संवेदनाओं का डिजिटल संस्करण’ एक बाइनरी कोड / रश्मि विभा त्रिपाठी

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संवेदनशील लघुकथाकार डॉ. सुषमा गुप्ता का लघुकथा- संग्रह ‘संवेदनाओं का डिजिटल संस्करण’ पढ़ा। पुस्तक का शीर्षक ही इसके भीतर की गहराई को दर्शाता है। ‘संवेदना’ शब्द पाठकों को मानवीय भावनाओं की वास्तविक दुनिया में ले जाता है, और ‘डिजिटल’ उस वास्तविक दुनिया के डिजिटलीकरण का प्रतीक बनकर सामने आता है। जैसे बाइनरी कोड तकनीकी दुनिया का आधार है, संवेदनाएँ हमारी दुनिया का आधार हैं। तकनीक ने हमारे जीवन के हर पहलू को प्रभावित किया है, और साहित्य भी इससे अछूता नहीं है।

पुस्तक महत्त्वपूर्ण इसलिए है कि आज के डिजिटल (मशीनी) युग में हम मानवीय संवेदनाओं के बारे में बात कर रहे हैं। पुस्तक आज की तकनीकी दुनिया को वास्तविक दुनिया से जोड़ती है और हमें याद दिलाती है कि संवेदनाएँ हमेशा प्रासंगिक रहेंगी, चाहे हम कितने भी डिजिटल हो जाएँ।

डॉ. सुषमा गुप्ता की लघुकथाओं का मर्म रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जो बताते हैं, उससे स्पष्ट है कि विविध विषयों को छूती डॉ. सुषमा गुप्ता की लघुकथाएँ समकालीन समाज के सभी पहलुओं की गहरी पड़ताल करती हैं। ये न केवल भारतीय समाज की: बल्कि वैश्विक समाज की समस्याओं की ओर भी इशारा करती हैं। इनमें प्रेम, शोषण, अनैतिकता, सामाजिक पूर्वाग्रह, सामाजिक विडंबनाओं के बीच एक गहरी संवेदना है। इन कथाओं की शक्ति लघुकथाकार के व्यक्तिगत अनुभवों, लेखकीय समर्पण, और गहन चिन्तन में निहित है, जिससे उन्होंने समाज की नब्ज पकड़ी है। डॉ. सुषमा गुप्ता का शिल्प अद्वितीय है। उनकी लेखन- शैली नितांत व्यक्तिगत और संवेदनशील है, जो उन्हें अन्य लघुकथाकारों से अलग करती है।

डॉ. सुषमा गुप्ता की लघुकथाओं में समाज की प्रथाओं, नारी की स्थिति और मनुष्य की संवेदनहीनता के प्रति गहरी आलोचना देखने को मिलती है और ये समाज की उन बुनियादी चुनौतियों पर प्रकाश डालती हैं, जिनसे जीवन को रोज दो- चार होना पड़ता है। डॉ. सुषमा गुप्ता की लघुकथाएँ न केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं; बल्कि वे समाज के संवेदनशील मुद्दों पर भी ध्यान आकर्षित कर आत्ममंथन के लिए प्रेरित करती हैं।

लघुकथा ‘अतीत में खोई हुई वर्तमान की चिट्ठियाँ’ में प्रेम की मासूमियत और संवेदनशीलता का अद्वितीय चित्रण है, जो पाठक को एक गहन भावनात्मक स्तर पर ले जाता है। चिट्ठी का रंग बदलना और अक्षरों का खो जाना प्रतीक रूप में उस मासूमियत के भी खो जाने का संकेत है, जो समय के साथ अदृश्य होती जा रही है। लघुकथा ‘हीरोइन’ एक स्त्री के प्रति पुरुष के उस जुड़ाव को दर्शाती है, जो स्त्री के बाह्य बदलावों के बाद कैसे खत्म हो जाता है। यह पाठकों को विचार करने पर विवश करती है कि वास्तव में जुड़ाव को केवल दैहिक तक सीमित करना छद्मवेशी सोच का परिणाम है। लघुकथा ‘कुछ तो लोग कहेंगे’ अनैतिकता से आत्मसंघर्ष करते एक युवा के माध्यम से सही मायने में आज की दिग्भ्रमित युवा पीढ़ी को असली मर्द और नपुंसकता की परिभाषा बताती है कि आज के युवा की नजर में मर्द कौन है- वह, जो अपनी वासना तले मूल्यों और नैतिकता को रौंद देता है? या नपुंसक वह है, जो अपनी वासना पर नियंत्रण रखकर उन मूल्यों और नैतिकता को बनाए रखता है?

