संवेदना के साथ छलावा सदा चिंतित करता है / नवल किशोर व्यास
रांझणा और तनु वेड्स मनु सीरीज के निर्देशक आंनद एल राय की फिल्में अपने विट और उम्दा चुटीले संवादों के लिए जानी जाती है। जल्दी ही ये टीम शाहरुख खान को लेकर एक फिल्म लेकर आ रहे है जिसमे शाहरुख खान एक बौने का किरदार करने जा रहे है। कंगना के फिल्मी करियर को परवान चढ़ाने और अभिनेत्री के रूप में गंभीरता लाने में क्वीन और तनु-मनु सीरीज का बड़ा हाथ रहा। दोनों ही फिल्में सफल है पर तनु वेड्स मनु रिटर्न का दायरा क्वीन जैसा नही है। क्वीन स्पष्ट और प्रखर नारीवाद है जबकि तनु वेड्स मनु रिटर्न ने नारीवाद और उसके सशक्तिकरण पर संशय पैदा किया है। फिल्म के अंतिम दस मिनिट में उम्मीद कुछ क्वीन के क्लाईमेक्स जैसी ही होती है पर जिस तरह क्वीन अपने नायक विजय को अस्वीकार करती है, उस तरह से और उस भावना से कुसुम सांगवान मनु शर्मा को रिजेक्ट नही कर पाती। ये जो रिजेक्शन दिखाया है वो फिल्मी है, स्क्रिप्ट का ढकोसला है। क्लाईमेक्स कमजोर नारीवाद को दर्शाता है और पुरूष लंपटता की पैरवी करता है। पुरूष की कंफ्यूज मानसिकता और हिन्दी सिनेमा की इस शहीदी परम्परा की भेंट फिल्म में कुसुम सांगवान चढ़ती है। फिल्म के कमजोर संदेशो में से एक ये भी है कि अब लोग विवाह नाम की मजबूत संस्था के सिस्टम में असहज से महसूस करते है और अपनी सुविधा के लिये इस सिस्टम से बाहर आने के लिये कितने लालायित हो जाते है। अति व्यक्तिवादी भावनाओ से आदमी कमजोर हो रहा है जबकि विवाह जैसी परम्परावादी व्यवस्था को सुविधानुसार स्वीकार अथवा अस्वीकार करने में सहजता सी आ गई है। अधेड मनु शर्मा कुसुम सांगवान की जिंदगी में लगभग अतिक्रमण करते हुए प्रवेश होते है। सैकिण्ड हैण्ड मनु शर्मा कुसुम सांगवान को अपना कंधा बनाते है। मासूम कुसुम सांगवान बार बार मनु शर्मा से पूछते रहती है। शर्मा जी, प्रेम तो करे सै ना, बस। यहाँ से एथलीड किशोरी कुसुम सांगवान उत्साह के साथ इस नए रनिंग ट्रेक पर पंख लगाये दौडने लगती है। शर्मा जी के लिये अपने समाज से लड पडती है, पर शादी के फेरो के बीच मनु शर्मा का भारतीय मन बेचैन है, असमंजस है। आखिरकार मनु शर्मा को कुसुम खुद ही आजाद कर देती है। कुसुम सांगवान को तो जीत चाहिए या हार, ये सांत्वना पुरस्कार उसके स्पोर्टस भेजे में घुसता ही नही। मनु शर्मा की लंपटता और बेशर्मी चरम पर है। उनकी पुरूष भावनाओं की जिद दूसरे की भावनओ को रोंदकर मूव आॅन हो जाती है। तनु जी को मनु शर्मा दोबारा मिल जाते है। सब खुश है पर कोई नही है तो कुसुम सांगवान। निर्देशक की कलाबाजी यहां भी है, अंत भला तो सब भला की विचारधारा में राजा अवस्थी और कुसुम सांगवान की बातचीत दर्शक मनोविज्ञान के साथ छलावा है। दर्शक को जहां कुसुम सांगवान के दुख और संताप के साथ सिनेमाधर से बाहर निकलना था, वही अब वो तनु मनु के मिलन के खुमारी में बाहर निकलता है। व्यावसायिक सिनेमा जीतता है पर एक पात्र की संवेदना की हार हो जाती है। तनु मनु से परे क्वीन की कथानक की बनावट इस रूप में अद्भूत थी।
क्वीन का कथानक जैसी हूं वैसी बेहतरीन और श्रेष्ठ हूं की बात करता है। तनु की तरह क्वीन किसी के लिये खुद को नही बदलती है, बल्क़ि अपनी मौलिकता से सभी पर चमत्कार करती है। तनु खिलदंड और उन्मुक्त होकर भी कमजोर निकलती है जबकि क्वीन दब्बू होने के बावजूद मजबूती से उभरती है। उसकी मजबूती से ही उसके मौलिक व्यक्तित्व को और ज्यादा दायरा मिलता रहता है। इससे बढिया महिला सशक्तिकरण का उदाहरण और हो भी क्या सकता है। हिन्दी सिनेमा में फिल्म की बनावट और स्क्रिप्ट पर काम करते समय इस बात का इल्म फिल्मकार के दिमाग में जरूर होना चाहिए कि उसकी फिल्म से सन्देश क्या जा रहा है। इस स्तर पर क्वीन जीतती है जबकि तनु वेड्स मनु रिटर्न व्यावसायिक सफलता के बावजूद हार जाती है। गुरूदत की फिल्म प्यासा में भी विजय के अतृप्त भटकते मन को ठौर और सांत्वना केवल गुलाबो नाम के पात्र से ही मिलती है। फिल्म के अंत में जब विजय की प्रेमिका मीना सहित हर कोई विजय के आगे नतमस्तक है, तब फिल्मकार गुरूदत और लेखक अबरार अल्वी का क्लाईमेक्स तय करता है कि दुनिया से विरक्त विजय के लिये अब सांसारिकता केवल गुलाबो ही है। ये गुरूदत्त की ही महीन सोच थी कि आम भारतीय मूल्यो के सम्मान में कही फिल्म से ये सन्देश निकलकर ना चला जाये कि संघर्ष और गुरबत का याराना केवल शिखर के दिनो की जुगाली भर है। इसी तरह के महीन विचार को सोचने में हिमांशु शर्मा और आनंद एल राय चूक गए और कुसुम सांगवान नाम के सिनेमाई पात्र की संवेदना को नजरअंदाज कर दिया गया जो आज तक चुभती है।