संवदिया / फणीश्वरनाथ रेणु
हरगोबिन को अचरज हुआ – तो, आज भी किसी को संवदिया की जरूरत पड़ सकती है! इस जमाने में, जबकि गाँव गाँव में डाकघर खुल गए हैं, संवदिया के मार्फत संवाद क्यों भेजेगा कोई? आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक ख़बर भेज सकता है और वहाँ का कुशल संवाद मंगा सकता है। फिर उसकी बुलाहट क्यों हुई है?
हरगोबिन बड़ी हवेली की टूटी ड्योढ़ी पार कर अन्दर गया। सदा की भाँति उसने वातावरण को सूँघकर संवाद का अन्दाज़ लगाया। …निश्चय ही कोई गुप्त संवाद ले जाना है। चान्द-सूरज को भी नहीं मालूम हो ! परेवा-पँछी तक न जाने !
‘‘पाँवलागी बड़ी बहुरिया!’’
बड़ी हवेली की बड़ी बहुरिया ने हरगोबिन को पीढ़ी दी और आँख के इशारे से कुछ देर चुपचाप बैठने को कहा… बड़ी हवेली अब नाम-मात्र को ही बड़ी हवेली है ! जहाँ दिन-रात नौकर-नौकरानियों और जन-मजदूरों की भीड़ लगी रहती थी, वहाँ आज हवेली की बड़ी बहुरिया अपने हाथ से सूप में अनाज लेकर झटक रही है। इन हाथों में सिर्फ मेंहदी लगाकर ही गाँव की नाइन परिवार पालती थी। कहाँ गए वे दिन? हरगोबिन ने एक लम्बी सांस ली।
बड़े भैया के मरने के बाद ही जैसे सब खेल ख़त्म हो गया। तीनों भाइयों ने आपस में लड़ाई-झगड़ा शुरू कर दिया। रैयतों ने ज़मीन पर दावे करके दख़ल किया। फिर, तीनों भाई गांँव छोड़कर शहर जा बसे। रह गई अकेली बड़ी बहुरिया। कहाँ जाती बेचारी !
भगवान भले आदमी को ही कष्ट देते हैं। नहीं तो एक घण्टे की बीमारी में बड़े भैया क्यों मरते? …. बड़ी बहुरिया की देह से जवेर खींच-खींच कर बंँटवारे की लीला हुई, हरगोबिन ने देखी है अपनी आँखों से द्रौपदी-चीरहरण लीला ! बनारसी साड़ी को तीन टुकड़े करके बँटवारा किया था, निर्दयी भाइयों ने। बेचारी बड़ी बहुरिया !
गाँव की मोदिआइन बूढ़ी न जाने कब से आँगन में बैठकर बड़बड़ा रही थी – ‘‘उधार का सौदा खाने में बड़ा मीठा लगता है और दाम देते समय मोदिआइन की बात कड़वी लगती है। मैं आज दाम लेकर ही उठूँगी।’’
बड़ी बहुरिया ने कोई जवाब नहीं दिया।
हरगोबिन ने फिर लम्बी सांस ली। जब तक यह मोदिआइन आँगन से नहीं टलती, बड़ी बहुरिया हरगोबिन से कुछ नहीं बोलेगी। वह अब चुप नहीं रह सका, ‘‘मोदिआइन काकी, बाकी-बकाया वसूलने का यह काबुली कायदा तो तुमने खूब सीखा है!’’
‘काबुली कायदा’ सुनते ही मोदिआइन तमककर खड़ी हो गई, ‘‘चुप रह, मुँहझौंसे ! निमोंछिये…!
‘‘क्या करूँ, काकी, भगवान ने मूँछ-दाढ़ी दी नहीं, न काबुली आगा साहब की तरह गुलज़ार दाढ़ी…!
