संभोग से समाधि की ओर / ओशो / पृष्ठ 28
एक कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा।
एक बहुत अद्भुत व्यक्ति हुआ है। उस व्यक्ति का नाम था नसीरुद्दीन एक दिन सांझ वह अपने घर से बाहर निकलता था मित्रों से मिलने के लिए। तभी द्वार पर एक बचपन का बिछुड़ा मित्र घोड़े से उतरा। बीस बरस बाद वह मित्र उससे मिलने आया था। लेकिन नसीरुद्दीन ने कहा कि तुम ठहरो घड़ी भर मैंने किसी को बचन दिया है। उनसे मिलकर अभी लौटकर आता हूं। दुर्भाग्य कि वर्षो बाद तुम आये हो और मुझे घर से अभी जाना पड़ रहा है।, लेकिन मैं जल्दी ही लौट आऊँगा।
उस मित्र ने कहां, तुम्हें छोड़ने का मेरा मन नहीं है, वर्षो बाद हम मिले है। उचित होगा कि मैं भी तुम्हारे साथ चलू। रास्ते में तुम्हें देखूँगा भी, तुमसे बात भी कर लुंगा। लेकिन मेरे सब कपड़े धूल में हो गये है। अच्छा होगा, यदि तुम्हारे पास दूसरे कपड़े हों तो मुझे दे दो।
वह फकीर कपड़े की एक जोड़ी जिसे बादशाह ने उसे भेट की थी—सुंदर कोट था, पगड़ी थी, जूते थे। वह अपने मित्र के लिए निकाल लाया। उसने उसे कभी पहना नहीं था। सोचा था; कभी जरूरत पड़ेगी तो पहनूंगा। फिर वह फकीर था। वे कपड़े बादशाही थे। हिम्मत भी उसकी पहनने की नहीं पड़ी थी। मित्र ने जल्दी से वे कपड़े पहन लिए। जब मित्र कपड़े पहन रहा था, तभी नसीरुद्दीन को लगा कि यह तो भूल हो गयी। इतने सुंदर कपड़े पहनकर वह मित्र तो एक सम्राट मालूम पड़ने लगा। और नसरूदीन उसके सामने एक फकीर, एक भिखारी मालूम पड़ने लगा। सोचा रास्ते पर लोग मित्र की तरफ ही देखेंगे,जिसके कपड़े अच्छे है। लोग तो सिर्फ कपड़ों की तरफ देखते है और तो कुछ दिखायी नहीं पड़ता है। जिनके घर ले जाऊँगा वह भी मित्र को ही देखेंगे, क्योंकि हमारी आंखे इतनी अंधी है। कि सिवाय कपड़ों के और कुछ भी नहीं देखती। उसके मन में बहुत पीड़ा होने लगी। कि यह कपड़े पहनाकर मैंने एक भूल कर ली।
लेकिन फिर उसे ख्याल आया कि मेरा प्यारा मित्र है, वर्षों बाद मिला है। क्या अपने कपड़े भी मैं उसको नहीं दे सकता। इतनी नीच इतनी क्षुद्र मेरी वृति है। क्या रखा है कपड़ों में। यही सब अपने को समझाता हुआ वह चला, रास्ते पर नजरें उसके मित्र के कपड़ों पर अटकी रही। जिसने भी देखा, वहीं गोर से देखने लगा। वह मित्र बड़ा सुंदर मालूम पड़ रहा था। जब भी कोई उसके मित्र को देखता, नसरूदीन के मन में चोट लगती कि कपड़े मेरे है और देखा मित्र जा रहा है। फिर अपने को समझाता कि कपड़े क्या किसी के होते है, में तो शरीर तक को अपना नहीं मानता तो कपड़े को अपना क्या मानना है, इसमें क्या हर्ज हो गया है।
समझाता-बुझाता अपने मित्र के घर पहुंचा। भीतर जाकर जैसे ही अन्दर गया, परिवार के लोगों की नजरें उसके मित्र के कपड़ों पर अटक गई। फिर उसे चोट लगी, ईर्ष्या मालूम हुई कि मेरे ही कपड़े और मैं ही उसके सामने दीन हीन लग रहा हूं। बड़ी भूल हो गई। फिर अपने को समझाया फिर अपने मन को दबाया।
घर के लोगों ने पूछा की ये कौन है, नसरूदीन ने परिचय दिया। कहा, मेरे मित्र है बचपन के बहुत अद्भुत व्यक्ति है। जमाल इनका नाम है। रह गये कपड़े, सो मेरे है।
घर के लोग बहुत हैरान हुए। मित्र भी हैरान हुआ। नसरूदीन भी कहकर हैरान हुआ। सोचा भी नहीं था कि ये शब्द मुहँ से निकल जायेंगे।
