सखि, वे घर पर क्यों हैं! / कमलानाथ

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दयावती और लाजवंती एक ही गाँव में पैदा हुईं, पलीं, बड़ी हुईं, साथ साथ स्कूल गयीं, एक साल कालेज में भी साथ साथ पढ़ीं, और संयोग से अलग अलग राज्यों के मंत्रियों के बेटों से उनकी शादी हो गयी। कालांतर में मंत्रियों के बेटे भी राजनीति में आगये और फिर मंत्री भी बन गए। दोनों बचपन की सहेलियों की दोस्ती मगर लगातार बनी रही, उनमें पत्राचार हमेशा चलता रहा और वे सुख दुख की बातें एक दूसरे के साथ साझा करती रहीं। यह पत्र उन्हीं पत्रों में से एक है जो दयावती ने लाजवंती को हाल ही में लिखा।

“प्रिय सखी लाजवंती,

मैं ऐसे मौसम में तुम्हें यह पत्र लिख रही हूँ जब मेघ गरज रहे हैं, बीच बीच में मोटी मोटी फुहारें जमीन को चूम रही हैं, इस शहरीकरण के चक्कर में बेचारे मोर तो जाने कहाँ गायब हो गए, पर हाँ, जो दो चार आम के और दूसरे अन्य पेड़ हमारे पास के पार्क में अभी भी कटे नहीं हैं उनमें किसी पर कोयल शायद कूक ही रही है, सड़क पर लगे गुलमोहर के पेड़ों से होकर बहती बयार मदमस्त सुगंध के झोंके फैला रही है और वातावरण इतना खूबसूरत और सुहाना हो गया है कि आँखें कामदेव के बाणों की मार से झुक झुक जाती हैं। मेरा भी तनबदन जल रहा है, पर किसी और कारण से नहीं बल्कि यह सोच कर कि ऐसे मौसम में सखि, मेरे ‘ये’ यहाँ क्यों हैं? मनमोहन की सरकार ने ‘मनरेगा’ या ‘नरेगा’ नाम की राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार की गारंटी का जो तोहफ़ा अपने मंत्रियों और अफ़सरों को दिया है उसको दोनों हाथों से समेटने के लिए इन्हें तो घर में नहीं, वहाँ होना चाहिए था जहाँ बांध बन रहे हैं, सड़कें बन रही हैं, कुएं खुद रहे हैं, और न जाने क्या क्या काम हो रहा है। सोचो सखि, इतने दिनों में अब तक कितने काम होचुके होंगे, कितनी सड़कें बन चुकी होंगी, कितने ग्रामीणों को रोजगार की गारंटी दी जाचुकी होगी, कितने ठेकेदारों को भुगतान हो चुका होगा, पर हे राम! ये घर पर क्यों हैं? अब तो कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा। पेड़ों पर लकझक फूल लटक रहे हैं, फल लटक रहे हैं, लेकिन बाहर देखती हूँ तो मुझे ऐसा लगता है मानों इन पेड़ों पर फलफूल नहीं, लाल और हरे रंग के नोट लटक रहे हैं, पर इनको तोड़ने वाला घर पर बैठा है। जब हर तरफ़ बांस के पेड़ हों तो कितनी बांसुरियां बज सकती हैं। पर ये क्यों नहीं समझते कि अगर ‘नरेगा बांस, न बजेगी बांसुरी’।

जब देश में और हमारे राज्य में सूखा पड़ता है तो उम्मीद जागने लगती है कि अब हमारे घर में बरसात होगी, धन की। बहन, तुम्हारे राज्य में तो रेगिस्तान है जहाँ कुछ नहीं टिकता, कुएं हैं जिनमें पानी नहीं निकलता, बाँध हैं जहाँ नदी नहीं है और मावठे हैं जहाँ बरसात नहीं आती। पर फिर भी तुम्हारे ‘इन्होंने’ तो इन सबके अलावा रेगिस्तान में न जाने कितनी सड़कें भी ‘बनवा’ दी होंगी जो आंधी से शीघ्र ही मिट्टी के टीलों में छुप गयी होंगी। फिर से सड़कें बनी होंगी और फिर से छुप गयी होंगी। तुम कितनी भाग्यशाली हो, सोचो, इस छुपाछिपी के खेल में भाईसाहब ने क्या क्या न ढूंढ निकाला होगा?

