संस्कृति, समय और भारतीय उपन्यास / निर्मल वर्मा
अर्से से हम यह अफ़वाह सुनते आए हैं कि उपन्यास ने अपना चोला छोड़ दिया है, लेकिन हज़ारों की संख्या में उपन्यास अब भी लिखे जाते हैं। शायद ही किसी विधा को मरने में इतना समय लगा हो जितना उपन्यास को। यद्यपि उसकी मृत्य की भविष्यवाणियाँ समय-समय पर होती रहती हैं, फ़ीनिक्स की मानिंद हर बार वह अपनी मृत्यु की राख झाड़कर पुनः उठ खड़ा होता है। लेकिन यह भी हो सकता है कि शायद अफ़वाह सच है और उपन्यास सचमुच मर गया है, जैसा हम उसे अभी तक जानते आए थे। डिकेंस, फ्लॉबेर, तोल्स्तोय, दोस्तोविस्की की रक्त-माँस मंडित प्रेम, घृणा, ईर्ष्या, सांसारिक महत्त्वाकांक्षाओं में लिथड़ी गाथाएँ जिन्हें आजतक हम उपन्यास की संज्ञा देते आए थे, हमारे समय तक आते-आते वे एक अंधी गली में गुम हो गई है। अपने पीछे एक भी ऐसा सुराग़ नहीं छोड़ गई है, जिन्हें पकड़कर उपन्यास की पुरानी गौरव गरिमा को उजागर किया जा सके। अब हम जिन पुस्तकों को उपन्यास के बहाने पढ़ते हैं, क्या वे उसकी मृत काया की महज़ प्रेत-छायाएँ हैं?
देखा जाए तो उपन्यास हमेशा से तकलीफ़ में था और जितना अधिक वह फलता-फूलता गया, उसके भीतर की अदृश्य तकलीफ़ भी बढ़ती गई। वह आत्म-चेतना की तकलीफ़ थी, जिसने अठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी के यूरोपीय मानस को एक विशिष्ट और असाधारण मनोस्थिति में डाला था। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि मनुष्य सिर्फ़ एक व्यक्ति में बदल जाए और समाज एक ऐसी भीड़ में, जिसका अपना कोई चेहरा नहीं। मनुष्य का एक व्यक्ति में सिकुड़ जाना और दूसरी तरफ़ समाज का एक हद तक फैल जाना, जहाँ व्यक्तित्व ही उसका संस्कार हो। उपन्यास की तकलीफ़ इन दो पाटों के बीच में फँसे मनुष्य की बदहवासी, लक्ष्यहीनता और अकेलेपन को प्रतिबिंबित करती थी।
मनुष्य क्या है? यह सनातन प्रश्न है और एपिक, कविता, नाटक जैसी सनातन (क्लासिक) विधाओं में इस प्रश्न को अनेकानेक स्तरों पर उघाड़ा गया था, किंतु व्यक्ति क्या है? इस प्रश्न के साथ सीधी-सीधी पहली मुठभेड़ उपन्यास ने की थी। व्यक्ति जो चाहे किसी भी वर्ग, संप्रदाय, धर्म या परिवार का सदस्य क्यों न हो, किंतु जिसकी प्रामाणिकता उसकी सदस्यता (बिलॉन्गिंग) में नहीं उसके होने (being) में निहित होती है। व्यक्ति जो अपने को 'व्यक्त' करता है और व्यक्त करने के दौरान ही अपने होने का प्रमाण देता है। पहले उसके प्रमाण-पत्र में दूसरों के हस्ताक्षर होते थे, वे उसके होने के साक्षी थे। माता-पिता, वर्ग-जाति और सबसे ऊपर ईश्वर, वे थे इसलिए वह था, उनके बिना कुछ नहीं था, महज़ शून्य। समाज में व्यक्ति की अवधारणा ही एक अभूतपूर्व घटना या चाहें तो कहें दुर्घटना थी क्योंकि उसके होने के सबूत में सिर्फ़ उसका मैं था और ईश्वर और न्याय और नियम की अदालत में मैं की शिनाख़्त स्वयं 'मैं' कैसे कर सकता है? इसलिए व्यक्ति के अस्तित्व पर शुरू से ही संदेह की छाया पड़ चुकी थी। उपन्यास ने पहली बार ऐसे व्यक्ति की गवाही लेने का प्रयास किया था जो अपने लिए इस दुनिया में किसी को साक्षी नहीं बना सकता था। नंगा और निरीह व्यक्ति, संपूर्ण रूप से स्वतंत्र और संपूर्ण रूप से संदिग्ध, असंख्य संभावनाओं में खुला हुआ और हर संभावना को अंतिम परिणति तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी ढोता हुआ। वह कुछ भी हो सकता था संत, हत्यारा, शैतान। दोस्तोएवस्की का यह कथन है कि यदि ईश्वर नहीं है तो मनुष्य कुछ भी कर सकता है, न केवल व्यक्ति के जोख़िम भरे संसार को उद्घाटित करता है बल्कि उस संसार की अंतविहीन अराजकता को भी रेखांकित करता है, जिसे उपन्यास ने अपनी विधा के घेरे में पहली बार समेटा था। उपन्यास की तकलीफ़ बहुत कुछ व्यक्ति के जन्म होने की प्रसव पीड़ा से जुड़ी हुई थी।
