संशय की एक रात: श्रीनरेश मेहता / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु'
श्रीनरेश मेहता सप्तक कवियों में प्रमुख रहे हैं। ये बीच की पीढ़ी में अन्य कवियों की अपेक्षा अधिक प्रखर रहे हैं। 'संशय की एक रात' इनका पौराणिक गीतिनाट्य है। इस कृति से इन्होंने हिन्दी जगत् में एक वैचारिक हलचल उत्पन्न की। प्रसंग है-राम-रावण युद्ध का निश्चय। राम युद्ध को बचाना चाहते हैं। वे मानव में जो श्रेष्ठ है, उसी को जगाकर युद्ध का समाधान करना चाहते हैं, इसी संघर्ष को लेकर राम का मन संशयग्रस्त हो जाता है। काव्य की कथावस्तु को संक्षिप्त एवं सूत्ररूप में है जिसे चार सर्गों में बाँटा गया है-
1-साँझ का विस्तार और बालूतट।
2-वर्षा भीगे अन्धकार का आगमन।
3-मध्यरात्रि की मंत्रणा और निर्णय।
4-संदिग्ध मन का संकल्प और सवेरा।
कथावस्तु: भाद्रपदी संध्या मेघाच्छन्न आकाश की बेला में राम का संशय बढ़ने लगता है। सेतुबन्ध तैयार हो चुका है। लक्ष्मण अपने शौर्यपूर्ण वचनों से राम को एक बारगी झकझोर देते हैं। लेकिन राम का अन्तर्द्वन्द्व गहराता जाता है। लक्ष्मण राम को सिन्धु-तट पर अकेला छोड़कर चले जाते हैं उदास राम सेतुबंध की बुर्जी पर खड़े धाराधर वर्षा में भीगते रहते हैं। नील अज्ञात मायावी छायाओं की सूचना देता है। ये छायाएँ मृत दशरथ और जटायु की आत्माएँ हैं, जो संशयग्रस्त राम को असत्य से युद्ध करने का उपदेश देकर विलीन हो जाती हैं।
मध्यरात्रि में युद्ध-परिषद् की बैठक होती है। लक्ष्मण विभीषण हनुमान सुग्रीव, जामवन्त आदि सभी युद्ध की अपरिहार्यता पर बल देते हैं। राम 'परिषद् की इच्छा' कहकर अपने निर्णय को परिषद् के हाथों सौंप देते हैं। सबके चले जाने पर राम चिंतामग्न बैठे रहते हैं। उनका संदिग्ध मन संकल्प की ओर बढ़ने लगता है। संशय निर्णय में बदल जाता है। प्रश्न तिरोहित हो जाते हैं। सर्ग-विभाजन का महत्त्वः-संशय की एक रात का सर्ग-विभाजन कथावस्तु के भावात्मक विकासक्रम और मनःस्थिति की दृष्टि से सार्थक तथा संगत है। साँझ 'संशय' का प्रतीक और बालूतट विचार-विशृंखलता जीवन की निस्सहायता एवं असफलता का प्रतीक है। वर्षा भीगे अन्धकार में साँझ का विस्तार और बालूतट डूब जाते हैं। दशरथ और जटायु की आत्माएँ आकर राम को युद्ध का औचित्य समझाती हैं। मध्यरात्रि आने वाले प्रभात की ओर इंगित करती है। परिषद् के निर्णय से राम के संशय का शमन हो जाता है। प्रत्यूष बेला आशा, आकांक्षा और जागरण का प्रतीक है। सूर्यागम देखकर राम के प्रत्यंच मुख पर तनाव कम हो गया।
समस्या: राम में मन में संशय का उदय युद्ध की समस्या को लेकर होता है। शान्ति स्थापना के लिए युद्ध अनिवार्य और अपरिहार्य है। श्रीनरेश मेहता के अनुसार-'युद्ध आज की प्रमुख समस्या है। संभवतः सभी युग की। इस विभीषिका को सामाजिक एंव वैयक्तिक धरातल पर सभी युगों में भोगा जा रहा है।' विभीषण का चिन्तन और भी तीव्र है। नैतिक मूल्यों की रक्षा और अनैतिकता के विरोध में ही उसे राष्ट्र विरोधी कार्य करना पड़ा। राम ऐतिहासिक काल के आरम्भ में युद्ध के बीज नहीं बोना चाहते हैं। आने वाली पीढ़ी इस रक्तपात को अपना सकती है। नरमेध के पश्चात् भी शान्ति-स्थापना का क्या भरोसा? राम युद्ध-संन्धि सभी से मुक्त होना चाहते हैं-इतिहास के हाथों बाण बनने से अधिक अच्छा है। स्वयं हम अँधेरों में यात्रा करते हुए खो जाएँ। राम तो मानवता को जगाना चाहते हैं-
मैं केवल युद्ध को बचाना चाहता रहा हूँ बन्धु!