बहन, मैं तो एक बार इनके साथ नरेगा के एक प्रोजेक्ट में गयी थी, जहाँ हम सरकारी सर्किट हाउस में ठहरे थे। वहाँ पता ही नहीं लग रहा था कि बाहर सूखा पड़ रहा है, क्योंकि बैठक में तो सोमरस बह रहा था, और अंदर कमरे में जिस चीज़ की बरसात हो रही थी उसे तुम्हारे जीजाजी सूटकेस में जमा करते जा रहे थे। हा, अब कैसी विडंबना है कि बाहर पानी बरस रहा है, सौभाग्य से देश में जगह जगह बाढ़ आरही है, पर ऐसा लग रहा है कि घर में सूखा पड़ रहा है क्योंकि सखि, वे घर पर हैं।

पहले जब भी नरेगा का काम चला, सरकारी आंकड़ों में इन्होंने कितने ही लोगों को रोज़गार दे डाला, भले ही वहाँ थोड़े से लोग मौजूद हों। बहन, तुम तो जानती ही होगी कि इन दिनों नामों का कितना टोटा पड़ जाता है। अपने ख़ास लोगों के ज़रिये एक दूसरे के राज्यों से नामों की लिस्ट मंगवानी पड़ती हैं जिन्हें ‘काम’ दिया जाना होता है, ‘रोज़गार की गारंटी’ दी जानी होती है। कितने रजिस्टर इधर से उधर बदल जाते हैं। लिस्टों को देखने से लगता है हमारा भारत कितना समृद्ध है, एक ही नाम के कितने लोग अलग अलग राज्यों में रहते हैं जिनके बाप तक का नाम भी वही है। एक एक आदमी के हर राज्य में घर हैं। कौन कहता है कि मकानों की कमी है? पिछले साल तो इन्होंने एक आदमी को नौकरी पर भी लगाया था जिसका काम सिर्फ़ नए नए नाम, उनके बाप के नाम और पते बनाना था, अलग अलग तहसीलों, ज़िलों में।

बहन, राजनीति में आने का यही तो फ़ायदा रहता है कि अगर थोड़ी बहुत पहुँच हो तो देर सबेर कोई न कोई मंत्रालय तो मिल ही जाता है। अब जब बाबूजी राजनीति में आये थे तब उनके पास क्या था? फिर देखो उन्होंने अपना तो नामधाम कमाया ही, इनको भी यहाँ तक पहुंचा दिया। अब तक कितने ही मंत्रालयों को ये सम्हाल चुके हैं। जब ‘ये’ ‘आवास और शहरी गरीबी उन्मूलन तथा संस्कृति मंत्रालय’ में आये तब सबसे पहले तो वे यह ही बोले थे – ‘दयावती, अब शहरी गरीबी उन्मूलन विभाग में आया हूँ तो अपनी क्या, कम से कम कागज़ों पर तो अपने सारे रिश्तेदारों की गरीबी भी हटा कर ही मानूंगा। पहले तो मैं नहीं समझी कागज़ से क्या मतलब है, पर बाद में पता चला, मतलब उनके नाम से बेनामी संपत्ति से था। संस्कृति क्या होती है यह तो इनको नहीं पता था, पर हाँ, उस मंत्रालय की बदौलत हर शहर में हमारे दो दो तीन तीन आवास तो हो ही गये।

जब ये ‘खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय’ में थे तो घर में घी, काजू, बादाम, पिश्ता और इतनी खाने पीने की चीज़ें भरी रहती थीं कि गाँव भिजवाने के बाद भी इधर उधर सारे रिश्तेदारों को होली-दिवाली पर वितरण करनी पड़ती थीं। भगवान झूठ न बुलवाए, उतने सालों तक किसी दुकान का मुंह तक नहीं देखा। अब जो तुम कहती थीं न कि तुम्हारे जीजाजी की और हम सब की इतनी अच्छी सेहत बन गयी, तो ये तो ‘स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय’ की देन थी जब इनके पास उसका अतिरिक्त प्रभार था। अपने परिवार पर असली ध्यान देना तो इन्हें इस विभाग में आकर ही आया। बहन, हमारे तुम्हारे ‘ये’ किसी पार्टी हाईकमांड के बेटे तो हैं नहीं, जिनके लिए प्रधानमंत्री की कुर्सी आरक्षित हो जिस पर जब चाहें जाकर बैठ जाएँ। हमको तो इन्हीं मंत्रालयों से गुज़ारा करना है।

