संभोग से समाधि की ओर / ओशो / पृष्ठ 36
और बहुत से अनजाने मानसिक दबाब भी है। गुरुत्वाकर्षण तो भौतिक दबाव हे; लेकिन चारों तरफ से लोगों की मोजूदगी भी हमको दबा रही है। वे भी हमें भीतर की तरफ प्रेस कर रहे है। सिर्फ उनकी मौजूदगी भी हमें परेशान किये हुए है। अगर यह भीड़ बढ़ती चली जाती है। तो एक सीमा पर पूरी मनुष्यता के ‘’न्यूरोटिक’’ विक्षिप्त हो जाने का डर है।
सच तो यह है कि आधुनिक मनोविज्ञान, मनोविश्लेषण यह कहता है कि जो लोग पागल हुए जा रहे है, उन पागल होने वालों में नब्बे प्रतिशत पागल ऐसे है जो भीड़ के दबाव को नहीं सह पा रहे है। दबाव चारों तरफ से बढ़ता चला जा रहा है। और भीतर दबाब को सहना मुश्किल हुआ जा रहा है। उनके मस्तिष्क की नसें फटी जा रही है। इसलिए बहुत गहरे में सवाल सिर्फ मनुष्य के शारीरिक बचाव का नहीं है। फिजिकल सरवाइवल का ही नहीं है। उसके आत्मिक बचाव का भी है।
जो लोग यह कहते है कि संतति नियमन जैसी चीजें अधार्मिक है। उन्हें धर्म का कोई पता नहीं है। क्योंकि धर्म का पहला सूत्र है कि व्यक्ति को व्यक्तित्व मिलना चाहिए। और व्यक्ति के पास एक आत्मा होनी चाहिए। व्यक्ति भीड़ का हिस्सा न रह जाये।
लेकिन जितनी भीड़ बढ़ेगी,उतना ही हम व्यक्तियों की फिक्र करने में असमर्थ हो जायेंगे। जितनी भीड़ ज्यादा हो जायेगी। उतनी हमें भीड़ की फिक्र नहीं करनी पड़ेगी। जितनी भीड़ ही हमें पूरे जगत की इकट्ठी फिक्र करनी पड़ेगी। फिर यह सवाल नहीं होगा की आपको कौन सा भोजन प्रीतिकर है, और कौन से कपड़े प्रीतिकर हे और कैसे मकान प्रीतिकर हे। तब ये सवाल नहीं है। कैसा मकान दिया जा सकता है भीड़ को, कैसे कपड़े दिये जा सकते है भीड़ को, कैसा भोजन दिया जो सकता है भीड़ को। यह सवाल होगा। तब व्यक्ति का सवाल विदा हो जाता हे और भीड़ के एक अंश की तरह आपको भोजन कपड़ा और अन्य सुविधाएं दी जा सकती है।
अभी एक मित्र जापान से लौटे है, वे कह रहे थे कि जापान में घरों की कितनी तकलीफ है। भीड़ बढ़ती चली जा रही है। एक नये तरह के पलंग उन्होंने ईजाद किये है। आज नहीं कल हमें भी ईजाद करने पड़ेंगे। वे मल्टी-स्टोरी पलंग है। रात आप अकेले सो भी नहीं सकते। सब खाटें एक साथ जुड़ी हुई है। एक के उपर एक। रात मैं जब आप सोते है, तो अपने नम्बर की खाट पर चढ़कर सो जाते है। आप सोने में भी भीड़ के बाहर नहीं रह सकते है। क्योंकि भीड़ बढ़ती चली जा रही है। वह रात आपके सोने के कमरे में भी मौजूद हो जायेगी। पर दस आदमी एक ही खाट पर सो रहे हो। तो वे घर कम रह गया,रेलवे कम्पार्टमेंट ज्यादा हो गया। रेलवे कम्पार्टमेंट में भी अभी ‘’टेन-टायर’’ नहीं है। लेकिन दस में भी मामला हल नहीं हो जायेगा।
अगर यह भीड़ बढ़ती जाती है तो यह सब तरफ व्यक्ति को एन्क्रोचमेंट करेगी। वह व्यक्ति को सब तरफ से घेरे गी सब तरफ से बंद करेगी। और हमें ऐसा कुछ कना पड़ेगा कि व्यक्ति धीरे-धीरे खोता ही चला जाये, उसकी चिंता ही बंद कर देनी पड़े।
मेरी दृष्टि में मनुष्य की संख्या का विस्फोट,जनसंख्या का विस्फोट बहुत गहरे अर्थों में धार्मिक सवाल है। सिर्फ भोजन का आर्थिक सवाल नहीं है।
जब परिस्थितियां बदल जाती है तब पुराने नियम विदा हो जाते है।
