संसार / अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

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संसार क्या है? प्रकृति का क्रीड़ा स्थल, रहस्य निकेतन, अद्भुत व्यापार समूह का आलय, कलितकार्य कलाप का केतन, ललित का लीलामन्दिर, विविध विभूति अवलम्बन, विचित्र चित्र का चित्रपट, अलौकिक कला का कल आकर, भव्य-भाव भवन का वैभव, और है समस्त सौन्दर्य समूह सर्वस्व। ज्ञान-विज्ञान आलोक से यदि वह अलौकिक है, तो महान महिमामय मनस्वियों से अलंकृत। यदि मैं उसके विषय में लिखूँ तो क्या लिखूँ। मेरी विद्या बुध्दि ही क्या। अल्प विषयामति प्रतिभा विभूति वैभव वाणी वीणा अधीश्वरी के विषय में लिख ही क्या सकता है। फिर भी संसार के विषय में कुछ लिखने की इच्छा हुई है, मन मानता नहीं, उसे कैसे मनाऊँ, संसार असार है, यह सुनते-सुनते जी ऊब गया, इसी विषय में कुछ लिखना चाहता हूँ। लिखते बने या न बने, पर लिखूँगा। मन को मनाऊँगा।

एक हास्यरस रसिक महोदय लिखते हैं-

असारे खलु संसारे सारंश्वशुर मन्दिरम्।

हर : हिमालये शेते विष्णुश्शेते महोद धौ ।

इस असार संसार में श्वसुर मन्दिर ही सार है, भगवान शिव का वास हिमालय में है और भगवान विष्णु क्षीर निधि निवासी हैं। इस श्लोक में विरोधाभास है, कवि संसार को असार कहता है, परन्तु वह श्वशुर मन्दिर को सार बतलाता है, जो संसार में ही है, क्योंकि हिमालय और क्षीर सागर संसार में ही हैं, संसार के बाहर नहीं हैं, तब संसार असार कहाँ रहा।

एक भक्तिभाजन भक्त क्या कहते हैं उसे भी सुनिये-

असारे खलु संसारे सारमेतच्चतुष्टयम्।

काश्यां वास : सतां संग : गंगांभ : शंभु पूजनम्।

असार संसार में यह चार वस्तुएँ सार हैं। काशीपुरी का निवास, सन्तों का सत्संग, पवित्र गंगाजल और भगवान शिव का पूजन। जिस संसार में एक ही नहीं चार-चार वस्तुएँ सार हैं, उसको असार कहना उस मुख से जिससे उसको असार कहा था, अपने ही कथन को क्या अपने आप खंडन करना नहीं है। वास्तव बात यह है, सत्यमेव जयते नानृतम्। वास्तव बात यह है कि संसार को असार कहना भ्रम, प्रमाद, अथवा अज्ञानता को छोड़ और कुछ नहीं है। अब आइये एक दिव्य दृश्य अवलोकन कीजिए।

गीत-रोला

बिहँसी प्राची दिशा प्रफुल्ल प्रभात दिखाया।

नभतल नव अनुराग राग रंजित बन पाया।

उदयाचल का खुला द्वार ललिताभा छाई।

लाल रंग में रंगी रंगीली ऊषा आयी। 1 ।

चल वह मोहक चाल प्रकृति प्रिय अंक विकासी।

लोक नयन आलोक अलौकिक ओक निवासी।

आया दिन मणि अरुण बिम्ब में भरे उँजाला।

पहन कंठ में कनक वर्ण किरणों की माला। 2 ।

ज्योति पुंज का जलधि जगमगा के लहराया।

मंजुल हीरक जटित मुकुट हिम गिरि ने पाया।

मुक्ताओं से भरित हो गया उसका अंचल।

कनक पत्र से लसित हुआ गिरि प्रान्त धरातल। 3 ।

हरे भरे सब विपिन बन गये रविकर आकर।

पादप प्रभा निकेत हुए कनकाभा पाकर।

स्वर्ण तार के मिले सकल दिकदिव्य दिखाये।

विकसित हुए प्रसून प्रभूत बिकचता पाये। 4 ।

पहन सुनहला बसन ललित लतिकायें बिलसीं।

कुसुमावलि के ब्याज वह विनोदित हो बिकसीं।

जरतारी साड़ियाँ पैन्ह तितली से खेली।

बिहँस बिहँस कर बेलि बनी बाला अलबेली। 5 ।

लगे छलकने ज्योति पुंज के बहु विष प्याले।

मिले जलाशय ब्याज धारा को मुकुर निराले।

कर किरणों से केलि दिखा उनकी लीलायें।

लगीं नाचने लोल लहर मिस सित सरितायें। 6 ।

ज्योति जाल का स्तंभ बिरच कल्लोलों द्वारा।

मिला मिला नीलाभ सलिल में बिलसित पारा।

बना बना मणि सौध मरीचि मनोहर कर से।

लगा थिरकने सिंधु गान कर मधु मय स्वर से। 7 ।

नगर नगर के कलस चारुता मय बन चमके।

दमक मिले वे स्वयं अन्य दिन मणि से दमके।

आलोकित छत हुई विभा प्रांगण ने पाई।

सदन सदन में ज्योति जगमगाती दिखलाई। 8 ।

सकल दिव्यता सदन दिवस का वदन दिखाया।

तम के कर से छिना विलोचन भव ने पाया।

दिशा समुज्वल हुई मरीचिमयी बन पाई।

सकल कमल कुल कान्त बनों में कमला आयी। 9 ।

कलकल रव से लोक लोक में बजी बधाई।

कुसुमावलि ने विकस विजय माला पहनाई।

विहग वृन्द ने उमग दिवापति स्वागत गाया।

सकल जीव जग गये जगत उत्फुल्ल दिखाया। 10 ।

यह भुवन भास्कर का कार्तिकलाप हैं, उनके विषय में 'अलहयात बादुल ममात', यह लिखता है-

