संस्कार जी से साक्षात्कार / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
यूँ तो संस्कार जी ये कई बार भेंट हो चुकी थी, लेकिन व्यवस्थित रूप से कभी विचार-विमर्श नहीं हो पाया। बहुत प्रयास करने पर संस्कार जी साक्षात्कार के लिए तैयार हुए। मैं घर पर पहुँचा। संस्कार जी उस समय दफ़्तरी फ़ाइलों की तरह आराम फरमा रहे थे। मैं अभिवादन करके बैठ गया।
पूछिए, आपको क्या पूछना है?
-मैं सबसे पहले आपकी वेषभूषा के बारे में पूछना चाहूँगा। आपने टोपी लगाना क्यों शुरू कर दिया है?
-टोपी लगाना किसी राजनीतिक दल की पहचान नहीं है। मैं किसी राजनीतिक दल का सदस्य नहीं हूँ। हाँ, इसका महत्त्व ज़रूर बता सकता हूँ। खोपड़ी में बुद्धि क़ैद है या कूड़ा भरा है, टोपी से इसका कोई सरोकार नहीं। जब तक सिर पर टोपी रहेगी, तो यह भ्रम ज़रूर बना रहेगा कि इसके भीतर कुछ है। क्या है, इसका पता लगाना कठिन ही रहेगा।
-कल मैंने कितना कार्यकर्त्ताओं की एक रैली देखी। अधिकतर पुरुष पैंट-शर्ट या कुर्त्ता पाजामा पहने थे। महिलाएँ किसी कॉलेज की लड़कियाँ लग रही थीं।
-हर क्षेत्र में प्रगति हो रही है। हर बार किसानों को फटे कुर्ते और घुटनों तक की धोती में क्यों दिखाया जाए? हर किसान के गले में ताबीज या डोरा क्यों बँधवाया जाए?
-किसी ज़माने में आपने कुछ पत्रिकाओं का सम्पादन किया था। एक-एक, दो-दो अंक, निकलने के बाद पत्रिकाएँ काल-कवलित हो गईं। आप आज तक भी स्वयं को उन पत्रिकाओं का सम्पादक लिख रहे हैं।
-अगर आप उनके सम्पादक होते तो मैं नहीं लिखता।
-बात यह है कि वे पत्रिकाएँ वजूद में नहीं हैं।
-मैं तो वजूद में हूँ। भूतपूर्व सम्पादक के रूप में ही सही। भूतपूर्व होने का भी अभूतपूर्व सुख है। नाम के साथ सम्पादक लिखने से मन को राहत मिलती है।
-सुना है आपकी 'डॉक्टर' की डिग्री फ़र्ज़ी है?
-गलत सुना है। मैं साहित्य का डॉक्टर नहीं हूँ। मैं ढोर डॉक्टर हूँ। रतनपुरा के पशु चिकित्सालय में जाकर पूछो। वहाँ—पाँच साल तक नौकरी की है। नौकरी रास नहीं आई। कई बार चोटें खाईं। कभी बैल ने दुलत्ती मार दी, तो कभी किसी भैंस ने सींग मार दिया। साहित्य-जगत् में कौन पूछता है कि पी-एच .डी-का ग्रंथ क्या है? ढोर डॉक्टर और साहित्य के डॉक्टर सब एक ही लाठी से हाँके जाते हैं।
-नागर जी के मरने पर कई पत्रिकाओं ने उन पर विशेषांक निकाले। इधर अचानक देखा कि आपके कुछ साथियों ने आप पर भी विशेषांक निकाल डाला।
-इससे आपको क्यों तकलीफ़ हुई? विशेषांक क्या केवल मरे हुए साहित्यकारों पर ही निकाले जाते हैं?
-मैं तो अब तक यही समझे हुए था कि विशेषांक मरे हुए या मरणासन्न साहित्यकारों पर ही निकाले जाते हैं।
-अरे भाई, मरना सभी को है। अपने जीते-जी निकलवाने का आनन्द ही कुछ और है। मरने पर कौन देखने आता है कि मित्रो ने विशेषांक निकाला है या नहीं! आजकल के दोस्तों का क्या भरोसा कब आँख फेर लें? कब अन्तरात्मा कि आवाज़ के पीछे दौड़ने लगें? कुछ लोग भले ही रात-दिन सोए रहें; परन्तु उनकी आत्मा कुत्ते की नींद सोती है। जरा-सी आहट पर जाग उठती है।
-विशेषांक छपवाने में आपका भी योगदान रहा होगा?
-अब तुम्हें क्या बताएँ? सारा खर्च मुझे ही उठाना पड़ा। पांडुलिपि में ढेर सारा संशोधन करना पड़ा। मूर्ख मित्रों का लिखा ढेर सारा खरपतवार छाँटना पड़ा। फिर भी कुछ कबाड़ा रह गया है। भला आसमान के फटे को कहाँ तक थेगली लगाई जाए।
-विशेषांक की विभिन्न पत्रिकाओं में समीक्षा?
