संभोग से समाधि की ओर / ओशो / पृष्ठ 3

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संभोग : परमात्‍मा की सृजन-ऊर्जा—(भाग–1)

मेरे प्रिय आत्‍मन,

प्रेम क्‍या है?

जीना और जानना तो आसान है, लेकिन कहना बहुत कठिन है। जैसे कोई मछली से पूछे कि सागर क्‍या है? तो मछली कह सकती है, यह है सागर, यह रहा चारों और , वही है। लेकिन कोई पूछे कि कहो क्‍या है, बताओ मत, तो बहुत कठिन हो जायेगा मछली को। आदमी के जीवन में जो भी श्रेष्‍ठ है, सुन्‍दर है, और सत्‍य है; उसे जिया जा सकता है, जाना जा सकता है। हुआ जा सकता है। लेकिन कहना बहुत कठिन बहुत मुश्‍किल है।/

और दुर्घटना और दुर्भाग्‍य यह है कि जिसमें जिया जाना चाहिए, जिसमें हुआ जाना चाहिए, उसके संबंध में मनुष्‍य जाति पाँच छह हजार साल से केवल बातें कर रही है। प्रेम की बात चल रही है, प्रेम के गीत गाये जा रहे है। प्रेम के भजन गाये जा रहे है। और प्रेम मनुष्‍य के जीवन में कोई स्‍थान नहीं है।

अगर आदमी के भीतर खोजने जायें तो प्रेम से ज्‍यादा असत्‍य शब्‍द दूसरा नहीं मिलेगा। और जिन लोगों ने प्रेम को असत्‍य सिद्ध कर दिया है और जिन्‍होंने प्रेम की समस्‍त धाराओं को अवरूद्ध कर दिया है…..ओर बड़ा दुर्भाग्‍य यह है कि लोग समझते है कि वे ही प्रेम के जन्‍मदाता है।

धर्म-प्रेम की बातें करता है, लेकिन आज तक जिस प्रकार का धर्म मनुष्‍य जाति के ऊपर दुर्भाग्‍य की भांति छाया हुआ है। उस धर्म ने मनुष्‍य के जीवन से प्रेम के सारे द्वार बंद कर दिये है। और न उस संबंध में पूरब और पश्‍चिम में फर्क है न हिन्‍दुस्‍तान और न अमरीका में कोई फर्क है।

मनुष्‍य के जीवन में प्रेम की धारा प्रकट ही पायी। और नहीं हो पायी तो हम दोष देते है कि मनुष्‍य ही बुरा है, इसलिए नहीं प्रकट हो पाया। हम दोष देते है कि यह मन ही जहर है, इसलिए प्रकट नहीं हो पायी। मन जहर नहीं है। और जो लोग मन को जहर कहते रहे है, उन्‍होंने ही प्रेम को जहरीला कर दिया,प्रेम को प्रकट नहीं होने दिया है।

मन जहर हो कैसे सकता है? इस जगत में कुछ भी जहर नहीं है। परमात्‍मा के इस सारे उपक्रम में कुछ भी विष नहीं है, सब अमृत है। लेकिन आदमी ने सारे अमृत को जहर कर लिया है और इस जहर करेने में शिक्षक, साधु, संत और तथाकथित धार्मिक लोगों का सबसे ज्‍यादा हाथ है।

इस बात को थोड़ा समझ लेना जरूरी है। क्‍योंकि अगर यह बात दिखाई न पड़े तो मनुष्‍य के जीवन में कभी भी प्रेम…भविष्‍य में भी नहीं हो सकेगा। क्‍योंकि जिन कारणों से प्रेम नहीं पैदा हो सका है, उन्‍ही कारणों को हम प्रेम प्रकट करने के आधार ओर कारण बना रहे है।

हालतें ऐसी है कि गलत सिद्धांतों को अगर हजार वर्षों तक दोहराया जाये तो फिर यह भूल ही जाते है कि सिद्धांत गलत है। और दिखाई पड़ने लगता है कि आदमी गलत है। क्‍योंकि वह उन सिद्धांतों को पूरा नहीं कर पा रहा है।

