संभोग से समाधि की ओर / ओशो / पृष्ठ 27-2
परमात्मा मेरे लिए प्रकृति में ही गहरे अनुभव का नाम है।
और जिस दिन वह अनुभव होने लगता है। उसी दिन ये सारे,जिनसे हम बचना चाहते थे, इनसे हम बच जाते है। पर बिना कोई चेष्टा किए। एक तो कच्चा फल है, जिसको कोई झटका देकर तोड़ ले। और एक पका हुआ फल है जो वृक्ष से गिर जाता है। न वह वृक्ष को खबर होती है कि वह कब गिर गया। न फल को खबर होती है। कब गिर गया। न फल को लगता है कि कोई बड़ा भारी प्रयासकरना पडा। न कहीं होता है। न कहीं कुछ होता है। यह सब चुपचाप हो जाता है।
तो जीवन के अनुभव से एक वैराग्य का जन्म होता है। जिसको मैं पका हुआ फल कहता हूं। और जीवन से लड़ने से एक वैराग्य का जन्म होता है। जिसको मैं कच्चा फल कहता हूं। सब तरफ घाव छूट जाते है, और उन घावों का भरना मुश्किल है। तो मैं तो कसी ऐसे शास्त्रों के पक्ष में नहीं हूं।
मेरा तो मानना यह है कि जो भी प्रकृति से उपलब्ध है समग्र सर्वांगीण स्वीकार।
और उसी स्वीकार से रूपांतरण है। और यही रूपांतरण गहरा हो सकता है। संघर्ष में मेरा भरोसा नहीं है। और इसी बात को में आस्तित्व कहता हूं। सब त्यागियों को मैं नास्तिक कहता हूं। क्योंकि परमात्मा की सृष्टि उन्हें स्वीकार नहीं। और जिनको परमात्मा की सृष्टि स्वीकार नहीं, वे परमात्मा भी उन्हें मिल जाएगा तो स्वीकार करेंगे। मैं नहीं मानता। अस्वीकृति की उनकी आदत इतनी गहरी है कि जब वे परमात्मा को भी देखेंगे तो हजार भूले निकाल लेंगे कि इसमे यह पाप है।
शोपहार ने कहीं कहा है कि हे परमात्मा, तू तो मुझे स्वीकार है, तेरी सृष्टि स्वीकार नहीं है। लेकिन इनको परमात्मा स्वीकार है तो उसकी सृष्टि अनिवार्य रूपेण स्वीकृति हो जाय। और अगर उसकी सृष्टि स्वीकार नहीं है, तो बहुत गहरे में हम उसे भी स्वीकार नहीं कर सकते। कैसे स्वीकार करेंगे। फिर या तो हम परमात्मा से ज्यादा समझदार हो गए है। उससे ऊपर अपने को रख लिया कि हम उसमें भी चुनाव करते है।
मेरा कोई चुनाव नहीं, मैं तो मानता हूं जो प्रकट है, वह अप्रकट का ही हिस्सा है। जो दिखाई पड़ रहा है। उसके पीछे ही अदृश्य छिपा हुआ हे। थोड़ी पर्त भीतर प्रवेश करने की जरूरत है। और प्रेम जितना गहरा जाता है। इस जगत में कोई और चीज इतनी गहरी नहीं जाती। मैं छुरा मार सकता हूं। आपकी छाती में,वह इतना गहरा जाएगा जितना मेरी प्रेम आपके भीतर गहरा जाएगा। प्रेम से गहरा तो कुछ भी नहीं जाता इसको भी जो छोड़ देता है वह उथला सतह पर रह जाता है। तो मेरे मन में तो ऐसे शास्त्र अनिष्ट है। और जितने शीध्र उनसे छुटकारा हो, उतना ही अच्छा है। और ऐसे ऋषि मुनियों की चिकित्सा……मानसिक रोग है इन्हें।