लेकिन, आज भी घर में एक बच्चा पैदा होता है, तो हम बैंड बाजा बजवाते है, शोरगुल करते है, प्रसाद बांटते है। पाँच हजार साल पहले बिलकुल ऐसी ही बात थी। क्योंकि पाँच हजार साल पहले दस बच्चे पैदा होते थे, तो सात और आठ मर जाते थे। और उस समय एक बच्चे का पैदा होना बड़ी घटना थी। समाज के लिए उसकी बड़ी जरूरत थी। क्योंकि समाज में बहुत थोड़े लोग थे। लोग ज्यादा होना चाहिए। नहीं तो पड़ोसी शत्रु के हमले में जीतना मुश्किल हो जायेगा। एक व्यक्ति का बढ़ जाना बढ़ी ताकत थी। क्योंकि व्यक्ति ही अकेली ताकत था। व्यक्ति से लड़ना था। पास के कबीले से हारना संभव हो जाता। अगर संख्या कम हो जाती है। तब संख्या को बढ़ाने की कोशिश करना जरूरी था। संख्या जितनी बढ़ जाये, उतना कबीला मजबूत हो जाता था। इसलिए संख्या का बड़ा होना महत्व पर्ण था।
लोग कहते थे कि हम इतनी करोड़ है। उसमें बड़ी अकड़ थी। उसमें बड़ा अहंकार था। लेकिन वक्त बदल गया है, हालत बदल गई है उलटी हो गई है। नियम पुराना चल रहा है। हालतें बिलकुल उल्टी हो गई है।
अब जो जितना ज्यादा संख्या में है। वह उतनी ही जल्दी मरने के उपाय में है। तब जो
जितनी ज्यादा संख्या में था। उतनी ज्यादा उसके जीतने की संभावना थी। आज संख्या जितनी
ज्यादा होगी,मृत्यु उतनी ही नजदीक हो जायेगी।
आज जनसंख्या का बढ़ना स्युसाइडल है, आत्मघाती है।
आज कोई समझदार मुल्क अपनी संख्या नहीं बढ़ा रहा है, बल्कि समझदार मुल्कों में संख्या गिरने तक की संभावना पैदा हो गयी है। जैसे फ्रांस की सरकार थोड़ी चिंतित हो गयी है क्योंकि कहीं ज्यादा न गिर जाए, यह डर भी पैदा हो गया है। लेकिन कोई समझदार मुल्क अपनी संख्या नहीं बढ़ा रहा।
संख्या के बढ़ने के पीछे कई कारण है। पहला कारण तो यह है कि यदि जीवन में सुख चाहिए तो न्यूनतम लोग होने चाहिए। अगर दीनता चाहिए, दु:ख चाहिए,गरीबी चाहिए, बीमारी चाहिए, पागलपन चाहिए तो अधिकतम लोग पैदा करना उचित है।
जब एक बाप अपने पांचवें बच्चे के बाद भी बच्चे पैदा कर रहा है तो वह बच्चे का बाप नहीं, दुश्मन है। क्योंकि वह उसे ऐसी दुनिया में धक्का दे रहा है, जहां वह सिर्फ गरीबी ही बांट सकेगा। वह बेटे के प्रति प्रेम पैदा करना अब प्रेम नहीं सिर्फ नासमझी है और दुश्मनी है।
आप दुनियां में समझदार मां-बाप हो सकते है, इस बात को सोचकर की आप कितने बच्चे पैदा करेंगे। आने वाली दुनिया में संख्या दुश्मन हो सकती है। कभी संख्या उसकी मित्र थी, कभी संख्या बढ़ने से सुख बढ़ता था, आज संख्या बढ़ने से दुःख बढ़ता है। स्थिति बिलकुल बदल गई है।
आज जिन लोगों को भी इस जगत में सुख की मंगल की कामना है, उन्हें यह फिक्र करनी ही पड़ेगी कि संख्या निरंतर कम होती चली जाए।
हम अपने को अभागा बना सकते है, हमें उसका कोई भी बोध नहीं, हमें उसका कोई भी खयाल नहीं।1947 में हिंदुस्तान पाकिस्तान का बंटवारा हुआ था। तब किसी ने सोचा भी न होगा कि बीस साल में पाकिस्तान में जितने लोग गये थे। हम उससे ज्यादा फिर पैदा कर लेंगे।
हमने एक पाकिस्तान फिर पैदा कर लिया है।
1947 में जितनी संख्या पूरे हिंदुस्तान और पाकिस्तान को मिलाकर थी, आज अकेले हिन्दुस्तान की उससे ज्यादा है। यह संख्या इतने अनुपात से बढ़ती चली जा रही है।