व्यक्ति की जिस अंतरात्मा को उपन्यास ने अपना केंद्र-बिंदु बनाया था, उसी चीज़ ने उपन्यास को कथ्यात्मक बिरादरी की अन्य समस्त विधाओं से अलग भी कर दिया। एपिक, आख्यायिका दंतकथा, फ़ेबल, लोककथाएँ, क़िस्से-कहानियाँ ऊपर से देखने पर लगता है कि उपन्यास इन्हीं प्राचीन कथ्यात्मक शैलियों की आधुनिक और परिष्कृत उत्पत्ति है। इस भ्रम का कारण शायद यह है कि उपन्यास और इन कथ्यात्मक शैलियों में यदि एक चीज़ समान रहती है तो वह है कहानी। ये समस्त कथ्यात्मक विधाएँ किसी-न-किसी रूप में कोई क़िस्सा-कहानी सुनाते हैं, लेकिन क्या उपन्यास सिर्फ़ कहानी सुनाने का माध्यम है? यदि ऐसा होता तो उपन्यास जैसे विशिष्ट फ़ॉर्म को अन्वेषित करने की क्या आवश्यकता थी? मनुष्य की कहानी को अभिव्यक्त करने के लिए क्या पुरातन-काल से चलती आई कथ्यात्मक शैलियाँ काफ़ी नहीं थीं? क्योंकि क़िस्सागो के सुरक्षित संसार में जो मनुष्य बसता था, उपन्यास का व्यक्ति उस संसार की हदों से कहीं दूर जा पड़ा था। पुरातन कथा-शैलियों में हमें कितने पात्र याद रहते हैं? एक राजा था कहानी यहाँ से शुरू होती है; कौन-सा राजा? यह अप्रासंगिक है... क्योंकि राजा और रानी और राक्षस और पक्षी हमारी पुरातन लैंडस्केप की आर्केटाइप स्मृतियों को उघाड़ते हैं वे सार्वभौमिक हैं, अटल हैं; कहानी शुरू होते ही वे कठपुतलियों की तरह नाचने लगते हैं।
लेकिन मदाम बॉवेरी? हम उसके बारे में क्या जानते हैं? उपन्यास पढ़ने की बात जो याद रह जाता है वह मदाम बॉवेरी की कहानी नहीं, जो हज़ार औरतों की कहानी हो सकती है, बल्कि वे हज़ार घटनाएँ, जिनके अद्भुत और अप्रत्याशित सम्मिश्रण से एक मदाम बॉवेरी का जन्म हुआ था, एक स्वतंत्र स्त्री जिसके आगे संकल्प और अपने स्वप्न थे। उपन्यास से पहले की कथ्यात्मक विधाओं में पात्रों पर घटनाएँ घटती हैं, किंतु उपन्यास में व्यक्ति-पात्र अपनी इछाओं और संकल्पों से किसी-न-किसी रूप में इस घटनाचक्र में अपना हस्तक्षेप करना चाहते हैं। इसमें वे असफल हों, पराजित हों, घटनाओं के रथ-तले कुचले जाएँ, यह दूसरी बात है बल्कि यही बात उपन्यास को कहानी-क़िस्से से अलग करती है। उपन्यास भी कथ्यात्मक विधा है किंतु वह कहानी कहने का शुद्ध माध्यम नहीं है। डॉन किहोते और मदाम बॉवेरी के स्वप्नों और सांसारिक घटना-चक्र की अनिवार्य लौहवत्ता के बीच एक तनाव भरा द्वंद्व बराबर चलता रहता है, एक द्वंद्वात्मक टकराव। इसीलिए वे आलोचक, जो उपन्यास को विदेशी विधा मानकर भारतीय उपन्यास का उद्धार पुरानी आख्यायिका, लोक-कथाओं और क़िस्सों की शैली को पुनर्जीवित करने के रूप में देखते हैं, शायद समस्या का सीधा-सीधा सामना नहीं करते। उपन्यास विदेशी विधा ज़रूर है, किंतु भारतीय समाज के उलट-फेर में जो व्यक्ति आज आकार ग्रहण कर रहा है क्या पुरानी कथ्यात्मक शैलियाँ उसके विकट, संघर्षमय संसार के बीहड़ अंतद्वंद्वों को अपने में समेट पाएँगी, मुझे इसमें संदेह है। क्या यह महज़ संयोग था कि हजारी प्रसाद जी अपनी क़िस्सागोई गप्प शैली में आधुनिक जीवन पर कोई उपन्यास लिखते हुए हमेशा झिझकते रहे। विदेशी बोझ से छुटकारा दुर्भाग्यवश हमेशा परंपरा में ही नहीं मिलता जबतक स्वयं परंपरागत शैलियों को आधुनिक दबाव-तले पुनर्निर्मित और परिवर्तित नहीं किया जाता। उपन्यास के 'भारतीयकरण' की समस्या को उपन्यास में पहले की सहज और भोली और अपेक्षाकृत सरल स्थिति में लौटकर नहीं सुलझाया जा सकता।
