संस्कारविहीन शिक्षा और श्रद्धारहित दीक्षा / जयप्रकाश चौकसे

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संस्कारविहीन शिक्षा और श्रद्धारहित दीक्षा
प्रकाशन तिथि :15 फरवरी 2017


कुछ दिन पूर्व ही एक फौजी ने सेना में भोजन की गुणवत्ता पर सवाल उठाया था और व्यवस्था ने उसे लगभग पागल करार दे दिया था। मणिरत्नम की शाहरुख खान एवं मनीषा कोईराला अभिनीत 'दिल से' में रेखांकित किया गया था कि पूर्वोत्तर के प्रांतों में फौजी वहां के रहवासियों के साथ अन्याय व दुष्कर्म करते हैं। 'शौर्या' नामक फिल्म में कुछ फौजियों के ऐसे आचरण को प्रस्तुत किया गया है। गौरतलब है कि जब पूरे देश में ही नैतिक मूल्यों एवं सांस्कृतिक चेतना का लोप-सा हो रहा है तब कोई भी विभाग या जीवन का क्षेत्र भ्रष्ट आचरण से मुक्त कैसे हो सकता है। शरीर के एक अंग में रोग होने पर पूरा शरीर ही प्रभावित होता है। प्रकृति के संरक्षण हेतु हजारों बीजारोपण किए जाते हैं और लोहे का रक्षक लगाया जाता है ताकि कोई जानवर उसे नष्ट नहीं कर दे परंतु कुछ ही दिनों में लोहे का ट्री गार्ड चोरी चला जाता है, क्योंकि उसका लोहा ढाई सौ रुपए में बिकता है।

हमें बुलेट ट्रेन के ख्वाब दिखाए जा रहे हैं, जबकि रेल दुर्घटनाएं हो रही हैं और रेल की मौजूदा पटरियों को समय पर बदला नहीं जाता और संभवत: सबसे बड़े घोटाले रेल पटरियों को बदलने पर उसके लोहे का क्या होता है, इससे जुड़ा हो। इस पर ध्यान ही नहीं दिया गया है। अनंत भारत के गर्भ में अनेक घोटाले हैं, जो अब तक उजागर नहीं हुए हैं। सबकी जड़ में नैतिक मूल्यों का पतन व सांस्कृतिक सम्पदा के प्रति सरकार व अवाम की उदासीनता है। हमारी लाक्षणिक इलाज की प्रवृत्ति भी भयावह है, क्योंकि रोग को जड़ से निकालने के प्रयास नहीं होते।

अनेक लोग हॉलीवुड की फिल्मों से अमेरिका का आकलन करते हैं और वह अवसरों का देश नज़र आता है, वह एक अल डेरोडो अर्थात सोने की खान की तरह देखा जाता है परंतु हकीकत कुछ और है। वहां मुफ्त में कुछ भी उपलब्ध नहीं है, वहां कार्यसंस्कृति विद्यमान है गोयाकि हर व्यक्ति को काम करना पड़ता है। आलस्य वहां प्रतिबंधित है। इसका यह अर्थ नहीं कि वह आदर्श देश है। पूंजीवादी व्यवस्था के तमाम कीड़े चमकदार सतह के नीचे बिलबिला रहे हैं। अमेरिका की बात इसलिए प्रासंगिक है कि हमारे वर्तमान हुक्मरान अमेरिका से बहुत प्रभावित हैं। रूस के विघटन के बाद कम्युनिज्म के परखच्चे उड़ गए हैं और यह विस्फोट इतना जबर्दस्त था कि वामपंथ की लहर का लोप हो गया है परंतु वह सतह के नीचे कहीं आज भी प्रवाहित है। कालांतर में वह फिर सतह पर आएगी परंतु तब तक पूंजीवादी तांडव देखने के लिए हम अभिशप्त हैं।

शून्य से कम तापमान में हमारी सरहदों की रक्षा में तैनात फौजी जब छुट्‌टियों में घर लौटता है तब वह देखता है कि उसका बेटा भीड़भरी बस में सवार है या बार-बार पंक्चर हो जाने वाले पहियों की साइकिल पर कॉलेज जाता है, जबकि भ्रष्टाचार के दम पर नवधनाढ्य का बेटा कार में बैठकर कॉलेज को ऐशगाह बनाने पर आमादा है। उसके मन में कैसे विचार आते होंगे। सारांश यह है कि असमानता व अन्याय आधारित देश का हर पक्ष कमजोर हो जाता है। राष्ट्र की भीतरी संरचना ही उसके रक्षा कवच की भी परिचायक होती है जैसे गृहनीति ही विदेश नीति तय करती है।

नैतिक मूल्यों और सांस्कृतिक चेतना के पतन से उबरने के दो ही रास्ते हैं। शिक्षा के पाठ्यक्रम में आमूल परिवर्तन किया जाए परंतु वह तथ्यपरक दृष्टिकोण से होना चाहिए। तथ्यपरक एवं निर्मम दृष्टिकोण के बिना इतिहास महज गल्प रह जाता है, जिसके कारण भविष्य भी धुंधभरा ही होगा। अतिरेक आधारित मायथोलॉजी से मुक्ति आवश्यक है। हमारे पुरातन ग्रंथों की वैज्ञानिक एवं सत्य आधारित परिभाषा करके उन्हें अपने सही उदात्त रूप में प्रस्तुत किया जाए। कई दशक पूर्व कम मूल्य में मायथोलॉजी एवं इतिहास की पुस्तकें प्रकाशित करने वाली संस्था ने प्रिंटिंग की आधुनिकतम मशीनें खरीदीं परंतु उन महान रचनाओं के अनुवादक एवं टीकाकार अल्प बुद्धि के लोग थे।