संवेदनापरक लघुकथाओं का दस्तावेज़ः लघुकथा-यात्रा / रश्मि विभा त्रिपाठी

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

संवेदनापरक लघुकथाओं पर केंद्रित नीलाम्बरा के पुस्तक रूप संग्रह ‘लघुकथा- यात्रा’ के अध्ययन का अवसर प्राप्त हुआ। यहाँ पढ़ने के बजाय अध्ययन शब्द- प्रयोग इसलिए समीचीन है; क्योंकि यह संग्रह अध्येताओं, शोधार्थियों के लिए न केवल एक महत्त्वपूर्ण शोध सामग्री ; बल्कि एक पुस्तकालय है, जहाँ उसे संवेदना की सार्वभौमिक सत्ता की शिक्षा मिलती है, जो जीवन- जगत् के लिए अपरिहार्य है। आज के मशीनी युग में मानवीय संवेदनाओं का अस्तित्व मिट गया है। व्यक्ति यंत्रवत् अपने भौतिक सुख के लिए दौड़ रहा है। हर किसी के प्रति वह संवेदनहीन है। संवेदना के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए संपादकीय में सम्पादक डॉ. कविता भट्ट ने लिखा है कि संवेदना साहित्य की आत्मा है।

72 लघुकथाकारों की बेजोड़ लघुकथाओं से सुसज्जित यह संग्रह मानवीय मूल्यों की एक पाठशाला है। ख्यातिलब्ध कथाकार व अनुवादक सुभाष नीरव के लेख से लघुकथा की रचना- प्रक्रिया को समझा जा सकता है कि लघुकथा देखने में जितनी छोटी है, उतनी आसानी से नहीं लिखी जाती। संग्रह की पहली लघुकथा ‘राष्ट्र का सेवक’ (प्रेमचन्द) में सामाजिक विषमता व जातिवाद का चित्रण है। राष्ट्र का सेवक सबको समान मानता है; परन्तु जब उसकी बेटी एक निम्न जाति के युवक से विवाह की इच्छा जताती है, तो वह मुँह फेरकर अपने भीतर छिपे असमानता के सच और सामाजिक मान्यताओं की विडम्बना को उजागर करता है।

लघुकथा ‘फ़र्क’ (विष्णु प्रभाकर) में जानवरों के माध्यम से आपसी मानवीय भेद के परिहार का संदेश निहित है। अंजू खरबंदा की भावपूर्ण लघुकथाओं ‘खिड़की’, ‘खाली पलंग’ में क्रमशः सामान बेचने वालों की भावनात्मक स्थिति और ससुराल पक्ष द्वारा निर्मित सम्बन्धों को जोड़ता एक मजबूत पुल है।

लघुकथा ‘प्रेम’ (अंतरा करवड़े) में आधुनिक प्रेम का दिखावा और वास्तविक प्रेम की झलक है। वास्तविक प्रेम का तात्पर्य एक दिन का उत्सव नहीं, बल्कि हर पल की परस्पर सुरक्षा और विश्वास है। ‘त्याग’ लघुकथा में माँ की मृत्यु के बाद तीन बेटे पारंपरिक रूप से अपनी प्रिय वस्तुओं का त्याग करते हैं, लेकिन छोटे बेटे का अपने काम में से समय बचाकर अपने पिता के साथ समय बिताने का निर्णय वास्तविक त्याग और सच्चा पारिवारिक प्रेम प्रकट करता है।

समाज में व्याप्त सौंदर्य की संकीर्ण परिभाषा को चुनौती देती बेजोड़ लघुकथा ‘ख़ूबसूरती’ (डॉ. उपमा शर्मा) में एक माँ ऑपरेशन थियेटर में अपने शारीरिक दर्द और मानसिक द्वंद्व से जूझती है; लेकिन अपने बच्चे को बाहों में भरकर मातृत्व और प्रेम के अतल में छिपे सच्चे सौंदर्य को महसूस करती है, जो बाह्य आकर्षण से श्रेष्ठ है।

