सआदत हसन मण्टो : ख़ाली बोतल भरा हुआ दिल / कृश्न चन्दर
एक अजीब हादसा हुआ है । मंटो मर गया है, गो वह एक अर्से से मर रहा था। कभी सुना कि वह एक पागलखाने में है, कभी सुना कि यार दोस्तों ने उससे संबंध तोड लिया है, कभी सुना कि वह और उसके बीवी–बच्चे फ़ाकों पर गुजर कर रहे हैं । बहुत सी बातें सुनीं। हमेशा बुरी बातें सुनीं,लेकिन यक़ीन न आया, क्योंकि एक अर्से में उसकी कहानियां बराबर आती रहीं । अच्छी कहानियां भी और बुरी कहानियां भी । ऐसी कहानियां जिन्हें पढकर मंटो का मुंह नोंचने का दिल चाहता था, और ऐसी कहानियां भी, जिन्हें पढकर उसका मुंह चूमने को जी चाहता था। यह कहानियां मंटो के खैरियत के ख़त थे। मैं समझता था, जब तक ये ख़त आते रहेंगे,मंटो ख़ैरियत से है । क्या हुआ अगर वह शराब पी रहा है, क्या शराबखोरी सिर्फ साहित्यकारों तक ही सीमित थे ? क्या हुआ अगर वह फ़ाके कर रहा है ,इस देश की तीन– चौथाई आबादी ने हमेशा फ़ाके किए हैं। क्या हुआ अगर वह पागलखाने चला गया है, इस सनकी और पागल समाज में मंटो ऐसे होशमंद का पागलखाने जाना कोई अचम्भे की बात नहीं । अचम्भा तो इस बात पर है कि आज से बहुत पहले पागलखाने क्यों नहीं गया। मुझे इन तमाम बातों से ना तो न तो कोई हैरत हुई, न कोई अचम्भा हुआ। मंटो ख़ैरियत से है, ख़ुदा उसके कलम में और ज़हर भर दे।
मगर आज जब रेडियो पाकिस्तान ने यह ख़बर सुनाई कि मंटो दिल की धडकन बंद होने के कारण चल बसा तो दिल और दिमाग़ चलते–चलते एक लम्हे के लिए रूक गए। दूसरे लम्हे में यक़ीन न आया। दिल और दिमाग़ ने विश्वास न किया कि कभी ऐसा हो सकता है । निमिष भर के लिए मंटो का चेहरा मेरी निगाहों में घूम गया। उसका रोशन चौडा माथा, वह तीखी व्यंग्य भरी मुस्कुराहट, वह शोले की तरह भडकता दिल कभी बुझ सकता है । दूसरे क्षण यक़ीन करना पडा। रेडियो और पत्रकारों ने मिल कर इस बात का समर्थन कर दिया। मंटो मर गया है। आज के बाद वह कोई नयी कहानी न लिखेगा। आज के बाद उसकी ख़ैरियत का कोई ख़त नहीं आएगा।
अजीब इत्तेफ़ाक़ है। जिस दिन मंटो से मेरी पहली मुलाक़ात हुई, उस रोज मैं दिल्ली में था। जिस रोज़ वह मरा है,उस रोज़ भी मैं दिल्ली में मौजूद हूं। उसी घर में हूं, जिसमें चौदह साल पहले वह मेरे साथ पंद्रह दिन के लिए रहा था। घर के बाहर वही बिजली का खंभा है, जिसके नीचे हम पहली बार मिले थे। यह वही अण्डरहिल रोड है, जहां आल इंडिया रेडियो का पुराना दफ्तर था, जहां हम दोनों काम करते थे। यह मेडन होटल का बार है, यह मोरी गेट, जहां मंटो रहता था, यह वह जामा मस्जिद की सीढियां हैं, जहां हम कबाब खाते थे, यह उर्दू बाज़ार है। सब कुछ वही है, उसी तरह है । सब जगह उसी तर्ह काम हो रहा है। आल इंडिया रेडियो भी खुला है, मेडन होटल का बार भी और उर्दू बाज़ार भी, क्योंकि मंटो एक बहुत मामूली आदमी था। वह ग़रीब साहित्यकार था। वह