लघुकथा ‘डकराते प्रेम बिंदु’ प्रेम और देह के बीच, एक महानगरीय संस्कृति की चकाचौंध में खोए एक युग्म के बीच की अंतरंगता को दर्शाते हुए प्रेम की भौतिकता और उसकी क्षणिकता का प्रभावी चित्रण करती है। प्रेम का पवित्र भाव धीरे- धीरे एक भयावह रूप ले लेता है, जब प्रेम के क्षणों में से देह का अस्तित्व समाप्त होने लगता है। यह परिवर्तन एक भयावह वास्तविकता में बदल जाता है, जिसमें अंततः शरीर की हड्डियाँ रह जाती हैं। लघुकथा ‘नीम बेहोशी’ और ‘प्रेमगंध’ से अचानक ‘सफेद हड्डियों’ को उभारकर विचलित करती है। रेत पर बिखरी हड्डियाँ और ‘गहरे कुएँ’ में गूढ़ अर्थ है। लघुकथा ‘तरक्की’ एक ज्वलंत सामाजिक समस्या पर प्रकाश डालती है- महिला असुरक्षा। दादी का कथन ‘जंगल धोरे?’ आज के युग की तरक्की की सारी पोल खोल देता है, जहाँ विकास के बावजूद समाज में बढ़ती महिला असुरक्षा की भावना में तनिक भी कमी नहीं आई है। ‘तरक्की’ हमें सोचने पर विवश करती है कि क्या हम वास्तव में प्रगति कर रहे हैं?

लघुकथा ‘ज़िंदा का बोझ’ एक गहन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। हिंसक प्रवृत्ति के पीर साहब की हत्या होने पर सारे समाज का ध्यान जाता है, जबकि बेटी तक के प्रति उसकी कामुक प्रवृत्ति का किसी को पता नहीं! हिंसा झेलते हुए पल- पल मरती गुलाबो को किसी ने नहीं देखा। ‘ज़िंदा का बोझ’ शब्द में उसका भारी मानसिक संघर्ष दबा है। लघुकथा ‘चरित्रहीन’ एक गहन विचारोत्तेजक विमर्श प्रस्तुत करती है और स्त्री हिंसा, तदुपरांत स्त्री के प्रति सामाजिक सोच, किशोर अपराध और न्याय प्रणाली की विफलताओं को दर्शाती है। प्रमुख स्त्री पात्र त्रासद स्थिति में फँसी हुई स्त्री का प्रतिनिधित्व करते हुए बलात्कार के संभावित खतरे और समाज के नजरिए के खिलाफ़ अपनी स्वायत्तता की रक्षा के लिए संघर्ष करती है। ‘चरित्रहीन’ शब्द में वह सामाजिक दृष्टिकोण है, जो किसी भी परिस्थिति में आसानी से महिला को दोषी ठहरा देता है, बलात्कार और हिंसा की स्थिति में महिला के चरित्र पर ही उँगली उठाता है।

‘मानसिक संतुलन’ में एक मानसिक रूप से बीमार स्त्री के माध्यम से असल में समाज की बीमार मानसिकता दृष्टिगोचर होती है। नारी निकेतन में- “वह नहाती भी खुले में थी, उसका मानसिक संतुलन ठीक नहीं था न। बाकी सब कर्मचारी बहुत ध्यान से उसे देखते थे...” अपनी मानसिक स्थिति ठीक होते हुए भी? एक दिन वह यूँ ही मर गई। यह ‘यूँ ही’ समाज के उस बिगड़े हुए मानसिक संतुलन की पुष्टि करता है, जो अपनी हवस के लिए मानसिक रूप से विक्षिप्त स्त्री को भी नहीं छोड़ता।