लेकिन जो दबाया जाता है, वह निकल जाता है। जो दबाओ, वह निकलता है; जो सप्रेम करो, वह प्रकट होगा। इसलिए भूल कर भी गलत चीज न दबाना। अन्यथा सारा जीवन गलत चीज की अभिव्यक्ति बन जाता है।
वह बहुत घबरा गया। सोचा भी नहीं था कि ऐसा मुंह से निकल जाएगा। मित्र भी बहुत हतप्रभ रह गया। घर के लोग भी सोचने लगे। यह क्या बात कही। बाहर निकल कर मित्र ने कहा, अब मैं तुम्हारे साथ दूसरे घर न जाऊँगा। यह तुमने क्या बात कहीं।
नसरूदीन की आंखों में आंसू आ गये। क्षमा मांगने लगा। कहने लगा भूल हो गई। जबान पलट गई। लेकिन जबान कभी नहीं पलटती है।
ध्यान रखना, जो भी तर दबा हो वह कभी भी जबान से निकल जाता है। जबान पलटती कभी नहीं।
तो वह कहने लगा क्षमा कर दो, अब ऐसी भूल न होगी। कपड़े में क्या रखा है। लेकिन कैसे निकल गई ये बात,मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि कपड़े किसके है।
लेकिन आदमी वहीं नहीं कहता, जो सोचता है, कहता कुछ और है सोचता कुछ और है।
कहता था मैंने तो कुछ सोचा भी नहीं, कपड़े का तो मुझ ख्याल भी नहीं आया। यह बात कैसे निकल गई। जब कि घर से चलने में और घर तक आने में सिवाय कपड़े के उसको कुछ भी ख्याल नहीं आया था।
आदमी बहुत बेईमान हे। जो उसके भीतर ख्याल आता है। कभी कहता भी नहीं। और जो बहार बताता है, वह भीतर बिलकुल नहीं होता है। आदमी सरासर झूठ है।
मित्र ने कहां—मैं चलता हूं तुम्हारे साथ लेकिन अब कपड़े की बात न उठाना। नसरूदीन ने कहा, कपड़े तुम्हारे ही हो गये। अब मैं वापस पहनूंगा भी नहीं। कपड़े में क्या रखा है।
कह तो वह रहा था कि कपड़े में क्या रखा है, लेकिन दिखाई पड़ रहा था कि कपड़े में ही सब कुछ रखा है। वे कपड़े बहुत सुंदर थे। वे मित्र बहुत अद्भुत मालूम पड़ रहा था। फिर चले रास्ते पर। और नसरूदीन फिर अपने को समझाने लगा की कपड़े दे ही दूँगा मित्र को। लेकिन जितना समझता था, उतना ही मन कहता था कि एक बार भी तो पहने नहीं। दूसरे घर तक पहुंचे,संभलकर संयम से।
संयमी आदमी हमेशा खतरनाक होता हे। क्योंकि संयमी का मतलब होता है कि उसने कुछ भीतर दबा रखा है। सच्चा आदमी सिर्फ सच्चा आदमी होता है। उसके भीतर कुछ भी दबा नहीं रहता है। संयमी आदमी के भीतर हमेशा कुछ दबा होता है। जो ऊपर से दिखाई देता है। ठीक उलटा उसके भीतर दिखाई दबा होता है। उसी को दबाने की कोशिश में वह संयमी हो जाता है। संयमी के भीतर हमेशा बारूद है, जिसमें कभी भी आग लग जाये तो बहुत खतरनाक है। और चौबीस घंटे दबाना पड़ता है उसे, जो दबाया गया है। उसे एक क्षण को भी फुरसत दी, छुट्टी की वह बहार आ जायेगा। इस लिए संयमी आदमी को अवकाश कभी नहीं होता। चौबीस घंटे जब तक जागता है। नींद में बहुत गड़बड़ हो जाती हे। सपने में सब बदल जाता है। और जिसको दबाया है वह नींद में प्रकट होने लगता है। क्योंकि नींद में संयम नहीं चलता। इसीलिए संयमी आदमी नींद में डरता है। आपको पता है, संयमी आदमी कहता है क्या सोना। इसके अलावा उसका कोई कारण नहीं है। नींद तो परमात्मा का अद्भुत आशीर्वाद है। लेकिन संयमी आदमी नींद से डरता है। क्योंकि जो दबाया है, वह नींद में धक्के मारता है। सपने बनकर आता है।
