संशय / प्रतिभा सक्सेना / पृष्ठ 1

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पिछला भाग >> घर में घुसते ही सुदीप ने पूछा -

'क्यों रमा वह कौन था, जो बस में तुम्हें नमस्ते कर रहा था?'

'मुझे नहीं पता।'

'उसने तुम्हें नमस्ते की। ऐसे कोई किसी को नमस्ते करता है?'

रमा को हँसी आ गई -’पता नहीं कौन है। मुझे खुद ताज्जुब होता है।'

'हाँ, पिछली बार भी की थी, मैं तो वहीं खड़ा-खड़ा देख रहा था।'

'हाँ, मुझे मालूम है। तुम मेरे साथ ही थे।'

'मुझे तो कभी नहीं करता।'

‘अच्छा! हो सकता है। मैंने ध्यान नहीं दिया।'

कुछ दिन बाद फिर वही। वह बस में मिला उसने रमा को देखा फौरन नमस्ते की।

‘आज फिर उसने तुम्हें नमस्ते की?'

‘हाँ।'

‘और तुमने जवाब दिया?'

‘कोई नमस्ते करे, तो जवाब कैसे न दूँ?'

‘हुँह,। न जान न पहचान। फिर नमस्ते का क्या मतलब?'

‘जब कोई नमस्ते कर रहा है तो जवाब में अपने सिर हिल जाता है। आदत ही ऐसी पड़ी है। न करूँ तो बड़ा अजीब लगेगा।'

‘अजीब क्या? और जब वह अकेली तुम्हें नमस्ते करता है, मैं उल्लू सा खड़ा देखता रहता हूँ, तब तुम्हें अजीब नहीं लगता?' चौथे-पाँचवें दन फिर वही। बस में सवार होते ही देखा वह बैठा है।

एकदम रमा को हाथ जोड़े। रमा के पीछे सुदीप आगे-पीछे हो रहा है, फिर रमा के कंधे पर हाथ रख जताने की चेष्टा की कि वह भी उपस्थित है। तब तक वह खिड़की से बाहर देखने लगा था।

बस से उतरते ही सुदीप ने कहा- ‘देखा?'

सुधा ने इधर-उधर देखा - ‘क्या?'

‘आज फिर उसने नमस्ते की और सिर्फ़ तुम्हें। जब कि साथ में मैं भी था।'

‘अच्छा, की होगी। तुम पीछे थे मैंने देखा नहीं।'

‘अच्छा क्या? तुम भी तो खूब मुस्करा कर जवाब देती हो उसे। तभी तो हिम्मत बढ़ रही है उसकी।

‘कैसी बातें करते हो। तुम तो पीछे थे, तुमने कैसे देख लिया मैं मुस्करा रही हूँ?'

‘साइड से अन्दाज़ नहीं मिलता जैसे। कैसे बन रही हो जैसे तुम्हें पता ही नहीं। तम्हें मज़ा आता है। और मुझे वह बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।'

'अच्छा-बुरा लगने का सवाल ही कहाँ? न हम लोग उसे जानते हैं न उससे कोई मतलब है।'

‘कम से कम मैं तो नहीं जानता। तुम्हारी तुम जानो। और मतलब कैसे नहीं?'

फिर उसने और जोड़ दिया - ‘जानती नहीं तो उसकी हिम्मत कैसे बढ़ती?'

‘हिम्मत से क्या मतलब तुम्हारा?'

‘किसी अनजान महिला को इस तरह नमस्ते करना!'

‘हो सकता है वह मुझे जानता हो, मुझे ध्यान न आ रहा हो।'

‘और सिर्फ़ तुम्हें ! हर बार.. तुम्हारा ही ध्यान है उसे? वह भी जब पति साथ में हो?'

‘उफ़्ओह, तुम तो तिल का ताड़ बनाते हो।’

‘तुम तो ऐसे कहोगी ही।'

‘बेकार बात मत करो ! जानती होती तो छिपाने से मुझे क्या फ़ायदा? जैसे और पचास लोगों को जानती हूँ, उसे भी जानने से क्या फ़र्क पड़ता !'

‘अच्छा-अच्छा रहने दो। अब इतनी भी सफ़ाई देने की क्या ज़रूरत है?'