“हमारे पाठकों को यह सुनकर आश्चर्य न होगा, कि मुक्ति प्राप्त पवित्र आत्माओं का निवास स्थान सूर्य है। कतिपय वैज्ञानिकों ने इस सत्यता को स्वीकार कर लिया है। ज्योतिर्विद वूड साहब कहते हैं कि भाग्यमान प्राणियों को जो इन उच्च और श्रेष्ठतमपिण्डों में निवास करते हैं, रात दिन के यातायात की आवश्यकता बिल्कुल नहीं होती। सर्व कालिक और अविनश्वर प्रकाश उनको सदा प्रकाशित रखता है। सूर्यदेव के प्रकाश में रहकर वह अपार शक्तिमान परमेश्वर की कृपालुता की छाया में सर्वदा परम सुरक्षित और प्रसन्न रहते हैं।”

“सूर्यदेव का पद तारक निश्चय में सम्राट् का है, वे ग्रह मण्डल में अद्वितीय पिण्ड होने के अधिकारी हैं। चकितकर गुणों और अवर्णनीय शक्ति से जो पद उनको प्राप्त है, वह महत्तम है। प्रकृति के क्रमश: उच्च से उच्च पद पर आरूढ़ होने देने की क्षमता उनको प्राप्त है।”

“वायु का संचार, धरातल की सिक्तता, समुद्र की तरंगमालायें, सूर्य देव की उष्णता का परिणाम हैं। चुम्बक की शक्तिमत्त भी इम्पियर साहब का मत है कि उन्हीं की तेजस्विता का मूल है।”

“चूँकि सूर्यदेव प्राकृतिक शक्ति के प्रधान यन्त्र हैं, इसलिए रासायनिक क्रिया पर उनका सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है, संसार में प्रकाश और उष्णता का प्रभाव अधिकतर मूल प्रसू और प्राकृतिक उत्पादक शक्ति प्रसू तथा दिव्य दृश्य आधार है। इसलिए उन्हीं पर अधिकतर वनस्पति सम्बन्धी और पाशविक जीवन वृत्ति मूलक उपज का अवलम्ब है। यदि सूर्यदेव न होते तो जीवन पृथ्वीतल से लुप्त हो जाता, जीवन के जनक सूर्यदेव ही हैं।”

“प्रोफेसर टंडन साहब की यह सम्मति है-

जो शक्ति घड़ी की सूई को चलाती है, जिस प्रकार हाथ से प्राप्त हुई है उसी प्रकार कुल पार्थिव शक्ति के केन्द्र सूर्यदेव हैं। ज्वालामुखी पहाड़ों का दहकना, ज्वार भाटे का आना, पृथ्वी तल पर रासायनिक क्रिया का होना, उन्हीं की शक्ति का परिणाम है। उनकी गर्मी समुद्र के पानी को, द्रवित हवा को प्रवाहित और समस्त तूफानों को परिचालित करती है। दरियाओं और हिमाचल के तूदों को उठाकर पहाड़ों की चोटियों पर रखती है। झरने और फुहारों को बड़ी तेजी से बहाती रहती है। बिजली और गरज उसकी आतंकित करने वाली शक्ति है। अग्नि जो ज्योति सम्पन्न है, ज्वाला जो प्रज्वलित है, उनको दिवाकर की ही दिव्यता है। वह हम में विश्व में अग्नि स्वरूप में विद्यमान है यथा समय वह प्रच्छन्न होता रहता भी है। उसके आगमन और प्रयाण में संसार की सारी शक्तियाँ प्रकट होती रहती हैं। ये शक्तियाँ उनकी विभिन्न अवस्थायें हैं, जो यथाकाल प्रकट होती और अन्तर्हित होती रहती हैं, और अपने केन्द्र स्थान से सह्स्त्रों रूप धारण कर आवश्यक कार्य समूह उत्पन्न करती दिखलाती हैं।”

“सूर्यदेव के प्रकाश और गर्मी का प्रभाव पशु समुदाय पर भी पड़ता है, वनस्पति और दूब आदि के पौधे पशुओं के आहार हैं। इसलिए यह अनुमान होता है कि वनस्पति की उत्पत्ति संसार में पशुओं से पहले हुई होगी। यदि वनस्पति की उत्पत्ति न हो तो विश्वास है कि पशुओं के जीवन का निर्वाह न होगा, और उनको मरना पड़ेगा। इसलिए हमको यह स्वीकार करना पड़ेगा, कि जिस प्रकार वनस्पति सूर्यदेव की शक्ति से होती है, उसी प्रकार उन्हीं की शक्ति पशु वृन्द की उत्पत्ति का कारण भी है।”