मानव में श्रेष्ठ जो विराजा है। उसको ही।
हाँ, उसको ही जगाना चाहता रहा हूँ बन्धु!
राम नहीं चाहते कि उनकी नितान्त व्यक्तिगत समस्याएँ ऐतिहासिक कारणों को जन्म दें। उनका संशय प्रथम होते हुए भी अन्तिम नहीं है। युद्ध-विजय से होने वाली प्राप्ति मिथ्या है_ इसीलिए नरसंहार के व्यामोह के प्रति उन्हें वितृष्णा है। यह भाव कायरता के कारण नहीं, बल्कि यु़द्ध विरोधी होने के कारण है-
'लक्ष्मण! मैं नहीं हूँ कापुरुष / युद्ध मेरी नहीं है कुण्ठा / पर युद्ध प्रिय भी नहीं।'
सीता की प्राप्ति के लिए नरसंहार किया जाए, तो आने वाली पीढ़ी क्या कहेगी। कुल-विनाश का निमित्त वे अपने को पहले ही मान चुके हैं ;अतः जन-विनाश का निमित्त बनना उन्हें त्याज्य लगता है-
बाण-बिद्ध पाखी-सा विवश / साम्राज्य नहीं चाहिए / मानव के रक्त पर पग धरती आती / सीता भी नहीं चाहिए. पितात्मा उन्हें अनुताप का त्याग करने को कहती है और युद्ध की सार्थकता का समर्थन करती है-
'कीर्ति, यश, नारी धरा / जय, लक्ष्मी / ये नहीं है कृपा / मेरे पुत्र भिक्षा से नहीं / बर्चस्व से अर्जित हुए हैं आज तक।' लेकिन युद्ध का औचित्य राम के गले नहीं उतरता। राम सीता के लिए फिर भी युद्ध नहीं करना चाहते हैं;क्योंकि सीताहरण उनकी निजी समस्या है। राम युद्ध को दायित्व मानते हैं, आवेश नहीं। हनुमान का विचार है कि युद्ध भी ग़लत परम्परा पड़ने के भय से न्याय और अधिकार का त्याग नहीं किया जा सकता है। सुग्रीव के अनुसार-
युद्ध केवल फेन ही नहीं / निर्णय है / जिससे इतिहास बना करता है / विभीषण युद्ध को अच्छा नहीं मानते। लंका की अनागत दुर्दशा से उनका मन सिहर उठता है फिर भी वे कहते हैं-
युद्ध/ मंत्रणा नहीं / एक दर्शन है राम! / अन्तिम मार्ग है / स्वत्व और अधिकार अर्जन का।
राम अपना चिन्तन परिषद् की इच्छा को समर्पित कर देते हैं। युद्ध विरोधी भाव प्रखर ही रहते हैं-'कैसी विडम्बना-मेरा चिन्तन खड़ग करेगा / और आचरण युद्ध बनेगा।' उन्हें इतिहास से भी घृणा हैं क्योंकि-'इतिहास / व्यक्ति को व्यक्ति नहीं / शस्त्र मानता है।' मध्य रात्रि के निर्णय के साथ ही राम के संदिग्ध मन में संकल्प उभरने लगता है। इसके साथ ही राम का संशय शमित हो जाता है, सभी प्रश्न तिरोहित हो जाते हैं-'प्रश्नों की बेला अब नहीं रही। / युद्ध की वास्तविकता सूर्योदय ला रही।' लोकमत के आगे राम का संशय युद्ध के दृढ़ निश्चय में परिवर्तित हो जाता है।
चरित्र-चित्रण-इस गाीति नाट्य का मुख्य चरित्र- 'राम' है। उनके मन में संशय को निर्मूल करने के लिए ही अन्य पात्रें की सृष्टि हुई हैं। वही पूरी कथा के केन्द्र बिन्दु हैं। वे युद्ध को टालना चाहते हैं। सीता-प्राप्ति के लिए जन-विनाश उन्हें अनुचित लगता है। वे नहीं चाहते कि उनकी व्यक्तिगत समस्याएँ ऐतिहासिक कारणों को जन्म दें। वे पुरजन, परिजन, ट्टषि-मुनि सभी के प्रिय हैं। वे सौम्य हैं। विद्रोह उनका गुणधर्म नहीं। लोकमत का आदर उनके जनतांत्रिक दृष्टिकोण को परिपुष्ट करता है। जय-पराजय, शुभाशुभ सभी पक्षों पर विचार करना राम के लिए अनिवार्य है ; क्योंकि वे प्रज्ञा पुरुष हैं। जिस प्रकार कुछ प्रश्न सनातन होते हैं, उसी प्रकार कुछ प्रज्ञा पुरुष भी सनातन होते हैं।