‘‘फिर काबुल का नाम लिया तो जीभ पकड़कर खींच लूँगी।’’
हरगोबिन ने जीभ बाहर निकालकर दिखलाई। अर्थात् – ‘‘खींच ले।’’
…पाँच साल पहले गुल मुहम्मद आगा उधार कपड़ा लगाने के लिए गाँव आता था और मोदिआइन के ओसारे पर दुकान लगाकर बैठता था। आगा कपड़ा देते समय बहुत मीठा बोलता और वसूली के समय ज़ोर-जुल्म से एक का दो वसूलता। एक बार कई उधार लेनेवालों ने मिलकर काबुली की ऐसी मरम्मत कर दी कि फिर लौटकर गाँव में नहीं आया। लेकिन इसके बाद ही दुखनी मोदिआइन लाल मोदिआइन हो गयी। …काबुली क्या, काबुली बादाम के नाम से भी चिढ़ने लगी मोदिआइन ! गाँव के नाचवालों ने नाम में काबुली का स्वांग किया था : ‘‘तुम अमारा मुलुम जाएगा मोदिआइन? अम काबुली बादाम-पिस्ता-अकरोट किलायगा…!’’
मेदिआइन बड़बड़ाती, ग़ाली देती हुई चली गई तो बड़ी बहुरिया ने हरगोबिन से कहा, ’’हरगोबिन भाई, तुमको एक संवाद ले जाना है। आज ही। बोलो, जाओगे न ?
‘‘कहाँ ?’’
‘‘मेरी माँ के पास !’’
हरगोबिन बड़ी बहुरिया की छलछलाई हुई आँखों में डूब गया, ’’कहिए, क्या संवाद?’’
संवाद सुनाते समय बड़ी बहुरिया सिसकियां लेने लगी। हरगोबिन की आँखें भी भर आईं। …बड़ी हवेली की लछमी को पहली बार इस तरह सिसकते देखा है हरगोबिन ने। वह बोला, ‘‘बड़ी बहुरिया, दिल को कड़ा कीजिए।’’
‘‘और कितना कड़ा करूँ दिल?’’ …माँ से कहना मैं भाई-भाभियों की नौकरी करके पेट पालूँगी। बच्चों के जूठन खाकर एक कोने में पड़ी रहूँगी, लेकिन यहाँ अब नहीं… अब नहीं रह सकूँगी। …कहना, यदि माँ मुझे यहाँ से नहीं ले जाएगी तो मैं किसी दिन गले में घड़ा बाँधकर पोखरे में डूब मरूँगी। …बथुआ साग खाकर कब तक जीऊँ ? किसलिए…. किसके लिए?’’
हरगोबिन का रोम-रोम कलपने लगा। देवर-देवरानियाँ भी कितने बेदर्द हैं। ठीक अगहनी धान के समय बाल-बच्चों को लेकर शहर से आएँगे। दस-पन्द्रह दिनों में कर्ज़-उधार की ढेरी लगाकर, वापस जाते समय दो-दो मन के हिसाब से चावल-चूड़ा ले जाएँगे। फिर आम के मौसम में आकर हाज़िर। कच्चा-पक्का आम तोड़कर बोरियों में बन्द करके चले जाएँगे। फिर उलटकर कभी नहीं देखते… राक्षस हैं सब !
बड़ी बहुरिया आँचल के खूँट से पाँच रूपए का एक गन्दा नोट निकालकर बोली, ‘‘पूरा राह खर्च भी नहीं जुटा सकी। आने का खर्चा माँ से माँग लेना। उम्मीद है, भैया तुहारे साथ ही आवेंगे।’’
हरगोबिन बोला, ‘‘बड़ी बहुरिया, राह खर्च देने की जरूरत नहीं। मैं इन्तजाम कर लूँगा।’’
‘‘तुम कहाँ से इन्तजाम करोगे?’’
‘‘मैं आज दस बजे की गाड़ी से ही जा रहा हूँ।’’
बड़ी बहुरिया हाथ में नोट लेकर चुपचाप, भावशून्य दृष्टि से हरगोबिन को देखती रही। हरगोबिन हवेली से बाहर आ गया। उसने सुना, बड़ी बहुरिया कह रही थी, ‘‘मैं तुम्हारी राह देख रही हूँ।’’
संवदिया! अर्थात् संवादवाहक!
