सखी / राजनारायण बोहरे

Gadya Kosh से
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रात में सोते हुए जागने की बीमारी है मुझे। बरसते पानी की 'टप्प टप्प' ध्वनि के बावजूद जब अहाते के बाहरी दरवाजे की कुण्डी खड़की, तो मेरी नींद टूट गई। दो जोड़ी पैर बैठक के दरवाजे तक आते महसूस किए मैंने। अगले ही क्षण दरवाजे पर दस्तक थी-खट खट!

मैंने बिस्तरा छोड़ा और तेजी से बैठक के कमरे में जा पहुँचा।

किवाड़ कीे झिरी से आँख लगाई तो चौंका, ठीक सामने पानी से सराबोर किषोर दा का चेहरा था, मैं तुरंत हरकत में आया और तपाक से दरवाज़ा खोल दिया।

किषोरदा को अंदर आने का अनुरोध करते मैंने देखा कि उनके पीछे सहमी-सी एक युवती भी खड़ी है-सलवार सूट पहने हुए पच्चीसेक साल की तीखे नाक-नक्ष वाली एक स्वस्थ्य युवती। मुझसे नज़र मिली तो मुसकराके उसने मुझसे नमस्ते की।

...अभिवादन का जवाब देते वक़्त मैंने सोचा बच्चियाँ बड़ी जल्दी बढ़ती हैं, यह युवती शायद किषोरदा कि बड़ी बेटी है, इस कस्बे में कहीं इसके ब्याह-सगाई की बात चल रही होगी सो उसे दिखाने लाए होंगे।

मैंने उससे कहा-'तुम भी जल्दी भीतर आ जाओे, भीगने से सरदी हो सकती है।'

वे दोनों भीतर आये तो मैंने अंदर से लाकर सूखा तौलिया दिया उन्हे।

किचेन में मटकी से पानी भरता मैं अचंभे में था-अरे, हम लोग क्या इतने बड़े हो गए कि हमारे बच्चे ब्याहने लायक हो गए। ये लड़की किषोर भाई की सबसे बड़ी वाली बेटी होगी, अच्छा-सा नाम था इसका, षायद किसलय। हाँ, किसलय ही नाम था इसका। मैंने काफ़ी छोटा देखा था इसे, ...यही नाक-नक्ष तो थे, ...हाँ रंग ज़रा साफ़ था उस वक़्त इसका।

'पानीऽऽऽऽ' जब मैने टे्र ले जाकर उन लोगाें के सामने रखी, वह बैग में से सूखे कपड़े निकाल रही थी। मैंने उसे बाथरूम का दरवाज़ा दिखाया और तितिक्षा को जगाने भीतर चला गया।

तितिक्षा जाग कर चौके में घुसी तो मैं, अभी-अभी चेंज करके बैठे उन दोनों के पास आ बैठा, 'इस वक़्त कहाँ से?'

'सब बताऊंगा। इनसे मिलो, ये हैं-वन्या जी! वन्या सिंह!'

मैं अचरज से भरा था जैसे-तो ये किसलय नहीं है!

वन्या ने दुबारा मुझसे नमस्ते की तो चेहरे पर औपचारिक मुसकराहट के भाव लाता मैं सोच रहा था कि हम सचमुच बूढ़े हो चले, किसी को भी कोई और समझ लेते हैं।

'भाई साहब, आप पूरियाँ खा लेंगे या रोटी बनाऊँ!' बैठक से लगे किचेन से तितिक्षा ने पूछा तो किषोर दा हमेषा कि तरह बोले थे-'कुछ भी खा लेंगे, वही बना, े जो जल्दी बन जाय और आपको दिक्कत न हो। अकेली न बना सको, तो ये बना लेंगी'

किचेन का पर्दा हटा कर बैठक में झांकती तितिक्षा बोली 'उन्हे काहे तकलीफ देते हैं, मैं पांच मिनट में ही बना देती हूँ।'

मुझे पहली दफा पता लगा कि तितिक्षा पांच मिनिट में खाना बनाकर परोसना भी जानती है। वे दोनों बहुत भूखे थे, एक कौर मुंह में डालते ही फुर्ती से दूसरा कौर बनाने लगते और उसे भीतर ठूंसते ही तीसरा।

