संभोग से समाधि की ओर / ओशो / पृष्ठ 27

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यौन : जीवन का ऊर्जा-आयाम–1

इस लिए मैं तंत्र के पक्ष में हूं, त्‍याग के पक्ष में नहीं हूं। और मेरा मानना है जब तक धर्म दुनिया से समाप्‍त नहीं होते, तब तक दुनिया सुखी नहीं हो सकती। शांत नहीं हो सकती। सारे रोग की जड़ इनमें छिपी है।

तंत्र की दृष्‍टि बिलकुल उल्‍टी है। तंत्र कहता है कि अगर स्‍त्री पुरूष के बीच आकर्षण है तो इस आकर्षण को दिव्‍य बनाओ। इससे भागों मत, इसको पवित्र करो। अगर काम-वासना इतनी गहरी है तो उससे तुम भाग सकोगे भी नहीं। इस गहरी काम वासना को ही क्‍यों ने परमात्‍मा से जुड़ने का मार्ग बनाओ। और अगर सृष्‍टि काम से हो रही है तो परमात्‍मा को हम काम वासना से मुक्‍त नहीं कर सकते। नहीं तो कुछ तो कुछ होने का उपाय नहीं है।

अगर कहीं भी कोई शक्‍ति है इस जगत में तो उसका हमें किसी ने किसी रूप में काम वासना से संबंध जोड़ना ही पड़ेगा। नहीं तो इस सृष्‍टि के होने का कहीं कोई आधार नहीं रह जाता। इस सृष्‍टि में जो कुछ हो रहा है, वह किसी ने किसी रूप में परमात्‍मा से जुड़ा है। और हम आंखें खोलकर चारों तरफ देखें तो सारा काम को फैलाव है। आदमी है तो हम बेचैन हो जाते है—वे ऋषि मुनि भी। आदमी बेचैन हो जाता है, लेकिन उस तरफ उनको ख्‍याल में नहीं आता।

सुबह जब पक्षी गीत गा रहे है तो उनको लगता है कि बड़ी दिव्‍य बात हो रही है। लेकिन वह पक्षी जो पुकार लगा रहा है। वह सब काम-वासना है। और जब फूल खिलते है तो ऋषि की वाटिका में तो वह सोचता है बड़ी अदभुत बात है। और फूलों को जाकर भगवान को चढ़ा रहा है। लेकिन सब फूल काम वासना के रूप है। वे वीर्याणु है। उनमें….उनमें छिपा बीज है जन्‍म का। और फूलों पर तितलियां घूम कर उनके वीर्याणु को लेकिन दूसरे फूलों से जाकर मिला रही है। तो फूल देखकर तो ऋषि खुश होता है। यह उसके ख्‍याल में नहीं आ रह कि फूल जो है, वह काम वासना के रूप है। पक्षी का गीत सुनकर खुश होता है। मोर नाचता है तो खुश होता है। आदमी से क्‍या परेशानी है।

वह काम,लेकिन आदमी के काम से वह परिचित है वह उसकी खुद की पीड़ा है। बाकी पूरी प्रकृति काम का फैलाव है। यहां जो भी दिखाई पड़ रहा है। वह सबके भीतर काम छिपा हुआ है। सारा फैलाव सारा खेल उसका तो जो काम इतने गहरे में है। वह परमात्‍मा से जुड़ा होगा।

तंत्र कहता है: सबसे ज्‍यादा गहरी चीज काम वासना है, क्‍योंकि उससे ही जन्‍म होता है। उससे ही जीवन फैलता है। यहां जो भी दिखाई पड़ रहा है। वह सबके भीतर काम छिपा हुआ है। सारा फैलाव सारा खेल उसका, तो इस गहरे तंतु का हम उपयोग कर लें। इस तंतु से लड़े न, बल्‍कि इस तंतु को धारा बना लें, जिसमें हम बह जाएं।

और काम वासना को अगर कोई धारा बना ले, ध्‍यान बना ले, समाधि बना ले। तो दोहरे परिणाम होत है। वह जो ऋषि निरन्‍तर चाहता है—त्‍याग वादी—का छुटकारा हो जाय, वि भी हो जाता है। और दूसरा परिणाम यह होता है कि यह व्यक्ति काम—वासना से भी छूट जाता है। और काम वासना के कारण अहंकार से भी छूट जाता है।