और फिर दुःख बढ़ रहा है। दरिद्रता बढ़ रही है, दीनता बढ़ रही है, बेकारी बढ़ रही है। तो हम परेशान होते है। उससे डरते है और हम कहते है कि बेकारी नहीं चाहिए, बीमारी नहीं चाहिए, हर आदमी को जीवन का सारा सुख सुविधाएं मिलनी चाहिए। और हम यह भी नहीं सोचते है कि जो हम कर रहे है उससे हर आदमी को जीवन की सारी सुविधाएं कभी भी नहीं मिल सकती। हमारे बेटे बेकार ही रहेंगे। भिखमंगी और गरीबी बढ़ेगी। लेकिन हमारे धर्म गुरु समझाते है कि यह ईश्वर का विरोध है, संतति नियमन की बात ईश्वर का विरोध है।
हां धर्म गुरु जरूर चाह सकते है। क्योंकि मजे की बात यह है कि दुनिया में जितना दुःख बढ़ता है, धर्म गुरूओं की दुकानें उतनी ही ठीक से चलती है। दुनिया में सुख की दुकानें नहीं है। धर्म की दुकानें के दुःख पर निर्भर करती है।
सुखी और आनंदित आदमी धर्म गुरु की तरफ नहीं जाता है। स्वस्थ और प्रसन्न आदमी धर्म गुरु की तरफ नहीं जाता है। दुःखी बीमार और परेशान व्यक्ति धर्म की तलाश करता है।
दुःखी और परेशान आदमी आत्मा विश्वास खो देता है। वह किसी का सहारा चाहता है। किसी धर्म गुरु के चरण चाहता है। किसी का हाथ चाहता है। किसी का मार्ग दर्शन चाहता है।
दुनिया में जब तक दुःख है, तभी तक धर्म गुरु टिक सकता है। धर्म तो टिकेगा सुखी हो जाने के बाद भी लेकिन धर्म गुरु के टिकने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए धर्म गुरु चाहेगा कि दुःख खत्म न हो जायें, दुःख समाप्त न हो जाये। उनके अजीब-अजीब धंधे है।
मैंने सुना एक रात एक होटल में बहुत देर तक कुछ मित्र आकर शराब पीते रहे, भोजन करते रहे। आधी रात जब वे विदा होने लगे तो मैनेजर ने अपनी पत्नी से कहा कि ऐसे भले प्यारे, दिल फेंक खर्च करने वाले लोग अगर रोज आयें तो हमारी जिंदगी में आनंद हो जायें। चलते वक्त मैनेजर ने उनसे कहा, ‘’आप जब कभी आया करें। बड़ी कृपा होगी। आप आये हम बड़े आनंदित हुए।‘’ जिस आदमी ने पैसे चुकाये थे, उसने कहा, भगवान से प्रार्थना करना कि हमारा धंधा ठीक चले हम रोज आते रहेंगे। मैनेजर ने पूछा,’’क्या धंधा करते है आप?
उसने कहा कि मैं मरघट में लकड़ी बेचने का काम करता हूं। हमारा धंधा रोज चलता रहे तो हम बारबार आते रहेंगे। कभी-कभी होता है कि धंधा बिलकुल नहीं चलता। कोई गांव में मरता ही नहीं, लकड़ी बिलकुल बिकती नहीं। जिस दिन गांव में ज्यादा लोग मरते है, उस दिन लकड़ी ज्यादा बिकती है। जिस दिन ज्यादा धंधा होता है उस दिन आपके पास चले आते है।
आपने सूना डाक्टर लोग भी कुछ ऐसा ही कहते है। जो मरीज ज्यादा होते है, तो कहते है सीजन अच्छा चल रहा है। आश्चर्य की बात है। अगर किन्हीं लोगों का धंधा लोगों के बीमार होने से चलता हो, तो फिर बीमारी मिटना बहुत मुश्किल है।
अभी डॉक्टरों को भी हमने उलटा काम सौंपा हुआ है कि वह लोगों की बीमारी मिटाये। अत: उनकी भीतरी आकांशा यह है कि लोग ज्यादा बीमार हों, क्योंकि उनका व्यवसाय बीमारी पर खड़ा है।
इसलिए रूस ने क्रांति के बाद जो काम किये, उनमें एक काम यह था कि उन्होंने डाक्टर के काम को नेश्नलाइज कर दिया। उन्होंने कहा कि डाक्टर का काम व्यक्तिगत निर्धारित करना खतरनाक है, क्योंकि वह उपर से बीमार को ठीक करना चाहेगा और भीतर आंकाक्षा करेगा की ‘’बीमार’’ बीमार ही बना रहे। कारण उसका धंधा तो किसी के बीमार रहने से ही चलता है। इसलिए उन्होंने डाक्टर का धंधा प्राइवेट प्रैक्टिस बिलकुल बंद कर दी। वहां डाक्टर को वेतन मिलता है। बल्कि उन्होंने एक नया प्रयोग भी किया है। हर डाक्टर को एक क्षेत्र दिया जाता है, उसमें यदि लोग बीमार होते है तो उससे एक्सप्लेनेशन मांगा जाता है। इस क्षेत्र में ज्यादा लोग बीमार कैसे हुए? वहां डाक्टर को यह चिंता करनी होती है की कोई बीमार ने पड़े।