‘जल- संरक्षण’ (कमला निखुर्पा) जल संरक्षण की महत्ता और व्यक्ति के दोहरे चरित्र को उजागर करती है कि जल- संरक्षण पर भाषण तो दिया जाता है; लेकिन निजी जीवन में व्यर्थ पानी बहाया जाता है। ‘कुलच्छन’ (डॉ. कविता भट्ट) एक सशक्त लघुकथा है, जो सामाजिक मूल्य, धार्मिकता और व्यक्तिगत आचरण के मध्य के अंतर का आवरण हटाकर सोचने पर विवश करती है कि मनुष्य की कथनी और करनी में कितनी भिन्नता है।

लघुकथा ‘हैप्पी मदर्स डे’ (कृष्णा वर्मा) आधुनिक जीवन की व्यस्तता और अकेलेपन का भाव दर्शाती है। अकेलेपन और व्यस्तता के बीच के संघर्ष के बाद ‘मदर्स डे’ पर बहू का उपहार परिवार के प्रति उसकी संवेदनशीलता से एक भावनात्मक मोड़ लाता है, जिससे सास की चिंता और अकेलेपन का अहसास पल में तिरोहित हो जाता है। लघुकथा ‘लड़की’ (प्रेम गुप्ता मानी) में समाज की भीतरी मानसिकता झलकती है। यह सशक्त कथानक मानव स्वभाव का बखान करता है कि कैसे बिना जानकारी के लोग एक-दूसरे का मूल्यांकन करते हैं।

‘उड़ान’ रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की संवेदनशील लघुकथा है, जो अकेलेपन और उपेक्षा का दर्द बयान करती है। कबूतरों का दाना लाना और उनके बच्चे के उड़ने का दृश्य मानव मन की स्थिति का प्रतीक है—एक ऐसा व्यक्ति जो, अपने परिवार के बिना अकेला महसूस कर रहा है। इन्हीं की ‘ख़ुशबू’ लघुकथा एक महिला की कुंठा और अकेलेपन को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करती है और उस सामाजिक ढाँचे को दर्शाती है जिसमें महिलाओं की समर्पित भूमिका को नजरअंदाज किया जाता है; परंतु कथा के उत्तरार्ध में एक छोटी लड़की द्वारा दिए गए गुलाब के फूल से उसे एक नया मोड़ मिलता है जहाँ से वह फिर से जीवन की ओर आगे बढ़ जाती है। ‘ख़ूबसूरत’ लघुकथा हमें सिखाती है कि वास्तविक सुंदरता बाहरी रूप में नहीं, बल्कि व्यक्ति के आंतरिक गुणों में होती है। लघुकथा ‘गंगा स्नान’ की वृद्ध महिला पारो गंगा स्नान के लिए रखे पैसे स्कूल निर्माण हेतु दान कर शिक्षा को व्यक्तिगत लाभ से अधिक महत्त्व देते हुए संदेश देती है कि सच्चा ‘गंगा स्नान’ उस सेवा में है, जो हम समाज के लिए करते हैं। धारणा, कमीज और टुकड़खोर भी गहन भावबोध की लघुकथाएँ हैं।

लघुकथा ‘कसौटी’ (रश्मि विभा त्रिपाठी) में विवाह संस्था के पारंपरिक नियमों पर प्रश्न करती एक युवा महिला की परिष्कृत सोच है कि कुण्डली और गुण नहीं, एक जोड़े के आजीवन साथ रहने के लिए मन का मिलना अति आवश्यक है। ‘मंजिलें लाँघता दर्द’ (शशि पाधा) लघुकथा में दादी और पोते के बीच का भावनात्मक सेतु है। दर्द से कराहती दादी के लिए अपने खेल में बदलाव लाते पोते की मासूमियत और संवेदनशीलता दर्शाती है कि कैसे एक बच्चे का प्यार, बड़ों के लिए सांत्वना का स्रोत बनकर उनका दर्द मिटा सकता है।

डॉ. शिवजी श्रीवास्तव की मार्मिक लघुकथा ‘इकतीसवाँ दिन’ में आज के सम्बन्धों के क्षरण का सटीक विश्लेषण है। बेटों के समर्थ होते हुए भी विधवा माँ के प्रति उनका उपेक्षित रवैया हमें झकझोरता है।