सुदीप कुछ खिंचा-खिंचा सा रहता है, और काफी गंभीर भी। कुछ दिन बाद सब सहज हो गया।

पर उस दिन फिर - सुदीप और रमा खरीदारी कर रहे थे, कि सुदीप के कानों में रमा की आवाज़ पड़ी -’अरे, वह यहाँ है।'

सुदीप भी उसकी ओर देखने लगा और उसने झट से रमा की ओर हाथ जोड़ दिये -सिर्फ़ रमा को। रमा ने सिर झुका कर प्रत्य्त्तुर दिया।

सुदीप का चेहरा कठोर हो गया।

बस में जगह नहीं एक हाथ में बंडल पकड़े कोहनी में पर्स लटकाये, दूसरे से ऊपर का रॉड थामे रमा बार-बार हिचकोले खा रही है। दोनो में से किसी ने देखा नहीं पाया कि उधर वह बैठा हुआ है।

वह तुरंत अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ, रमा से बोला ‘आप यहाँ बैठ जाइये।'

रमा ने एक क्षण सोचा नहीं बैठूँगी तो उसका अपमान होगा सबके सामने। और ऐसे हिचकोले खाते लोगों से टकराते रहना ! यह तो औऱ भी तमाशा बनना है।

वह बंडल सम्हाले छड़ का सहारा लेती हुई, उसकी सीट पर जा कर बैठ गई - ‘बहुत बहुत धन्यवाद !'

सुदीप के चेहरे पर तनाब की रेखायें खिंच गईं।

भीड़ बढ़ती जा रही है। पर रमा ने सुदीप की प्रतिक्रिया देख ली।

सोच रही थी ऐसे तो अनजाने आदमी भी महिलाओं को सीट दे देते हैं। क्या बैठने से मना कर देती? कोई खास बात तो है नहीं। पर सुदीप?

मन में क्या है साफ़-साफ़ नहीं कहेगा। निगाहों से बता देगा और व्यवहार से कोंचता रहेगा।

सीट देनेवाला जाने कहाँ उतर गया। सुदीप को भी बैठने को जगह मिल गई है।

आगे -पीछे लोग खड़े हैं। रमा अपने ही सोच में कि पीछे से तुर्श आवाज़ आई - ‘उतरना भी भूल गईँ क्या?' वह चौंक कर उठ खड़ी हुई।

चुपचाप घर पहुँचे, चुपचाप खाना हुआ।

अंत में सुदीप ने कहा- ‘देखो रमा बात हद से आगे जा रही है।'

‘क्या मतलब है तुम्हारा?'

‘अब भी मतलब पूछ रही हो? जैसे समझती नहीं हो।'

‘क्या कहना चाहते हो, साफ-साफ़ कहो।'

‘ज्यादा भोली मत बनो ! कैसे उठ कर उसने जगह दी, कैसे प्यार से तुमने धन्यवाद दिया। मैं भी तो खड़ा था मेरी तरफ़ देखा भी नहीं।'

‘हिचकोले खाती महिलाओं को भले लोग अक्सर अपनी सीट दे देते हैं।'

‘तो वह भला लोग भी हो गया। बस में भी जब मिलता है, अकेली तुम्हें नमस्ते। बेशर्म कहीं का ! मैं साथ में हूँ पर उसके लिये तुम्ही सब कुछ। मैं तो कुछ हूँ ही नहीं जैसे। और तुम्हें इसमें मज़ा आता है।'

‘बात का बतंगड़ मत बनाओ। उसके जगह देने पर उठने पर न बैठना तो असभ्यता होती। बस में तमाशा करना मुझे ठीक नहीं लगा।'

'और धन्यवाद देने के बहाने बोलना भी जरूरी था। एक बार मना कर देतीं आगे उसकी हिम्मत नहीं पड़ती। न नमस्ते करने की न कुछ और की।'

‘मैं कोई गँवार औरत नहीं हूँ जो साधारण सी औपचारिकता भी न निभा सकूँ।'

‘गँवार नहीं हो शहर की पढ़ी-लिखी हो इसीलये तो ज्यादा कलाकार बनती हो।'

‘बस करो सुदीप ! इससे ज्यादा सुनना मेरे बस का नहीं।'

‘तो क्या करोगी, बुला लोगी उसे, चली जाओगी उसके पास?'

‘बात मत बढ़ाओ। जब तक कोई सुबूत न हो बेकार तोहमत मत लगाओ।'

‘तोहमत? सुबूत? सामने -सामने सब हो रहा है।'

रमा की समझ में नहीं आता कैसे सुदीप को विश्वास दिलाये कि वह उसे जानती तक नहीं। वह हमेशा नमस्ते ही तो करता है। क्या करूँ मैं?

उत्तर में अनदेखी करना उससे नहीं होता अपने आप सिर हिल जाता है। कहीं कुछ ऐसा नहीं जो मन को खटके। वह खाली रमा को नमस्ते करता है तो रमा क्या करे? लौट कर कहे कि इन्हें भी नमस्ते करो, ये मेरे पति हैं?

और चार दिन निकल गये। सुदीप गंभीर रहने लगा। आपस में बस जरूरी बातें। अगला भाग >>