सूर्य देव के विषय में अब तक जो लिखा गया है, उससे ज्ञात होगा, कि आकाश के एक पिण्ड की कितनी महत्ता है और वह कितना प्रभावशाली है। रात्रि में आकाश को देखिए तो उसमें असंख्य तारे जगमगाते दृष्टिगत होते हैं। हमारे सूर्य जैसे ही उसमें कितने सूर्य हैं, और हमारे सूर्य से भी अधिक प्रभावशाली और शक्तिमान अनेक सूर्य उसमें होने की भी सम्भावना है। अब सोचिये संसार में कितना अधिक सार है, क्या इसका अनुमान हो सकता है, कदापि नहीं। यदि कहा जाय संसार का अर्थ मृत्युलोक भी तो है, प्राय: असार उसी को कहा जाता है। तो प्रश्न यह है कि क्या मृत्युलोक में सार नहीं है? नहीं, मृत्युलोक में भी सार है। काशी के निवास को, पतित पावनी भगवती भागीरथी के जल को, सत्संग को, भगवान भूतनाथ के अर्चन को क्या सार नहीं बतलाया गया है। फिर क्यों कहा जाए कि मृत्युलोक में सार नहीं है। बात यह है कि तत्तव का ज्ञान होना चाहिए, तत्तवज्ञ होने पर अनेक शंकायें दूर होजाती हैं, आइये हम लोग भी मननशील बनें। और वास्तवता को विचार दृष्टि से देखें।

काशी में क्यों सार है, इसलिए कि वहाँ सत्संग का अवसर मिलता है, वहाँ पुण्य सलिला भागीरथी का प्रवाह है और है भगवान भूतभावन की आराधना की सुविधा। स्वयं प्रवृत्त होकर काशी वास करने वालों की कमी नहीं है, पर काशी वास का मर्म क्या है, इसका वास्तविक ज्ञान कितने लोगों को है। काशी में कई कॉलेज हैं, अनेक स्कूल और पाठशाला हैं, विद्यार्थियों की वहाँ भरमार है, किन्तु उनका उद्देश्य विद्यार्जन है, अधययन कार्य समाप्त हो जाने पर वे घर का मार्ग ग्रहण करते हैं, और अपनी इच्छा के अनुसार सांसारिक कार्य में प्रवृत्त होते हैं। इसी प्रकार अनेक कार्य सूत्र से बहुत से प्राणी कुछ काल तक अथवा अधिक समय पर्यन्त काशी में निवास करते हैं, और कार्य साधन उपरान्त वहाँ से बिदा हो जाते हैं। पर काशीवास का यह अर्थ नहीं है। उसका अर्थ है, सात्तिवक भाव से, मानव जीवन को चरितार्थ करने के लिए, वास्तविक ज्ञानार्जन निमित्त, काशी में निवास करना। किन्तु ऐसे विचार वाले कितने हैं। बहुत थोड़े। अधिकांश स्वार्थ साधन विचार वाले ही वहाँ मिलेंगे। अनेक प्राणी वहाँ धनमान बनने के इच्छुक हैं। धन लाभ के लिए कितनी प्रवंचना वे करते हैं, कितना झूठ बोलते हैं, कैसी-कैसी चालें चलते हैं, कैसे-कैसे पेचपाच से काम लेते हैं,उनकी अधिक चर्चा ही कर्म है, इन बातों को कौन नहीं जानता। कितने कूटनीतिक वहाँ ऐसे हैं, ऑंखों में धूल झोंकना ही जिनका काम है। कितने ऐसे कुचरित्र वहाँ हैं, जिनके लिए दाल की मंडी तो है ही, फिर भी उनके अत्याचारों से कुल बालाओं का जीवन भी संकटापन्न होता रहता है। कितने लम्पट हैं, कितने प्रवंचक हैं, कितने चोर ठग हैं। कितने प्राणी वहाँ ऐसे हैं, जिनके लिए यह कहना ठीक है, 'करतब वायस वेशमराला', एक समूह यहाँ ऐसा है, जो हिन्दू धर्म का शत्रु है, वैदिक विचारों पर आघात करने वाला है, शास्त्रों का निन्दक है, और है परमात्मा की प्रतिमूर्ति। कितने ही वहाँ ऐसे हैं, जो जन्म-भर पाप करते हैं, पर अन्तिम दिनों में यह विचार कर काशी में आते हैं, कि 'काश्यां मरणे मुक्ति:' काशी में मरने से मुक्ति मिल जाएगी। किन्तु वहाँ आकर प्रकृति के दास बने ही रहते हैं, और यह नहीं सोचते, कि अन्य स्थान का किया हुआ पाप तो तीर्थ में आकर शुध्दाचरण से रहने पर छूट जाता है। पर तीर्थ का किया हुआ पाप कहाँ छूटेगा। कितने पण्डे पुजारी वहाँ ऐसे हैं, जिनके कर्म उनको पतित बनाते रहते हैं, परन्तु उनकी ऑंखें नहीं खुलतीं, और कलंक का टीका वे लोग लगाते ही रहते हैं। कुछ ऐसे कामचोर, आलसी, साधु वेश बनाए, जटा रखे, गेरुआ कपड़े पहने वहाँ देखे जाते हैं, जो संसार की असारता का राग अलापते फिरते हैं, जगत को जंजाल बताते हैं, पर माया के फंदे में पड़े रहते हैं, बिराग की बातें कहते हैं, पर उनके ज्ञान और विवेक के नेत्र बन्द होते हैं। इस प्रकार के और बहुत से लोग बतलाये जा सकते हैं जिनका काशी निवास काशीवास नहीं कहा जा सकता। ऐसे लोगों का जीवन असार जीवन है, इन लोगों के जीवन में सार कहाँ। परन्तु काशी में ऐसे लोग भी हैं, जिनके जीवन को सार अथवा पवित्र जीवन कहा जा सकता है, वे लोग इने-गिने ही हैं, पर उन लोगों का वास ही काशीवास को सारता प्रदान करता है। यदि इन महात्माओं और संतजनों का सत्संग किया जाता है, एवं मान्य अथवा सदाचारी विद्वज्जनों की शिक्षा-दीक्षाग्रहण की जाती है, तो अनेक भ्रान्तजनों और अज्ञानियों की ऑंखें खुल जाती हैं, और वे विशेष कर असमय अथवा अयबा रीति से साधु वेशधारी जन तत्तव को समझ जाते हैं और उचित पथावलम्बी बनने की चेष्टा करते हैं-वह काशीवास और सत्संग की सारता का ही प्रमाण हैं।

