संस्कृति की सच्ची संवाहिका डॉ.शैल रस्तोगी / सुधा गुप्ता

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‘दूध की नदी’ है / मेरा शहर / सच मानो / यह मुझे बहुत प्यारा है ------ रातें / इसके आँगन में / ‘दीया जलाती’ है / और दिन इसके माथे पर उजाला जड़ता है -डॉ.शैल रस्तोगी (मेरा शहर और ये दंगे)

अपने शहर और अम्नो-चैन को चाहते हुए, पड़ोसियों के साथ शान्ति से रहने की तमन्ना रखने वाली इस कवयित्री को भारतीय संस्कृति से बेइंतहा प्यार है । उच्च शिक्षिता, बी.एच.यू.से प्रकाण्ड पण्डित आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के निर्देशन में शोध कार्य कर पीएच. डी. की उपाधि प्राप्त कर, उत्तर प्रदेश के शीर्षस्थ महिला महाविद्यालयों में से एक - रघुनाथ पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज, मेरठ में हिन्दी विभाग में स्नातकोत्तर, स्नातक कक्षाओं का चौंतीस वर्ष अध्यापन, शोध-निर्देशन एवं अपने वर्ग में उच्चतम वेतनमान को प्राप्त कर लेने वाली यह महिला भीतर से कितनी सादगी- भरी, सुसंस्कृत, नैतिक मूल्यों के प्रति आस्थावान् है, बिना उनके साहचर्य में आए नहीं जाना जा सकता । जान पाने का दूसरा माध्यम है उनका रचित साहित्य, प्राचीन परिवेश, घर, दालान, वेश-भूषा, आभूषण, रसोई-उपकरण, शकुन, वाद्य यंत्र, मेले-ठेले, रीति-व्यौहार, वैवाहिक रस्मों आदि के प्रति उनके असीमित लगाव ने उनके द्वारा सृजित साहित्य में नाना-विध छटा बिखेर दी है ।

विद्युत के चकाचौंध प्रकाश, माइक्रोवेव ओवन संस्कृति, बीस-पच्चीस-चालीस मंजिला फ्ऱलैट संस्कृति, रिश्तेदारी खत्म हो जाने के कारण पनपती रूखी एकल परिवार पद्धति ! क्या-क्या नहीं झेला है इक्कीसवीं सदी तक पहुँचते-पहुँचते हमने ? लेकिन शैल जी की दुनिया में प्रवेश करते ही आपको सुखद आश्चर्य का एक आघात भी सहना पड़ सकता है-एक झटका भी लग सकता है-जहाँ आज भी

अँधेरी रात / ओसारे में बैठी है / दीया जलाए (प्रतिबिम्बित तुम, पृ- 9)

उस माटी की गंध समोये घर में आज भी ‘दीवट’ की जगह बनी हुई है:

दीवट दीया / जलेगा सारी रात / नैना उनींदे (बाँसुरी हूँ तुम्हारी, पृ- 64)

उनके संसार में न तो ‘गेस्ट’ है, न ‘अतिथि’ हैं तो सिर्फ ‘पाहुने’ हैं जो आते ही जाने के लिए हैं । कवयित्री आश्वस्त है:

अच्छा रे, आए / दुःख तो पाहुने हैं / जायेंगे चले (शीर्षक हाइकु / दुःख तो पाहुने हैं)

मुँडेरी बैठा / बोल रहा है कागा / तुम आओगे (प्रतिबिम्बित तुम, पृ- 13)

यह तो शुभ-शकुन हुआ । कागा बोला है, चिर-प्रतीक्षित मुहूर्त आ गया - प्रिय के आने का । प्रिय की मंगल-कामना एवं सकुशल वापिसी की प्रार्थना करती नत-मस्तक साँझ ने तुलसी-चौरे पर न जाने कितने दीप जलाए:

दिया जलाए / तुलसी के चौरे पै / बैठी है साँझ (दुःख तो ------ पृष्ठ 57)

