संभोग से समाधि की ओर / ओशो / पृष्ठ 31
मनुष्य की आत्मा, मनुष्य के प्राण निरंतर ही परमात्मा को पाने के लिए आतुर है। लेकिन किस मनुष्य को? कैसे परमात्मा को? उसका कोई अनुभव, उसका कोई आकार, उसकी कोई दिशा मनुष्य को ज्ञात नहीं है। सिर्फ एक छोटा सा अनुभव है, जो मनुष्य को ज्ञात है। और जो परमात्मा की झलक दे सकता है। वह अनुभव प्रेम का अनुभव है।
जिसके जीवन में प्रेम की कोई झलक नहीं है। उसके जीवन में परमात्मा के आने की कोई संभावना नहीं है।
न तो प्रार्थनाएं परमात्मा तक पहुंचा सकती है। न धर्म शास्त्र पहुंचा सकते है। न मंदिर मस्जिद पहुंचा सकते है। न कोई हिंदू और न मुसलमानों के, ईसाइयों के, पारसियों के संगठन पहुंचा सकते है।
मंदिर और मस्जिद तो प्रेम की ज्योति को बुझाने का काम करते है। जिन्हें हम धर्मगुरू कहते है। वे मनुष्य को मनुष्य से तोड़ने के लिए जहर फैलाते है। जिन्हें हम धर्मशास्त्र कहते है, वे घृणा और हिंसा के आधार और माध्यम बन गये है।
जो प्रेम परमात्मा तक पहुंचा सकता था, वह अत्यंत उपेक्षित होकर जीवन के रास्ते के किनारे अंधेरे में कहीं पडा रह गया। इसलिए पाँच हजार वर्षों से आदमी प्रार्थनाएं कर रहा है। भजन पूजन कर रहा है। मसजिदों और मंदिरों की मूर्तियों के सामने सिर टेक रहा है। लेकिन परमात्मा की कोई झलक मनुष्यता को उपलब्ध नहीं हो सकी। परमात्मा की कोई किरण मनुष्य के भीतर अवतरित नहीं हो सकी। कोरी प्रार्थनाएं हाथ में रह गयी है और आदमी रोज नीचे गिरता गया है। और रोज-रोज अंधेरे में भटकता गया है। आनंद के केवल सपने हाथ में रह गये है। सच्चाइयाँ अत्यंत दुःख पूर्ण होती चली गयी है। आज तो आदमी करीब-करीब ऐसी जगह खड़ा हो गया है, जहां उसे ख्याल भी लाना असंभव होता जा रहा है कि परमात्मा भी हो सकता है।
क्या आपने कभी सोचा है कि यह घटना कैसे घट गयी है? क्या नास्तिक इसके लिए जिम्मेदार है? या कि लोगों की आकांक्षाओं और अभीप्साएं परमात्मा की दिशा की तरफ जाना बंद हो गयी है। क्या वैज्ञानिक ओर भौतिकवादी लोगो ने परमात्मा के द्वार बंद कर दिये है?