सत्संग में विशेष सार माना गया है, इसलिए कि उसके द्वारा वह अज्ञान का परदा ऑंख पर से उठ जाता है, जिससे प्राणी किंकर्तव्यविमूढ़ होता रहता है, यदि किंकर्तव्यविमूढ़ के अत्याचारों का विचार करें, और उनके इतिहास के पृष्ठों पर ऑंख डालें तो वह ऐसा कौन हृदय है, जिसे मर्मान्तक कष्ट न होगा। धरातल काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का निकेतन है। स्वार्थांधता उसकी रगरग में भरी है, यदि यह सुनकर कि वीर भोग्या वसुंधरा है, राज्य अधयक्ष विक्षिप्त हो जाता है, और अवनी को रक्त रंजित बनाने से नहीं घबराता तो कितने ऐसे दर्प से दर्पित हो गये हैं, जिन्होंने धरातल को ही उलट देना चाहा। यदि चक्रवर्ती बनने के लिए कुछ लोगों ने लोक संहारक चक्र चलाया, तो सम्राट् होने की कामना से कई लोगों ने कतिपय प्रेदशों को ध्वंस विशेष करके छोड़ा। हूणों, तुरकों, रूम वालों और अरबों ने लोक संहार और अत्याचारों की यदि लोक कम्पितकर लीलायें दिखलाईं, तो चंगेज़ ख़ां, महमूद गज़नवी, शहाबुद्दीन गोरी, और नादिरशाह ने विकरालकाल की मूर्ति धारणकर लोहू की नदियाँ बहाईं। भारत का महाभारत भी कम चित्त प्रकम्पितकर नहीं है। आजकल भी कालिका का कराल करवाल कम नहीं चमक रहा है, यूरोप, एशिया, अफरीका सब जगह प्रलयकर कलाएँ दृष्टिगोचर हो रही हैं-इस समय की रक्तपात लीलायें मैंने व्यथित होकर निम्नलिखित शब्दों में लिखी हैं।