किसी तरह संयम साधना करके, बेचारा नसरूदीन उसी दूसरे मित्र के घर में घूसा। दबाये हुए मन को। सोच रहा है कि कपड़े मेरे नहीं है। मित्र के ही है। लेकिन जितना वह कह रहा है कि मेरे नहीं है, मित्र के ही है। उतने ही कपड़े उसे अपने मालुम पड़ रहे है।
इनकार बुलावा है। मन में भीतर ‘ना’ का मतलब है, ‘हां’ होता है। जिस बात को तुमने कहा ‘नहीं’ मन कहेगा हां यही।
मन कहने लगा कौन कहता है, कौन कहता है कि कपड़े मेरे नहीं है? और नसरूदीन की ऊपर की बुद्धि समझाने लगी कि नहीं, कपड़े तो मैंने दे दिये मित्र को। जब वे भीतर घर में गये, तब नसरूदीन को देखकर कोई समझ भी नहीं सकता था। वह भीतर कपड़े से लड़ रहा है। घर में मित्र मौजूद था, उसकी सुंदर पत्नी मिली। उसकी आंखें एक दम अटक गई मित्र के उपर। नसरूदीन को फिर धक्का लगा। उस सुंदर स्त्री ने उसे भी कभी इतने प्यार से नहीं देखा था। पूछने लगी ये कौन है, कभी देखा नहीं इन्हें। नसरूदीन ने सोचा, इस दुष्ट को कहां से साथ ले आया। जो देखो इसको देखता है। और पुरूषों के देखने तक तो गनीमत थी। लेकिन सुंदर स्त्रियां भी उसी को देख रही है। फिर तो और भी अधिक मुसीबत हो गई नसरूदीन के मन में। प्रकट में कहा, मेरे मित्र है, बचपन के साथी है। बहुत अच्छे आदमी है। रह गये कपड़े सो उन्हीं के है, मेरे नहीं है।
लेकिन कपड़े उन्हीं के थे तो कहने की जरूरत क्या थी। कह गया तब पता चला कि भूल हो गई।
भूल का नियम है कि वह हमेशा अतियों पर होती है। एक्सट्रीम से बचो तो दूसरे एक्सट्रीम पर हो जाती है। भूल घड़ी के पैंडुलम की तरह चलती है। एक कोने से दूसरे कोने पर जाती है। बीच में नहीं रुकती। भोग से जायेगी तो एकदम त्याग पर चली जायेगी। एक बेवकूफी से छूटी दूसरी बेवकूफी पर पहुंच जायेगी। जो ज्यादा भोजन से बचेगा, वह उपवास करेगा। और उपवास ज्यादा भोजन से भी बदतर हे। क्योंकि ज्यादा भोजन भी आदमी दो एक बार कर सकता है। लेकिन उपवास करने वाला आदमी दिन भर मन ही मन भोजन करता है। वह चौबीस घंटे भोजन करता रहता है।
एक भूल से आदमी का मन बचता है तो दूसरी भूल पर चला जाता है। अतियों पर वह डोलता है। एक भूल की थी कि कपड़े मेरे है। अब दूसरी भूल हो गई कि कपड़े उसी के है, तो साफ हो जाता है कि कपड़े उसके बिलकुल नहीं है।
और बड़े मजे की बात है कि जोर से हमें वही बात कहनी पड़ती है, जो सच्ची नहीं होती है। अगर तुम कहो कि मैं बहुत बहादुर आदमी हूं तो समझ लेना कि तुम पक्के नंबर के कायर हो।
अभी हिंदुस्तान पर चीन का हमला हुआ। सारे देश में कवि हो गये, जैसे बरसात में मेंढक पैदा हो जाते है। ‘हम सोये हुए शेर है, हमें मत छेड़ों।‘ कभी सोये हुए शेर ने कविता की है कि हमको मत छेड़ों, कभी सोये हुऐ शेर को छेड़ कर देखो तो पता चल जाएगा। कि छेड़ने का क्या मतलब होता है। लेकिन हमारा पूरा मुल्क कहने ला कि हम सोये हुऐ शेर है। हम ऐसा कर देंगे,वैसा कर देंगे। चीन लाखों मील दबा कर बैठ गया है और हमारे सोये शेर फिर से सो गये है। कविता बंद हो गई है। यह शेर होने का ख्याल शेरों को पैदा नहीं होता। वह कायरों को पैदा होता है। शेर-शेर होता है। चिल्ला चिल्लाकर कहने की उसे जरूरत नहीं होती।
कह तो दिया नसरूदीन ने कि कपड़े—कपड़े इन्हीं के है। लेकिन सुन कर वह स्त्री तो हैरान हुई। मित्र भी हैरान हुआ कि फिर वही बात।