वो क्या कहते हैं ‘टू जी’, उसके बाद से तो इन दिनों मंत्रियों के यहाँ ठेकेदार भी कम ही दिखाई दे रहे हैं। देश में एक-आध हजारे, लाखे, करोड़े क्या पैदा हो गए हैं, इनका डर कैसा बैठ गया है सरकारी महकमों में। पर मैं सोचती हूँ अगर ये टू जी जैसे किसी मंत्रालय में होते तो एक ही चोट लुहार की मार लेते। जिनके भाग्य में ये लिखा था तो सोचो वो अब क्या से क्या होगये होंगे। दो चार साल की जेल हो भी गयी होती तो क्या घिस जाता। उसके बाद तो जिंदगी भर का आराम होजाता। सब कुछ अपना। और फिर राजनीति में कभी किसी को चोर तो कहा ही नहीं जाता। वो तो सरकारी नियमों में ही कमी होती है या छोटी मोटी भूलें कहलाती हैं, जिनके स्पष्टीकरण बाद में पार्टी देती रहती है। अब देखो मंत्रियों, संसद सदस्यों, विधायकों को हर साल सरकार जो दो चार करोड़ की विकास निधि देती है, उससे आजकल क्या विकास हो सकता है? उससे तो पप्पू की फैक्टरी भी पूरी तरह नहीं लगेगी। फिर मुन्नी की शादी जो करनी है। ये तो बिचारे सुनार की चोटें मारते रहते हैं।

तुम ही सोचो बहन, ऐसे में अगर सूखे और बाढ़ के दिनों में भी ये घर पर ही रहेंगे तो कैसे काम चलेगा। फिर आजकल राजनीति का क्या भरोसा है, आज हैं, कल पता नहीं होंगे कि नहीं। हमको अपने बुढ़ापे का भी तो इंतज़ाम करना पड़ेगा। सखि, तुम जानती ही हो यहाँ हम सारे नेता लोग इन मामलों में इस तरह करते हैं मानों कल होगा ही नहीं। अब वे भी बिचारे करें तो क्या करें, रखें तो कहाँ रखें। ये तो भला हो स्विट्ज़रलैंड के बैंकों का जो खातों की हवा भी नहीं लगने देते, वर्ना कई बाबाजी तो हाथ धो कर पीछे पड़े हैं।

बहन, इस साल पता नहीं इनको क्या होगया। जैसा मैंने बताया, पिछले कुछ सालों तक ये जिस भी विभाग में रहे हैं, उसी में डूब जाते रहे हैं। जब ये खान और कोयला मंत्रालय में थे तो परमिटों और आवंटनों के सम्बन्ध में इतने डूबे रहते थे कि आये दिन इनका सुन्दर मुंह या तो काला होजाता था या कर दिया जाता था। बाद में जब ये महिला कल्याण विभाग में आये तो ये आदतन वहाँ की महिलाओं के साथ खुद ही अपने मुंह की वही स्थिति करते रहे। खुद डूबे रहते हुए कितनी ही गिरी हुई महिलाओं को इन्होंने महिला आश्रमों में जा जा कर उठाया और डुबाया। और तो और, मेरी अनुपस्थिति में घर में भी बुलाया। जब इनके पास जल-संसाधन मंत्रालय था तब भी कई बार रेत के ट्रक भरवाते वक़्त नदी में डूबते डूबते बचे थे। यहाँ तक कि एक बार तो किसी जल परियोजना के ठेके के सिलसिले में चुल्लू भर पानी तक में डूबने की नौबत आगई थी।

सखि, और कौन है जिसके सामने मैं अपना रोना रोऊँ? तुम ही तो मेरी बचपन की सहेली हो। अब तुमसे मेरा और मुझसे तुम्हारा क्या छुपा है। तुम कितनी खुशक़िस्मत हो कि भाईसाहब ज़्यादातर बाहर ही रहते हैं। और देखो, इससे तुम, तुम्हारा ड्राइवर, पोस्टमैन, और माली सब प्रसन्न रहते हैं। हाँ, तुम्हारे माली को मेरा भी नमस्ते कहना। देखो, भगवान की दया से इस साल अगर अच्छी बाढ़ बनी रही तो उसके बाद अपना मिलना हो सकता है।

बच्चों को उनकी मौसी का प्यार देना।

तुम्हारी ही बहन,

दयावती।”