विकराल काल

चौपदे

आज है किलक रही काली। सबल है लेलिहान रसना।

दिखाकर लाल लाल ऑंखें। काल है बहु विकराल बना। 1 ।

है बड़े वेग सहित बहती। धरा पर लोहू की धारा।

करारा जिसका बनता है। कटे लाखों कपाल द्वारा। 2 ।

बहुत से निरपराधियों पर। वृथा है वह विपत्ति आती।

यातनायें जिनकी देखे। दहलती है वसुधा छाती। 3 ।

फुँक रहे हैं सुरपुर से पुर। ध्वंस होते हैं ऐसे नगर।

जो रहे अमरावती सदृश। अलौकिक बहु विभूति आकर। 4 ।

गगन है हाहाकार भरा। दिशा है दहली दिखलाती।

काँपती है जनता सारी। छिल गयी मानवता छाती। 5 ।

दिखाती हैं सड़कें पटती। मृतक मनु जातों के तन से।

इन दिनों समय बन गया है। भयंकर विषधर फन से। 6 ।

कुसुम कोमल बालक कितने। कहीं भू पर हैं मरे पड़े।

छिन्न अवयव देखे जिनके। न होंगे किसके रोम खड़े। 7 ।

कहीं पर कितनी सुन्दरियाँ। सिसिक कर हैं आहें भरती।

छातियाँ छिदने से कितनी। साँसतें सह सह हैं मरती। 8 ।

तड़प मरते दिखलाते हैं। कहीं ऐसे हट्टे कट्टे।

नहीं यमराज छुड़ा पाते। पकड़ पाते यदि वे गट्टे। 9 ।

किन्तु है मदांधता मचली। विजय लालसा लहू प्यासी।

गले में सब सुनीतियों के। लगी है कूट नीति फाँसी। 10 ।

प्रपंची के प्रपंच में पड़। पिस रही है प्रति दिवस प्रजा।

दनुजता है अनर्थ करती। सबलता की दुंदुभी बजा। 11 ।

बिना जाने अपराध बिना। बिना समझे बूझे बे सबब।

बिना कुछ किये बिना बँहके। पास सुख साधन होते सब। 12 ।

गले लाखों ही कटते हैं। जान जन यों ही देता है।

वही करता मदांध नर है। ठान जो जी में लेता है। 13 ।

फूल बरसाने का सुख वह। बमों को बरसा पाता है।

ज्वाल माला मय नगर उसे। स्वर्ग का समा दिखाता है। 14 ।

प्रबल अत्याचारी का कर। लहू में है बेतरह सना।

निपातन के निमित्त अब तो। बम पतन है पविपात बना। 15 ।

यह तो आज कल के उद्दण्ड शक्तिशाली लोगों का पराक्रम प्रदर्शन है, साधारण लोगों का कदाचार और उच्छृंखलता भी कम निन्दनीय नहीं है। बाहर न जाइये यूरप और अमेरीका आदि की कुत्सित प्रवृत्तियों पर दृष्टि न डाल कर भारत के ही असंयत कृत्यों की विवेचना कीजिए, तो चित्त व्यथित हो जाता है। हमने जटा बढ़ाकर, भगवा अथवा गेरुआ कपड़े पहनकर साधु बनने की चर्चा पहले की है। कितने ढोंगिये हैं जो ढोंग रच कर पेट पालते फिरते हैं, और साधु बन कर पैसे कमाने के लिए वे काम करते हैं, जिनको नीच से नीच आदमी नहीं कर सकता। तेरह चौदह बरस के लड़के भभूत रमाकर चार कौड़ियों के लिए हाथ फैलाये फिरते हैं, और साधु बनने का दम-भरते हैं। क्या यह प्रणाली ठीक है। क्या इन कृत्यों से हिन्दू धर्म की अवहेलना नहीं हो रही है। हिन्दू शास्त्रों में चार आश्रम का उल्लेख है। ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य वानप्रस्थ, और संन्यास। पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य रहता है, पढ़ने लिखने और गार्हस्थ्य धर्म की योग्यता प्राप्त करने के लिए। इसके बाद गार्हस्थ्य धर्म आरम्भ होता है। गार्हस्थ की योग्यता से निर्वाह हो जाने पर देश जाति और लोक सेवा अथवा भगवदाराधना स्वच्छंद भाव से करने की प्रवृत्ति यदि हृदय में उदय हो तो, वानप्रस्थ बनकर संन्यास ग्रहण किया जाता है। यह एक व्यापक नियम है, और संसार यात्रा के लिए यह ऐसा नियम है जिसमें सार है। विशेष अवस्थाओं में इन आश्रमों का पालन यथारीति न हो सके, तो उस अवस्था में वह मार्ग ग्रहण करना उचित है, जो आक्षेप योग्य न हो। बाणप्रस्थ और संन्यास सर्व सुलभ नहीं है। ब्रह्मचर्य आदि आश्रम है, इस आश्रम में जिस प्रकार की शिक्षा-दीक्षा हो, उसे माता-पिता अथवा किसी गुरु से बालक को ग्रहण करना ही पड़ता है। गार्हस्थ आश्रम ही प्राय: जीवनव्यापी सर्व साधारण के लिए होता है। इसलिए यह आश्रम अधिक व्यापक और परमोपयोगी है। और अनेक अवस्थाओं में सर्व सुलभ है। सांसारिक कर्तव्य परायणता की डोरी गृहस्थ के हाथ में है। वह सांसारिक प्रपंचों के पेच में न पड़कर सत्कर्मों को करते हुए मोक्षलाभ का भी अधिकारी है। एक मर्मज्ञ की उक्ति सुनिये-

वनेषुदोषाप्रभवन्तिरागिणम्। गृहेषुपंचेन्द्रिय निग्रहस्तप : ।

अकुत्सितेकर्मणि य : प्र्रवत्तात े। निवृत्ता रागस्य गृहं तपोवनम्।

“जो वास्तविक विरक्त नहीं, वह वन में भी दोष लिप्त हो सकता है। और घर में ही रहे पर पंचेन्द्रिय का निग्रह करता रहे तो तप का फल उसे प्राप्त हो सकता है। जो अकुत्सित कर्म करता रहता है, उसके लिए घर ही तपोवन है।

यह कितना बड़ा तथ्य कथन है, और इस कथन में कितना सार है, किन्तु कितने ऐसे अविवेकी हैं, जो यह समझते हैं, कि बिना गृह त्याग किये, बिना गृहस्थी से छुटकारा पाये, भगवद्भजन हो ही नहीं सकता। क्योंकि कर्म करते रह कर, सांसारिक कर्तव्यों में लिपटे रहकर, भगवदाराधना कैसे हो सकती है। आराधाना के लिए एकान्त स्थान चाहिए, सबसे अलग रहना चाहिए, हाथ में माला चाहिए, कपड़े लत्तो की परवा न होनी चाहिए, खान पान की चिन्ता न करनी चाहिए, इत्यादि, किन्तु यह अज्ञान है। यह भगवदाज्ञा है-

नियतं कुरु कर्मत्वम् कर्म ज्यायोह्यकर्मण : ।

शरीर यात्रापि च तेन प्रसिध्देत्यकर्मण : ।

“ सदा कर्म करो , निष्कर्मा बनने से कर्म करते रहना अच्छा है , शरीर यात्रा का निर्वाह भी बिना कर्म किये नहीं होता। “

कुटुम्ब का पालन करना, परोपकार करते रहना, कष्ट में पड़े लोगों का उध्दार करना, पीड़ितों को त्राण देना, देश और जाति की सेवा में संलग्न रहना पतितों को उठाना, आर्तों को उबारना, इसको समझना कि 'परोपकाराय सतां विभूतय:' ऐसे उद्देश्य हैं, जिनसे च्युत होना, मानव जन्म को नष्ट करना है। गार्हस्थ्य धर्म ही ऐसा है, जिसमें रहकर इन कर्तव्यों का पालन हो सकता है। सार इन्हीं सब कर्मों में है, अन्यथा जीवन असार हो जाता है। सत्संग के बिना इन बातों का यथार्थ ज्ञान नहीं हो सकता इसीलिए उसमें सार बतलाया गया है।

पतित पावनी भगवती भागीरथी में भी सारता कही गयी है। इसमें वास्तवता है-नीचे लिखे पद्य इस बात को सरलता से साबित करते हैं-

