संयोजन / परंतप मिश्र

Gadya Kosh से
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पल-पल व्यतीत होते समय ने इतिहास के पन्नों पर युगों के परिवर्तन की छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी घटित हो रही घटनाओं को कुशलता से संरक्षित किया है। क्षणों की अबाधित निरन्तरता ने क्रमिक विकास और विनाश यात्रा के कदमों की चहल-कदमी को बड़ी बारीकी से ज़िया है।

इतिहास वह जो कभी वर्तमान हुआ करता था, उसका विस्तृत लेखा-जोखा स्वयं में समाहित किये हुए है और आज का प्रवाहमय वर्तमान भी प्रतिपल भूत में परिणित होकर इतिहास का स्थायी दस्तावेज बनता जा रहा है। भविष्य में इतिहास के ये साक्ष्य, भूत के गवाह बनेंगें। इनसे मिलने हमें पीछे या उल्टा जाना होगा। कभी सुना था कि "भूत के पाँव उल्टे होते हैं" और "भूत की परछाई नहीं हुआ करती" उसे समझने का प्रयास किया है। इस साधारण-सी उक्तियों में बड़े गहरे अर्थ समाहित हैं।

पहले बचपन में सोचा करता था कि भूत आकस्मिक मृत्यु प्राप्त अतृप्त आत्माएँ हुआ करती हैं और यह उनकी सरल पहचान मुझे मालूम हो गयी है और मैं जब भी किसी उल्टे पैर वाले को देखूँ जिसकी परछाई भी न हो तो आसानी से समझ जाऊँ की यही भूत है। पर इन दोनों उक्तियों ने स्पष्ट किया है कि आपका जो कल था वह भूत हो चुका है और अब उल्टे पैर जाकर आपने वर्तमान पर उसका असर (परछाई) नहीं पड़ने दिया जाये।

वस्तुतः इसका अर्थ भूत-प्रेत के सम्बोधन के लिए नहीं अपितु समय से है जो बीत चुका है और अब वर्तमान में उपलब्ध नहीं हो सकता। अतः बीत चुके समय में पुनः प्रवेश करना वर्तमान काल से भूतकाल की ओर वापस लौटना, ये उल्टे पैर जाने का प्रयास हो सकता है। आम तौर पर भूत को भय के साथ जोड़कर देखा जाता रहा है। परन्तु भूत वह जो कभी वर्तमान था और आज के वर्तमान को आधार दे गया है। अतः ऐसे भूत (आधारशिला) से डरने की आवश्यकता नहीं बल्कि उस समय की घटनाओं के परिणाम उपलब्धियों और अनुभवों को समझकर परिष्कृत समाज का वर्तमान गढ़ने की है।

दूसरे अर्थों में भी अगर हम भूत के अस्तित्व को मनुष्य से जोड़कर देखते हैं तो भी भूत वह जो अब अशरीरी (बिना देह के) है भौतिक रूप से उपस्थित नहीं है। तो उसकी न परछाई पड़ेगी और न ही आगे की यात्रा के लिए पैरों की आवश्यकता है। उसकी यात्रा तो पूर्ण हो चुकी है तभी तो जब उसके पैरों की ओर देखेंगे तो वे उलटे ही प्रतीत होंगे। पर उनका अस्तित्व अवस्य है, जो भौतिक जगत से मुक्त होकर निर्लिप्त शक्तिपुंज के रूप में परमशक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं। भौतिक विज्ञान के अणुओं का सिद्धांत भी कहीं न कहीं यही कहानी कहता है।

कर्मफल का भी एक सिद्धांत इस प्रक्रिया कि पुर्णता में प्रभावी है। जिस प्रकार मानव पञ्चमहाभूतों का समुच्चय होकर आत्मा को धारण कर दृष्टिगोचर है। जो सांसारिक गतिविधियों में भाग लेकर स्वरूचि-अरुचि से कर्म का पालन करता है और फल का भागी बनता है। उसी प्रकार काल-अवधि के समापन पर देह की यात्रा तो समाप्त हो जाती है पर देह से विरक्त आत्मा पुनः एक शक्तिपुंज के रूप में जगत में उपस्थित रहती है। जिसे हम कभी भूत भी कह जाते हैं।