लेकिन एपिक? वह तो सबसे प्राचीन कथ्यात्मक विधा है। कुछ उपन्यासों को पढ़ते हुए हमें बार-बार होमर या वाल्मीकि याद आते हैं। शायद इसीलिए हेगल ने उपन्यास को 'आधुनिक मध्यवर्ग के महाकाव्य' के रूप में परिभाषित किया था।1 जॉयस कायूलिसिस तो अपनी संरचना में ओडिसी के समानांतर ही चलता है। दोनों विधाओं की यह समानता अस्वाभाविक भी नहीं है। ऐसे उपन्यास हैं जो महाकाव्य के पैमाने पर विभिन्न व्यक्तियों के समग्र जीव को एक विराट भित्तिचित्र की तरह अपने पन्ने पर अंकित करते हैं। यह अकारण नहीं कि 'ब्रदर्स कारामोजोव' या 'युद्ध और शांति' या अगर बीसवीं सदी में रचे गए घूस्त के 'रिमेंब्रेंस ऑव थिंग्स पास्ट' को ही लें, उन्हें पढ़ते हुए हमें अनायास-क्लासिक युग में रचे महाकाव्यों या आइसलैंडी सागा-ग्रंथों की याद हो आती है। जन्म से मृत्यु तक मनुष्य के संपूर्ण जीवन की गाथाएँ, ज़िंदगी का विराट समंदर, जिसमें हर उठती लहर और मरते हुए ज्वार के भवसागर को नापा जाता है। ये उपन्यास एपिक की याद ज़रूर दिलाते हैं, किंतु असल में एपिक की संभावनाओं को छूते-छूते रुक जाते हैं, कुछ छोटे पड़ जाते हैं इसलिए नहीं कि तोल्स्तोय या पूस्त की यथार्थ की पकड़ कहीं ढीली हो जाती है या उनकी अथक सृजन-ऊर्जा कहीं बीच में मंद पड़ जाती है, बल्कि इसलिए कि जिस समूचे मनुष्य की विराट-सृष्टि को एपिक एक समय में चित्रित करते थे, वह आधुनिक समाज तक आते-आते खंडित व्यक्तित्वों में ही इतने भयानक ढंग से बिखर गया है कि उपन्यास उसे केवल नॉस्टॅल्जिया के क्षणों में याद कर सकता है या
कभी दुर्लभ क्षणों में पकड़ पाता है बाक़ी समय उसे अपना माथा उन दीवारों से फोड़ना पड़ता है, जो न केवल हर व्यक्ति को अपने समाज से अलग करती है, बल्कि स्वयं उसकी अंतरात्मा में एक फाँक की तरह खिंची रहती है। ऑल्डस हक्सले ने अपने एक बहुत दिलचस्प निबंध ‘एपिक और संपूर्ण सत्य' में इस बात को रेखांकित किया था। होमर के महाकाव्यों में कैसे मनुष्य का हर क्षण उसके जीवन की निरंतरता में संपूर्ण बन जाता है। कोई घटना आकस्मिक नहीं है, वह एक समूचे पैटर्न में अर्थ ग्रहण करती है; वह एक तरह का दैवी, पूर्व निर्धारित पैटर्न है, हर चीज़ वैसे ही होगी, जैसे उसे होना है प्राकृतिक नियमों की तरह अनिवार्य और अर्थसंगत जिसमें पवित्र और सांसारिक, धार्मिक और संसारी सीमाएँ एक-दूसरे में घुल जाती हैं।
उपन्यासों में क्यों नहीं ऐसा संभव हो पाता? शायद इसका कारण यह है कि उपन्यास शुद्ध रूप से सेक्युलर विधा है, जिसमें वे समस्त देवी, देवताओं, प्रकृति के अलौकिक चमत्कारों और नियति की भविष्यवाणियों को बहिष्कृत कर दिया गया है। वहाँ सबकुछ व्यक्ति के स्वायत्त स्वेच्छाचारी निर्णयों पर निर्भर है, इसलिए सबकुछ आकस्मिक और सांयोगिक है। बड़े-से-बड़े उपन्यास को पढ़ते हुए क्यों यह तकलीफ़ मन को कचोटती रहती है कि घटनाएँ नितांत दूसरी तरह से घट सकती थीं कि उनके पीछे ऐसा कोई दैवी या प्राकृतिक सेंक्शन नहीं, जो उन्हें किसी दूसरे क्रम