'बोम्म...' कहते किषोर भाई ने डकार ली तो मैं उठ खड़ा हुआ, 'वन्याजी भीतर तितिक्षा के पास सो जायेंगी, मैं यहाँ बैन्च पर और आप हर बार की तरह दीवान पर।'

'ना, तुम डिस्टर्ब मत होओ। ये यहीं बैठक में बैन्च पर सो लेंगी और तुम अपनी जगह सो जाओ। रात बहुत हो गई है।' वे आदतन बड़े भाई की तरह मुझे समझा रहे थे।

मैंने घड़ी देखी, दो बज रहे थे। मैं भीतर चला गया।

बिस्तर पर लेटते वक़्त मेरा मन शान्त न था।

पिछली बार पांच-छै साल पहले इनके कस्बे जाना हुआ तो उनके घर गया था मैं। रात वहीं रुका था। गर्मियों के दिन थे और हम लोग नीम के नीचे खटिया डाल के पूरी रात बतियाते रहे थे। मैंने महसूस किया था कि उन दिनों किषोरदा जाने क्यों बड़े चिंतित थे। लेखन में उनकी आस्था खत्मसी हो चली थी उनकी। ज़माने से खासे नाराज थे वे, कहते थे, 'जमाना बिगड़ गया है भैया, इस टेलीविजन ने हमारे बच्चे बरबाद कर दिए! हप्ते में चार दिन ऐसे सीरियल दिखाये जा रहे है, जिनमें हर औरत अपने पति के अलावा एक-दो अदद प्रेमी भी पाले हुए हैं, जैसे दुनिया में सबको सिर्फ़ एक ही काम बचा है-प्रेम। प्रेम यानी सैक्स मानते हैं लोग। दूसरे सारे काम समाप्त हो चुके हैं दुनिया में। ...' और भी जाने क्या-क्या कहते रहे थे वे उस रात।

वे आरंभ से ही तो ऐसे हैं, ख़ुद पर अपने परिवार के अलावा मुहल्ले का भी वैसा ही हक़ मानते हैं। आसपास के माहौल के प्रति ख़ूब संवेदनषील और समाज के प्रति चिंतित। जब भी मिलते हैं मुझे दो-चार नये उपदेष पकड़ा जाते हैं

किषोरदा इस वक़्त कहाँ से आये होंगे? मैंने अंदाजा लगाना शुरू किया... संभवत: लखनऊ या इलाहाबाद गये हों किसी परीक्षा या इंटरव्यू के सिलसिले में, यह जो साथ में है ज़रूर मुहल्ले के किसी कमजोर परिवार की कोई प्रतिभाषाली युवती होगी, जो कोई एग्जाम देना चाहती होगी और साथ जाने को कोई न मिला होगा सो किषोरदा उसके साथ तैयार हो लिए होंगें। एक बार फिर तरस आया मुझे उन पर, जबरन ही अपने माथे पर मुहल्ले भर की जिम्मेदारियाँ लादें फिरते रहते हैं। जनम के फालतूचंद हैं दादा और अब तक अपनी आदतें नहीं छोड़ी हैं इनने। मेरे पूछने पर कैसे सहज भाव से बोले थे-'सब बतायेंगे!'

सुबह तीनेक बजे आँख लगी होगी कि तितिक्षा ने झंझोड़ कर जगा दिया मुझे 'सुनो तो, तनिक बैठक में जाकर देखो!'

मैं झुझला कर उठा, कुछ क्षण उसके कहे का आषय बूझने का प्रयास करता रहा, फिर जाकर किचेन का पर्दा हटाकर बैठक में देखा तो सहसा चौंक उठा था-सचमुच वन्या इस वक़्त बेंच के अपने बिस्तर के बजाय, दीवान पर थी और एक मुग्ध प्रेमिका कि तरह किषोरदा से बाकायदा चिपट कर सो रही थी। आंखें मीड़ कर मैंने पुन: देखा। चेहरे पर पूरी निष्चिंतता लिए वह युवती दादा के सीने पर गाल रखे थी और दादा उसे अपने दायरे में लपेटे हुए गहरी नींद में थे।

मुड़ा तो तितिक्षा कि तंज भरी निगाहें मेरे चेहरे पर जड़ी थीं। मैंने कुछ समझ न पाने का भाव दर्षाते हुए मुंह बिचकाया और अपने बिस्तर पर जा लेटा।

सुबह छह बजे 'गुड मार्निंग' बोलता जब मैं बैठक में पहुँचा तो वे दोनों पहले से फ्रेष हुए बैठे मिले। वे दोनों नये कपड़े पहने हुए थे और इस वक़्त अपने-अपने बिस्तरों पर थे।

चाय पीते वक़्त किषोरदा बोले, 'हम लोग आठ बजे निकल जायेगे यहाँ से!'