परन्तु क्या जो भी अदृश्य है, वह भूत है। ऐसा नहीं है यह तो एक आधारशिला है। एक सुंदर भवन के सन्दर्भ यदि देखें तो नींव से लेकर उपरी कँगूरे तक सभी इसका हिस्सा है। पर समान्यतया हम सभी भवन की सुन्दरता उसी से निर्धारित करते हैं जो हम देख पाते हैं। जबकि भूभाग में समाहित नींव ही उसकी शक्ति और समृद्धि का निर्धारण कर जाते हैं। यह उनका उत्सर्ग अदृश्य ज़रूर है पर आधारहीन बिल्कुल नहीं। नींव के पाषण-खण्ड मूक होकर भवन को मुखर कर जाते हैं। भूत की नींव पर वर्तमान का भवन निर्मित किया जाता है।

वर्तमान एक संयोजन है, बीते हुए कल यानी भूत और आने वाले कल यानी भविष्य का। भूत और भविष्य के मध्य की कड़ी में विवेक से जीवन जीना ही कला है। भूत जो बीत चुका है वह हमारी पूँजी है, एक शिक्षक की भाँति सदैव उचित मार्ग के चयन को प्रशस्त करते हैं। हमें अपने भूत में जा कर इतिहास के पर्तों में सुरक्षित पांडुलिपियों का बारीकी से अध्ययन कर नैतिक मूल्यों, आदर्शों, मानदण्डों, धर्म, समाज और संस्कृतियों के लिए निर्देशित एक-एक अवशेषों का मूल्याङ्कन कर वर्तमान परिस्थितियों में उनकी उपादेयता का समुचित आधार देखना मानवता के स्वर्णिम भविष्य के लिए उगते हुए सूर्य की रश्मियों को पोषित करना है।

अर्थात वर्तमान को भूत से गतिमान और भविष्य को समृद्ध करते हुए समआदरणीय कालों के सभी रूपों का समुचित सम्मान करना चाहिए। मानव जीवन की एक समय अवधि है जीवित रहने की और यह उसका परमसौभाग्य है कि वह अपने नीर-क्षीर विवेक से ज्ञान का उपयोग करते हुए स्वानुभव की पूँजी अर्जित करे। जो उसके जीवन काल का सार और आने वाली पीढ़ियों के लिए संजीवनी समान उपलब्ध हो सके।

वैसे स्वयं द्वारा अर्जित अनुभव श्रेष्ठ होता है पर सभी समान्य व्यक्तियों की सीमायें होती हैं जो उनके निश्चित अवधि के जीवन काल में सब कुछ स्वयं कर के देखना और उसका अनुभव कर पाना शायद संभव नहीं हो सकेगा। कई जन्मों की सीख को स्मरण कर पाना भी असम्भव है। अतः हमारे मनीषियों, विद्वानों और चिंतकों के द्वारा लिखित-वर्णित अनुभवों को अपने जीवन में स्थान देकर सुनहरे भविष्य की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है।

देश-काल और समाज की सभ्यताएँ और संस्कृतियाँ विकास की एक अनवरत शृंखला है, जो समय की पगडण्डी पर आगे बढती जा रही हैं। यह आवश्यक नहीं कि सभी संस्कृतियाँ और परम्पराएँ समान हों देश और काल में मानव की चेतना भिन्न हुआ करती है। परिस्थितियाँ एवं वातवरण एक भू-भाग पर बसे लोगों की जीवनशैली में अनुकूलता के आधार पर रीतिरिवाजों को स्थापित कर जाते हैं। पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक बसे मानवों के क्रिया कलापों की भिन्नता उनके भौगोलिक भौतिकता के समायोजन का हिस्सा है।

यह आवश्यक नहीं कि पूर्व के लोग पश्चिम का अनुसरण करें और पश्चिम के लोग पूर्व का उसी तरह दक्षिण के लोग उत्तर का और उत्तर के लोग दक्षिण का। किसी की नक़ल से पूर्व हमें अपने वातावरण में प्रचलित जीवन शैली की उपयोगिता अवस्य देखनी चाहिए। जो हमारे पूर्वजों ने हमारी देश-काल-वातावरण-उपलब्धता के आधार पर तय किये हैं। किसी से सीखना और परिष्कृत होना अच्छी बात है, पर किसी की नक़ल केवल आधुनिकता के नाम पर बिना उपयोगिता कि कसौटी पर कसे मान लेना अपनी संस्कृति की अवहेलना और पूर्वजों की अनदेखी करना ही है।