नहीं परमात्मा के द्वार इसलिए बंद हो गये है कि परमात्मा का ही द्वार था—प्रेम और उस प्रेम की तरफ हमारा कोई ध्यान ही नहीं गया है। और भी अजीब और कठिन और आश्चर्य की बात यह हो गयी है कि तथाकथित धार्मिक लोगों ने मिल-जुलकर प्रेम की हत्या कर दी और मनुष्य को जीवन में इस भांति सुव्यवस्थित करने की कोशिश की गयी है कि उसमें प्रेम की किरण की संभावना ही न रह जाये।
प्रेम के अतिरिक्त मुझे कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ता है। जो प्रभु तक पहुंच सकता है। और इतने लोग जो वंचित हो गये है, प्रभु तक पहुंचने से वह इसीलिए कि वे प्रेम तक पहुंचने से ही वंचित रह रहे है।
समाज की पूरी व्यवस्था अप्रेम की व्यवस्था है। परिवार का पूरा का पूरा केंद्र…..अप्रेम केंद्र है। बच्चे के गर्भाधान, कंसेप्शन से लेकर उसकी मृत्यु तक सारी यात्रा अप्रेम की यात्रा है। और हम इसी समाज को इसी परिवार को इसी गृहस्थी को सम्मान दिये जाते है। अदब दिये जाते है। शोरगुल मचाये चले जाते है कि बड़ा पवित्र परिवार है, बड़ा पवित्र समाज है। बड़ा पवित्र जीवन है। यही परिवार और यही समाज और यही सभ्यता जिसके गुणगान करते हम थकते नहीं है। मनुष्य को प्रेम से रोकने का कारण बन रहा है।
इस बात को थोड़ा समझ लेना जरूरी होगा। मनुष्यता के विकास में कहीं कोई बुनियादी भूल हो गयी है। यह सवाल नहीं है कि एकाध आदमी ईश्वर को पा ले। कोई कृष्ण,कोई राम, कोई बुद्ध,कोई क्राइस्ट ईश्वर को उपलब्ध हो जाये। यह कोई सवाल नही है। अरबों-खरबों लोगों में अगर एक आदमी में ज्योति उतर भी आती हो तो यह कोई विचार करने की बात नहीं है। इसमें तो कोई हिसाब रखने की जरूरत भी नहीं है।
एक माली एक बग़ीचा लगाता है। उसने दस करोड़ पौधे उस बग़ीचे में लगाये है। और एक पौधे में एक अच्छा सा फूल आ जाये। तो माली की प्रशंसा करने कौन जायेगा। कौन कहेगा कि माली तू बहुत कुशल है। तूने जो बग़ीचा लगाया है। वह बहुत अद्भुत हे। देख दस करोड़ वृक्षों में एक फूल खिल गया है। हम कहेंगे यह माली की कुशलता का सबूत है। एक फूल खिल जाना।
माली की भूल चूक से खिल गया होगा। क्योंकि बाकी सारे पेड़ खबर दे रहे है कि माली में कितना कौशल है। यह फूल माली के बावजूद खिल गया होगा। माली ने कोशिश की होगी कि न खिल पाये; क्योंकि बाकी सारे पौधे तो खबर दे रहे हे कि माली के फूल कैसे खिले है।
खरबों लोगों के बीच कोई एकाध आदमी के जीवन में ज्योति जल जाती है। और हम उसी को शोरगुल मचाते रहते है हजारों सालों ते पूजा करते रहते है उसी के मंदिर बनाते रहते है। उसी का गुण गान करते रहते है। अब तक हम रामलीला कर रहे है। अब तक हम बुद्ध की जयंती मना रहे है। अब तक महावीर की पूजा कर रहे है। अब तक क्राइस्ट के सामने घुटने टेक रहे है। यह किस बात का सबूत है?