मंत्री न था कि कहीं झंडा उसके लिए झुकता। वह कोई सट्टेबाज ब्लैक मार्केटिया भी नहीं था कि कोई बाज़ार उसके लिए बंद होता। वह कोई फिल्म स्टार न था कि स्कूल और कालेज उसके लिए बंद होते। वह एक ग़रीब सतायी हुई जबान का ग़रीब और सताया हुआ साहित्यकार था। वह मोचियों, तबायफों और तांगेवालो का साहित्यकार था। ऐसे आदमी के लिए कौन रोएगा। कौन अपना काम बंद करेगा इसलिए आल इंडिया रेडियो खुला है, जिसने उसके ड्रामे सैकडों बार ब्राडकास्ट किए हैं। उर्दू बाज़ार भी खुला है , जिसने उसकी हजारों किताबें बेची हैं और आज भी बेच रहा है।
आज मैं उन लोगों को हंसता हुआ देख रहा हूं, जिन्होंने मंटो से हज़ारों रूपए की शराब पी है। मंटो मर गया तो क्या हुआ, बिज़नेस, बिज़नेस है ।क्षण भर को भी काम नहीं रूकना चाहिए। वह जिसने हमें अपनी सारी जिंदगी दे दी, उसे हम अपने समय का एक क्षण भी नहीं दे सकते। सिर झुकाए क्षण भर के लिए उसकी याद को अपने दिलों में ताज़ा नहीं कर सकते—शुक्र के साथ, आजिजी के साथ, दिली हमदर्दी के साथ बेक़रार रूह के लिए जिसने ‘हतक’, ‘नया कानून’, ‘खोल दो’, ‘टोबा टेक सिंह’ ऐसी दर्जनों बेमिसाल और अमर कहानियों की रचना की। जिसने समाज की निचली तहों में घुस कर उन पिसे हुए, कुचले हुए, समाज की टोकरों से विकृत चरित्रों का निर्माण किया, जो अपनी अपूर्व कला और यथार्थ चित्रण में गोर्की के लोअर डेपथ्स के चरित्रों की याद दिलाते हैं। फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि उन लोगों ने गोर्की के लिए अजायबघर बनाए,मूर्तियां स्थापित कीं,नगर बसाए और हमने मंटो पर मुक़दमे चलाए उसे भूखा मारा, उसे पागलखाने पहुंचाया, उसे अस्पतालों में सडाया और आखिर में उसे यहां तक मजबूर कर दिया कि वह इंसान को नहीं, शराब की एक बोतल को अपना दोस्त समझने पर मजबूर हो गया था ।यह कोई नयी बात नहीं। हमने ग़ालिब के साथ यही किया था, प्रेमचंद के साथ यही किया था, हसरत के साथ यही किया था और आज मंटो के साथ भी यही सलूक करेंगे, क्योंकि मंटो कोई उनसे बडा साहित्यकार नहीं था ,जिसके लिए हम अपने पांच हजार साल की संस्कृति की पुरानी परंपरा को तोड दें। हम इंसानों के नहीं, मक़बरों के पुजारी हैं ।
आज दिल्ली में मिर्जा ग़ालिब पिक्चर चल रही है। इस तसवीर की कहानी इसी दिल्ली में, मोरी गेट में बैठ कर मंटो ने लिखी थी। एक दिन हम मंटो की तस्वीर भी बनाएंगे और उससे लाखों रूपए कमायेंगे, जिस तरह आज हम मंटो की क़िताबों के जाली एडीशन हुन्दुस्तान में छाप-छाप कर रूपए कमा रहे हैं। वे रूपए, जिनकी मंटो को अपनी जिंदग़ी में सख़्त जरुरत थी। वे आज भी उसके बीवी-बच्चों को जिल्लत से बचा सकते हैं ।