में संजोने से रोक सकता हो। क्यों न यह संदेह मन को सालता रहता है कि यदि अन्ना कैरेनिना चाहती, तो अपने जीवन की घटनाओं के पहिए विपरीत दिशा में मोड़ सकती थी, उनके क्रम को बदल सकती थीं और इस तरह अपने को आत्महत्या के भयावह अंत से बचा सकती थी? यह नहीं कि उपन्यास में उसकी मृत्यु विश्वसनीय और अनिवार्य नहीं जान पड़ती। यही तो सबसे बड़ी विडंबना है उपन्यास में जो चीज़ सबसे अधिक अनिवार्य और स्वाभाविक जान पड़ती है जीवन के संपूर्ण प्रवाह में वही चीज़ अचानक सांयोगिक (Contingent) और संदिग्ध-सी बन जाती है। मेरी मैकार्थी ने अपने एक निबंध में लिखा था कि यदि अन्ना कैरेनिना व्रान्स्की से स्टेशन पर न मिलती जो निरा संयोग था तो उसकी ज़िंदगी पूर्ववत् अपनी लगी-बंधी पटरी पर चलती रहती। यह भीषण सत्य है। एक आकस्मिक घटना समूचे जीवन की नियति को बदल सकती है। यह बात मदाम बॉवेरी पर लागू नहीं होती, जो अपनी स्थिति से छुटकारा पाने के लिए किसी भी प्रेमी के साथ भाग सकती थीं, इस दृष्टि से अन्ना का चरित्र मदाम बॉवेरी से कहीं ज़्यादा स्वतंत्र है और उसका प्रेम जितना सांयोगिक है उतना ही संहारकारी। ऐपिक की घटनाओं और पात्रों की नियति की अनिवार्यता में कहीं प्रकृति का समर्थन और साधुवाद है जो उसे निश्चित और नियामक बनाता है। किंतु उपन्यास की अनिवार्यता एक व्यक्ति एक के ठिठुरते अरक्षित निर्णयों पर निर्भर है, जिसे बाहर की कोई शक्ति, समाज, प्रकृति, ईश्वर अपना संरक्षण देकर वैध नहीं करा सकती। उपन्यास की घटनाएँ कलात्मक रूप से अनिवार्य होने के बावजूद किसी तरह की नैतिक वैधता (eigitimacy) या प्राकृतिक क्रमबद्धता प्राप्त नहीं कर पातीं। क्या औपन्यासिक जगत की इस अराजक अवैधता को देखकर ही तॉल्सतॉय ने अंतिम वर्षों में अपने महान उपन्यसों को इतनी निर्ममता से अस्वीकार नहीं कर दिया था?
व्यक्ति के इस स्वेच्छाचारी और अराजक संसार के भयावह तर्क को काफ्का अंतिम परिणति तक ले गए, जहाँ मनुष्य को अपराधी तो घोषित कर दिया जाता है किंतु कोई ऐसा नियम या न्यायालय नहीं, जिसके सामने हम यह पता चला सकें कि आख़िर उसने कौन-सा ऐसा काम किया है, जिसका अपराध उसपर मढ़ा जा रहा है। दोस्तोएवस्की की यह अराजकता नियमहीनता का संसार जिसमें व्यक्ति सबकुछ कर सकता है। काफ्का तक आते-आते अपना पूरा एक चक्र समाप्त कर लेता है, जिसमें व्यक्ति की यही सबकुछ करने की स्वाधीनता ही उसका सबसे बड़ा पाप और अपराध बन जाती है। उनका अंतिम उपन्यास 'कासल' एक दुर्गम अंतहीन, यातनामय खोज है, किसी ऐसे सर्वोच्च अधिकारी (ईश्वर?) को पाने की तलाश, जिसके लॉ, नियम या आदेश के अंतर्गत मनुष्य जीवन के आदेश के अंतर्गत मनुष्य अपने जीवन की अर्थवत्ता को उपलब्ध कर सके। एक ऐसा ईश्वरीय संदेश जो हमें अंतिम और स्पष्ट रूप से बता सके कि इस धरती पर मनुष्य का दायित्व-धर्म, वोकेशन क्या है? काफ्का अंतिम उपन्यासकार थे जो उपन्यास की इतर नैतिक और सेक्युलर सीमाओं को लाँघकर नियम और धर्म की वैध दुनिया में जाना चाहते थे और लाँघने के इस असंभव प्रयास में दोनों दुनियाओं के बॉर्डर पर ही ख़त्म हो गए थे। क्या उनका अंत एक अजीब ढंग से हमें बाल्टर बेंजामिन की मृत्यु की याद नहीं दिलाता जो नात्सी यूरोप के अधर्म से छुटकारा पाने के लिए लोकतंत्र की धर्मसंपन्न व्यवस्था में जाना चाहते थे और जिन्होंने घोर हताशा में धर्म और अधर्म की अंतिम सीमा पर ही आत्महत्या कर ली थी?