'इतनी जल्दी?' मैं चौंका।

'हाँ भाई साहब, हमारा जाना ज़रूरी है।' वन्याजी की आवाज़ में मजबूरी झलक रही थी।

दो-दो परांठे अचार से खाकर वे दोनों जल्दी-जल्दी क़दम बढ़ाते इस तेजी से घर से निकले कि बस तक छोड़ने का मनसूबा बनाये बैठे मुझे साथ चलने का मौका भी न दिया उन्होने।

रेडियो के रिकॉर्डिंग रूम के एक हिस्से में कार्यक्रम निष्पादक के साथ खड़ा मैं वे कविताऐं सुन रहा था जो कि कांच के उस पार बैठे गंजे सिर और पान की बहती पीक से रंगे बड़े होंठ वाले वे मुटल्ले कवि महाषय रस विभोर हो कर रिकॉर्ड करा रहे थे-

तुम रस की बादल, रस की मेघा, रस की सागर हो,

मैं प्यासा बैठा तरस रहा, तुम रस की गागर हो।

अपने इन अमृत कलषों से, दो चार घूंट पी लेने दो

मुहर बंद ये काम कलष, पी लेने दो-जी लेने दो।

तेरा क्या घट जायेगा, तू अक्षय कनक कलष वाली,

सोने-सी द्युति वाली तू, हूरों-सा सुघड़ बदन वाली।

क्यों निर्मम, निर्मोही होकर, दौलत इस तरह छिपाती हो,

कुदरत ने बख्शी बेकीमत, आषिक को नहीं दिखाती हो।

मनहूस ज़माने की चिन्ता, मत करो आज खुल कर आओ,

मैं कितने युग से तरस रहा, मुझ पर आज बरस जाओ।

तुमने वह जुमला सुना नहीं, दुनिया पर प्यार बड़ा भारी,

न उम्र की सीमा होती है, न जन्म की होती लाचारी।

कविता पूरी हूुई तो कार्यक्रम अधिकारी के साथ मैंने भी कांच के इस पार आ गये उस तोंदियल और मसखरे से दिखते कवि को झूठमूठ बधाई दी और अपनी कहानी रिकॉर्ड कराने के लिए वॉयसप्रूफ स्टूडियो में जा पहुँचा। पन्नों के आलपिन निकाल कर मैंने पूरी मेज पर कहानी की पांडुलिपि के काग़ज़ छितरा लिए और रिकॉर्डिंग कर रहे अधिकारी के इषारे का इंतज़ार करने लगा।

मेरी कहानी शोषण के खिलाफ संघर्ष कर रहे एक अध्यापक की कथा के रूप में बुनी गई थी, जिसमें शृंगार की संभावना कोसों दूर थी, लेकिन मैंने कनखियों से देखा कि शृंगार वाले वही कवि पूरी तन्मयता से मेरी कहानी सुन रहे थे।

मैं बाहर निकला तो तपाक से अपने भारी बदन से मुझे लगभग लिपटाते हुए साहित्यिक नाम के बजाय मेरे घरेलू नाम से सम्बोधित करते हुए वे बोले, 'तुम्हारा ये क्रांति-व्रांति का सपना अब भी नहीं टूटा। सचमुच लगन के पक्के हो पार्टनर। तुम्हे मेरा लाल सलाम!'

मै झेंपता हुआ-सा उनका सलाम कुबूल कर चुका तो रेडियो वाले अधिकारी ने हम दोनों से स्टूडियो के बाहर चलने की इल्तिज़ा कि। कविराज ने अपने भारी भरकम दांये हाथ का लपेटा लगाते हुए मुझें जकड़ा और उसी मुद्रा में वहाँ से चल पड़े।

सहसा कविवर मेरे कान में फुसफुसए, 'तुम्हारे किषोर दा तो बड़े गुल खिला रहे हैं!'