बाहर निकल कर उसे मित्र ने कहा कि क्षमा करो, अब मैं लौट जाता हूं। गलती हो गई है कि तुम्हारे साथ आया। क्या तुम्हें कपड़े ही दिखाई पड़ रहे है।
नसरूदीन ने कहा, मैं खुद भी नहीं समझ पाता। आज तक जिंदगी में कपड़े मुझे दिखाई नहीं पड़े। यह पहला ही मौका है। क्या हो गया मुझे। मेरे दिमाग में क्या गड़बड़ हो गई। पहले एक भूल हो गई थी। अब उससे उलटी भूल हो गई। अब मैं कपड़ों की बात ही नहीं करूंगा। बस एक मित्र के घर और मिलना है फिर घर चल कर आराम से बैठे गे। और एक मौका मुझे दे दो। नहीं तो जिंदगी भी लिए अपराध मन में रहेगा कि मैंने मित्र के साथ कैसा दुर्व्यवहार किया।
मित्र साथ जाने को राज़ी हो गया। सोचा था अब और क्या करेगा भूल। बात तो खत्म हो ही गई हे। दो ही बातें हो सकती थी। और दोनों बातें हो गई है। लेकिन उसे पता न था भूल करने वाले बड़े इनवैटिव होते है। नयी भूल ईजाद कर लेते है। शायद आपको भी पता न हो।
वे तीसरे मित्र के घर गये। अब की बार तो नसरूदीन अपनी छाती को दबाये बैठा है कि कुछ भी हो जाये, लेकिन कपड़ों की बात न निकालूंगा।
जितने जोर से किसी चीज को दबाओ, उतने जोर से वह पैदा होनी शुरू होती है। किसी चीज को दबाना उसे शक्ति देने का दूसरा नाम है। दबाओ तो और शक्ति मिलती है उसे। जितने जोर से आप दबाते है उस जोर में जो ताकत आपकी लगती है वह उसी में चली जाती है। जिस को आप दबाते हो। ताकत मिल गई उसे।
अब वह दबा रहा है और पूरे वक्त पा रहा है कि मैं कमजोर पड़ता जा रहा हूं। कपड़े मजबूत होते जा रहे है। कपड़े जैसी फिजूल चीज भी इतनी मजबूत हो सकती है। कि नसरूदीन जैसा ताकतवर आदमी हारे जा रहा है उसके सामने। जो किसी चीज से न हारा था, आज उसे साधारण से कपड़े हराये डालते है। वह अपनी पूरी ताकत लगा रहा है। लेकिन उसे पता नहीं है कि पूरी ताकत हम उसके खिलाफ लगाते है, जिससे हम भयभीत हो जाते है। जिससे हार जाते है, उससे हम कभी नहीं जीत सकते।
ताकत से नहीं जीतना है, अभय से जीतना है, ‘फियरालेसनेस’ से जीतना है। बड़े से बड़ा ताकतवर हार जायेगा। अगर भीतर भय हो तो। ध्यान रहे हम दूसरे से कभी नहीं हारते, अपने ही भय से हारते है। कम से कम मानसिक जगत में तो यह पक्का है कि दूसरा हमें कभी नहीं हरा सकता,हम हमारा भय ही हराता है।
नसरूदीन जितना भयभीत हो रहा है, उतनी ही ताकत लगा रहा है। और वह जितनी ताकत लगा रहा है, उतना भयभीत हुआ जा रहा है। क्योंकि कपड़े छूटते ही नहीं। वे मन में बहुत चक्कर काट रहे है। तीसरे मकान के भीतर घुसा है। लगता है वह होश में नहीं है। बेहोश है। उसे न दीवालें दिख रही है, न घर के लोग दिखायी पड़ रहे हे। उसे केवल वहीं कोट पगड़ी दिखाई पड़ रही है। मित्र भी खो गया है। बस कपड़े है और वह हे। हालांकि ऊपर से किसी को पता नहीं चलता है। जिस घर में गया, फिर आँख टिक गयीं उसके मित्र के कपड़ों पर। पूछा गया ये कौन है? लेकिन नसरूदीन जैसे बुखार में है। वह होश में नहीं है।
दमन करने वाले लोग हमेशा बुखार में जीते है। कभी स्वस्थ नहीं होते। सप्रेशन जो है, वह मेंटल फिवर है। दमन जो है। वह मानसिक बुखार है।