लक्ष्मण शौर्य के प्रतीक हैं। राक्षस उन्हें जीवित ही भून दें, यह कल्पना की जा सकती है;पर यह संभव नहीं। लक्ष्मण कहते हैं-
'बन्धु! यह असम्भव है / कर्म और वर्चस्व को / छीन सके कोई भी / जब तक हम जीवित हैं।' इतना ही नहीं-'लंका यदि ध्रुव पर भी होती / तो भाग नहीं पाती बन्धु / लक्ष्मण के पौरुष से।' लक्ष्मण में जहाँ पौरुष की तीव्रता है, वहाँ शौर्य एवं संकल्प भी उनके साथ हैं। विभीषण राम के बाद दूसरे पात्र हैं, जो अंतर्द्वन्द्व झेल रहे हैं। न्याय का पक्ष लेने के लिए उन्हें अपने राष्ट्र के विरुद्ध युद्ध का निर्णय लेना पड़ता है। हनुमान दलितवर्ग के प्रतिनिधि के रूप में आए हैं। उन्होंने उपनिवेशवाद का घोर विरोध किया; क्योंकि उन्हें दास भाव से राक्षसों की सेवा करनी पड़ी। वे लंका में भोज्य-पदार्थों की भाँति बेचे गए. राम के अनुसार हनुमान 'साधारण जनों के दुख औ अधिकार के प्रतिरूप हैं।' अपहृत स्वतंत्रता के लिए युद्ध करना अनुचित नहीं। सीता साधारण जन की अपहृत स्वतंत्रता का प्रतीक है।
कथोपकथन: राम के साथ नल, नील, जामवन्त के संवाद संक्षिप्त है;लेकिन जहाँ पर सूचना के अतिरिक्त किसी समस्या पर विचारणा की गई है, वहाँ आत्मसंलाप और संवाद काफी लम्बे हो गए हैं ;परन्तु शिथिलता कहीं नहीं। विचार सूत्र रूप में अभिव्यक्त हुए हैं-भावानुकूलता के कारण इस काव्य में अभिनेयता की सम्भावनाएँ हैं।
काव्य में बिम्बविधान: बिम्ब संयोजन में मेहता जी ने मौलिक संस्कारों से युक्त बिम्बों को प्रस्तुत किया है। कुछ ध्वनि बिम्ब-
1-शंख-शिशु। पैरों तले / किरकिराते रहे /
पीपल का हरहराना प्राकृतिक बिम्ब के द्वारा संशय की भयानकता को चित्रित किया गया है-
2-एक अनुत्तरित संशय का सर्पपृक्ष / हरहराता रहा मुझमें / पीपल-सा / अहोरात्र।
राष्ट्र प्रेम से पूरित विभीषण का हृदय लंका की दुर्दशा से तड़प उठता है-जले औ खण्डित भवन / जिह्नाहीन भिखमंगे सरीखे हाथ फैलाए खड़े हैं / राजपथ / बेहोश, ऐंठी देह-से नंगे पड़े हैं। ' खण्डित भवन के लिए भिखमंगे और राजपथ के लिए ऐंठी देह का बिम्ब सार्थक है। लंका के लिए पागल कोढ़ी का बिम्ब-
मेरी स्वर्ण लंका / पागल कोढ़ियों-सी / वह वहाँ / उस सिन्धु-तट बैठी हुई / हड्डी-बाँसुरी छेड़े, हुए है। राम की उलझनों के लिए अन्तरीप का बिम्ब-यह अन्तरीप। मन का / स्थल का अनिर्णय को सूचित करता है।