मैं सतर्क हो उठा, 'कैसे गुल?'

'तुम कब से नहीं मिले उनसे!'

'कोई चारेक महीना तो हो गये होंगे!'

'अररे यार, ग़ज़ब के आदमी हो तुम्म! तुम्हे पता नहीं चला, ...वे एक लड़की को लेके फ़रार गये हैं।'

मुझे चुप देख उन्होने बात को विस्तार दिया, 'वे जाने किधर ऐष कर रहे होंगे और वहाँ कस्बा में हमारी थू-थू हो रही है। लाज नहीं आई कि इस उमर में ऐसे ठठकरम...' आधी बात छोड़कर वे ऐसा अभिनय करने लगे मानो इस गर्हित प्रसंग पर ज़्यादा बोल नहीं पायेंगे, तो मैं ठठकरम षब्द के ध्वन्यार्थ में डूब गया। मैं समझ नहीं पा रहा था कि ठठकरम से कविराज का आषय ठाठ से किये गये करम से है या ठठरी पर पहुँचा देने वाले उस षष्ठकर्म से जिसके बारे में ये शृंगारी कवि ख़ुद ज़्यादा मषहूर है। मुझे याद है कि ठठकर्म में निष्णांत होने की वज़ह से कई दफा अकेले में और कई दफा सार्वजनिक रूप से कुछ कन्याओं के पिता इनका अभिनंदन कर चुके हैं, उन्ही अभिनंदनों के डर से ही तो इन्होने षहर छोड़ा था और आज अपनी बुढ़ौती उस कस्बे में काट रहे है जहाँ किषोरदा रहते हैं।

मुझे लगा कि ये सज्जन अभी कान में फुसफुसा रहे हैं, उधर कमरे में पहुँच कर खुल कर अल्लम-गल्लम बोलना ष्षुरू कर देंगे तो इन्हे चुप कराना मुष्किल होगा। मेरी तत्काल बुध्दि चेती तो मैंने कविराज को अपनी कानी उंगली उठा कर दिखाई। उन्होने मुसकराते हुए अपनी गिरफत ढीली की और गेंद की तरह लुढ़कते हुऐ वे उन रेडियो अफसर के पीछे-पीछे लपक लिए।

रेडियो स्टेषन के गलियारों में प्रसाधन की तख्ती लगा कमरा तलाष करते समय सहसा मुझे लगा कि इस शृंगार प्रेमी कविसे छुटकारा पाने के लिए मेरा कुछ देर के लिए इस कैम्पस से ही बाहर चला जाना ठीक होगा, सो मैं बाहर को खिसक आया।

...लेकिन मेरे तमाम प्रयास नाकाम करते कविराज दो घण्टे बाद भी मुझे उन रेडियो अफसर के कमरे में जमे मिले थे और उस वक़्त अपने साथ आई एक कमसिन-सी लड़की का कोई आलेख 'टॉक' कार्यक्रम के तहत रिकॉर्ड कराने का इसरार कर रहे थे।

खैर, इस वज़ह से मैं आसानी से अपना पीछा छुड़ाने में कामयाब हो गया। अपना चैक उठाया और उसकी राषि देखे बिना ही अपनी जेब के हवाले करते हुए मैंने जल्दी से अपने हस्ताक्षर किए और तुरंत ही कमरे के बाहर का रास्ता नाप लिया था।

अलबत्ता मुझे किषोरदा कि हरकतों ने फिर द्वंद्व मेंं डाल दिया।

घर लौट कर मैंने तितिक्षा को बताया तो वह दमयंती भाभी को याद कर उदास हो गई। दमयंती भाभी से उसका ही नहीं मेरा भी गहरा लगाव था, मज़बूत बदन की हट्टी-कट्टी और रफ-टफ दमयंती भाभी हर समस्या को चुटकी में उड़ा देती थीं। हुआ ये कि मैं उन दिनों उसी कस्बे में तैनात था और तितिक्षा कि पहली जचगी सिर पर थी। घर बहुत दूर था और वैसे भी घर पर बूढ़ी अम्मां के अलावा ऐसी कोई महिला थी ही कहाँ, जिन्हे मैं जचगी के लिए लिवा कर लाता। ऐसे में एक दिन दमयंती भाभी से तितिक्षा ने हमारी इस उलझन का ज़िक्र कर दिया तो दमयंती भाभी तैष में भर उठीं, 'ऐल्लेउ, इत्ती-सी बात खों हैरान है रई हो। अरे सिर्रन हम तो बैठी हैं इते और काउ की का जरूलत? हमाई अपनी देवरानी होती तो वा कि हमई जचगी कराते न! कहदो लल्ला से, बेचिन्त हो जायें। हम सब संभाल लेंगे।'