यह इस बात का सबूत है कि पाँच हजार साल में पाँच छह आदमियों के अतिरिक्त आदमियत के जीवन में परमात्मा का कोई संपर्क नहीं हो सकता है। नहीं तो कभी के हम भूल गये होते राम को कभी के भूल गये होत बुद्ध को, कभी के भूल गये होते महावीर को।
महावीर को हुए ढ़ाई हजार साल हो गये है। ढ़ाई हजार साल में कोई आदमी नहीं हुआ कि महावीर को हम भूल सकते। महावीर को याद रखना पडा। वह एक फूल खिला था, जिसे अब तक हमें याद रखना पड़ता है। यह कोई गौरव की बात नहीं है। कि हमें अब तक स्मृति है बुद्ध की, महावीर की, क्राइस्ट की, मुहम्मद की, या जरथुत्त्स की। यह इस बात का सबूत है कि और आदमी होते ही नहीं कि उनको हम भूल सकें। बस दो चार इने-गिने नाम अटके रह गये है मनुष्य जाति की स्मृति में।
और इन नामों के साथ हमने क्या किया। सिवाय उपद्रव के, हिंसा के। और उनकी पूजा करने वाले लोगों ने क्या किया है सिवाय आदमी के जीवन को नर्क बनाने के। मंदिरों और मसजिदों के पुजारी यों और पूजकों ने जमीन पर जितनी हत्याएँ की है। और जितना खून बहाया है। और जीवन का जीतना अहित किया है। उतना किसी ने कभी नहीं किया है। जरूर कहीं कोई बुनियादी भूल हो गयी है। नहीं तो इतने पौधे लगें और फूल न आयें। यह बड़े आश्चर्य की बात है। कहीं भूल जरूर हो गयी है।
मेरी दृष्टि में प्रेम अब तक मनुष्य के जीवन का केंद्र नहीं बनाया जा सका है। इसीलिए भूल हो गयी है। और प्रेम केंद्र बनेगा। भी नहीं। क्योंकि जिन चीजों के कारण प्रेम जीवन का केंद्र बन रहा है, हम उन्हीं चीजों का शोरगुल मचा रहे है। आदर कर रहे है। सम्मान कर रहे है, उन्हीं चीजों को बढ़ावा दे रहे है।
मनुष्य की जन्म से लेकिर मृत्यु तक की यात्रा की गलत हो गयी है। इसी पर पुनर्विचार करना चाहिए। अन्यथा सिर्फ हम कामनाए कर सकते है और कुछ भी उपलब्ध नहीं हो सकता है। क्या आपको कभी ये बात ख्याल में आयी है कि आपका परिवार प्रेम का शत्रु है? क्या कभी आपको यह बात ख्याल में आई है। कि आपका समाज प्रेम का शत्रु है। क्या कभी आपको यह बात ख्याल में आई है कि मनु से लेकर आज तक के सभी नीति कार प्रेम के विरोधी है।
जीवन का केंद्र है—परिवार। और परिवार विवाह पर खड़ा है। जबकि परिवार प्रेम पर खड़ा होना चाहिए था। भूल हो गयी है। आदमी के सारे पारिवारिक विकास की भूल हो गयी हे। परिवार निर्मित होना चाहिए प्रेम के केंद्र पर, किंतु परिवार निर्मित किया जाता है विवाह के केंद्र पर। इससे ज्यादा झूठी और मिथ्या बात नहीं हो सकती है।
प्रेम और विवाह का क्या संबंध है?
प्रेम से तो विवाह निकल सकता है, लेकिन विवाह से प्रेम नहीं निकलता और न ही निकल सकता है। इस बात को थोड़ा समझ लें तो हम आगे बढ़ सकें।
प्रेम परमात्मा की व्यवस्था है, और विवाह आदमी की व्यवस्था है।
विवाह सामाजिक संस्था है, प्रेम प्रकृति का दान है।
प्रेम तो प्राणों के किसी कोने में अनजाने पैदा होता है।
लेकिन विवाह? समाज, कानून नियमित करता है, स्थिर करता है, बनाता है।
विवाह आदमी की ईजाद है।
और प्रेम? प्रेम परमात्मा का दान है।
