संस्कृत शिक्षा / कांग्रेस-तब और अब / सहजानन्द सरस्वती
ये बाबू आज शिक्षा के साथ भी मखौल कर रहे हैं , खासकर संस्कृत-शिक्षा के साथ। मिडिल स्कूलों में दो-चार संस्कृत की किताबें पढ़ाने से संस्कृत का उध्दार होने के बजाय वह अधकचरी बन जाएगी और देश में अधकचरे संस्कृतज्ञों की बाढ़ लाएगी। फिर तो प्रगाढ़ विद्वानों और संस्कृत के महारथियों को कोई पूछेगा तक नहीं। आज संस्कृत साहित्य के अगाध समुद्र के महामंथन की आवश्यकता है जिससे अमूल्य रत्न निकलें। घर-घर , गाँव-गाँव मथानी चलाने से वह काम न चलेगा। मुल्क में सैकड़ों संस्कृत विश्वविद्यालय हों जिनसे संबध्द लाखों संस्कृत विद्यालय एवं महाविद्यालय और हजारों अन्वेषण शालाएँ हों , जहाँ साहित्य , आयुर्वेद आदि के संबंध में सभी प्रकार के अन्वेषण , सब तरह की खोज निर्बाध चले। एतदर्थ प्रत्येक प्रांतीय सरकारों को करोड़ों रुपए हर साल खर्च होंगे। संस्कृत के मुख-चुंबन मात्र की जगह सर्वांग प्रगाढ़ आलिंगन की आवश्यकता है। उसे पुष्ट-प्रौढ़ बनाने की जगह दूषित कलुषित करने का यह प्रयत्न निंदनीय है। यह सही है कि कुछ नामधारी पंडितों को टुकड़े मिलेंगे और लोगों की धार्मिक भावना की तुष्टि भी होगी। इस तरह शासकों के पोषकों का एक नया दल देश में तैयार होगा जो हाँजी , हाँजी करेगा। मध्यमा परीक्षोत्तीर्ण लोग आगे बढ़ने के बजाय टुकड़खोरी में लगेंगे। संस्कृत विद्या शान और सम्मान की वस्तु रही है , न कि महज टुकड़खोरी की। उसे उस उच्च स्थान से गिराने का राजनीतिक कुयत्न बर्दाश्त के बाहर है। मैं संस्कृत का सदा से प्रेमी रहा हूँ और जीवन का सुंदर भाग उस साहित्य के मंथन में गुजारा है। इसी से मुझे इस बात का दर्द है।