संभोग से समाधि की ओर / ओशो / पृष्ठ 40
प्रश्न कर्ता: भगवान श्री, एक और प्रश्न है कि परिवार नियोजन जैसा अभी चल रहा है उसमें हम देखते है कि हिन्दू ही उसका प्रयोग कर रहे है, और बाकी और धर्मों के लोग ईसाई, मुस्लिम, ये सब कम ही उपयोग कर रहे है। तो ऐसा हो सकता है कि उनकी संख्या थोड़े वर्षों के बाद इतनी बढ़ जाये कि एक और पाकिस्तान मांग लें और तुर्किस्तान मांग लें और कुछ ऐसी मुश्किलें खड़ी हो जायें। फिर पाकिस्तान या चीन है, जहां जनसंख्या पर रूकावट नहीं है। तो उसमें अधिक लोग हो जायेंगे और पर हमला करने की चेष्टा रखते है। तो हमारी जनसंख्या कम होने से हमारी ताकत कम हो जाय। तो इसके बारे में आपके क्या ख्याल है?
भगवान श्री: इस संबंध में दो तीन बातें ख्याल में रखने की है।
पहली बात तो यह कि आज के वैज्ञानिक युग में जनसंख्या का कम होना, शक्ति का कम होना नहीं है। हालतें उल्टी है, हाल तो यह है कि जिस मुल्क की जनसंख्या जितनी ज्यादा है, या टेकांलॉजिकल दृष्टि से कमजोर है। क्योंकि इतनी बड़ी जनसंख्या के पालन-पोषण में, व्यवस्था में उसके पास अतिरिक्त सम्पति बचने वाली नहीं है। जिससे वह एटम बम बनाये, हाइड्रोजन बम बनाये, सुपर बन बनाये, और चाँद पर जाये। जितना गरीब देश होगा आज वह उतना ही वैज्ञानिक दृष्टि से शक्तिहीन देश है।
आज तो वहीं देश शक्ति शाली होगा, जिसके पास ज्यादा संपति है, ज्यादा व्यक्ति नहीं।
वह जमाना गया, जब आदमी ताकतवर था, अब मशीन ताकतवर है। और मशीन उसी देश के पास अच्छी से अच्छी हो सकेगी, जिस देश के पास जितनी सम्पन्नता होगी और सम्पन्नता उसी देश के पास ज्यादा होगी, जिसके पास प्राकृतिक साधन ज्यादा और जनसंख्या कम होगी।
तो पहली बात यह है कि आज जनसंख्या शक्ति नहीं है और इसलिए भ्रांति में पड़ने का कोई कारण नहीं है। चीन के पास चाहे जितनी जनसंख्या हो तो भी शक्तिशाली अमेरिका होगा। चीन के पास जितनी भी जनसंख्या हो तो भी छोटा सा मुल्क इंगलैंड शक्तिशाली है। और जापन जैसा मुल्क भी शक्ति शाली है। शक्ति का पूरा का पूरा आधार बदल गया है।
जब आदमी ही एक मात्र आधार था, तब तो ये बातें ठीक थी कि जनसंख्या बड़ा मूल्य रखती थी। लेकिन अब आदमी से भी बड़ी शक्ति हमने पैदा कर ली है, जो मशीन की है। मशीन ताकत है। और उतना ही सम्पन्न हो सकता है। जितना ज्यादा जनसंख्या उसकी कम हो, ताकि उसके पास सम्पति बच सके, लोगों को खिलाने कपड़ा पहिनाने, इलाज कराने के बाद; ताकि उस शक्ति को वैज्ञानिक विकास में लगा सकें।
दूसरी बात यह समझने जैसी है कि संख्या कम होने से उतना बड़ा दुर्भाग्य नहीं टूटेगा, जितना बड़ा दुर्भाग्य संख्या के बढ़ जाने से बिना किसी हमले के टूट जायेगा। यानी हमले का तो कोई उपाय भी किया जा सकता है कि कोई बड़ा मुल्क हम पर हमला करे तो हम दूसरों से सहायता ले लें, लेकिन हमारे ही बच्चे हमलावर सिद्ध हो जायें संख्या के अत्यधिक बढ़ जाने के कारण तो हम किसी की सहायता न ले सकेंगे। उस वक्त हम बिलकुल असहाय हो जायेंगे।