हरगोबिन संवदिया! …संवाद पहुंचाने का काम सभी नहीं कर सकते। आदमी भगवान के घर से ही संवदिया बनकर आता है। संवाद के प्रत्येक शब्द को याद रखना, जिस सुर और स्वर में संवाद सुनाया गया है, ठीक उसी ढंग से जाकर सुनाना, सहज काम नहीं। गाँव के लोगों की गलत धारणा है कि निठल्ला, कामचार और पेटू आदमी ही संवदिया का काम करता है। न आगे नाथ, न पीछे पगहा। बिना मज़दूरी लिए ही जो गाँव-गाँव संवाद पहुँचावे, उसको और क्या कहेंगे? …औरतों का गुलाम। ज़रा-सी मीठी बोली सुनकर ही नशे में आ जाए, ऐसे मर्द को भी भला मर्द कहेंगे? किन्तु, गाँव में कौन ऐसा है, जिसके घर की मां-बहू-बेटी का संवाद हरगोबिन ने नहीं पहुँचाया है। ….लेकिन ऐसा संवाद पहली बार ले जा रहा है वह।
गाड़ी पर सवार होते ही हरगोबिन को पुराने दिनों और संवादों की याद आने लगी। एक करूण गीत की भूली हुई कड़ी फिर उसके कानों के पास गूँजने लगी :
‘‘पैयाँ पड़ूँ दाढ़ी धरूँ….
हमरी संवाद लेले जाहु रे संवदिया या-या !…’’
बड़ी बहुरिया के संवाद का प्रत्येक शब्द उसके मन में काँटे की तरह चुभ रहा है – किसके भरोसे यहाँ रहूँगी? एक नौकर था, वह भी कल भाग गया। गाय खूँटे से बँधी भूखी-प्यासी हिकर रही है। मैं किसके लिए इतना दुख झेलूँ?
हरगोबिन ने अपने पास बैठे हुए एक यात्री से पूछा, ‘‘क्यों भाई साहेब, थाना बिहपुर में सभी गाड़ियाँ रूकती हैं या नहीं?’’
यात्री ने मानो कुढ़कर कहा, ’’थाना बिहपुर में सभी गाड़ियाँ रूकती हैं।’’
हरगोबिन ने भाँप लिया कि यह आदमी चिड़चिड़े स्वभाव का है। इससे कोई बातचीत नहीं जमेगी। वह फिर बड़ी बहुरिया के संवाद को मन ही मन दुहराने लगा। …लेकिन, संवाद सुनाते समय वह अपने कलेजे को कैसे संभाल सकेगा! बड़ी बहुरिया संवाद कहते समय जहाँ-जहाँ रोई है, वह भी रोएगा !
कटिहार जँक्शन पहुँचकर उसने देखा, पन्द्रह-बीस साल में बहुत कुछ बदल गया है। अब स्टेशन पर उतरकर किसी से कुछ पूछने की कोई ज़रूरत नहीं। गाड़ी पहुँची और तुरन्त भोंपे से आवाज़ अपने-आप निकलने लगी – थाना बिहपुर, खगड़िया और बरौनी जानेवाली यात्री तीन नम्बर प्लेटफार्म पर चले जाएँ। गाड़ी लगी हुई है।
हरगोबिन प्रसन्न हुआ-कटिहार पहुँचने के बाद ही मालूम होता है कि सचमुच सुराज हुआ है। इसके पहले कटिहार पहुँचकर किस गाड़ी में चढ़ें और किधर जाएँ, इस पूछताछ में ही कितनी बार उसकी गाड़ी छूट गई है।
गाड़ी बदलने के बाद फिर बड़ी बहुरिया का करुण मुखड़ा उसकी आँखों के सामने उभर गया : ‘हरगोबिन भाई, माँ से कहना, भगवान ने आँखें फेर ली, लेकिन मेरी माँ तो है… किसलिए… किसके लिए… मैं बथुआ की साग खाकर कब तक जीऊँ ?’
थाना बिहपुर स्टेशन पर जब गाड़ी पहुँची तो हरगोबिन का जी भारी हो गया। इसके पहले भी कई भला-बुरा संवाद लेकर वह इस गाँव में आया है, कभी ऐसा नहीं हुआ। उसके पैर गाँव की ओर बढ़ ही नहीं रहे थे। इसी पगडण्डी से बड़ी बहुरिया अपने मैके लौट आवेगी। गाँव छोड़ चली आवेगी। फिर कभी नहीं जाएगी !
हरगोबिन का मन कलपने लगा – तब गाँव में क्या रह जाएगा? गाँव की लक्ष्मी ही गाँव छोड़कर चली आवेगी! …किस मुँह से वह ऐसा संवाद सुनाएगा? कैसे कहेगा कि बड़ी बहुरिया बथुआ साग खाकर गुज़र कर रही है। …सुननेवाले हरगोबिन के गाँव का नाम लेकर थूकेंगे, कैसा गाँव है, जहाँ लक्ष्मी जैसी बहुरिया दुख भोग रही है।
अनिच्छापूर्वक हरगोबिन ने गाँव में प्रवेश किया।
हरगोबिन को देखते ही गाँव के लोगों ने पहचान लिया – जलालगढ़ गाँव का संवदिया आया है !… न जाने क्या संवाद लेकर आया है !
