सखा धर्ममय अस रथ जाके / विद्यानिवास मिश्र
गुर्वथ त्याक्तराज्यो व्यचरदनुवनं पद्मपद्भ्यां प्रियाया:
पाणिस्पर्शक्षमाम्या मृजितपथरुजो यो हरींद्रानुजाभ्यम्।
वैरूप्याच्छूर्पणख्या: प्रियविरहरुषा रोपितभ्रूविजृम्भत्
त्रस्ताव्धिर्बद्धसेतु: खलदवदहन: कौशलेंद्रोवतान्न:।
आज लोकरंजन राम की मंगलमई विजय-दशमी है; उस मर्यादा पुरुषोत्तम की, जिसने 'स्नेह दयां च सौख्यं चय दिवा जानकीमपि' की बलि देकर ऐसे रामराज्य को प्रतिष्ठापित किया कि उस आदर्श को आज के जनतंत्र भी छूने की लालायित हैं। उस राम के जीवन के अनेक पक्ष हैं और आदिकवि से लेकर अनेकानेक कवियों की दृष्टि इनमें से एक दो पर ही रम कर कृतकृत्य होती रही है। समग्र दर्शन की क्षमता आई केवल तुलसी में और वे भी कुछ 'अनकहा' छोड गए। इस 'अनकहेपन' का भी एक विलक्षण सौंदर्य है। इसी सौंदर्य के कारण भारतीय जनजीवन निरंतर इस लोकरंजन रामचरित की ओर अनायास खिंचता आया है, न जाने कितनी राजशक्तियाँ आईं और गईं पर विजयोत्सव यदि धूम-धाम से मनाया जाता है तो राम का, केवल राम क्यों?
सेल्यूकस के ऊपर चंद्रगुप्त के भी विजयी होने की कोई तिथि रही होगी। अशोक के कलिंग विजय का भी कोई निश्चित दिन रहा होगा। अश्वमेध पराक्रम समुद्रगुप्त के दिग्विजय की पूर्णाहुति भी कोई मुहुर्त शोध कर की गई होगी और स्कंदगुप्त की वाह्लीक-विजय की भी एक पुण्यवेला रही होगी, पर आज इतिहास के गह्वर में इनका उल्लास डूब चुका है। और राम के विजय का संदेश दूर हिंदचीन, कम्बोज,यवद्वीप, बाली, सुमात्रा और मलय तक पहुँच चुका है और जनजीवन की पवित्रतम आराधना का विषय बन चुका है। क्यों? इसका उत्तर यही है कि राम राजा हैं केवल रंजना के उद्देश्य से, नहीं तो उनके और प्रजा के बीच में कोई दीवार नहीं, कोई रेखा नहीं। वे केवल मनुष्य-जीवन के साथ ही नहीं, बल्कि प्रकृति-जीवन के साथ भी सर्वदा समरस रहने वाले सहज राम हैं, वे कालिदास के शब्दों में लोक के पिता और पुत्र एक साथ हैं। उनका व्यक्तिगत जीवन सामाजिक जीवन का साधनमात्र है। इसलिए उनका व्यक्तित्व लोक-जीवन के प्रत्येक परमाणु में बस गया है, उसे कोई शक्ति अलग नहीं कर सकती। साथ ही राम उस लोकजीवन के अंतर्मर्म हैं, राम उसके बहिरावरण नहीं, उसके अस्थि-चर्म नहीं उसके मन के विकार नहीं,उसके चित्त के क्षोभ और मोह नहीं, वे उसकी सत्वोदित आत्मा है। वे लोकशिव के आराधक ही नहीं उसके आराध्य भी हैं। 'शिवदोहीमम दास कहावा' का अभिप्राय ही यही है भगवद्भक्ति के नाम पर और आत्मज्ञान के नाम पर लोक-कल्याण की उपेक्षा नहीं की जा सकती। दूसरे शब्दों में -
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादया
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन कर्त्तुमर्हसि॥
यद्यदाचरित श्रेष्ठस्तत्तदेवेत्तरो जना।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्त्तते॥
न बुद्धिभेदं जनेदज्ञानां कर्मसंगिनाम
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्।
(जनक आदि ने कर्म के द्वारा ही संसिद्धि पाई है, इसलिए लोकसंग्रह को देखते हुए कर्म करते रहो। बड़े लोग जैसा आचरण करते हैं, वैसा ही देखा-देखी दूसरे भी करने लगते हैं। इसलिए कर्म में सने अबोध लोगों में बुद्धिभेद न उपजा कर विद्वान को सभी कार्यों को मनोयोगपूर्वक करना चाहिए)