सभी प्रबुद्ध / जागरूक विद्वानों / कर्णधारों ने माना है कि भारत देश की आत्मा उसके ग्रामों में बसती है । यदि उस ग्रामीण / आंचलिक परिवेश की सुगन्धि से परिचय करना हो तो एक बार डॉ.शैल जी के काव्य-संसार में तनिक विस्तार से, गहनता से प्रवेश कीजिए । वेश-भूषा, साज-सज्जा, बनाव- शृंगार, आभूषण, पनघट, हिंडोले से लेकर छींके, कटोरे, चूल्हे, छाज, चक्की, छलनी तक सब आपको यहाँ सुरक्षित रूप में ‘धरोहर’ की भाँति सहेजे हुए मिलेंगे:

हवा उड़ाती / लहँगा धरती का / गंध-चुनरी (अक्षर हीरे मोती, पृष्ठ 83)

लाल चूनर / राजपूतनी भोर / बिन्दी बोरला (वही, पृष्ठ 39)

नदिया पानी / चुनरिया रे धानी / शुरू कहानी (वही, पृष्ठ 87)

नौलखा हार / चलो ख़रीद लायें / सजी है भोर (वही, पृष्ठ 39)

चाँद झूमर / सितारे टाँकी साड़ी / रात के ठाठ (दुःख तो, पृष्ठ 22)

हिंडोले बैठी / सजी-धजी कलियाँ / आँचल उड़े (बाँसुरी, पृष्ठ 90)

उड़े आँचल / पनघट पे भीड़ / हँसी-ठिठोली (वही, पृष्ठ 76)

चाँद पूनो का / कटोरा है चाँदी का / छलके दूध (वही, पृष्ठ 59)

धान कूटती / सपने बुनती है / गाँव की बेटी (अक्षर, पृष्ठ 38)

सुबह साँझ / मंदिर की गली में / बजते झाँझ (बाँसुरी, पृष्ठ 103)

झाँझ मंजीरे / सारी रात बजाते / झिल्ली झींगुर (दुःख, पृष्ठ 23)

बजते ढोल / दूर कहीं गाँव में / होती नौटंकी (वही, पृष्ठ 102)

उदास हुए / छाज,चक्की,छलनी / कहाँ वे दिन (बाँसुरी, पृष्ठ 20)

माटी का चूल्हा / गुम सुम बेचारा / काम न धाम (वही, पृष्ठ 21)

दिन निकला / पूरब के छींके पै / सूरज धरा (सन्नाटा, हा- 40)

आज के अत्याधुनिक, नीरस एवं औपचारिक सम्बन्धों से भरे संसार में रहते हुए भी कवयित्री का कोमल मन रिश्तों की पुरानी महक को समोए हुए है । ‘बाँसुरी हूँ तुम्हारी’ हाइकु संग्रह में यह प्रवृत्ति कुछ अधिक ही तीव्रता से अभिव्यक्त हुई है, जहाँ प्रकृति के विभिन्न अवयव/ उपादानों में भाँति-भाँति के इन स्नेहिल कौटुम्बिक रिश्तों को आरोपित कर के कवयित्री का मन संतुष्टि पाता हैः

ओ चंदा भैया / चूनर चाँदनी की / माँगे बहना (बाँसुरी, पृष्ठ 40)

भाई बादल / भौजाई है नदिया / ननदी हवा (वही, पृष्ठ 55)

सासूजी रात / सौगात चन्द्रमा की / ले गईं छीन (वही, वही )

बैठे मूढ़े पे / गुड़गुड़ाते हुक्का / बाबा जी मेघ (वही, 97)

बूढ़े नाना जी / लगे नीम का पेड़ / छाया बिछाए (वही, वही)

हवा बुआ जी / कहानी सुनाती है / परी गाती है (वही, वही)

चन्दा मामा जी / चाँदनी का बिस्तर / दूध कटोरा (वही, 100)

लोरियाँ गा दे / ओ नदी महतारी / मुझे सुला दे (वही, वही)

बरखा दीदी / मेरे घर आई है / खुशी छाई है (वही, 101)