‘‘राम-राम, भाई ! कहो, कुशल समाचार ठीक है न ?’’
‘‘राम-राम, भैया जी । भगवान की दया से सब आनन्दी है ।’’
‘‘उधर पानी-बून्दी पड़ा है ?’’
बड़ी बहुरिया के बड़े भाई ने पहले हरगोबिन को नहीं पहचाना। हरगोबिन ने अपना परिचय दिया, तो उन्होंने सबसे पहले अपनी बहिन का समाचार पूछा, ’’दीदी कैसी हैं ?’’
‘‘भगवान की दया से सब राजी-खुशी है।’’
मुँह-हाथ धोने के बाद हरगोबिन की बुलाहट आँगन में हुई। अब हरगोबिन काँपने लगा। उसका कलेजा धड़कने लगा – ऐसा तो कभी नहीं हुआ?
…बड़ी बहुरिया की छलछलाई हुई आँखें ! …सिसकियों से भरा हुआ संवाद ! उसने बड़ी बहुरिया की बूढ़ी माता को पाँवलागी की।
बूढ़ी माता ने पूछा, कहो बेटा, क्या समाचार है?’’
‘‘मायजी, आपके आशीर्वाद से सब ठीक है ।’’
‘‘कोई संवाद ?’’
‘‘एं ? …संवाद ? …जी, संवाद तो कोई नहीं। मैं कल सिरसिया गाँव आया था, तो सोचा कि एक बार चलकर आप लोगों का दर्शन कर लूँ।’’
बूढ़ी माता हरगोबिन की बात सुनकर कुछ उदास-सी हो गई, तो तुम कोई संवाद लेकर नहीं आए हो?’’
‘‘जी नहीं, कोई संवाद नहीं। …ऐसे बड़ी बहुरिया ने कहा है कि यदि छुट्टी हुई तो दशहरा के समय गंगाजी के मेले में आकर माँ से भेंट-मुलाकात कर जाऊँगी।’’ बूढ़ी माता चुप रही। हरगोबिन बोला, ‘‘छुट्टी कैसे मिले ! सारी गृहस्थी बड़ी बहुरिया के ऊपर ही है।’’
बूढ़ी माता बोली, “मैं तो बबुआ से कह रही थी कि जाकर दीदी को लिवा लाओ, यहीं रहेगी। वहाँ अब क्या रह गया है? ज़मीन-जायदाद तो सब चली ही गई। तीनों देवर अब शहर में जाकर बस गए हैं। कोई खोज-खबर भी नहीं लेते। मेरी बेटी अकेली….!’’
‘‘नहीं, मायजी। जमीन-जायदाद अभी भी कुछ कम नहीं। जो है, वही बहुत है। टूट भी गई है, तो आखिर बड़ी हवेली ही है। ‘सवांग’ नहीं है, यह बात ठीक है। मगर, बड़ी बहुरिया का तो सारा गाँव ही परिवार है। हमारे गाँव की लछमी है बड़ी बहुरिया। …गाँव की लछमी गाँव को छोड़कर शहर कैसे जाएगी? यों, देवर लोग हर बार आकर ले जाने की जिद्द करते हैं।’’
बूढ़ी माता ने अपने अपने हाथ हरगोबिन को जलपान लाकर दिया, ‘‘पहले थोड़ा जलपान कर लो, बबुआ।’’
जलपान करते समय हरगोबिन को लगा, बड़ी बहुरिया दालान पर बैठी उसकी राह देख रही है -- भूखी, प्यासी…! रात में भोजन करते समय भी बड़ी बहुरिया मानों सामने आकर बैठ गई…कर्ज-उधार अब कोई देते नहीं। ….एक पेट तो कुत्ता भी पालता है। लेकिन, मैं ?….माँ से कहना…!!
हरगोबिन ने थाली की ओर देखा – भात-दाल, तीन किस्म की भाजी, घी, पापड़ अचार।… बड़ी बहुरिया बथुआ साग उबालकर खा रही होगी।
बूढ़ी माता ने कहा, ‘‘क्यों बबुआ, खाते क्यों नहीं?’’