इसी लोक-संग्रह की परंपरा वैवस्वत मनु और उनके पुत्र इक्ष्वाकु ने चलाई थी और इसका चरम उत्कर्ष हुआ है राम में। संभवत: कालक्रम से यह कर्मयोग परंपरा नष्ट हो गई और तब भगवान श्रीकृष्ण को गीती में कहना पड़ा -
एवं परंपराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु:।
स कालेनेह महता योगो नष्ट: परंतप॥
(इस प्रकार परंपरा के द्वारा राजर्षियों को इस कर्मयोग का ज्ञान होता रहा है, बहुत दिनों से यह योग-परंपरा टूट जाने के कारण लुप्तप्राय हो गई है)।
राम न केवल इस कर्मयोग के ज्वलत आदर्श हैं, बल्कि साथ ही वे अपने स्निग्ध और मधुर स्वभाव से इस कर्मयोग को एक ऐसी शीतल सुरभि प्रदान कर सके हैं कि जिससे यह कंटकाकीर्ण पथ न केवल सुगम बल्कि प्रीतिकर भी लगने लगा है। राम-चरित के इसी पक्ष का आगे चलकर दिग्दर्शन किया जाएगा।
राम के विजय का मर्म भी उनका यही मंगल-रूप है। राम-रावण-युद्ध के समय विभूतिवादी विभीषण को यह भय हुआ -
रावन रथी विरथ रघुवीरा।
देखि विभीषण भयउ अधीरा॥
और उन्होंने यह संशय प्रभु के सामने रख ही तो दिया और अब राम के ही मुख से उत्तर सुनिए -
सुनहु सखा कह कृपा निधाना।
जोहि जय होइ सो स्यंदन आना॥
सौरज धीरज जेहि रथ चाका।
सत्यशील दृढ़ ध्वजा पताका॥
बल विवेक दम परहित घोरे।
छमा कृपा समता रजु जोरे॥
ईश भजन सारथी सुजाना ।
बिरती चर्म संतोष कृपाना॥
दान परशु बुधि शक्ति प्रचंडा।
वर विज्ञान कठिन कोदंडा॥
संजम नियम सिलीमुख नाना।
अमल अचल मन त्रोन समाना।
कवच अभेद बिप्र पदपूजा॥
यहि सम विजय उपाय न दूजा॥
सखा धर्ममय अस रथ जाके।
जीत न सकहिं कतहुँ रिपु ताके।
इस धर्ममय रथ की व्याख्या को पढ़ने के पश्चात लवमात्र भी संदेह के लिए कोई अवसर नहीं रह जाता है। राम की वानर-भालुओं की सेना तो उपचार-मात्र हैं, उनकी ओर मानव-मन की समस्त शक्ति लगी हुई है। रावण की सोने लंका को भस्म करने में हनुमान निमित-मात्र रहे हैं, अत्याचारों से प्रतीड़ित जनता की अनल दृष्टि ही मुख्य कारण रही है। राम प्रतीड़ित जनता के उत्तप्त मन की समस्त शक्तियों को जागरूक करके ही नहीं रह जाते, वे उस तप्त तरल द्रव्य को अमृत की शीतलता और स्थिरता प्रदान करते हैं। महाकवि कालिदास ने राम की इस क्षमता को अपनी लोक-विचक्षणता की दृष्टि से देखा था और तब उन्होंने उद्घोषणा की थी -
तेनार्थवाल्लोभपराड़्मुखेन
तेन घ्रता विध्नभयं क्रियावान्
तेनास लोक: पितृमान विनेत्र
तेवैन शोकपनुदेन पुत्री॥
लोभरपारड़्मुख राम को पाकर जनता अर्थवती हुई, समृद्ध हुई। विघ्न विनाशन राम को पाकर जनता क्रियावती हुई, अध्यवसाई हुई। शासक और विनेत राम को पाकर जनता पितृवती हुई, सनाथ हुई। और शोकहारी राम को पाकर जनता पुत्रवती हुई। राम नेता नहीं विनेता हैं, वे अंधानुयाई जनसमूह को भेड़ों की तरह नहीं ले जाते, वे विनय और अनुशासन के सौष्ठव के साथ उसे उन्नति-पथ पर अग्रसर करते हैं।
तुलसीदास ने राम की इस क्षमता को अपनी दृष्टि से दखा और उनके राम को विनेतृत्व करने की भी आवश्यकता नहीं रही, राम की उपस्थिति मात्र मंगलदायिनी हो गई और मानवों की बात ही क्या,
करि केहरि कपि कोल कुरंगा।
विगत बैर बिहरहिं सब संगा॥
फिरत अहेर रामछबि देखी॥
होंहि मुदित मृग-वृंद विखेखी॥
विबुध विपिन जँहलगि जगमाहिं।
देखि राम बन सकल सिहाहीं॥
