं मिल पाता है। जिन अंग्रेजो को भगाने मे बरसों लग गये उनके ही फोटो प्रमुख स्थानो पर आज भी सुशोभित है। मसलन ऐसे अनेक न्यायाधीश हैं जिनके चित्र हमारे न्यायालयों को सुशोभित कर रहे हैं।
कुछ नाम याद आ रहे हैं। जैसे जस्टिस डाबर जिन्होने लोकमान्य तिलक को 6 वर्ष के कारावास की सजा़ सुनायी क्योंकि तिलक ने केसरी नामक पत्र में अंग्रेंजों के विरूद्व लेख लिखा था। जिसमें उन्होने बंगाल के लोगों का समर्थन किया था। इसी प्रकार महात्मा गाधी 1923 तक बैरिस्टर मोहनदास करमचंद्र गाधी के नाम से जाने जाते थें। अंग्रेजी साम्राज्य के विरूद्व उनके अभियान को नियंत्रित करने के लिए उनके वकालत करने को प्रतिबंधित करते हुए उनका नाम बैरिस्टर सूची से हटा दिया गया। इस कार्य को अंजाम दिया था जज मेक्लोड एवं जस्टिस मुल्ला ने। अनजाने में ही सही जस्टिस डाबर, जज मेक्लोड एवं जस्टिस मुल्ला के चित्र मुंबई हाईकोर्ट को आज भी सुशोभित कर रहे है। व्हीलर्स के नाम से हर रेलवे स्टेशन पर बुक स्टाल है। यह वह व्हीलर हैं जिसने कानपुर के पास हजारों का नरसंहार करवाया था। इस प्रकार के उद्वारण हमें 15 अगस्त के दिन आत्मचिंत्न का एक विषय देते हुए एक एहसास भी दिलाते हैं कि देशहित मे हमें अभी भी काफी कुछ करना है। हम विकासशील से विकसित बनने जा रहे हैं। हमारी संस्कृति बेहद गौरवशाली है। नम्रता और शालीनता हमारी पहचान रही है। सर्वधर्म सम्भाव और मानवता को हमने उच्च आदर्शों के साथ रखा है।
अब आज़ाद भारत कि एक और तस्वीर एक कहानी के द्वारा देखते है। एक सज्जन व्यक्ति बड़े से शोरूम के बाहर से गुज़रा। वह शोरूम को अंदर से देखना चाहता था। उसने गेट पर बैठे एक चौकीदार से पूछा क्या मैं अंदर जा सकता हू। चौकीदार ने मना कर दिया। सज्जन व्यक्ति चुपचाप एक तरफ बैठ गया। तभी एक कूल डूड आया और सीधा अंदर चला गया। सज्जन व्यक्ति ने चौकीदार से पूछा। आपने उसको क्यों जाने दिया तो चौकीदार बोला उसने मुझसे पूछा ही कब था ?
अगर नियमों को मानने वालों की यह नियति होती है तो कहीं ना कही यह आज़ादी के दीवानों की विचारधारा पर चोट है। आज़ादी और क्रांतिकारियों के योगदान को समझने के लिए स्वयं से ईमानदारी आवश्यक है। सिर्फ ईमानदारी का आवरण नही। ईमानदारी किसी उच्च पद या पैसे की मोहताज नहीं होती है। वो तो व्यक्ति के अंदर स्वत: उपजी हुई एक विचारधारा है। आजादी का वास्तविक अर्थ समझने के लिए स्वयं से ईमानदारी और संवेदनशीलता महत्वपूर्ण तत्व है। इनको आचरण मे लाये बिना आज़ादी के मायने व्यर्थ है। अँग्रेजी मे एक कहावत है। “इट इज़ वेरी ईज़ी टू ओब्टेन, बट इट इज़ वेरी डिफिकल्ट टु मैंटेन”। ऐसा ही कुछ हमारी आज़ादी की विचारधारा के साथ भी है। हमें अब अपनी कोशिश से अपनी आज़ादी को रिटाइर होने से बचाना है । यहीं शहीदों को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। जय हिन्द।