‘‘मायजी, पेट भर जलपान जो कर लिया है।’’
‘‘अरे, जवान आदमी तो पाँच बार जलपान करके भी एक थाल भात खाता है।’’
हरगोबिन ने कुछ नहीं खाया। खाया नहीं गया।
संवदिया डटकर खाता है और ‘अफर’ कर सोता है, किन्तु हरगोबिन को नींद नहीं आ रही है। …यह उसने क्या किया? क्या कर दिया? वह किसलिए आया था? वह झूठ क्यों बोला? …नहीं, नहीं, सुबह उठते ही वह बूढ़ी माता को बड़ी बहुरिया का सही संवाद सुना देगा- अक्षर-अक्षर: ‘मायजी, आपकी एकलौती बेटी बहुत कष्ट में है। आज ही किसी को भेजकर बुलवा लीजिए। नहीं तो वह सचमुच कुछ कर बैठेगी। आखिर, किसके लिए वह इतना सहेगी!… बड़ी बहुरिया ने कहा है, भाभी के बच्चों के जूठन खाकर वह एक कोने में पड़ी रहेगी…!’
रात-भर हरगोबिन को नींद नहीं आई।
आँखों के सामने बड़ी बहुरिया बैठी रही-सिसकती, आँसू पोंछती हुई। सुबह उठकर उसने दिल को कड़ा किया। वह संवदिया है। उसका काम है सही-सही संवाद पहुँचाना। वह बड़ी बहुरिया का संवाद सुनाने के लिए बूढ़ी माता के पास जा बैठा। बूढ़ी माता ने पूछा, ‘‘क्या है बबुआ, कुछ कहोगे?’’
‘‘मायजी, मुझे इसी गाड़ी से वापस जाना होगा। कई दिन हो गए।’’
‘‘अरे इतनी जल्दी क्या है! एकाध दिन रहकर मेहमानी कर लो।’’
‘‘नहीं, मायजी, इस बार आज्ञा दीजिए। दशहरा में मैं भी बड़ी बहुरिया के साथ आऊँगा। तब डटकर पन्द्रह दिनों तक मेहमानी करूँगा।’’
बूढ़ी माता बोली, ‘‘ऐसा जल्दी थी तो आए ही क्यों ! सोचा था, बिटिया के लिए दही-चूड़ा भेजूँगी। सो दही तो नहीं हो सकेगा आज। थोड़ा चूड़ा है बासमती धान का, लेते जाओ।’’
चूड़ा की पोटली बगल में लेकर हरगोबिन आँगन से निकला तो बड़ी बहुरिया के बड़े भाई ने पूछा, ‘‘क्यों भाई, राह खर्च है तो?’’
हरगोबिन बोला, “भैयाजी, आपकी दुआ से किसी बात की कमी नहीं।’’
स्टेशन पर पहुँचकर हरगोबिन ने हिसाब किया। उसके पास जितने पैसे हैं, उससे कटिहार तक का टिकट ही वह ख़रीद सकेगा। और यदि चौअन्नी नकली साबित हुई तो सैमापुर तक ही। …बिना टिकट के वह एक स्टेशन भी नहीं जा सकेगा। डर के मारे उसकी देह का आधा खून गया।
गाड़ी में बैठते ही उसकी हालत अजीब हो गई। वह कहाँ आया था? क्या करके जा रहा है? बड़ी बहुरिया को क्या जवाब देगा?
यदि गाड़ी में निरगुन गाने वाला सूरदास नहीं आता, तो न जाने उसकी क्या हालत होती! सूरदास के गीतों को सुनकर उसका जी स्थिर हुआ, थोड़ा –
...कि आहो रामा !
नैहरा को सुख सपन भयो अब,
देश पिया को डोलिया चली…ई…ई….ई,
माई रोओ मति, यही करम गति…!!
सूरदास चला गया तो उसके मन में बैठी हुई बड़ी बहुरिया फिर रोने लगी – ‘किसके लिए इतना दुख सहूँ ?’