यह वह क्षण था, जब पहले-पहल यूरोप में उपन्यास या ज़्यादा सच्चाई से कहें तो यूरोपीय उपन्यास की मृत्यु की अफ़वाह सुनाई देने लगी थी। ध्यान से देखें तो पश्चिमी संस्कृति का यह क्षण ठीक वही था जब पहली बार यूरोपीय समाज में व्यक्ति की मृत्यु की चर्चा भी शुरू होने लगी थी। एक ऐसा व्यक्ति जो अकेला और अरक्षित होने के बावजूद अपनी भावनाओं और विचारों में स्वायत्त था, राजसत्ता और जन-समूह से अलग अपनी विशिष्ट इकाई पहचानता था : आत्म-केंद्रित लेकिन स्वाभिमानी व्यक्ति जिसकी छवि को यूरोप के रोमैंटिक-साहित्य में अनेक लेखकों ने उकेरा था। किंतु उन्नीसवीं शती के अंतिम चरण में जिस औद्योगिक नगर सभ्यता का उदय हुआ, उसने एक ऐसी भीड़ को जन्म दिया, जिसकी क्षुद्र बाज़ारू रुचियों को देखकर फ्लॉवेर इतना आतंकित हुए थे; जन के नाम पर जिस चेहराहीन, दृष्टिहीन, रुचिहीन व्यक्तियों की भीड़ ने भेड़ों की तरह यूरोपीय नगर को घेरा था, उससे बचने के लिए फ्लॉबेर ने अपने एकांत कमरे में शुद्ध कला की साधना में ही जीवन की अर्थवत्ता खोजनी चाही थी। पहली बार कलाकार के स्वतंत्र और स्वायत्त व्यक्तित्व पर संकट की छाया मँडराने लगी थी। स्वयं व्यक्ति का रोमैंटिक उज्ज्वल चरित्र एक औसत आदमी की सपाट और सतही और यंत्रवत, दुनिया में अपनी वैयक्तिक विशिष्टता खोने लगा था।
पहले महायुद्ध के बाद व्यक्ति का यह संकट इतना गहरा हो चुका था कि स्पेनिश चिंतक और दार्शनिक होसे ऑर्तगाई गास्से ने अपनी पुस्तक 'द रिवोल्ट ऑव् द मार्सेज' में पहली बार यूरोप के व्यक्ति का 'भीड़ के मनुषय (मास मैन) में कायाकल्पित होते देखा था, और यह भयावह कायाकल्प था क्योंकि भीड़ का मनुष्य रेनेसेंस के विलक्षण और विशिष्ट गरिमा संपन्न मनुष्य और उन्नीसवीं शती के रोमैंटिक हीरो की अनोखी विशिष्टता से स्खलित होकर व्यक्ति के सबसे औसत, निम्नतम आत्मसंहारी और संवेदन-शून्य संस्करण में बदल गया था। एक आत्महीन मनुष्य, जिसने अपने व्यक्तित्व को एक असहाय बोझ मानकर भीड़ की अमानवीय सत्ता के हवाले कर दिया था। स्वतंत्रता का दर्द और सोच अब उसे नहीं मथता था, एक सोचहीन मनुष्य, जो अपनी अंतिम परिणति में हमें कामू के 'आउटसाइडर' की याद दिलाता है खाने-पीने वाला व्यक्ति, जो अपनी माँ की मृत्यु कब हुई थी, कल या परसों, ज़रा कल्पना कीजिए दोस्तोएवस्की के 'नोट्स ऑव् द अंडरग्राउंड' के विक्षिप्त, बदहवास, घृणा, प्रेम, आत्म-जुगुप्सा और नैतिक-अनैतिक प्रश्नों के दलदल में कलपता ‘आउटसाइडर कामू' के अजनबी तक आते-आते कैसे एक उदासीन, दैनिक कार्य-कलाप में डूबे भावशून्य रोबो में बदला गया है? कामू का नायक इसलिए अजनबी नहीं है कि समाज से अलग अपनी भावनाओं या आदर्शों में विशिष्ट है, उन्नीसवीं शती के निहिलिस्ट, विद्रोही आउटसाइडर की तरह बल्कि इसलिए कि उसका व्यवहार शुद्ध रूप से आज के 'भीड़ मनुष्य' का स्वाभाविक चरित है, हम सबका चरित्र। किंतु जहाँ हम अपनी भाव शून्यता और आध्यात्मिक दिवालियेपन को अपने छद्म सरोकारों और संसारी नैतिकता की काई तले छिपाए रहते हैं। काम्यू का हीरो हमें इसलिए अजनबी लगता है क्योंकि उसने इस काई को अपने ऊपर से उतारकर अपने को जस-का-तस प्रस्तुत कर दिया है; एक औसत, दैनिक और आयामहीन पुरुष। दोस्तोएवस्की का नायक अपनी आत्मा के अंडरग्राउंड अँधेरे में आउटसाइडर था, कामू का अजनबी ऊपर सतह की रोशनी में घूमता-रिता नगर की भीड़ का एक ऐसा टिपिकल प्राणी है जो अपने औसतपन की चरमावस्था के कारण भयावह-सा जान पड़ता है। पहला दूसरों के औसत संसार से अलग छिटककर अपनी आत्मा की अनंत परतों को छीलता है, दूसरा भीड़ के अनंत समूह के बीच एक औसत इकाई है, जिसकी आत्मा शून्य की अथाह परतों के नीचे दबी है। लगता है, जैसे इन दो उपन्यासों के बीच यूरोपीय मनुष्य ने व्यक्तित्व के चरम बोझ से व्यक्तित्वहीनता के चरम हल्केपन तक ही पीड़ित यात्रा तय की है। उपन्यास विधा, जिसका जन्म ही व्यक्ति की विशिष्ट अवधारणा से जुड़ा था, यदि हमारे समय की घोर व्यक्तित्वहीनता तक आते-आते अपने को इतना थका और क्लांत और संभावना-शून्य पाए, तो क्या यह आश्चर्य की बात होगी?