तिलोकी

सुर सरिता को पाकर भारत की धरा।

धन्य हो गयी और स्वर्ण प्रसवा बनी।

हुई शस्य श्यामला सुधा से सिंचिता।

उसे मिले धर्मज्ञ धनद जैसे धनीं। 1 ।

वह काशी जो है प्रकाश से पूरिता।

जहाँ भारती की होती है आरती।

जो सुर सरिता पूत सलिल पाती नहीं।

पतित प्राणियों को तो कैसे तारती। 2 ।

सुन्दर सुन्दर भूति भरे नाना नगर।

किसके अति कमनीय कूल पर हैं लसे।

तीर्थराज को तीर्थं राजता मिल गयी।

किस तटिनी के पावनतम तट पर बसे। 3 ।

हृदय शुद्धता की है परम सहायिका।

सुरसरिता स्वच्छता सरसता मूल है।

उसका जीवन जीवन है बहु जीव का।

उसका कूलतपादिक के अनुकूल है। 4 ।

साधक की साधना सिध्दि उन्मुख हुई।

खुले ज्ञान के नयन अज्ञता से ढके।

किसके जल सेवन से संयम सहित रह।

योग्य योग्यता बहु योगीजन पा सके। 5 ।

जनक प्रकृति प्रतिकूल तरलताग्रहण कर।

भीति रहित हो तप ऋतु के आतंक से।

हरती है तपती धरती के ताप को।

किसकी धारा निकल धराधर अंक से। 6 ।

किससे सिंचते लाखों बीघे खेते हैं।

कौन करोड़ों मन उपजाती अन्न है।

कौन हरित रखती है अगणित वृक्ष को।

सदा सरस रह करती कौन प्रसन्न है। 7 ।

कौन दूर करती घासों की प्यास है।

कौन खिलाती बहु भूखों को अन्न है।

कौन बसन हीनों को देती है बसन।

निर्धन जन को करती धन सम्पन्न है। 8 ।

है उपकार परायणा सुकृति पूरिता।

इसीलिए है ब्रह्म कमण्डल वासिनी।

है कल्याण स्वरूपाभवहित कारिणी।

इसीलिए है शिव शीश बिलासिनी। 9 ।

है सित वसना सरसा परमा सुन्दरी।

देवी बनती है उससे मिल मानवी।

उसे बनाती है रवि कान्ति सुहासिनी।

है जीवन दायिनी लोक की जाद्दवी। 10 ।

अवगाहन कर उसके निर्मल सलिल में।

मल बिहीन बन जाती है यदि मलिन मति।

तो विचित्र क्या है जो नियतन पथ रुके।

सुर सरिता से पा जाते हैं पतित गति। 11 ।

महज्जनों के पद जल में है पूतता।

होती है उसमें जन हित गरिमा भरी।

अतिशयता है उसमें ऐसी भूति की।

इसीलिए है हरिपादोदक सुरसरी। 12 ।

रही बात शंभु पूजन की, जितना सार उसमें है, संसार में उतना सार किसी में नहीं है। प्रकृतिवाद अभिधन, नामक कोष में शंभु का अर्थ लिखा गया है-कल्याण मय होना। यही अर्थ शंकर का है। शिव शब्द भी कल्याण् वाचक है। जिस शक्ति ने दानवता निवारण के लिए दुर्दान्त अनेक दानवों का संहार किया, संसार में शान्ति विस्तार के लिए कभी कालिका बन कराल करवाल धारण किया, कभी देव दुर्गति दूर करने के लिए दुर्गा बनी। कभी प्रचण्ड पामरों का मर्दन कर चंडिका कहलाई। कभी भवन के कल्याण के लिए भवानी कही गयी, यदि उसका प्रेरक अथवा पति कल्याण सर्वस्व शंभु हो तभी तो संसार सत्य सर्वस्व होगा। भगवान भूतभावन की महिमा अकथनीय है। जिस विष से संसार के विध्वंस होने की आशंका थी उसके पान करने वाले ये ही हैं। जो सुरसरी पतित पावनी है, वह उनके जटा जूट की कुछ बूँदें हैं। तारा पति उनके आकाशोपम शीश का एक तारक मात्र है, और कलंकी होकर भी सुधा वर्षण करता रहता है। दैहिक, दैविक, भौतिक तापों का निवारण करने वाला उनके हाथ का अस्त्र त्रिशूल कहलाता है। उनका वाहन वरद है, जो वास्तव में भारत वसुंधरा के लिए वरद है, साल में करोड़ों मन अन्न की उत्पत्ति का आधार वही है, जिससे धरातल के अन्य प्रदेश भी उपकृत होते रहते हैं उनकी नग्नता अनंगता विध्वंसिनी है। तन की विभूति विश्वविभूति है। उनकी समाधि आधि व्याधि विनाशिनी है। उनका ज्ञान ब्रह्मज्ञान है। उनका ध्यान विश्व मूर्ति का ध्यान है। उनकी भक्ति मुक्ति प्रदायिनी ही नहीं है, वह देश जाति और भव भक्ति की जननी भी है, जो कि मानव जीवन सफलता का सर्वस्व है। भारत के लिए तो उनकी मूर्ति प्राणाधार है। क्योंकि वह उन्हीं के आकृति की प्रतिमूर्ति है। मानो वह उसकी तन्मयता का फल है।

निम्नलिखित पद्य को देखिए-

पद

भव्यभारत है भव की मूर्ति।

होती है विभूति से उसकी भक्ति भावनाओं की पूर्ति।

त्रिभुवन के समान ही उसके सिर पर है सुर सरित प्रवाह।

पातक पुंजनिपातन का भी उसको रहता है उत्साह।

सिंह वाहना की सी है उसकी भी सिंह वाहना शक्ति।

शिर पर शशि के धारण करने की भी उसकी है अनुरक्ति।

वह भी नाग वंशधर है यदि हैं भुजंग भूषण सित कंठ।

सकल भूत का हित करने को वह भी रहता है उत्कंठ।

यदि हैं शंभु वृषभ वाहन तो उसे शंभुता का है प्यार।

उसके विपुल , अन्न उत्पादन का है वृषभवंश आधार।

वे त्रिलोक पति हैं वे विभु हैं ; लोकलोक के हैं आलोक।

समझ मर्म यह साध्य और साधक जनका सिद्धान्त विलोक।

जिस दिन सिध्दि लाभ कर बन जायेंगे भव के भक्तअनन्य।

उसी दिवस भारत भूतल वासी वसुधा में होंगे धन्य। 1 ।

भव भक्ति के आधार पर ही शास्त्रों का यह सिद्धान्त वाक्य है-

सत्यं हि तत भृतहितम् यदेव।

परोप काराय सतां विभूतय : ।

सर्व भूत हितेरता :