मैंने सुना है, एक सम्राट के महल के नीचे से एक पंखा बेचने वाला गुजरता था। और जोर से चिल्‍ला रहा था कि अनूठे और अद्भुत पंखे मैंने निर्मित किये है। ऐसे पंखे कभी नहीं बनाये गये। ये पंखे कभी देखे भी नहीं गये है। सम्राट ने खिड़की से झांक कर देखा कि कौन है। जो अनूठे पंखे ले आया है। सम्राट के पास सब तरह के पंखे थे—दुनिया के कोने-कोने में जो मिल सकते थे। और नीचे देखा, गलियारे में खड़ा हुआ एक आदमी है, साधारण दो-दो पैसे के पंखे होंगे और चिल्‍ला रहा है—अनूठे, अद्वितीय।

उस आदमी को ऊपर बुलाया गया और पूछा गया, इन पंखों में ऐसी क्‍या खूबी है? दाम क्‍या है इन पंखों के? उस पंखे वाले ने कहा कि महाराज, दाम ज्‍यादा नहीं है। पंखे को देखते हुए दाम कुछ भी नहीं है। सिर्फ सौ रूपये का पंखा है।

सम्राट ने कहा, सौ रूपये का, यह दो पैसे का पंखा, जो बजार में जगह-जगह मिलता है, और सौ रूपये दाम। क्‍या है इसकी खूबी?

उस आदमी ने कहां ये पंखा सौ वर्ष चलता है सौ वर्ष के लिए गारंटी है। सौ वर्ष से कम में खराब नहीं होता हे।

सम्राट ने कहा, इसको देख कर तो ऐसा नहीं लगता है, कि सप्‍ताह भी चल जाये पूरा तो मुश्‍किल है। धोखा देने की कोशिश कर रहे हो? सरासर बेईमानी और वह भी सम्राट के सामने।

उस आदमी ने कहा,आप मुझे भली भांति जानते है। इसी गलियारे में रोज पंखे बेचता हूं। सौ रूपये दाम है इसके और सौ वर्ष न चले तो जिम्‍मेदार मै हूं। रोज तो नीचे मौजूद होता हूं। फिर आप सम्राट है, आपको धोखा देकर जाऊँगा कहां?

वह पंखा खरीद लिया गया। सम्राट को विश्र्वास तो न था। लेकिन आश्‍चर्य भी था कि यह आदमी सरासर झूठ बोल रहा है, किस बल पर बोल रहा है। पंखा सौ रूपये में खरीद लिया गया और उससे कहा गया कि सातवें दिन तुम उपस्‍थित हो जाना।

दो चार दिन में पंखे की डंडी बहार निकल गई। सातवें दिन तो वह बिलकुल मुर्दा हो गया। लेकिन सम्राट ने सोचा शायद पंखे वाला आयेगा नहीं।

लेकिन ठीक सातवें दिन वह पंखे वाला हाजिर हो गया और उसने कहा: कहो महाराज, उन्‍होंने कहा: कहना नहीं है,यह पंखा पडा हुआ है टूटा हुआ। यह सात दिन में ही यह गति हो गयी। तुम कहते थे, सौ साल चलेगा। पागल हो या धोखेबाज? क्‍या हो?

उस आदमी ने कहा कि ‘मालूम होत है आपको पंखा झलना नहीं आता। पंखा तो सौ साल चलता ही। पंखा तो गारन्‍टीड है। आप पंखा झलते कैसे थे?

सम्राट ने कहा, और भी सुनो,अब मुझे यह भी सीखना पड़ेगा कि पंखा कैसे किया जाता है।

उस आदमी ने कहां की कृपा कर के बतलाईये की इस पंखे की ऐसी गति सात दिन में ऐसी कैसे बना दी आपने? किस भांति पंखा किया है?

सम्राट ने पंखा उठाकर करके दिखाया कि इस भांति मैंने पंखा किया है।

तो उस आदमी ने कहा कि समझ गया भूल। इस तरह नहीं किया जाता पंखा।

सम्राट ने कहा तो किस तरह किया जाता है। और क्‍या तरिका है पंखा झलने का?