यूरोप में व्यक्ति की यह परिणति, 'सबकुछ' से 'कुछ नहीं' तक की यात्रा क्या अनिवार्य थी? इस प्रश्न को थोड़ा-सा बदलकर ऐसे भी पूछ सकते हैं कि जिस समाज में व्यक्ति की अवधारणा मनुष्य के सर्व-सत्ता संपन्न और आत्म-केंद्रित अहम् (ईगो) से शुरू होती है, उसका अंत यदि इस अहम् आत्मसंहार में हो, एक खंडित और खोखला अहम्, तो क्या यह अस्वाभाविक बात होगी? एक ऐसी संस्कृति में जहाँ आत्मा और अहम्, ईगो और सेल्फ़ के बीच कोई स्पष्ट अंतर न हो, जहाँ एक को दूसरे के साथ उलझाया जाता रहा हो, वहाँ मनुष्य अपने अहम् का अतिक्रमण करके अपनी आत्मा के बोझ से छुटकारा पाने के लिए अपने सेल्फ़ को ही नष्ट कर डालना चाहता है। बीसवीं शती के उत्कृष्ट उपन्यासों में इस खोए हुए सेल्फ़, इस लुप्त आत्मा को पाने की छटपटाहट ज़रूर दिखाई देती है। इसके बिना कोई भी व्यक्ति अपनी अस्मिता, अपनी पहचान, धरती पर होने का अर्थ परिभाषित ही नहीं कर सकता। सॉल बैलो के पात्र हरजोग का क्रमिक ट्रेजिक संघर्ष यही है कि बीसवीं शती औद्योगिक दुनिया में अपनी असली पहचान, अपने सही रोल, अपनी आत्मा के नक़्शे को निर्धारित कर सके क्योंकि वह जिस दुनिया में रहता है, वहाँ लोगों की अथाह भीड़ तो है, असंख्य अहमों का कुलबुलाता समूह, किंतु स्वयं व्यक्ति का सेल्फ़, उसका अपनी आत्मा से संबंध इतना धूमिल और संदिग्ध बन गया है कि यह पता लगाना भी असंभव बन गया है कि उसका अपना स्वयं कितना उसका अपना है, कितना दूसरों से उधार लिया हुआ, दूसरों द्वारा अनुशासित। हरजोग अंधी गली के लिए अंतिम मोड़ पर पहुँच गए हैं, वहाँ यदि एक तरफ़ हमें यूरोपीय उपन्यास का डेड एंड दिखाई देता है, तो दूसरी तरफ़ वह कुंजी भी मिल जाती है, जो मनुष्य के अँधियारे मन, अहम् की परतों तले दबे आत्मन् का ताला खोल सके, जिसके दरवाज़े एक दूसरी दुनिया की तरफ़ खुलते हैं।
कैसी है यह दुनिया, जो यूरोपीय उपन्यास के अहम्-केंद्रित संसार से मुड़कर हमें एक ऐसे मन से साक्षात् कराती है, जहाँ अहम् के भयभीत आक्रामक साम्राज्य की सीमाएँ ख़त्म हो जाती हैं, एक ऐसे सेल्फ़ के दरवाज़े खोलती है, जिसके भीतर व्यक्ति का मन इड, ईगो सुपर-ईगो जैसे अँधेरे तहख़ानों में बँटा नहीं है, बल्कि जहाँ मन, आत्मा और देह एक संपूर्ण सृष्टि के मिनिएचरों में स्वयं मनुष्य के भीतर अखंडित रूप से है। क्या हम इसे 'भारतीय मन' की दुनिया कह सकते हैं? मुझे नहीं मालूम, किंतु अवश्य ही यह वह दुनिया नहीं है, जिसका चित्र हमें आजतक यूरोपीय उपन्यासों में उपलब्ध होता रहा है। फिर कैसा है यह संसार, जिसके भीतर इस मन का संस्कार बसा है, जिसके तंतुओं से स्वयं इस मन का टेक्सचर बना है? यूरोपीय उपन्यास की अहम्-आक्रांत दुनिया से निकलकर यदि हम इस अनोखे मन, मनुष्य के आत्मन्-संस्कार में प्रवेश करने का अवसर मिल सके तो हमें सहसा लगेगा मानो हम इकाइयों की दुनिया से निकलकर संबंधों की दुनिया में चले आए हैं। यहाँ सब जीव और प्राणी एक-दूसरे में अंतर्गुफित हैं, अन्योन्याश्रित हैं, न केवल वे प्राणी जो प्राणवान हैं, बल्कि वे चीज़ें भी जो ऊपर से निष्प्राण (inanimate) दिखाई देती हैं। इस अंतर्गुफित दुनिया में चीज़ें आदमियों से जुड़ी हैं, आदमी पेड़ों से, पेड़ जानवरों से, जानवर वनस्पति से