...और सचमुच संभाल लिया था उन्होने। वे रात दिन मेरे घर बनी रहतीं, उधर बच्चियाँ घर संभालती और बताए गये वक़्त पर सोंठ और अजबाइन के पानी के साथ हरीला भेज देतीं। दवा का काड़ा पीने में नखरे करती तितिक्षा को ख़ूब मना कर लाढ़ से काड़ा पिलातीं थीं वे।

ऐसी भोली औरत के साथ किषोरदा ने इतना बड़ा दग़ा किया।

कड़ाके की ठण्ड थी लेकिन अपने अहाते में स्कूटर की 'फक फक' की आवाज़ से रजाई के भीतर भी मेरी नींद उचट गई। कौन होगा इस वक़्त जो सीधा भीतर हीस्कूटर ले आया...!

ल्गा कि किराये दार होंगे वे कभी कभार बाहर से टूर से लौटते हैं। मैं निष्चिंत-सा होकर आँख मूंद कर लेट गया। उनकी पत्नी या तितिक्षा दरवाज़ा खोल देगी।

लेकिन दस्तक तो बैठक के दरवाजे पर थी। मैंने रजाई में से ही पूछा-'कौन?'

'आपला मानुष'

अरे ये तो किषोरदा कि अवाज है। मैं रजाई छोड़कर उठ बैठा और बिना सोचे-बिचारे दरवाज़ा खोल दिया। दरवाजे पर वे अकेले खड़े मुसकरा रहे थे। उसी धज में थे वे-वही हमेषा कि तरह कंधे पर टंगा भूदानी झोला, बदन पर खादी के कुर्ता-पजामा। चेहरे पर वही भारी नम्बरों का चष्मा ओर खसखसी दाड़ी में से घूरती स्याह काली आंखें।

हम लोग गले लगे। उन्होने घूम कर इरवाजा बंद किया और जूते एक तरफ़ फेंक कर मेरी रजाई में घुस कर बैठ गये, 'और सुनाओ क्या हो रहाहै?'

मैं सदा कि तरह बोला, 'बस नौकरी हो रही है सीधी-सादी। आप सुनाओ कहाँ से चले आ रहे हो इस वक्त!'

' वह धर्मगुरूओं पर एक उपन्यास लिखने की चर्चा कि थी न तुमसे, उसी पर काम करता मठों में ंभटक रहा हूँ। चष्में के भीतर से हंसती उनकी आंखें सदा कि तरह निर्भीक और निष्पाप थीं।

सुबह खुल कर बात की उन्होने, 'तितिक्षा क्या कह रही थी उस दिन?'

' बहुत नाराज थी। कहती थी, इनकी वज़ह से हम लोग और बदनाम हो जायेंगे। किसी दिन पुलिस धर लेगी तुम्हे अपहरण या लड़की भगाने के जुर्म में भागीदार बताकर!-

'पुलिस क्यों?' वे बिस्मित थे।

'आपके जाने के बाद एक सिपाही आया था, आपके बारे में ंपूछताछ करने। हमने टरका दिया उसे!'

'इस बारे में तुमने लिखा नहीं मुझे!'

'आप क्या करते? फालतू में चिंतित हो जाते।'

'अरे यार, अपुन को क्या करना था, ख़ुद वन्या सीधे हाईकोर्ट में एक दरख्वास्त लगाती और उस सिपहिया कि नौकरी खत्मं। वहीं से तो प्रोटेकषन मिला है वन्या को अपने अत्याचारी बापके खिलाफ।'

'बापके खिलाफ!'