इस वक्त युद्ध इतना बड़ा खतरा नहीं है, जितना बड़ा खतरा जनसंख्या विस्फोट का है। खतरा बाहर नहीं है कि हमें कोई मार डाले,वरन जो हमारी उत्पाद क्षमता है बच्चें की, वहीं हमारे लिए सबसे बड़ा खतरा है—कि संख्या इतनी ही जाये कि हम सिर्फ मर जाये इस कारण से कि न पानी हो, न भोजन हो, न रहने को जगह।
तीसरी बात यह कि जो हम सोचते है क हिन्दू अपनी संख्या कम कर लें तो मुसलमान से कम न हो जायें, तो इस डर से हिंदू भी अपनी संख्या कम न करें। मुसलमान भी इस डर से अपनी संख्या कम न करें कि कहीं हिन्दू ज्यादा न हो जायें। ईसाई भी यही डर रखें। जैन भी यहीं डर रखें। तो इन सके डर एक है। तब परिणाम यह होगा कि मुल्क ही मर जायेगा। तो यह डर किसी को तो तोड़ना शुरू करना पड़ेगा। और जो समाज इस डर को तोड़ेगा, वह संपन्न हो जायेगा। मुसलमानों से उनके बच्चे ज्यादा स्वस्थ ज्यादा शिक्षित होंगे, ज्यादा अच्छे मकानों में रहेंगे। वे दूसरे समाजों को जिनकी संख्या कीड़े मकोड़ों की तरह बढ़ेगी उनको पीछे छोड़कर आगे निकल जायेंगे। और इसका परिणाम यह भी होगा कि दूसरे समाजों में भी स्पर्धा पैदा होगी इस ख्याल से कि वे गलती कर रहे है।
आज दूनिया में यह बड़ा सवाल नहीं है कि हिन्दू कम हो गये तो कोई हर्ज हो रहा है। कि मुसलमान ज्यादा हो गये तो उनको कोई फायदा हो रहा है। बड़ा सवाल यह है कि अगर इन सारे लोगों के दिमाग में यही सवाल भरा रहे तो यह पूरा मुल्क मर जायेगा। मगर यही विकल्प है कि हिन्दू कम हो जायेंगे और इससे हिन्दुओं की संख्या को नुकसान पहुँचेगा। मुसलमान ज्यादा हो जायेंगे, ईसाई ज्यादा हो जायेंगे। तो भी मैं कहूंगा कि हिन्दू अपने को कम कर लें और भारत को बचाने का श्रेय ले लें। चाहे खुद मिट जायें। हालांकि इसकी कोई संभावना नहीं है। तो भी मैं कहूंगा कि मेरे लिए यह इतना बड़ा सवाल नहीं है, हिन्दू-मुसलमान का, जितना बड़ा मेरे लिए एक दूसरा सवाल है।
जब तक हम परिवार नियोजन को स्वेच्छा पर छोड़े हुए है, तब तक खतरा एक दूसरा है कि जो जितना शिक्षित आरे उन्नत है, जो जितना संपन्न है, जिसकी बुद्धि विकसित है, वह तो राजी हो जाएगा स्वभावत। वह तो आज परिवार नियोजन के लिए राज़ी हो जाएगा। सिर्फ बुद्धूओं को छोड़कर। बुद्धिमान तो राज़ी होंगे ही; क्योंकि परिवार नियोजन से उसके बच्चे ज्यादा सुखी होंगे। ज्यादा शिक्षित होंगे।
लेकिन खतरा यह है कि जो बुद्धिहीन वर्ग है—उसको न कोई शिक्षा है, न कोई ज्ञान है, न कोई सवाल है—वे समझ ही न पाये और बच्चे पैदा करते चले जायें। तो जो नुकसान हो सकता है लम्बे अर्थों में,वह यह हो सकता है वह अशिक्षित,अविकसित, पिछड़े हुए लोग ज्यादा बच्चे पैदा करें और शिक्षित वह संपन्न लोग कम बच्चे पैदा करें तो मुल्क की प्रतिभा को ज्यादा नुकसान पहुंचे। यह हो सकता है।
इसलिए मेरी यह मान्यता है कि परिवार नियोजन की बात धीरे-धीरे अनिवार्य हो जानी चाहिए।
कहीं ऐसा न हो कि बुद्धिमान तो स्वीकार कर लें और गैर-बुद्धिमान न करें,तो वह अनिवार्य होना चाहिए। इसलिए मैं अनिवार्य परिवार नियोजन के पक्ष में हूं।
परिवार नियोजन किसी का स्वेच्छा पर नहीं छोड़ा जा सकता है।