उपमान योजना: मेहता जी की उपमान योजना प्रायेण रूपक के माध्यम से व्यक्त हुई है। 'संशय की एक रात' में पौराणिक प्राकृतिक, वैज्ञानिक और जनजीवन से सम्बद्ध प्रतीकों का प्रयोग किया गया। प्राकृतिक प्रतीकों में- (1) 'और हम बालू धँसे / सूखे बुरूंस से उपेक्षित। आकाश के लिए प्रयुक्त उपमान राम की निराशा को व्यक्त करते हैं-'नारिकेलों पर टिका आकाश / शव की पुतलियों-सा', अमूर्त्त प्रतीक-'मेरी यात्रा/ छोटे-शंख-सी / यहीं बालू में कहीं गिर / खो गई है। 'पौराणिक प्रतीकों में-' सिन्धु / अगस्त्य के आचमन-सा सोखेंगे।' महत्त्वपूर्ण है। राम की विनम्रता के लिए' केलफल'का प्रतीक, साम्राज्य के लिए 'बाणबिद्ध पाखी-सा विवश', घोर एकान्त के लिए उत्सव का अन्तिम गायन, परिस्थितियों के लिए' धेनु', इतिहास के लिए' वृद्ध ठण्डी शिला'बहुमत के लिए' गिद्ध' का प्रतीक, अभिव्यत्तिफ़ को और सशत्तफ़ कर देते हैं।
भाषा: मेहता जी की भाषा ओजपूर्ण एवं प्रवाहमयी खड़ी बोली है। भाषा भावानुकूल एवं पात्रनुकूल है। प्रचलित तत्सम-तद्भव के साथ-साथ नवनिर्मित तत्सम शब्दों को भी प्रयुक्त किया। गया है। नूतन क्रियापदों एवं विशेषणों से अभिव्यक्ति में निखार आ गया है। प्रदत्तो, विलोको, विश्वासें, रँगा उठते, सिरा दिया, निर्माते जैसे नूतन क्रियापद, विलोमे, कृतज्ञित, आसित, प्रज्ञित, अभिषेकित अवैतरित, यात्रित, संज्ञित, मिहिरहीना जैसे नूतन एवं तत्सम विशेषण, ईशान्, पृथिवी, अनाकृती, अहोरात्र, पथांत ट्टतम्भरा, त्रसदी जैसे नवनिर्मित संज्ञापद हैं। गाछ, छाँह, दीठि, अनुखन, साँझ, पाखी जैसे तद्भव शब्द है। डाक, प्रतिडाक-जैसे अप्रचलित शब्दों के साथ, चीखा करी, सोचा किये, दाहती है, अपात्री, अनागतो (दिवसो) पाथरत्व, एकत्रित शंकात्व, खैंच जैसे अशुद्ध प्रयोग भी मिलते हैं। गुलाम और चिलमन जैसे शब्द इस पौराणिक काव्य में अतिथि से लगते हैं।
लोकमत एवं मानवीय मूल्यों की स्थापना: समाज में व्यक्ति का महत्त्व असंदिग्ध है ;लेकिन समष्टि के लिए व्यष्टि को समर्पित किया जा सकता है, यह इस युग की माँग है। राम अपनी प्रज्ञा और विवेक को परिषद् की इच्छा के सामने विसर्जित कर देते हैं। जागरूक मानव अपनी स्वतंत्रता को किसी भी मूल्य पर नहीं छोड़ सकता। उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का विरोध करना युगीन चेतना है। सामाजिक चेतना और व्यक्ति चेतना को विभाजित करके नहीं देखा जा सकता। राम अपना संशय और युद्ध से बचाने का निर्णय थोपना नहीं चाहते। एक शासक को लोकमत का आदर करना चाहिए. राम ने अपना निर्णय जनसमर्थन पाकर ही किया। राम मानव सत्य की खोज करना चाहते हैं। रक्तपात किसी भी खोज का समाधान नहीं हो सकता। वह समाधान मानवीय गुणों के द्वारा मानव के भीतर से ही उपजेगा। राम कहते हैं-
मैं सत्य चाहता हूँ / युद्ध से नहीं / खड्ग से भी नहीं / मानव का मानव से सत्य चाहता हूँ। राम ने उन्हीं मानवीय मूल्यों की स्थापना की, जिससे दक्षिण प्रदेश को स्वातंत्रय-भाव से भरा है।
(21 जुलाई 1980: आकाशवाणी गौहाटी से प्रसारित)