उस आदमी ने कहां कि ‘पंखा पकड़ी ये सामने और सिर को हिलाइयें। पंखा सौ वर्ष चलेगा। आप समाप्‍त हो जायेंगे,लेकिन पंखा बचेगा। पंखा गलत नहीं है। आपके झलने का ढंग गलत है।

यह आदमी पैदा हुआ है—पाँच छह जार, दस हजार वर्ष की संस्‍कृति का यह आदमी फल है। लेकिन संस्कृति गलत नहीं है, यह आदमी गलत है। आदमी मरता जा रहा है रोज और संस्‍कृति की दुहाई चलती चली जाती है। कि महान संस्‍कृति महान धर्म, महान सब कुछ। और उसका यह फल है आदमी। और उसी संस्‍कृति से गुजरा है और परिणाम है उसका लेकिन नहीं आदमी गलत है और आदमी को बदलना चाहिए अपने को।

और कोई कहने की हिम्‍मत नहीं उठाता कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि दस हजार वर्षो में जो संस्‍कृति और धर्म आदमी को प्रेम से नहीं भर पाय, वह संस्‍कृति और धर्म गलत तो नहीं है। और अगर दस हजार वर्षों में आदमी प्रेम से नहीं भर पाया तो आगे कोई संभावना है, इस धर्म और इसी संस्‍कृति के आधार पर की आदमी कभी प्रेम से भा जाए?

दस हजार साल में जो नहीं हो पाय, वह आगे भी दस हजार वर्षों में होने वाला नहीं है। क्‍योंकि आदमी यही है, कल भी यही होगा आदमी हमेशा से यही है, और हमेशा यही होगा। और संस्‍कृति और धर्म जिनके हम नारे दिये चले जा रहे है, और संत और महात्‍मा जिनकी दुहाइयां दिये चले जा रहे है। सोचने के लिए भी तैयार नहीं है कि कहीं बुनियादी चिंतन की दिशा ही तो गलत नहीं है?

मैं कहना चाहता हूं कि वह गलत है। और गलत—सबूत है यह आदमी। और क्‍या सबूत होता है गलत का?

एक बीज को हम बोये और फल ज़हरीले और कड़वे हो तो क्‍या सिद्ध होता है? सिद्ध होता है कि वह बीज जहरीला और कड़वा रहा होगा। हालांकि बीज में पता लगाना मुश्‍किल है कि उससे जो फल पैदा होगें,वे कड़वे पैदा होंगे। बीज में कुछ खोजबीन नहीं की जा सकती। बीज को तोड़ो-फोड़ो कोई पता नहीं चल सकता है कि इससे जो फल पैदा होते होंगे। वे कड़वे होंगे। बीज को बोओ,सौ वर्ष लग जायेंगे—वृक्ष होगा, बड़ा होगा,आकाश में फैलेगा, तब फल आयेंगे और तब पता चलेगा कि वे कड़वे है।

दस हजार वर्ष में संस्‍कृति और धर्म के जो बीज बोये गये है, वह आदमी उसका फल है। और यह कड़वा है। और घृणा से भरा हुआ है। लेकिन उसी की दुहाई दिये चले जाते है हम और सोचते है उसमे प्रेम हो जायगा। मैं आपसे कहना चाहता हूं,उससे प्रेम नहीं हो सकता है। क्‍योंकि प्रेम के पैदा होने की जो बुनियादी संभावना है, धर्मों ने उसकी ही हत्‍या कर दी है। और उसमें जहर घोल दिया है।

मनुष्‍य से भी ज्‍यादा प्रेम पशु और पक्षियों और पौधों में दिखाई पड़ता है; जिनके पास न कोई संस्‍कृति है, न कोई धर्म है, संस्‍कृत और संस्‍कृति और सभ्‍य मनुष्‍यों की बजाय असभ्‍य और जंगल के आदमी में ज्‍यादा प्रेम दिखाई पड़ता है। जिसके पास न कोई विकसित धर्म है, न कोई सभ्‍यता है, न कोई संस्‍कृति है। जितना आदमी सभ्‍य, सुसंस्‍कृत और तथा कथित धर्मों के प्रभाव में मन्दिर ओर चर्च में पार्थना करने लगता है, उतना ही प्रेम से शून्‍य क्‍यों होता चला जाता है।