यह तो ऐसा है कि जैसे हम हत्या को स्वेच्छा पर छोड़ दें कि जिसको करना हो करें, जिनको न करना हो न करें। डाके को स्वेच्छा पर छोड़ दें कि जिसको डाका डालना हो डाले,न डालना हो न डाले। सरकार समझाने की कोशिश करेगी ओर देखती रहेगी। डाका भी आज उतना खतरनाक नहीं है हत्या भी आज उतनी खतरनाक नहीं है जितना जनसंख्या का बढ़ना।
इस जीवंत सवाल को इस तरह स्वेच्छा पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए। और जब हम इसे स्वेच्छा पर नहीं छोड़ते तो यह हिन्दू, मुसलमान, ईसाई का सवाल नहीं रह जाता। क्योंकि सिक्ख को उसका गुरु समझा रहा है कि तुम कम हो जाओगे। मुसलमान ज्यादा हो जायेंगे। मुसलमान को मौलवी समझा रहा है कि तुम कम हो जाओगे, हिन्दू कम ज्यादा हो जायेगे। वहीं ईसाई पादरी भी सोच रहा है वही हिन्दू पंडित भी सोच रहा है। ये बस जा सोच रहे है इनकी सोचने की वजह भी अनिवार्य परिवार नियोजन से मिट जायेगी।
यदि हम परिवार नियोजन कर देते है तो कोई हिन्दू, मुसलमान, ईसाई का सवाल नहीं रह जाता है।
मेरे लिए तो सवाल यह है कि सैकड़ों वर्षों में कुछ लोग विकसित हो गये है और कुछ लोग अविकसित रह गये है। जो अविकसित वर्ग है, वह बच्चे ज्यादा छोड़ जाये तो देश की प्रतिभा और बुद्धिमत्ता को भी भारी नुकसान पहुंच सकता है। और यह नुकसान खतरनाक सिद्ध हो सकता है। इसलिए इस दृष्टि से मैं सारे सवाल को सोचता हूं कि केवल परिवार नियोजन ही न हो, बल्कि ऐसा लगता है कि वह अनिवार्य हो। एक भी व्यक्ति सिर्फ इसलिए न छोड़ा जा सके कि वह राज़ी नहीं है। और यह हमें करना ही पड़ेगा। इसे बिना किये हम इन आने वाले 50 वर्षों में जिन्दा नहीं रह सकते।
शक्ति के सारे मापदंड बदल गये है, यह हमें ठीक से समझ लेना चाहिए।
आज शक्तिशाली वह है जो संपन्न है और संपन्न वह है, जिसके पास जनसंख्या कम है और उत्पादन के साधन ज्यादा है।
आज मनुष्य न तो उत्पादन का साधन है। न शक्ति का साधन है। आज मनुष्य सिर्फ भोक्ता है, कन्ज्यूमर है। मशीन पैदा करती है, जमीन पैदा करती है, मनुष्य खा रहा है।
और धीरे-धीरे जैसे टेक्नोलॉजी विकसित होती है, आदमी की शक्ति सा सारा मूल्य समाप्त हुआ जा रहा है। आदमी ने हो तो भी चल सकता है। एक लाख आदमी जिस फैक्टरी में काम करते हों, उसे एक आदमी चला सकेगा। न हो तो भी चल सकता है। और हिरोशिमा में एक लाख आदमी मारना हो तो उन्हें एक आदमी मार सकेगा। पुराने जमाने में तो कम से कम एक लाख आदमी ले जाने पड़ते। अब तो कोई एक आदमी जाता है और एटम बम गिराकर उनको समाप्त कर देता है। कल यह भी हो सकता है कि एक आदमी को भी न जाना पड़े। कम्प्युटराइज्ड आदेश एक आदमी भर देगा मशीन में काम हो जायेगा। आदमी की संख्या बिलकुल महत्वहीन हो गयी है।
यह जरूरी नहीं है कि मेरी सारी बातें मान ली जायें। इतना ही काफी है कि आप मेरी बात पर सोचें,विचार करें, अगर इस देश में सोच-विचार आ जाये तो शेष चीजें अपने आप छाया की तरह पीछे चली आयेगी।
मेरी बातें ख्याल में ले और उस पर सूक्ष्मता से विचार करें तो हो सकता है कि आपको यह बोध आ जाये कि परिवार नियोजन की अनिवार्यता कोई साधारण बात नहीं है। जिसकी उपेक्षा की जा सके। वह जीवन की अनेक-अनेक समस्याओं की गहनत्म जड़ों से संबंधित है। और उसे क्रियान्वित करने की देरी पूरी मनुष्य जाति के लिए आत्म धात सिद्ध हो सकती है।