-वह भी छदम् नाम से मुझे करनी पड़ी। मैं मरजीवड़े समीक्षकों पर भरोसा करने की ग़लती नहीं करता।
-परन्तु समीक्षाओं में कुछ निगेटिव रिमार्क भी हैं, क्यों?
-विश्वसनीय बनाने के लिए ऐसा करना ज़रूरी हो जाता है।
-आप प्रायः कोई न कोई अखिल भारतीय सम्मेलन करते रहते हैं। इससे कुछ आर्थिक लाभ भी होता होगा?
-होता है; लेकिन इसे लाभ न कहकर बचत कहिए। हमें तो उन लोगों को भी शराब पिलानी पड़ती है, जो 'गरीबों का कल्याण कैसे हो?' जैसे विषयों पर बोलते हैं। उन्हें थ्री स्टार होटल में ठहराना पड़ता है। हम लोग अगर बचत नहीं करेंगे, तो पिंजरा-पोल की गायों की तरह सूखकर ठठरी हो जाएँगे। मैं बाल-बच्चों वाला आदमी हूँ। 'जोरू न जाता, अल्लाह मियाँ से नाता' वाला आदमी होता तो बचत पर ध्यान न देता।
-पिछले दिनों आपका एक काव्य-संग्रह छपा है-खूँटी पर टँगी आत्मा। 'पुस्तक के इस नामकरण के पीछे आपका दृष्टिकोण?
-मुझसे पहले के साहित्यकार शेर को खूँटी पर टाँग चुके हैं, लोगों को भी खूँटी पर लटका चुके हैं। इसके बाद आत्मा बची थी। वह मैंने खूँटी पर टाँग दी, तो एतराज़ क्यों?
-आप हमेशा कोई न कोई विवाद खड़ा करते रहते हैं, किसलिए?
-सुर्खियों में रहने के लिए। अच्छी बातों का लोग नोटिस लेते ही नहीं; इसलिए मुझे ऊल-जलूल बातें कहकर लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करना पड़ता है, एक विवाद के मरने पर दूसरा विवाद जिन्दा करना पड़ता है।
-बुद्धिजीवी किसे कहते हैं?
-जैसे परजीवी ऐसे ही बुद्धिजीवी। जिनके हाथ-पैर जवाब दे गए हों और बुद्धि मरणासन्न स्थिति में हो, उन्हें बुद्धिजीवियों में श्रेष्ठ माना जाता है। ये प्रायः बयान जारी करते हैं और सोचते हैं कि बयान की तोप से समस्याओं के टैंक उड़ जाएँगे। ये काफ़ी सस्ते में मिल जाते हैं। ये जिस देश का खाते हैं, उसी का गाते हैं। कुतर्क इनका सबसे बड़ा हथियार है। -इनके विशेष गुण?
-बेशर्मी, अज्ञान, भ्रष्ट आचरण।
-भाषा को भ्रष्ट करने का सशक्त माध्यम क्या है?
-दूरदर्शन का इस क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान है। कुछ समाचार वाचक शब्दों को बड़े अच्छे ढंग से चबाते हैं, जुगाली तक नहीं करते। वर्तनी बिगाड़ने में' नामावली' का भी विशेष महत्त्व है।
-आप साहित्यिक सेवा से संन्यास कब लेंगे?
-जब दूरदर्शन की तरह दयनीय हो जाऊँगा।
-जीवन में जुलूसों का क्या महत्त्व है?
-जब बकवास करते-करते थक जाएँ, तो मौन जुलूस निकालें। जब कहने को कुछ भी पास न बचा हो, तब मशाल जुलूस तथा जब दिमाग़ सुन्न हो जाए तब बच्चों की तरह हाथ में हाथ डालकर मानव-शृंखला बनाएँ। सारी समस्याएँ चुटकियों में दूर हो जाएँगी।
-भोज के बारे में आपका अनुभव क्या है?
-महाभोज से बचना चाहिए। ऊबड़-खाबड़ विचारों को हमवार करने के लिए भोज की आवश्यकता पड़ती है। जीमने वाले को अपनी ओर फोड़ लेने का यह सुनहरा अवसर होता है। साहित्यकारों में भोज का महत्त्व कम है; क्योंकि ये भेजा खाने में ज़्यादा दिलचस्पी रखते हैं।
-मित्र और शत्रु में मौलिक अन्तर क्या है?
-मित्र पीठ में छुरा भोंकते हैं जबकि शत्रु सिर्फ़ सीने में।
-अपने जीवन की विशेष बातें बताएँगे?
-कदापि नहीं! विशेष बातें किसी को नहीं बताई जातीं। अब तुम्हारा समय ख़त्म हुआ। बाक़ी फिर कभी।
-फिर कभी, मैं समझा नहीं।
संस्कार जी फिर किसी अधिवेशन की तैयारी में लग गए। विश्व में हिन्दी प्रचार-प्रसार के लिए अंग्रेज़ी में निमन्त्रण-पत्र का प्रारूप तैयार करने लगे। मैं धन्यवाद देकर चला आया।