चीन में माओ ने आते ही वकील के धंधे को नेश्नलाइज कर दिया। क्योंकि वकील का धंधा खतरनाक है। क्योंकि वकील का धंधा कांन्ट्राडिक्टरी है। है तो वह इसलिए कि न्याय उपलब्ध करायें। और उसकी सारी चेष्टा यह रहती है कि उपद्रव हो, चोरी हो, हत्याएँ हो, क्योंकि उसका धंधा इसी पर निर्भर करता है।
धर्म गुरु का धंधा भी बड़ा विरोधी है। वह चेष्टा तो यह करता है की लोग शांत हो, आनंदित हो, सुखी हो, लेकिन उसका धंधा इस पर निर्भर करता है कि लोग अशांत रहें, दुःखी रहें बेचैन और परेशान रहे। कारण अशांत लोग ही उसके पास यह जानने आते है कि हम शांत कैसे रहें। दुःखी लोग उसके पास आते है हमारा दुःख कैसे मिटे? दीन-दरिद्र उसके पास आते है कि हमारी दीनता का अंत कैसे हो?
धर्म गुरु का धंधा लोगों के बढ़ते हुए दुःख पर निर्भर है।
इसलिए जब भी दुनिया के धर्म गुरूओं ने सब बातें ईश्वर पर थोप दी है, और ईश्वर कभी गवाही देने आता नहीं है कि उसकी मर्जी क्या है? यह क्या चाहता है? उसकी क्या इच्छा है? इंग्लैण्ड और जर्मनी में अगर युद्ध हो तो इंग्लैण्ड का धर्म गुरु समझाता है कि ईश्वर की इच्छा है कि इंग्लैण्ड जीते? और जर्मनी का धर्म गुरु समझाता है कि ईश्वर की इच्छा है कि जर्मनी जीते। जर्मनी में उसी भगवान से प्रार्थना की जाती है कि अपने देश को जिताओ और इंग्लैण्ड में भी पादरी और पुरोहित प्रार्थना करता है कि है भगवान, अपने देश को जिताओ।
ईश्वर की इच्छा पर हम अपनी इच्छा थोपते रहते है। ईश्वर बेचारा बिलकुल चुप है। कुछ पता नहीं चलता कि उसकी इच्छा क्या है। अच्छा हो कि हम ईश्वर पर अपनी इच्छा न थोपों। हम इस जीवन को सोचें, समझें ओर वैज्ञानिक रास्ता निकाले।
यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि जो समाज जितना समृद्ध होता है, वह उतने ही कम बच्चे पैदा करता है। लेकिन दुःखी दीन, दरिद्र लोग जीवन में किसी अन्या मनोरंजन और सुख की सुविधा न होने से सिर्फ सेक्स में ही सुख लेने लगते है। उनके पास और कोई उपाय नहीं रहता।
एक अगर संगीत भी सुनता है, साहित्य भी पढ़ता है, चित्र भी देखता है, घूमने भी जाता है, पहाड़ की यात्रा भी करता है, उसकी शक्ति बहुत दिशाओं में बह जाती है। एक गरीब आदमी के पास शक्ति बहाने का और कोई उपाय नहीं रहता। उसके मनोरंजन का कोई और उपाय नहीं रहता। क्योंकि सब मनोरंजन खर्चीला है; सिर्फ सेक्स ही ऐसा मनोरंजन है, जो मुफ्त उपलब्ध है। इसलिए गरीब आदमी बच्चे इकट्ठे करता चला जाता है।
गरीब आदमी इतने अधिक बच्चे इकट्ठे कर लेता है कि गरीबी बढ़ती चली जाती है। गरीब आदमी ज्यादा बच्चे पैदा करता है। गरीब के बच्चे और गरीब होते चले जाते है। वे और बच्चे पैदा करते जाते है और देश और गरीब होता चला जाता है। किसी ने किसी तरह गरीब आदमी की इस भ्रामक स्थिति को तोड़ना जरूरी है। इसे तोड़ना ही पड़ेगा,अन्यथा गरीबी का कोई पारावार न रहेगा। गरीबी इतनी बढ़ जायेगी की जीना असंभव हो जायेगा।
इस देश में तो गरीबी बढ़ ही रही है, जीना करीब-करीब असंभव हो गया है। कोई मान ही नहीं सकता कि हम जी रहे है। अच्छा हो कि कहा जाये कि हम धीरे-धीरे मर रहे है।