संसद में बंदर / राजेंद्र त्यागी

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संसद के अंदर बंदरों का जमघट देखा तो सवालों की श्रृंखला के साथ हमारे अंदर का पत्रकार जागा। हमने उनका साक्षात्कार करने की ठानी और अपनी ठान कंधे पर लाद संसद का दरवाज़ा जा खटखटाया। मुख्य द्वार से ही इक्का-दुक्का बंदरों से भेंट होनी शुरू हो गई। महानुभावों की श्रद्धा के साथ केलों का कलेवा कराते-कराते हम महात्मा गांधी की प्रतिमा के नज़दीक पहुँचे। प्रतिमा के तले ही महानुभावों का दरबार लगा था। नमन किया और केलों का शेष स्टॉक उनके सामने यों खोल कर रख दिया ज्यों प्रियतमा के सामने प्रेमी का आत्मसमर्पण। सभी महानुभाव केलों पर ऐसे टूटे जैसे मरे ढोर पर गिद्ध, मछलियों पर बगुला और कुर्सी पर नेता। प्रेम के साथ सभी ने केलों का कलेवा किया, अहसानवान थे हम श्रद्धावान। उनका बॉडीलैंग्वेज पढ़ हम आश्चर्यचकित थे, 'वर्षों से संसद में फिर भी अहसानवान। सोहबत का असर शायद रफ़्ता-रफ़्ता होता है' यह विचार कर हम शंका का समाधान खोज रहे थे। तभी युवा बंदर ने दाँतों पर चढ़ी होठों की परत उठाई और बोला, “पत्रकार भी! चारा खाते हैं, ताबूत चबाते तोप गोले निगल जाते हैं। हमें केले खिलाने वालों के हाज़मे बड़े दुरुस्त होते हैं।”

युवा बंदर के कटाक्ष सुन कर सूरजमुखी-सा चेहरा गुड़हल-सा मुरझाया। हम कुछ कह पाते तभी हमारे थोबड़े पर उतर आई बारहखड़ी पढ़ उनका नेता सुखिया बोला, “नादान है, शैतान है, सोहबत का असर है। इसकी बातों पर न जाना, माफ़ करना। उसे नहीं मालूम कि सभी इंसान चाराभक्षी नहीं हुआ करते।”

सुखिया की बात से हमारे ज्ञान में भी इज़ाफ़ा हुआ कि सभी बंदर बंदर नहीं हुआ करते जिस तरह सभी इंसान इंसान नहीं होते। ख़ैर, सुखिया के सामने हमने अपनी मंशा ज़ाहिर की। सुखिया ने कहा, “पूछिए” हमने पहला और सीधा सवाल किया, “संसद में बंदर क्यों?”

सवाल सुखिया से किया था, जवाब चपल-चंचल बंटी ने दिया, “अंदर वालों से वंशानुगत लक्षण काफ़ी मिलते हैं। दादा डार्विन का सिद्धांत सच लगता है।”

बंटी ने कटाक्ष किया या हक़ीक़त बयान की यह सोचते-सोचते हमारे चेहरे पर विस्मय बोधक व प्रश्न बोधक कई चिन्ह एक साथ उभर आए। बात फिर ज़हीन सुखिया ने सँभाली, “बंटी कहता तो ठीक है, फिर भी अब सवाल यह नहीं है कि हम संसद में क्यों? सवाल अब यह है कि संसद से हमारा कूच क्यों?”

एक और विस्मय बोधक चिन्ह ने हमारे चेहरे पर कब्ज़ा जमाया और मुख से निकला, “क्या! जा रहे हो?”

निराशा भाव के साथ सुखिया बोला, “हाँ, बरखुरदार। अब यहाँ से जाना ही बेहतर है।”

“मगर क्यों? लंगूर के भय से?” हमने पूछा। “नहीं, नहीं! दरअसल हमें निराशा हाथ लगी। हम संसदीय मर्यादा सीखने आए थे। हमारा राजा उसे जंगल में लागू करने की इच्छा रखता था। मगर यहाँ तो. . . ।” अपनी बात पूरी किए बिना ही सुखिया ने मुँह बंद कर लिया। शायद संसद की गरिमा का ख़याल रखते हुए।

“मगर, अभी तो आप वंशानुगत लक्षणों की बात कर रहे थे।” हमारा अगला सवाल था।

हाँ, वंशानुगत लक्षण भी मिलते हैं और अंदर वालों ने हमारी 'खाऊ-फाड़ू, छीन-झपट नीति' भी अपनाई है। मगर लगता है, हमारी नीति को उन्होंने अपनी संस्कृति बना लिया है। सुखिया ने जवाब दिया। हमारी उत्सुकता ने पाँव पसारे और हमने पूछा, “क्या मतलब?”

सुखिया बोला, “नीति और संस्कृति में अंतर है। निति वक़्त-ज़रूरत पड़ने पर अपनाई जाती है और संस्कृति जीवन का अभिन्न अंग होती है। उनके व्यवहार से लगता है कि हमारी सुरक्षा नीति को उन्होंने जीवन का अभिन्न अंग बना लिया है।”

सुखिया की बात सुन बंटी ने पूंछ हवा में लहराई और बोला, “हाँ, हाँ! कभी-कभी तो ऐसा लगता है, मानो अंदर किसी ने गुड़ की भेली रख दी हो। बस डंडों की कमी रह जाती है। बड़ा मज़ा आता है, जब हो-हल्ला मचता है।”

“हाँ, भाई! ठीक कहता है, बंटी। झरोखों से झाँक कर देखते हैं, बड़ा ही वीभत्स नज़ारा होता है। उनकी मर्यादा उन्हें मुबारक। हमें अपने जंगल की शांति भंग नहीं करनी।” सुखिया ने कमर खुजाई और उठ कर चल दिया। उसके पीछे-पीछे अन्य बंदर भी पंक्तिबद्ध हो लिए।

अंतिम सवाल के लिए हमने “इलेक्ट्रानिक” प्रयास किया और दौड़ कर माइक सुखिया के मुँह साथ भिड़ाते हुए बोले, “अंतिम सवाल।”

“हाँ बोलो” सुखिया रुका।

“आप तो श्रीराम के पुरातन भक्तों में से हैं और राम भक्तों से स्नेह करते हैं, फिर. . .?

“नो कमेंटस” शायद, सवाल पूरा होने से पहले ही हमारी मंशा भांप गया था, इसीलिए नो कमेंटस कहा और लाव-लशकर के साथ चलता बना। 'हमारा अधूरा सवाल और सुखिया की नो कमेंटस' कूच करते-करते सुखिया संसद और राम दोनों की गरिमा का ख़याल रख गया।