और वनस्पति आकाश से, बारिश से, हवा से। एक जीवंत, प्राणवान, प्रतिपल साँस लेती, स्पंदित होती हुई सृष्टि अपने में संपूर्ण सृष्टि जिसके भीतर मनुष्य भी है। किंतु महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य सृष्टि के केंद्र में नहीं है, सर्वोपरि नहीं है, सब चीज़ों का मापदंड नहीं है; वह सिर्फ़ संबंधित है और अपने संबंध वह स्वायत्त इकाई नहीं है जिसे अबतक हम व्यक्ति मानते आए थे, बल्कि वह वैसे ही संपूर्ण है जैसे दूसरे जीव अपने संबंधों में संपूर्ण हैं। जिस तरह मनुष्य सृष्टि का ध्येय नहीं है उसी तरह मनुष्य का ध्येय व्यक्ति होना नहीं है, हम साधन और साध्यों की दुनिया से निकलकर संपूर्णता की दुनिया में आ जाते हैं। मनुष्य की समग्रता का यह अद्भुत साक्षात् हमें मार्कुएज के उपन्यास 'वन हंड्रेड ईयर ऑफ़ सॉलीट्यूड' में मिलता है, इसलिए वह यूरोप के व्यक्ति केंद्रित या व्यक्तिहीन उपन्यास से इतना अलग जान पड़ता है। यूरोपीय मनुष्य का ज्वर, जो व्यक्ति के अलगाव और अकेलेपन के कारण उपन्यास की मर्मांतक तकलीफ़ बनकर प्रगट हुआ था, संबंधों की इस परिकल्पना में अपने आप नष्ट हो जाता है, घुल जाता है। हेगल ने जहाँ व्यक्ति की अस्मिता दूसरों के विरुद्ध अन्य के ख़िलाफ़ परिभाषित की थी, वहाँ उसके विपरीत संबंधों की दुनिया में विवेकानंद बिल्कुल दूसरे कोण से व्यक्ति को आँकते हैं; “व्यक्ति का जीवन संपूर्ण के जीवन में बसा है, उसका सुख संपूर्ण के सुख में निहित है, संपूर्ण के बिना व्यक्ति की परिकल्पना असंभव है। यह एक ऐसा शाश्वत सत्य है, जिसकी आधारशिला पर समूचा विश्व टिका है। इस अनंत संपूर्ण की ओर धीरे-धीरे अग्रसर होना, उसके प्रति अगाध सहानुभूति और समानता महसूस करना, उसके सुख में सुखी और उसकी यातना में दुखी अनुभव करना यही व्यक्ति का एकमात्र कर्तव्य है। यह केवल उसका कर्तव्य ही नहीं है, बल्कि उसके उल्लंघन में उसकी मृत्यु है।'’
विवेकानंद ने व्यक्ति की मृत्यु के बारे में जो चेतावनी उन्नीसवीं शती के अंत में दी थी, हमारी शती की ढलती घड़ियों में एक साक्षात् और एक क्रूर सत्य बनकर हमारे सामने खड़ी हो गई है। आज के उपन्यास को इस मृत्यु का सामना करना है और यह किसी सरलीकृत शॉर्टकट से नहीं कर सकता, न भारत की पुरानी कथ्यात्मक शैलियों में जाकर उसे चित्रित किया जा सकता है, न ही उसे उन्नीसवीं शती में रचित उपन्यास के चौखटों में ही बंद किया जा सकता है, व्यक्ति जहाँ सर्वोपरि था, उसका सामना केवल मनुष्य के आत्मन्-व्यक्तित्व, उसके सेल्फ़ को पुनर्भाषित करने की दुर्गम और बीहड़ प्रक्रिया में ही संभव हो सकेगा। दूसरे शब्दों में, हम जिस नए उपन्यास की परिकल्पना करते हैं, वह पश्चिम के यथार्थवादी, विक्टोरियन उपन्यास से तो भिन्न होगा ही, किंतु वह परंपरागत अर्थों में भारतीय मन का उपन्यास ही होगा, यह कहना असंभव है, जबकि हम इस मन को ही संस्कारगत संस्कृति के संकट के संदर्भ में पुनःपरीक्षित नहीं करते। ज़ाहिर है, उपन्यास की यह परिकल्पना व्यक्ति के खंडित ईगो का अतिक्रमण करके, उसे वैसी संपूर्ण स्थिति में देखने से शुरू होगी, जिसमें वह समानता और सहानुभूति के संवेदनात्मक स्तर पर पुनः अपना रिश्ता आसपास फैली सृष्टि से जोड़ सके, स्वयं उसके