हाइकु जापान से आयातित विधा है, जापानी पद्धति में न तो अलंकारों का और न तुक का महत्त्व है, किन्तु स्वरानुरूपता, अनुप्रास, लय और गति पर विशेष बल रहता है। अनुप्रास एवं लय तो जापानी भाषा की प्रकृति में अन्तर्निहित ही है। इस संदर्भ में जब हिन्दी के हाइकु-संसार का अवलोकन करते हैं तो ज्ञात होता है कि हिन्दी हाइकुकारों ने अपनी साहित्यिक परम्परा को ग्रहण करते हुए हाइकु-रचना में अनुप्रास के अतिरिक्त उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, मानवीकरण, अन्योक्ति आदि अलंकारों का निःसंकोच, बेखटके प्रयोग किया है। रूपक एवं मानवीकरण तो प्रायः हाइकुकारों को विशेष प्रिय हैं और बहुधा उनका चमत्कारहीन प्रयोग हाइकु के शिल्प सौंदर्य में कोई खास वृद्धि नहीं कर पाता (कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगता है, यह मेरा निजी विचार भी हो सकता है) डॉ.शैल रस्तोगी के शिल्प-सौष्ठव की प्रशंसा की जानी चाहिये उनकी एकदम अनूठी, मौलिक, रसवन्ती उत्प्रेक्षाओं के कारण ! उन्होंने कुछ ऐसी हृदयग्राही उत्प्रेक्षाएँ की हैं जो पाठक को बरबस बाँध कर रख लेती हैं:

नदी किनारे / लहरों की छोरियाँ / नहातीं गातीं (प्रति- 25)

सूर्य बिछाता / धूप-धोई जाजम / रोज-रोज ही (बाँसुरी, 24)

फूलों की चौकी / बैठी है लाडो धूप / आँखे बिछाए (वही, 74)

एक किन्नरी / पहने रमझोल / बहे नदिया (वही, 17)

फूली सरसों / हरद चढ़ी लाडो / नज़र लगी (वही, 19)

तीर चलाती / भील कन्या हवाएँ / सधा निशाना (वही, 41)

बड़ा रोवना / शहज़ादा है दिन / धूप माँगता (दुःख, 104)

समकालीन कविता में वस्तुत्प्रेक्षा और हेतूत्प्रेक्षा के ऐसे प्रयोग विरल ही मिलेंगे । शब्द सम्पदा: कवि की सफलता का बहुत कुछ ‘प्राप्य’ उसकी शब्द सम्पदा पर आश्रित हुआ करता है। यदि उसका शब्द-भण्डार विपुल है तो निश्चय ही उसके काव्य की भंगिमा आकर्षक हो उठती है। डॉ.शैल जी के काव्य में शब्दों के चयन एवं प्रयोग की अपूर्व सामर्थ्य प्रकट हुई है। उन्हें हिन्दी-संस्कृत की विदुषी होने के नाते संस्कृत के तत्सम शब्दों का विशाल कोष उपलब्ध है। किन्तु साधारण बोलचाल की भाषा से उन्होंने अपने भण्डार को भरा है और ऐसे शब्दों के प्रयोग से उनके काव्य में रस-वृद्धि हुई है।

इस प्रकार के प्रयोगों से उनकी कविता आम आदमी के आस-पास की कविता हो जाती है और उस कविता से सहज आत्मीयता स्थापित हो उठती है । अंजोर, उजास, घमण्डी, कमेरा, रुआँसा, बौराए, चोरनी, बतियाना, रोवना, बेला, मुसी-तुसी, पाहुने, पालागन (चरण स्पर्श) मुँह फुलाए, नकचढ़ी, बाँचती, सूजे-से मुँह, किस्से-क़िज़ये, मुँह फुलाए, लताड़ती, महतारी, हँसी-ठिठोली, मुँडेरी, सजी-धजी, जैसे दर्जनों प्रयोग, ‘रमझोल’ जैसे प्राचीन आभूषण (पैरों में पहनने का घुँघरु वाला आभूषण जो स्त्रियों के चलते समय मधुर ध्वनि उत्पन्न करता था) और विवाह-पूर्व हल्दी चढ़ाने की रस्म (हरद चढ़ी लाडो), ‘नज़र लगने’ जैसा सहज लोक-विश्वास, मुँडेर पर ‘काग’ के बोलने का शकुन- ये सब कुछ लोक-संस्कृति के अनूठे दस्तावेज़ हैं जो डॉ.शैल रस्तोगी के काव्य में स्थान पाकर चिरजीवी हो गये हैं -------- । -0-