लघुकथा ‘बिना दर्द का खाना’ में भी समाज की वही बीमार मानसिकता है, जो अपनी वासना की भूख के लिए अबोध बच्चियों तक को अपना ग्रास बनाता है। लघुकथा ‘इज़्ज़त का धंधा’ में किन्नर समुदाय की पीड़ा और संघर्ष, और उनके प्रति समाज की दोहरी सोच है। “सब जगह से दुत्कारकर ज़लील कर-करके भगा देते हो।... पढ़ा खिला नहीं सकते साथ में, जो हम भी इज्ज़त से कमा खा लें। पर बिस्तर पर कोई दिक्कत न है तुम्हें हमसे।” ‘रक्षक जख़्म’ मन में घाव कर देने वाली लघुकथा है कि कैसे एक स्त्री अपने शरीर के गहरे ज़ख्मों को भरना नहीं चाहती; क्योंकि वे जख़्म रात को वहशी कुत्तों से उसकी रक्षा करते हैं। लघुकथा ‘पगड़ी’ में पारिवारिक प्रतिष्ठा, सामाजिक मान्यताओं को लेकर एक पिता का दोहरा मापदंड है, जो अपने बेटे की होने वाली पत्नी को लेकर मान- सम्मान की बात करते हैं; लेकिन अपने हाथों खुद अपनी ही पगड़ी उछाल रहे हैं।

लघुकथा ‘संवेदनाओं का डिजिटल संस्करण’ मानव मन पर आधुनिक तकनीक का प्रभाव दर्शाते हुए डिजिटल युग में रिश्तों की स्थिति का असल आकलन करती है। मुख्य पात्र अपने पिता की बीमारी और मृत्यु की घटना को आभासी पटल पर साझा करके अपनी व्यक्त भावनाओं और उनके भीतर के बीच एक विस्मयकारी विरोधाभास दिखाता है। पिता की बीमारी और मृत्यु का समाचार बेटा सोशल मीडिया पर अपडेट करके पिता के प्रति अपना भावनात्मक जुड़ाव दिखाकर और दवाइयों की प्रतीक्षा करती माँ को नज़रअंदाज कर सिद्ध करता है कि कैसे आभासी पटल पर व्यक्त भावनाओं ने मन में जगह ले ली है और असली रिश्ते जीवन से गायब हो गए हैं। मर्मस्पर्शी लघुकथा ‘मोहपाश’ में एक पिता अपने पुत्र की प्रतीक्षा कर रहे हैं जबकि पुत्र की एक वर्ष पहले मृत्यु हो चुकी है। समाज ऐसे व्यक्ति को मनोरोगी से अधिक कुछ नहीं समझेगा परंतु लघुकथा एक पिता के अपने बेटे के प्रति गहन भावनात्मक लगाव की पराकाष्ठा बताती है। लघुकथा ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ भीतर तक हिलाकर रख देती है जब भयानक दुर्घटना का शिकार हुए व्यक्ति का वीडियो बनाते हुए लोगों की मरी हुई संवेदना साबित करती है कि जीता- जागता व्यक्ति केवल एक ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ है आज के समय में।

इस संग्रह की प्रत्येक लघुकथा एक बाइनरी कोड के समान मानवीय संवेदनाओं को व्यक्त करने की जटिल प्रक्रिया का सरलीकरण कर उन्हें मानव-स्मृति में संरक्षित कर एक नए दृष्टिकोण से सोचने पर विवश करती है।

डॉ. सुषमा गुप्ता की लघुकथाओं की लघुता में वह गुरुत्वाकर्षण बल है, जो पाठक को अपनी ओर खींचकर उसमें एक गहन सामाजिक चेतना का संचार करता है। आज के मशीनी युग में, जहाँ मानव भी एक मशीन बन गया है, वहाँ यह पुस्तक मानवता और तकनीक के बीच बना एक सेतु है जो अदृश्य होती भावनाओं को मानव मन से जोड़ता है।

अतः ‘संवेदनाओं का डिजिटल संस्करण’ एक बाइनरी कोड है, जो मानव -स्मृति में एक नई छाप छोड़ते हुए एक नवीन विचार का संचार कर संवेदनाओं का संचयन कर लघुकथा- जगत् में नए आयाम स्थापित करेगा।

संवेदनाओं का डिजिटल संस्करण (लघुकथा- संग्रह) पृष्ठ:120, मूल्य: 260 रुपये, ISBN: 978-81-972367-0-9, प्रथम संस्करण: 2024, प्रकाशक: प्रवासी प्रेम पब्लिशिंग, भारत, 3/186 राजेंद्र नगर, सेक्टर- 2, साहिबाबाद, गाजियाबाद- 201005

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