बीच जीवित रहने की भूली हुई मर्यादा को याद रख सके, इस याद का एक ऐसी कलात्मक स्पेस में अभिव्यक्त कर सके, जो स्मृति भी है, इतिहास भी, जादू भी, माया और यथार्थ की लीला भी, पुरुष और प्रकृति के बीच एक नए पुराण की रचना जो हमें एक तरफ़ बार-बार अपनी पुरानी कथ्यात्मक विधाओं की याद दिलाएगी। महाकाव्य, लोककथाएँ, परीकथा, इंद्रजाल, तो दूसरी तरफ़ उसमें हमें पश्चिमी उपन्यास के वे सर्वोत्तम, दुर्लभ क्षण भी याद आते रहेंगे, जब व्यक्ति ने अपने अंतर्मन की अँधेरी गुहा से बाहर संपूर्ण से साक्षात् किया था, या भीतर का वह अँधेरा सूरज, जिसकी रोशनी में लॉरेंस ने बीसवीं शती की मशीनी सभ्यता की समस्त छद्म बौद्धिक अवधारणाओं को भेदकर समूचे ब्रह्मांड से ख़ून का रिश्ता जोड़ा था। पश्चिमी उपन्यास में संपूर्णता की ये झलकें बहुत दुर्लभ हैं, किंतु उनसे साक्षात् किए बिना न तो हम व्यक्ति की पीड़ा समझ पाएँगे, न उसका अतिक्रमण करके नए उपन्यास की राह खोज पाएँगे।
उपन्यास पश्चिम की विधा अवश्य हो, व्यक्ति की पीड़ा एक व्यक्ति की हैसियत से हर जगह एक जैसी है। यूरोपीय उपन्यास के चौखटों से मुक्त होकर हम जिस उपन्यास के पुनर्जन्म की परिकल्पना करते हैं, उसमें मनुष्य की देह पर उन सब घावों के निशान होंगे, जिसे व्यक्ति ने अपने पूर्व जन्म में झेला है, किंतु अब उनकी पीड़ा किसी अन्य के द्वारा या विरुद्ध न हो सृष्टि के उस समूचे अस्तित्व से जुड़ी होगी, जिसके सुख में सुखी और जिसकी यातना में दुखी हुआ जाता है। यहाँ देखना, होना, महसूस करना, अलग-अलग खंडों में विभाजित नहीं है, जो हमें फ़्रांस के नए उपन्यास में मिलता है, जिसकी व्याख्या रॉब्ब ग्रिये ने की है। रॉब्ब ग्रिये के लिए 'नया उपन्यासकार' वह है जो चीज़ों को सिर्फ़ देखता-भर है, एक तटस्थ दर्शक की तरह, जिसमें वह अपनी भावनाओं द्वारा कोई हस्तक्षेप नहीं करता। उसके विपरीत जिस उपन्यास की परिकल्पना हम कर रहे हैं, वहाँ हस्तक्षेप का प्रश्न ही नहीं उठता। क्योंकि वहाँ लेखक देखने वाला सब्जेक्ट नहीं है और दुनिया दिखाई देने वाली आब्जेक्ट नहीं है बल्कि दोनों एक-दूसरे के बीच में हैं। मनुष्य दुनिया के बीच में है, प्राणियों में एक प्राणी, जीवों में एक जीव, वह दूसरों को देखता हैं, तो दूसरे भी उसे देखते हैं, कुछ उसी भाव में जैसे कभी पॉल क्ली ने कहा था “जब कभी मैं जंगल में घूमता हूँ तो मुझे लगता है कि जहाँ मैं पेड़ों को देख रहा हूँ, वहाँ पेड़ मुझे देख रहे हैं।”
यह बिल्कुल दूसरा संसार है, जहाँ कोई केंद्र नहीं है क्योंकि सब केंद्र में हैं। एक चमत्कारी, जादुई दुनिया, जिसका जादू सिर्फ़ इस छोटे से सत्य में है कि जीवन की प्राणवत्ता को सेक्युलर और धार्मिक में विभाजित नहीं किया जा सकता; जो है वह पवित्र है। दोस्तोएवस्की ने कहा था कि, “अगर ईश्वर नहीं है, तो मनुष्य सबकुछ कर सकता है। आज हम कह सकते हैं कि अगर व्यक्ति नहीं है, तो मनुष्य सब कुछ हो सकता है, पेड़ और पत्थर और धूप और जंतुओं के जैविक उज्ज्वल संसार में एक जीव-सार्वभौमिक पवित्रता के बीच का पवित्रता का प्राण पुंज। उपन्यास, ए ब्राइट बुक ऑफ़ लाइफ़?' (डी. एच. लॉरेंस) हाँ, क्यों नहीं, किंतु भारतीय या यूरोपीय किताब नहीं बल्कि जीवन की एक संपूर्ण किताब।