जरूर कुछ कारण है। और दो कारणों पर मैं विचार करना चाहता हूं। अगर वे ख्‍याल में आ जाएं तो प्रेम के अवरूद्ध स्‍त्रोत फूट सकते है। और प्रेम की गंगा बह सकती है। वह हर आदमी के भीतर है उसे कहीं से लाना नहीं है।

प्रेम कोई ऐसी बात नहीं है कि कहीं खोजने जाना है उसे। वह प्राणों की प्‍यास है प्रत्‍येक के भीतर, वह प्राणों की सुगंध है प्रत्‍येक के भीतर। लेकिन चारों तरफ परकोटा है उसके और वह प्रकट नहीं हो पाता। सब तरफ पत्‍थर की दीवाल है और वह झरने नहीं फूट पाते। तो प्रेम की खोज और प्रेम की साधना कोई पाजीटिव, कोई विधायक खोज और साधना नहीं है कि हम जायें और कही प्रेम सीख लें।

एक मूर्तिकार एक पत्‍थर को तोड़ रहा था। कोई देखने गया थ कि मूर्ति कैसे बनायी जाती है। उसने देखा कि मूर्ति तो बिलकुल नहीं बनायी जा रही है। सिर्फ छैनी और हथौड़े से पत्‍थर तोड़ा जा रहा था। उस आदमी ने पूछा ‘’यह क्‍या कर रहे हो, मूर्ति नहीं बनाओगे, मैं तो मूर्ति बनाते देखने के लिया आया था, आप तो केवल पत्‍थर तोड़ रहे है।‘’

और उस मूर्ति कार ने कहा कि मूर्ति तो पत्‍थर के भीतर छिपी है, उसे बनाने की जरूरत नहीं है, सिर्फ उसके ऊपर जो व्‍यर्थ पत्‍थर जुड़ा है उसे अलग कर देने की जरूरत है और मूर्ति प्रकट हो जायेगी। मूर्ति बनायी नही जाती है मूर्ति सिर्फ आविष्‍कृत होती है। डिस्क वर होती है। अनावृत होती है, उघाड़ी जाती है।

मनुष्‍य के भीतर प्रेम छिपा है, सिर्फ उघाड़ने की बात है। उसे पैदा करने का सवाल नहीं है। अनावृत करने की बात है। कुछ है, जो हमने ऊपर ओढा हुआ है। जो उसे प्रकट नहीं होने देता?

एक चिकित्‍सक से जाकर आप पूछे कि स्‍वास्‍थ क्‍या है? और दुनियां का कोई चिकित्‍सक नहीं बता सकता है कि स्‍वास्‍थ क्‍या है। बड़े आश्‍चर्य कि बात है। स्‍वास्‍थ पर ही तो सारा चिकित्‍सा शास्‍त्र खड़ा है। सारी मेडिकल साइंस खड़ी है। और कोई नहीं बात सकता है कि स्‍वास्‍थ क्‍या है। लेकिन चिकित्‍सक से पूछो कि स्‍वास्‍थ क्‍या है। तो वह कहेगा, बीमारियों के बाबत हम बात सकते है कि बीमारियां क्‍या है, उनके लक्षण हमें पता है। एक-एक बीमारी की अलग-अलग परिभाषा हमें पता है। स्‍वास्‍थ? स्‍वास्‍थ का हमें कोई भी पता नहीं है। इतना हम कहा सकते है कि जब कोई बीमारी नहीं होती है। वह स्‍वास्‍थ्‍य है। स्‍वास्‍थ्‍य तो मनुष्‍य के भीतर छिपा है। इसलिए मनुष्‍य की परिभाषा के बाहर है। बीमारी बहार से आती है। इसलिए बाहर से परिभाषा की जा सकती है। स्‍वास्‍थ्‍य भीतर से आता है। कोई भी परिभाषा नहीं की जा सकती है। इतना ही हम कह सकते है कि बीमारियों का अभाव स्‍वास्‍थ्‍य है। लेकिन यह क्‍या स्‍वास्‍थ्‍य कि परिभाषा हुई? स्‍वास्‍थ्‍य के संबंध में तो हमने कुछ भी नहीं कहा। कहा है बीमारियां नहीं है। तो बीमारियों के संबंध में कहा। सच यह है कि स्‍वास्‍थ्‍य पैदा नहीं करना होता हे। यह तो छिप जाता है बीमारियों में या हट जात है तो प्रकट हो जाता है। स्‍वास्‍थ्‍य हममें हे।