महिंस्यात् सर्व भूतानि।

अहिंसा परमो धर्म : ।

मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्।

आत्मवत् सर्व भूतेषु य : पश्यति स : पण्डित : ।

यद् यदात्मनि चेच्छेत तत् परस्यायिचिन्तयेत्।

आत्मन : प्रतिकूलानि नयरेषां समाचरेत्।

अयं निज : परो वेति गणना लघु चेतसाम्।

उदार चरितानान्तु वसुधैव कुटुम्बकम्।

“सत्य वही है, जिसमें प्राणि मात्र का हित हो। सज्जनों की विभूति परोकार के लिए है। सर्व प्राणियों का हित करते रहना चाहिए। प्राणियों की हिंसा न होनी चाहिए। अहिंसा परम धर्म है। माता के सम्मान पराई स्त्री को, पर द्रव्य को लोहेसदृश, सर्वभूत अर्थात् सब प्राणियों की आत्मा को अपनी आत्मा के तुल्य जो समझता है, वही विज्ञ अर्थात् पण्डित है। अपनी आत्मा के लिए जो हम चाहते हैं वही दूसरोंकी आत्मा के लिए भी चाहें। अपनी आत्मा के लिए जिसे प्रतिकूल हम समझते हैं, उसको दूसरों की आत्मा के लिए भी प्रतिकूल समझें। यह अपना है, और यह पराया है, यह विचार छोटी तबीयत वालों का होता है। उदार चरित के लिए वसुधा ही कुटुम्ब है।”

शंभु पूजा का अर्थ ही भव पूजा है। भव यदि भगवान भवानी पति की संज्ञा है, तो भव संसार को भी कहते हैं। संसार भव का ही स्वरूप है, 'सर्वम् खल्विदम् ब्रह्म, नेह नानास्ति किंचन, सर्व संसार ब्रह्म है, यहाँ नाना कुछ नहीं है। ऐसी अवस्था में कर्तव्य क्या है? देश की, जाति की, प्राणिमात्र की, कुल संसार की सच्ची सेवा करना, यदि कहा जाय संसार में बड़ी विडम्बना है, वह कदाचार, अत्याचार, पापाचार, आदि से भरा है, पहले इसके विषय में जितनी बातें लिखी गयी हैं, वे अक्षरश: सत्य हैं, तो कैसे सत्यपथ के पथिक होकर किसी का निर्वाह हो सकता है। देश, काल, पात्र का विचार सर्वदा होता आया है, इसलिए उसका विचार न रखना अविवेक होगा। मैं कहूँगा अविवेकी बनने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु मानव में मानवता होनी चाहिए, पशुता नहीं। दूसरी बात यह कि जहाँ संकट का सामना हो, जहाँ प्रपंच मुँह खोले खड़ा हो, जहाँ भयंकर मूर्तियाँ खड़ी दाँत पीसती हों, उलझनें जाल फैलाये हों, तरह-तरह के बखेड़े अड़े हों, उन्हीं स्थानों पर ही तो धर्मधुरंधरता की आवश्यकता होती है। जहाँ बज्र पतन की आशंका है, वहीं धीरज धर्य का सेहरा धारण करता है। प्राण से प्यारा कोई पदार्थ नहीं परन्तु सत्य और सत्यपथ पर धर्मवीर उसको भी उत्सर्ग कर देता है। एक धर्म मर्मज्ञ लिखते हैं-

कर्णस्त्वचा शिविर्मांसम् जीवो जीमूतवाहन : ।

ददौ दधीचि चास्थीनि किमदेय : महात्मनाम्।

कर्ण ने त्वचा, शिवि ने मांस, जीमूतवाहन ने जीव और दधीचि ने शरीर कीकुल अस्थि दे दी। महात्माओं को धर्म के लिए कोई वस्तु अदेय नहीं है। महात्मा ईसा ने धर्म के लिए प्राण देने में सी तक नहीं की, मंसूर वेदान्त वादी (सूफी) था, उसको इसलिए फाँसी दी गयी कि वह अहं ब्रह्म (अनलहक) कहा करता था, परन्तु उसको इसकी तनिक परवाह नहीं हुई, वह समझता था प्रेम एव परोधर्म:। एक कवि कहता है-

चढ़ा मंसूर सूली पर पुकारा इश्कबाज़ों को।

यह उसके बाम का ज़ीना है आये जिसका जी चाहे।

बाद मरने के हुआ मंसूर को भी जोशे इश्क।

खून कहता था अनलहकदार के साया तले।

गुरु अर्जुन देव और गुरु तेगबहादुर ने धर्म पर इस तेजस्विता से प्राण उत्सर्ग किया कि उनका एक रोम भी कम्पित नहीं हुआ। गुरु गोविन्द सिंह के दो लड़के फतेह सिंह और जोरावर सिंह दीवार में चुन दिए गये किन्तु धर्म की ही धाक जमाते गये, मरने की तनिक भी परवाह नहीं की। थोड़े दिन हुए पं. लेखराम और हकीकत राय ने डंके की चोट प्राण दिए, पर चेहरे पर शिकन तक न आयी।