मग़र हम ऐसी गलती नहीं करेंगे। अगर हम अकाल के दिनों में चावलों के दाम बढा कर हजारों इंसानों के ख़ून से अपना नफा बढा सकते हैं , तो क्या उसी मुनाफे के लिए एक ग़रीब साहित्य्कार की जेब नहीं कतर सकते। मंटो ने जब जेबकतरा लिखा था उस वक़्त उसे मालूम नहीं था कि एक दिन उसे जेबकतरों की एक पूरी-की-पूरी कौम से वास्ता पडेगा। मंटो एक बहुत बडी गाली था। उसका कोई दोस्त ऐसा नहीं था, जिसे उसने गाली न दी हो । कोई प्रकाशक ऐसा न था जिससे उसने लडाई मोल न ली हो, कोई मालिक ऐसा न था, जिसकी उसने बेइज्जती न की हो। प्रकट रूप में वह प्रगतिशीलों से खुश नहीं था, न अप्रगतिशीलों से, न पाकिस्तान से, न हिन्दुस्तान से, न चचा साम से, न रूस से । जाने उसकी बेचैन और बेक़रार आत्मा क्या चाहती थी। उसकी जबान बेहद तल्ख़ थी। शैली थी तो कसैली और कटीली, नश्तर की तरह तेज़, नुकीले, कंटीले शब्दों को ज़रा-सा खुरच कर देखिए, अंदर से जिंदगी का मीठा-मीठा रस टपकने लगेगा। उसकी नफरत में मुहब्बत थी, नग्णता में आवरण, चरित्रहीन औरतों की दास्तानों में उसके साहित्य की सच्चरित्रता छिपी थी । जिंदगी ने मंटो से इंसाफ नहीं किया, लेकिन तारीख़ जरूर इंसाफ़ करेगी।
मंटो बयालीस साल की उम्र में मर गया। अभी उसके कुछ कहने और सुनने के दिन थे। अभी-अभी जिंदगी के कडवे तजरूबों ने, समाज की बेरहमियों ने, वर्त्तमान- व्यवस्था के आत्म -विरोधी ने उसकी बेतहाशा व्यक्तिवादिता, अराजकता और तटस्थता को कम करके उससे टोबा टेकसिंह जैसी कहानी लिखवायी थी । ग़म मंटो की मौत का नहीं है। मौत लाजिमी थी। मेरे लिए भी और दूसरों के लिए भी। ग़म उन अनलिखी रचनाओं का है, जो सिर्फ़ मंटो ही लिख सकता था। उर्दू साहित्य में अच्छे-से-अच्छे कहानीकार पैदा हुए, लेकिन मंटो दोबारा पैदा नहीं होगा और कोई उसकी जग़ह लेने नहीं आयेगा। यह बात मैं भी जानता हूं और राजेन्द्र सिंह बेदी भी, इस्मत चुग़ताई भी, ख़्वाजा अहमद अब्बास भी और उपेन्द्रनाथ अश्क भी। हम सब लोग भी उसके प्रतिद्वन्द्वी, उसके चाहने वाले, उससे झगडा करने वाले, उससे नफ़रत करने वाले, उससे मुहब्बत करने वाले, दोस्त और हमसफ़र थे। और आज जब वह हममें नहीं है, हम में से हर एक ने मौत के शहतीर को अपने कंधे पर महसूस किया है। आज हम में से हर की जिंदगी का एक हिस्सा मर गया है। ऐसे लम्हे जो फिर कभी वापस न आ सकेंगे। आज हममे से हर शख़्स मंटो के क़रीब है और एक दूसरे के क़रीबतर। ऐसे लम्हे में अगर हम यह फैसला कर लें कि हम लोग मिल कर मंटो की जिम्मेदारियों को पूरा करेंगे, तो उसकी ख़ुदकुशी बेकार नहीं जाएगी।
आज से चौदह बरस पहले मैंने और मंटो ने मिलकर एक फ़िल्मी कहानी लिखी थी, ‘बंजारा’। मंटो ने आज तक किसी दूसरे साहित्यकार के साथ मिलकर कोई कहानी नहीं लिखी— न उसके पहले, न उसके बाद। लेकिन वे दिन बडी सख़्त सर्दियों के दिन थे। मेरा सूट पुराना पड गया था और मंटो का सूट भी पुराना पड गया था। मंटो मेरे पास आया और बोला— ‘ऐ कृशन। नया सूट चाहता है?’ ‘मैंने कहा, हां’ ।
‘तो चल मेरे साथ’
‘कहां?’