समस्त चराचर जगत को राम की उपस्थिति मात्र से ऐसी शीतलता और तृप्ति मिलने लगी कि राम के वैरी भी राम के शौर्य से न डर कर उनके शील और सौंदर्य से सिहाने लगे। महामोहग्रस्त कुम्भकर्ण भी 'मरती बार मोह सब त्यागा' की स्थिति प्राप्त कर सका है, यह तुलसी की लोकपावन दृष्टि की विशालता के कारण।
राम के इस शील-सौंदर्य के भी दो स्त्रोत हैं, जो स्वयं सूख कर राम को पल्लवित करने में ही अपने को जीवन भर सार्थक समझते रहे, वे हैं कौशल्या और सीता। कौशल्या का व्यापक मातृहृदय अपने सुख की हत्या करके यह कहने को भी तयार हो जाता है 'पितु आयसु सब धरम क टीका'; यही नहीं वह अपने मातृत्व का एकांत अधिकार भी कैकेयी को सौंप देता है। कौशल्या के हृदय की इस महानता ने राम को महान बनाने में उपादान का कार्य किया है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं। और सीता, की तपस्या,सीता की कष्ट-साधना और सीता का करुण आत्मत्याग जिस अग्नि-शिखा की ज्योति इस देश में उकसा गए हैं, वह कभी बुझ नहीं सकती। राम का समस्त प्रतापनल इस अग्नि-शिखा की ज्योति के सामने मंद पड़ जाता है। जी ललच उठता है इस बरवै को बार-बार दुहराने के लिए -
गरब करहु रघुनंदन जनि मन माँह।
देखहु आपनि मूरति सिय के छाँह॥
सीता की इस ज्वाला का ताप वाल्मीकि ने और भवभूति ने दिया है। तुलसीदास इस ताप की आँच सह नहीं सके, वे केवल अपने राम से इतना ही कहला के चुप रहे गए कि-
प्रेम तत्व कर मम अरु तीरा।
जानत प्रिया एक मन मोरा॥
सो मन रहहिं सदा तुव पाहीं।
जानि प्रीतिरस एतनेहि माहीं।
कालिदास तो अपनी शकुंतला इरावती और उर्वशी में जीवन भर रमने वाले, सुरभारती के श्रृंगार, इस करुणा को परखने में असफल ही रहे, और निस्संदेह धीरोदात्त नायक दुष्यंत के मुख से यह कहलवाना कि -
' नखलु परिभोक्तुंनेव शक्नोमि हातुम् '
(न छोड़ने को जी चाहता है, न भोगने का साहस होता है) उनकी प्रतिभा के लिए उतनी बड़ी भूल की बात नहीं, जितनी कि यह कह देने का साहस करना कि -
' अपि स्वदेहात्किमुतेन्द्रियाथाद् यिशोधनानां हि यशोगरीय: '
(विषयों की बात क्या कहें अपनी देह, से भी यशोधनों को यश ही अधिक श्रेष्ठ लगात है) यह कहकर यशोधन कालिदास ने अपने यश को कलंकित कर दिया। वे सीता राम की देह से भी निकृष्ट इंद्रियार्थ, विषय-भोग की वस्तुमात्र समझ कर रह गए। यह कालिदास का सबसे बड़ा अक्षम्य अपराध है। कुमार संभव का अष्टम सर्ग तो इसके आगे सर्वथा क्षम्य है। संभवत: भारतीय नारी के अपकर्ष का सूत्रपात भी इसी आदर्श-पतन के कारण हुआ है, जिसकी प्रतिच्छाया कालिदास की इस उक्ति में मिलती है। भवभूति ने इसका परिमार्जन करने का भरपूर उद्योग किया यहाँ तक कि स्थतप्रज्ञ जनक को भी उन्होंने मन्युवेगसे विचलित कराके छोड़ा और राम की लोकरंक आत्मा-वंचना का उद्घाटन कराते समय पत्थरों को भी उन्होंने रुलाया। यहाँ तक कि भवभूति के राम लोक की दृष्टि में भी सीता के राम होकर रहे। तुलसीदास जगज्जनती सीता की इस करुणा को सँभाल नहीं सकते थे, इसीलिए उन्होंने सीता और राम के भी प्रेम की विवृति नहीं की। हाँ, उन्होंने कुछ भरत ऐसे उदात्त चरित्रों का निर्माण आवश्य किया जिनके अगाध प्रेम-सागर से राम की अथाह प्रीति का कुछ अनुमान लगाया जा सके। राम को उन्हेांने अपने मानस में इसी दृष्टि से विवक्षित ही रखा।