दबा लिया है और बुखार पकड़ा हुआ है। हाथ पैर कांप रहे है उसके। वह अपने हाथ पैर रोकने की बेकार कोशिश कर रहा है। जितना रोकता है वह उतने कांपते जा रहे है। कौन है यह?….यह तो अब उसे खुद भी याद नहीं आ रहा है। कौन है यह, शायद कपड़े है, सिर्फ कपड़े। साफ मालूम पड़ रहा है। कि कपड़े है लेकिन यह कहना नहीं है। लगा जैसे बहुत मुश्किल में पड़ गया है। उसे याद नहीं आ रहा कि क्या कहना है। फिर बहुत मुश्किल से कहां मेरे बचपन का मित्र है, नाम है फला। और रह गये कपड़े, सो कपड़े की तो बात ही नहीं करना है। वे किसी के भी हो, उनकी बात नहीं उठानी है।
लेकिन बात उठ गई, जिसकी बात न उठानी हो उसी की बात ज्यादा उठती है।
ये छोटी सी कहानी क्यों कहीं मैंने? सेक्स की बात नहीं उठानी है और उसकी ही बात चौबीस घंटे उठती है। नहीं किसी से बात करना है जो फिर अपने से ही बात चलती है। न करें दूसरे से तो खुद ही करनी पड़ेगी बात अपने आप से। और दूसरे से बात करने में राहत भी मिल सकती है। खुद से बात करने में कोई राहत भी नहीं है। कोल्हू के बैल की तरह अपने भीतर ही घूमते रहो। सेक्स की बात नहीं करना है, उसकी बात ही नहीं उठानी है। मां अपनी बेटी के सामने नहीं उठाती। बेटा आपने बाप के सामने नहीं उठाता। मित्र-मित्र के सामने नहीं उठाते। क्योंकि उठानी ही नहीं है बात। जो उठाते है वे अशिष्ट है। जबकि चौबीस घंटे सबके मन में ही बात चलती है।
सेक्स उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि बात न उठाने से महत्वपूर्ण हो गया है। सेक्स उतना महत्वपूर्ण बिल्कुल नहीं है जितना कि हम समझ रहे है उसे।
लेकिन किसी भी व्यर्थ की बात को उठाना बंद कर दो उसे तो वह बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। इस दरवाजे पर एक तख्ती लगा दें कि यहां झांकना मना है। और यहां झांकना बड़ा महत्वपूर्ण हो जायेगा। फिर चाहे आपको यूनिवर्सिटी में कुछ भी हो रहा हो, भले ही आइंस्टीन गणित पर भाषण दे रहा हो। बह सब बेकार है, यह तख्ती महत्वपूर्ण हो जायेगी। यहीं झांकने को बार-बार मन करेगा। हर विद्यार्थी यहीं चक्कर लगाने लगेगा। लड़के जरा जोर से लगायेंगे, लड़कियां जरा धीरे से।
कोई बुनियादी फर्क नहीं है आदमी-आदमी में।
मन में भी होगा कि क्या है इस तख्ती के भीतर,यह तख्ती एकदम अर्थ ले लगी। हां कुछ जो अच्छे लड़के-लड़कियां नहीं है, वे आकर सीधा झांकने लगेंगे। वही बदनामी उठायेगे कि ये अच्छे लोग नहीं है। तख्ती जहां लगी थी कि नहीं झांकना है वहीं झांक रहे हे। जो भद्र जन है, सज्जन है, अच्छे घर के या इस तरह के वहम जिनके दिमाग में है, वह उधर से तिरछी आंखें किए हुए निकल जायेगे, और तिरछी आंखें से देखते ही रहेगें तख्ती को। और तिरछी आँख से जो चीज दिखाई पड़ती है, वह खतरनाक हो जाती है।
फिर पीडित जन जो वहां से तिरछी आंखें किए हुए निकल जायेंगे वह इसके बदला लेंगे। किससे, जो झांक रहे थे उनसे। गालियां देंगे उनको कि बुरे लोग है। अशिष्ट है, सज्जन नहीं है, साधु नहीं है। और इस तरह मन में सांत्वना कंसोलेशन जुटायेंगे कि हम अच्छे आदमी है, इसलिए हमने झाँकर नहीं देखा। लेकिन झाँकर देखना तो जरूर था, यह मन कहे चला जायेगा। फिर सांझ होते-होते अँधेरा घिरते-घिरते वे आयेंगे। क्लास में बैठकर पढ़ेंगे,तब भी तख्ती दिखाई पड़ेगी, किताब नहीं। लेबोरेटरी में ऐक्सपैरिमैंट करते होंगे और तख्ती बीच-बीच में आ जायेगी। सांझ तक वह आ जायेगी देखना। आना ही पड़ेगा