डॉ. सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा ‘दिखावा’ में युवा पीढ़ी का सामाजिक पाखण्ड और मानवता के प्रति एक विरोधाभासी दृष्टिकोण है। कुर्ता-पाजामा पहने युवक भिखारी को गले लगाकर सामाजिक पाखंड करता है और भिखारी का तर्क ‘रोटी से पेट भरता है’ उस पाखंड पर कार्य- व्यवहार की मुहर लगाता है।

प्रसिद्ध लघुकथाकार सुकेश साहनी की लघुकथा ‘संस्कार’ पिता-पुत्र के रिश्ते और पारिवारिक जिम्मेदारियों को दर्शाती है। यह एक गहन भावनात्मक यात्रा है, जो पहले पारिवारिक रिश्तों की उपेक्षा और फिर कर्तव्यबोध के मार्ग पर ले जाती है।

‘धुएँ की दीवार’ परिवारिक बँटवारे और उसके परिणामों पर प्रकाश डालते हुए, अंत में पुनर्मिलन की संभावना प्रकट करती है। कथा में बेटी और चाचा के बीच का निश्छल प्रेम, बँटवारे की दीवार को भेदकर इस सकारात्मक विचार को दृढ़ करता है कि यदि प्रेम और सद्भावना हो, तो रिश्तों की दीवारें भी धुएँ की तरह उड़ सकती हैं। ‘पितृत्व’ एक दोहरी मानसिकता को दर्शाती लघुकथा है।

लघुकथा ‘मुक्ति’ (सुदर्शन रत्नाकर) में एक बेटे के आंतरिक संघर्ष और माँ की गम्भीर मानसिक स्थिति का एक मनोवैज्ञानिक चित्रण है। माँ की देखभाल करते हुए बेटा प्यार और गुस्से की भावना का सामना करते हुए माँ की मुक्ति के लिए जाप करता है। माँ की मृत्यु के बाद, वह अपने कर्तव्य से मुक्त तो हो जाता है; लेकिन माँ से फिर भी मुक्त नहीं हो पाता और उदास होता है। क्या सच में मुक्ति वही थी, जो उसे चाहिए ।

डॉ. सुषमा गुप्ता की लघुकथा ‘ज़िंदा का बोझ’ एक गहन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। हिंसक प्रवृत्ति के पीर साहब की हत्या होने पर सारे समाज का ध्यान जाता है, जबकि बेटी तक के प्रति उसकी कामुक प्रवृत्ति का किसी को पता नहीं। हिंसा झेलते हुए पल- पल मरती गुलाबो को किसी ने नहीं देखा। ‘ज़िंदा का बोझ’ शब्द में उसका भारी मानसिक संघर्ष दबा है।

डॉ. हरदीप कौर ‘सन्धु’ की हृदयस्पर्शी लघुकथा ‘ख़ूबसूरत हाथ’ में करमो का नजरिया मातृत्व और श्रम को गरिमामय बनाता है। करमो अपनी माँ के हाथों का चित्र बनाकर दिखाती है कि उसकी माँ का श्रम और मातृत्व सबसे मूल्यवान् है। वास्तविक सुंदरता बाहरी रूप में नहीं, बल्कि मेहनत और संघर्ष में होती है।

‘लघुकथा- यात्रा’ संग्रह पाठकों को लघुकथा की अद्भुत दुनिया में ले जाता है। एक यायावर की तरह संवदनाओं की खोज में निकली संग्रह की ये उत्कृष्ट लघुकथाएँ पाठक को उस मोड़ पर ले जाती हैं, जहाँ वह एक नए दृष्टिकोण का सामना करता है।

लघुकथा के विकास, तकनीकी विश्लेषण सम्बन्धी लेख, महत्त्वपूर्ण संग्रहों की समीक्षा और अनुवाद सामग्री सहेजे अध्येताओं और शोधार्थियों को लघुकथा की अनंत संभावनाओं की मंजिल की ओर ले जाती साहित्य- जगत् की इस लघुकथा- यात्रा के सम्पादन हेतु आदरणीया ‘शैलपुत्री’ जी को साधुवाद।

लघुकथा- यात्रा: डॉ. कविता भट्ट ‘शैलपुत्री’, पृष्ठ: 122, मूल्य: 320 रुपये, ISBN: 978-93-6423-834-2, प्रथम संस्करण: 2024, प्रकाशक: अयन प्रकाशन, जे–19/39, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली–110059

-0-