शंभु पूजन के ए सब आदर्श उच्चकोटि के हैं। भवभक्ति में कितना धर्म भाव है, उसमें कितनी व्यापकता है, कितनी लोकोपकार प्रवृत्ति है, कितना त्याग है और है कितनी अलौकिकता, वह अकथनीय है। फिर भी वे इस भाव के प्रकट करने में पूर्ण सफल हुए हैं, उनके पूजन में जितना सार है, उनके लिखने में लेखनी कदापि समर्थ नहीं हो सकती।

संसार की असारता का राग गाकर हिन्दू जाति अब तक जितनी क्षतिग्रस्त हुई है और अब भी जिस अवनति गर्त की ओर जा रही है, उसे देखकर किसका हृदय व्यथित न होगा। इस अनर्थ कुबिचार के प्रपंच में पड़कर कितने कर्मठ निष्कर्म बन गये और बन रहे हैं, कितने कार्य कुशल कर्त्वयमूढ़ हो गये, कितने योग्य अयोग्य कहला रहे हैं, कितने परिश्रमी आलस के फंदे में पड़ गये हैं, कितने साहसी साहस नहीं दिखलाना चाहते। कितने त्यागी हैं कितने विरागी। धन धूल में मिल रहे हैं, घर उजड़ रहा है, और लड़के तबाह हो रहे हैं। पर असारता का रंग अब तक जमा हुआ है, न ऑंखें ठीक-ठीक खुलीं, न कान खडे हुए। मुझको इसकी कथा है, इसलिए सार और असार कहने अपने कुछ विचार प्रकट किए हैं। जिन साधनों से मैंने काम लिया और मेरे लेख के जो आधार हैं, वे ऐसे हैं, जिनकी प्रतिष्ठा हिन्दुओं की चर्चा में अधिक है। इसके अतिरिक्त वे संस्कृत की प्राचीन उक्तियाँ हैं, जो प्रतिष्ठित एवं विश्वास योग्य प्राय: समझी जाती हैं। उदाहरण का स्थान काशी है, वह भारत वर्ष का एक पूज्य नगर है, हिन्दुओं की दृष्टि में उसकी बड़ी प्रतिष्ठा है।

इसका यह अर्थ नहीं है कि मैंने भारत के अन्य नगरों की ऐसा करके अप्रतिष्ठा की है। कदापि नहीं। मेरा यह विचार है कि भारतवर्ष ही नहीं धरातल पर योरप, अमेरिका, एशिया, अफ्रीका आदि में जितने पूज्य और मान्य नगर हैं, जितने मान्य स्थान हैं, जिनमें उसी के समान धर्मशील, विद्वान् ज्ञानमान, परोपकार निरत, लोकहित परायण, उदार देश, जाति हितैषी, भवविभूति सर्वस्व निवास करते हैं, उन सबको काशी के समान ही सारता प्राप्त है, चाहे वे किसी भी स्थान के हों। ऐसे ही भूतल की उन सब सरिताओं को भी वही सारता प्राप्त है, जो भगवती भागीरथी समान पुण्य सलिला और गौरविता हैं। रही बात सत्संग की, उसकी सुविधा कहाँ, या किस देश में नहीं है, सत्संग ही संसार की वह ऐसी विभूति है, समरता स्वयं जिसकी सहचरी है। वह कल्पतरु है, उसकी छाया में मानवता पलती है, वह पारस है जिसको छूकर अवगुण लोहा सोना बनता है। वह प्रकाश है जिसको लाभ कर अज्ञान अन्धाकार दूर होता है, वह पूतसलिल है जो मानस मल को दूर कर उसे निर्मल बनाता है, उसमें संजीवनी का वह गुण है जो निर्जीव को भी सजीव करता है। यही कारण है कि भूतल भर में उसकी प्रतिष्ठा है। रहा शंभुपूजा अथवा ईश्वर उपासना का प्रश्न, इसका उत्तर यह है, कि क्रिया भूतलव्यापिनी ही नहीं विश्वव्यापिनी है। कौन धर्म ऐसा है, जिसका सिर परम प्रभु के सामने नहीं है। इनेगिने नास्तिकों की बात छोड़ दीजिए, वे मुख से जो कहें, पर हृदय प्रभु प्रेमपथ का पथिक ही होता है। वे अपने गुरु को गुरु ही मानते हैं। गुरु नाम परमात्मा का है। भगवद्गीता का यह वचनहै- यद्यद् विभूतिमत्सत्तवम् श्रीमदूर्जितमेववा। तद्तद्देवावत्वगच्छ नम् मम तेजोऽशं संभवम्।

“जो जो विभूतिमान् महापुरुष हैं, अलौकिक श्रीमान् हैं, समस्त द्वारा समुन्नत हैं, उन सबको मेरे तेज और अंश द्वारा संभूत समझो।”

प्रयोजन यह कि ईश्वर उपासना सब सद्भावों की जननी है, अत: त्रिलोक व्यापिनी है। सत्संग भी उसी का एक अंग है। मैंने केवल उनके लिए काशी के चार सार पदार्थों का उल्लेख कर वास्तविक तत्तव का प्रतिपादन किया है। यह निरूपण एक देशी नहीं है, सर्वदेशी है, उसकी प्रतिपादित शैली ही यह बतलाती है। आर्य जाति का धर्म सिद्धान्त सदा सर्वदेश व्यापक रहा है, क्योंकि वह 'वसुधैव कुटुम्बकम् है। मैं उसी सिद्धान्त का अनुमोदक एक साधारण प्राणी हूँ, अन्य पथ का पथिक कैसे हो सकता हूँ। वह पथ ही सत्य और लोकोपकारक है।

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