स्‍वास्‍थ्‍य हमारा स्‍वभाव है।

प्रेम हममें है, प्रेम हमारा स्‍वभाव है।

इसलिए यह बात गलत है कि मनुष्‍य को समझाया जाए कि तुम प्रेम पैदा करो। सोचना यह है कि प्रेम पैदा क्‍यों नहीं हो पा रहा है। क्‍या बाधा है, अड़चन क्‍या है, रूकावट कहां डाल दी गई है। अगर कोई भी रूकावट न हो तो प्रेम प्रगट होता ही, उसे सिखाने की और समझाने की कोई भी जरूरत नहीं है।

अगर मनुष्‍य के ऊपर गलत संस्‍कृति और गलत संस्‍कार की धाराएं और बाधाएं न हों, तो हर आदमी प्रेम को उपलब्‍ध होगा ही। यह अनिवार्यता है। प्रेम से कोई बच ही नहीं सकता। प्रेम स्‍वभाव है।

गंगा बहती है हिमालय से। बहेगी गंगा, उसके प्राण है। उसके पास जल है। वह बहेगी और सागर को खोज ही लेगी। न किसी पुलिस वाले से पूछेगी, न किसी पुरोहित से पूछेगी कि सागर कहां है। देखा किसी गंगा को चौरास्‍ते पर खड़े होकर पुलिस वाले से पूछते कि सागर कहां है? उसके प्राणों में ही छिपी है सागर की खोज। और ऊर्जा है तो पहाड़ तोड़गी, मैदान तोड़गी, और पहुंच जायेगी सागर तक। सागर कितना ही दूर हो, कितना ही छिपा हो, खोज ही लेगी। और कोई रास्‍ता नहीं है। कोई गाईड़ बुक नहीं है। कि जिससे पता लगा ले कि कहां से जान है। लेकिन पहुंच जाती है।

लेकिन बाँध बना दिये जाएं,चारों और परकोटे उठा दिये जाएं? प्रकृति की बाधाओं को तो तोड़कर गंगा सागर तक पहुंच जाती है। लेकिन आदमी की इंजीनियरिंग की बाधाएं खड़ी कर दी जाएं तो हो सकता है कि गंगा सागर तक न पहुंच पाए यह भेद समझ लेना जरूरी है।

प्रकृति की कोई भी बाधा असल में बाधा नहीं है, इसलिए गंगा सागर तक पहुंच जाती है। हिमालय को काटकर पहुंच जाती है। लेकिन अगर आदमी ईजाद करे,इंतजाम करे,तो गंगा को सागर तक नहीं भी पहुंचने दे सकता है।

प्रकृति को तो एक सहयोग है, प्रकृति तो एक हार्मनी हे। वहां जो बाधा भी दिखाई पड़ती है, वह भी शायद शक्‍ति को जगाने के लिए चुनौती है। वह जो विरोध भी दिखाई पड़ता है, वह भी शायद भीतर प्राणों में जो छिपा है, उसे प्रकट करने के लिए बुलावा है। वहां हम बीज को दबाते हैं जमीन में। दिखाई पड़ता है कि जमीन की एक पर्त बीज के ऊपर पड़ी है, बाधा दे रही है। अगर वह पर्त न हो ती तो बीज अंकुरित भी नहीं हो पाएगा। ऐसा दिखाई पड़ता है कि एक पर्त जमीन की बीज को नीचे दबा रही है। लेकिन वह पर्त दबा इसलिए रही है। ताकि बीज दबे, गले और टूट जाये और अंकुरित हो जाये। ऊपर से दिखायी पड़ता है कि वह जमीन बाधा दे रही है। लेकिन वह जमीन मित्र है और सहयोग कर रही है बीज को प्रकट करने में।

प्रकृति तो एक हार्मनी है, एक संगीत पूर्ण लयबद्धता है।