संभवत: राम का वैयक्तिक जीवन अभी तक पूर्णतया अंकित ही नहीं हुआ है। उनके वैयक्तिक संबंधों का चित्र भले ही उतारा गया हो, पर उन संबंधों के प्रतिक्षेप उनके मन पर कैसे-कैसे पड़े, इसका अंकन नहीं किया जा सका है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार भगवान कृष्ण के सामाजिक जीवन का। इसीलिए आज यह अत्यंत विडंबना के साथ लोक में सुनने को मिलता है कि राम से बढ़कर कोई कस्साई नहीं हुआ और कृष्ण से बढ़कर कोई कामुक नहीं। बिल्कुल दूसरी बात है। एक पत्नीव्रत का मनसा-वाचा-कर्मणा आचरण करने वाले एकमात्र आदर्श पुरुष यदि कोई हैं तो राम और उन्हें पत्नी के प्रति कठोर बतलाने से बढ़कर संभवत: कोई अन्याय हो ही नहीं सकता। जिस जानकी को उन्होंने अपने स्नेह, दया और सौख्य से ऊपर समझा, उस सीता का परित्याग करके ही वे कस्साई हो गए, यह कैसी बेतुकी-सी बात हैं। लोग संभवत: यह भूल जाते हैं कि सीता का परित्याग लोक के लिए उतना नहीं, जितना स्वयं सीता के लिए, क्योंकि यदि सीता का परित्याग करके सीता की निष्पापता को राम ने प्रखर न बनाया होता, तो लोक-सम्मति के मुखर प्रतीक रजक के पुत्र-पौत्रों की गिनती इतनी बढ़ी होती कि कुछ कल्पना भी नहीं की जा सकती। अपने और अपने से भी बढ़कर सीता के सुख की बलि देकर राम ने दुर्मुखी लोक-सम्मति के साथ ऐसा प्रतिशोध लिया कि छिद्रांवेषी जनों का सर्वदा के लिए मुख बंद हो गया, मानों सीता के चरित्र के संबंध में छिद्रांवेषण का बीज ही उन्होंने नष्ट कर दिया। राम की रावण के ऊपर विजय उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी राम प्रजा के मनोविज्ञान के ऊपर यह विजय। राम का वैयक्तिक जीवन अपनी प्राण-सहचरी के प्रति इस गंभीर-स्नेह-भावना से सर्वथा परिप्लावित है और वे सामाजिक समरसता के प्रतीक तो चाहें बाद में बनें, वैयक्तिक समरसता के तो वे मूर्तिमान उदाहरण हैं। संभवत: लोक से अधिक वे व्यक्ति में ही सफल हुए हैं जब कि भगवान श्रीकृष्ण का व्यक्तिगत संबंध किसी से है ही नहीं, जिनकी इंद्रियों को शतसहस्त्र रमणियों का कुहक विमथित नहीं कर सका था, (यस्येंद्रियं विमथित कुहकैन शेकु) जिन्हें पुत्र-पौत्रादि का सुख एक क्षण भी खींच नहीं सका, जिन्हें स्वजनों का विनाश भी लोकहित के लिए अभीष्ट हो गया था और जिन्हें जीवन भर विराट विरश्क्ति बनी रही अपनी व्यक्ति के प्रति। पर हाय री विडंबने, वे कृष्ण प्रेम के आराध्य दैवत हो गए, वे जादूवाले कन्हैया हो गए और कामुकता के लिए एक सुलभ आलंबन। सचमुच भवभूति की बात मान लेनीपड़ती है कि -
वज्रादपि कठोराणिमृदूनि कुसुमादपि।
लोकोत्तराणां चेतांसि विज्ञातुमहति॥
इन लोकोत्तर चरितों के बारे में भ्रांति स्वाभाविक ही है।
अंत में, संक्षेप में यह कह देना आवश्यक है कि राम की लोकप्रियता का श्रेय लोक-रंजन को आज तक भले ही दिया जाता रहा हो, पर मेरी दृष्टि में यह श्रेय उनकी व्यक्ति की पूर्णतया को अधिक देना चाहिए। राम लोक-हृदय पर विजयी हुए हैं इसलिए कि वे अपने ऊपर विजयी हैं, कृष्ण अपने ऊपर विजयी आपातत: हैं इसे उन्होंने साधन बनाया है अपने लोक-विजय के लिए दोनों के महान चरित्रों का यही विश्लेषण है और दोनों के आदर्श पृथक-पृथक क्षेत्रों में हैं, इसे एक दूसरे के साथ मिलाना नहीं चाहिए।
- विजय दशमी 2008, प्रयाग