‘बस,ज्यादा बकवास न कर, चल मेरे साथ’
हम लोग एक डिस्ट्रीब्यूटर के पास गये। मैं वहां अगर कुछ कहता, तो सचमुच बकवास ही होता, इसलिए मैं ख़ामोश रहा। वह डिस्ट्रीब्यूटर फ़िल्म प्रोडकशन के मैदान में आना चाहता था। मंटो ने पंद्र्ह बीस मिनट की बातचीत में उसे कहानी बेच दी और उससे पांच सौ रूपे नकद ले लिए। बाहर आकर उसने मुझे ढाई सौ दिए,ढाई सौ ख़ुद रख लिये। फिर हम लोगों ने अपने- अपने सूट के लिए बढिया कपडा ख़रीदा और अब्दुल ग़नी टेलर मास्टर की दुकान पर गए। उसे सूट जल्दी तैयार करने की ताक़ीद की ।फिर सूट तैयार हो गये, पहन भी लिए,अब्दुल ग़नी की सिलाई उधार रही और उसने हमें सूट पहनने के लिए दिए। मगर कई माह तक हम लोग उसका उधार न चुका सके । एक दिन मंटो और मैं कश्मीरी गेट से गुज़र रहे थे कि मास्टर ग़नी ने हमें पकड लिया। मैंने सोचा, आज साफ़-साफ़ बेइज्जती होगी। मास्टर ग़नी ने मंटो को गरेबान से पकड कर कहा, ‘वह ‘हतक’ तुमने लिखी है ?’
मंटो ने कहा, ‘लिखी है तो क्या हुआ ? अगर तुमसे सूट उधार लिया है तो इसका मतलब यह नहीं कि मेरी कहानी के अच्छे आलोचक भी हो सकते हो। यह गरेबान छोडो !’
अब्दुल ग़नी के चेहरे पर एक अजीब-सी मुस्कुराहट आयी। उसने मंटो का गरेबान छोड दिया और उसकी तरफ अजीब-सी नज़रों से देखकर कहने लगा, ‘जा, तेरे उधार के पैसे माफ़ किये’ ।
आज मुझे जब यह घटना याद आयी तो मैं उस वक़्त अब्दुल ग़नी की दुकान ढूंढता कश्मीरी गेट पहुंचा। मगर अब्दुल ग़नी वहां से जा चुका था। कई बरस हुए पाकिस्तान चला गया था। काश, आज अब्दुल ग़नी टेलर मास्टर मिल जाता, उससे मंटो के बारे में बातें कर लेता। और किसी की तो इस बडे शहर में इस फ़िजूल काम के लिए फ़ुरसत नहीं है ।
शाम के वक्त मैं ज़ोय अंसारी, एडिटर’ शाहराह’, के साथ जामा मस्जिद से तीस हजारी अपने घर को आ रहा था। रास्ते में मैं और ज़ोय अंसारी आहिस्ता-आहिस्ता मंटो की शख़्सियत और उसके आर्ट पर बहस करते रहे। सडक पर गड्ढे बहुत थे, इसलिए बहस में बहुत से नाजुक मुक़ाम भी आये। एक बार पंजाबी कोचवान ने चौंककर पूछा— ‘क्या कहा जी, मंटो मर गया ?’
ज़ोय अंसारी ने आहिस्ता से कहा, ‘हां भाई!’ और फिर अपनी बहस शुरू कर दी। कोचवान धीरे-धीरे तांगा चलाता रहा। लेकिन मोरी गेट के पास उसने अपने तांगे को रोक लिया और हमारी तरफ घूमकर बोला— ‘साहब, आप लोग कोई दूसरा तांगा कर लिजिए। मैं आगे नहीं जाऊंगा’। उसकी आवाज में एक अजीब-सा दर्द था।
इससे पहले कि हम कुछ कह सकते, वह हमारी तरफ देखे बग़ैर अपने तांगे से उतरा और सीधा सामने की बार में चला गया।