पाँच बजे भोर में वह कटिहार स्टेशन पहुँचा। भोंपे से आवाज़ आ रही थी -- बैरगाछी, कुसियार और जलालगढ़ जाने वाली यात्री एक नम्बर प्लेटफार्म पर चले जाएँ।
हरगोबिन को जलालगढ़ स्टेशन जाना है, किन्तु वह एक नम्बर प्लेटफार्म पर कैसे जाएगा? उसके पास तो कटिहार तक का ही टिकट है। …जलालगढ़! बीस कोस! बड़ी बहुरिया राह देख रही होगी। … बीस कोस की मंजिल भी कोई दूर की मंजिल है? वह पैदल ही जाएगा।
हरगोबिन महावीर-विक्रम-बजरंगी का नाम लेकर पैदल ही चल पड़ा। दस कोस तक वह मानो ‘बाई’ के झोंके पर रहा। कसबा शहर पहुंचकर उसने पेट भर पानी पी लिया। पोटली में नाक लगाकर उसने सूंघा : अहा! बासमती धान का चूड़ा है। माँ की सौगात-बेटी के लिए। नहीं, वह इससे एक मुठ्ठी भी नहीं खा सकेगा। ….किन्तु वह क्या जवाब देगा बड़ी बहुरिया को !
उसके पैर लड़खड़ाए। …उँहूँ, अभी वह कुछ नहीं सोचेगा। अभी सिर्फ़ चलना है। जल्दी पहुँचना है, गाँव। …बड़ी बहुरिया की डबडबाई हुई आँखें उसको गाँव की ओर खींच रही थीं – ‘मैं बैठी राह ताकती रहूँगी !…’
पन्द्रह कोस ! …माँ से कहना, अब नहीं रह सकूँगी।
सोलह…सत्रह…अठ्ठारह…जलालगढ़ स्टेशन का सिग्नल दिखाई पड़ता है… गाँव का ताड़ सिर ऊँचा करके उसकी चाल को देख रहा है। उसी ताड़ के नीचे बड़ी हवेली के दालान पर चुपचाप टकटकी लगाकर राह देख रही है बड़ी बहुरिया- भूखी-प्यासी: ‘हमरो संवाद लेले जाहु रे संवदिया…या…या…या!!’
लेकिन, यह कहाँ चला आया हरगोबिन? यह कौन गाँव है? पहली साँझ में ही अमावस्या का अंधकार ! किस राह से वह किधर जा रहा है? …नदी है? कहाँ से आ गई नदी? नदी नहीं, खेत है। ….ये झोंपड़े हैं या हाथियों का झुण्ड? ताड़ का पेड़ किधर गया? वह राह भूलकर न जाने कहाँ भटक गया… इस गाँव में आदमी नहीं रहते क्या? …कहीं कोई रोसनी नहीं, किससे पूछे? …वहाँ, वह रोशनी है या आँखें? वह खड़ा है या चल रहा है? वह गाड़ी में है या धरती पर….?
‘‘हरगोबिन भाई, आ गए?’’ बड़ी बहुरिया की बोली या कटिहार स्टेशन का भोंपा बोल रहा है?
‘‘हरगोबिन भाई, क्या हुआ तुमको…’’
‘‘बड़ी बहुरिया?’’
हरगोबिन ने हाथ से टटोलकर देखा, वह बिछावन पर लेटा हुआ है। सामने बैठी छाया को छूकर बोला, ‘‘बड़ी बहुरिया?’’
‘‘हरगोबिन भाई, अब जी कैसा है? …लो, एक घूँट दूध और पी लो। …मुँह खोलो…हाँ…पी जाओ। पीयो !!’’
हरगोबिन होश में आया। …बड़ी बहुरिया दूध पिला रही है?
उसने धीरे से हाथ बढ़ाकर बड़ी बहुरिया का पैर पकड़ लिया, ”बड़ी बहुरिया। …मुझे माफ करो। मैं तुम्हारा संवाद नहीं कह सका। …तुम गाँव छोड़कर मत जाओ। तुमको कोई कष्ट नहीं होने दूँगा। मैं तुम्हारा बेटा! बड़ी बहुरिया, तुम मेरी माँ, सारे गाँव की माँ हो! मैं अब निठल्ला बैठा नहीं रहूँगा। तुम्हारा सब काम करूँगा। …बोलो, बड़ी माँ …तुम गाँव छोड़कर चली तो नहीं जाओगी? बोलो….!!’’
बड़ी बहुरिया गर्म दूध में एक मुठ्ठी बासमती चूड़ा डालकर मसकने लगी। …संवाद भेजने के बाद से ही वह अपनी ग़लती पर पछता रही थी !