हमने सारे परिवार को विवाह का केंद्र पर खड़ा कर दिया है। प्रेम के केंद्र पर नहीं। हमने यह मान रखा है कि विवाह कर देने से दो व्यक्ति प्रेम की दुनिया में उतर जायेंगे। अद्भुत झूठी बात है, और पाँच हजार वर्षों में भी हमको इसका ख्याल नहीं आ सका हे। हम अद्भुत अंधे है। दो आदमियों के हाथ बाँध देने से प्रेम के पैदा हो जाने की कोई जरूरत नहीं है। कोई अनिवार्यता नहीं है। बल्कि सच्चाई यह है कि जो लोग बंधा हुआ अनुभव करते है, वे आपस में प्रेम कभी नहीं कर सकते।
प्रेम का जन्म होता है स्वतंत्रता में। प्रेम का जन्म होता है स्वतंत्रता की भूमि में—जहां कोई बंधन नहीं, कोई मजबूरी नहीं है।
किंतु हम अविवाहित स्त्री या पुरूष के मन में युवक ओर युवती के मन में उस प्रेम की पहली किरण का गला घोंटकर हत्या कर देते है। फिर हम कहते है कि विवाह से प्रेम पैदा होना चाहिए। वह बिलकुल पैदा किया, कलटिवेटेड होता है। कोशिश से लाया गया होता है। वह प्रेम वास्तविक नहीं होता, वह प्रेम सहज-स्फूर्त, स्पांटेनिअस, नहीं होता है। वह प्रेम प्राणों से सहज उठता नही है। फैलता नहीं है। जिसे हम विवाह से उत्पन्न प्रेम कहते है। वह प्रेम केवल सहवास के कारण पैदा हुआ मोह होता है। प्राणों की ललक और प्राणों का आकर्षण और प्राणों की विद्युत वहां अनुपस्थित होती है।
और इस तरह से परिवार बनता है। इस विवाह से पैदा हुआ परिवार और परिवार की पवित्रता की कथाओं का कोई हिसाब नहीं है। परिवार की प्रशंसाओं,स्तुतियों की कोई गणना नहीं है। और यहीं परिवार सबसे कुरूप संस्था साबित हुई है। पूरी मनुष्यजाति को विकृत करने में। प्रेम से शून्य परिवार मनुष्य को विकृति करने में, अधार्मिक करने में, हिंसक बनाने में सब से बड़ा संस्था साबित हुई है। प्रेम से शून्य परिवार से ज्यादा असुंदर और कुरूप,अगली कुछ भी नहीं है। और वही अधर्म का अड्डा बना हुआ है।
जब हम एक युवक और युवती को विवाह में बाँधते है बिना प्रेम के, बिना आंतरिक परिचय के, बिना एक दूसरे के प्राणों के संगीत के; तब हम केवल पंडित के मंत्रों में और वेदों की पूजा में और थोथे उपक्रम में उनको विवाह से बाँध देते है। फिर आशा करते है कि उनके जीवन में प्रेम पैदा हो जायेगा। प्रेम तो पैदा नही होता है, सिर्फ उनके संबंध कामुक सेक्सुअल होते है। क्योंकि प्रेम तो पैदा किया जा सकता है। प्रेम पैदा हो जाय तो व्यक्ति साथ जुडकर परिवार निर्माण कर सकता है। दो व्यक्तियों को परिवार के निर्माण के लिए जोड़ दिया जाये और फिर आशा की जाये कि प्रेम पैदा हो जाये, यह नहीं हो सकता।
जब प्रेम पैदा नहीं होता है, तो क्या परिणाम होते है, आपको पता है?
एक-एक परिवार में कलह है। जिसको हम गृहस्थी कहते है, वि संघर्ष, कलह, द्वेष, ईर्ष्या, और चौबीस घंटे उपद्रव का अड्डा बनी हुई है। लेकिन न मालूम हम कैसे अंधे है कि देखने की कोशिश भी नहीं करते। बाहर जब हम निकलते है तो मुस्कराते हुए निकलते है। घर के सब आंसू पोंछकर बाहर जाते है—पत्नी भी हंसती हुई मालूम पड़ती है। पति भी हंसता हुआ मालूम पड़ता है। ये चेहरे झूठे है। ये दूसरों को दिखाई पड़ने वाले चेहरे है। घर के भीतर के चेहरे बहुत आंसुओं से भरे हुए है। चौबीस घंटे कलह और संघर्ष में जीवन बीत रहा है। फिर इस कलह और संघर्ष के परिणाम भी होंगे ही।
प्रेम के अतिरिक्त जगत के किसी व्यक्ति के जीवन में आत्म तृप्ति नहीं उपलब्ध होती।