' हाँ उसी ने तो बंद कर रखा था अपने घर में वन्या को। सोचता था कि पुलिस का दारोगा है तो हर जगह उसकी दरोगाइ्र चल जायेगी। घर को ही हवालात बनादिया था उसने। बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर हुई तो ख़ुद लेकर हाज़िर हुआ अदालत के सामने।

मैं बिस्मित था, तो बात यहाँ तक पहुँची थी।

उनसे आगे पूछूं, समझ नहीं पा रहा था, सो चुप रहा।

वे ख़ुद ही बोले, 'वह जो ेदलितोत्थान का एक प्रोजेक्ट लाया था न मैं, सेंन्टल गव्हर्नमेंट स, ये वन्या उसी मेें डायरेक्टर थी। ख़ूब काम किया हमने उन्ही दिनों...'

'और आप ने भी...'

'प्रेम के प्रस्ताव ठुकराये नहीं जाते पगले। ये एक अलग केमिस्टी है, जिसे तुम नहीं समझोगे कभी।'

'क्या ऐसी होती है प्रेम की केमिस्टी की एक आदमी अपनी ब्याही-थ्याही बीवी को छोड़ कर किसी नई-नवेली को फांसने के लिए अधीर हो उठे।'

वे हंसे, 'बीवी से प्रेम करने के साथ भी तो किसी से प्रेम किय जा सकता है न!'

'एक साथ कई लोगों से प्रेम...'

'तुम लोग प्रेम जैसे उदात्त शबद को इतना संकीर्ण कैसे बना लेते हो? ...कृष्ण क्या सिर्फ़ राधा से प्रेम करते थे? ब्रज की हर गोपी से भी वे वैसा ही प्रेम करते थे, जेसा राधा से। प्रेम का अजस्र स्रोत होता है मनुष्य का मन।'

'प्रेम को किसी झरने में बहता पानी मानते हैं क्या आप?' मैं उनकी हंसी उड़ा रहा था।

'पानी से भी ज़्यादा व्यापक! उससे भी जयादा पारदर्षी! प््रम कभी बंधन में नहीं बंधता, किसी पात्र में पानी की तरह पूरा का पूरा नहीं भरा हो सकता प्रेम' मुझे लगा किषोर भाई इन दिनों या तो ओषो का ेपढ़ रहे हैं या किसी प्रेमवादी पष्यिमी विचारक को। मैं एक सीधा-सादा सदगृहस्थ भला उनसे कहाँ से पार पाता।

मैंने जल्दी ही हथियार डाल दिण्, 'तो आपके मन में प्रेम का जो अजस्र सा्रेता फूट रहा था उसका वेग दमयंती भाभी संभाल नहीं पा रही थीं संभवत:।'

'यह भी कह सकते हो, लेकिन यह पूरा सच नहीं है, मैं उससे भी पूरा प्रेम करता हूँ और वन्या से भी ...'

अब मैं हैरान था।

हमारी बातचीत इससे ज़्यादा नहीं हुई उस रात।

तितिक्षा ने खाना बनाया उन्होने तारीफ करते हुए खाया और लम्बी डकार लेकर सो गये।

सुबह जल्दी ही चले गये वे पिछली बार की तरह।

उनके जाने के बाद उनके बारे में और ज़्यादा जानने की उत्सुकता हो रही थी मुझे।

...और महीनों यह क्रम चला, जो भी मित्र मिलता, किषोर दा के बारे में एक नई सूचना उसके पास होती-

... किषोर अभी अपने कस्बे में ठीक से रह नहीं पा रहे है, चोरों की तरह रात-बिरात आते हैं और अपनी सहेली से मिलकर अंधेरे में ही किसी नई मंज़िल के लिए निकल जाते हैं।

... किषोर ने वन्या को बाकायदा पत्नी की तरह अपने साथ रख लिया है और उसे एक अलग मकान दिलाकर ऐषो-आराम की पूरी चीजें मुहैया कराई हैं।

...अपनी पूरी तनख्वाह किषोरदा ख़ुद और अपनी नई नवेली पर खरच देते हैं, जबकि दमयंती भाभी और बच्चे एक-एक धेले को परेषान है।

... कस्बे में बिना किसी लिहाज के दोनों जने गलबहिंया डाले घूमते रहते है और लाज की मारी दमयंती भाभी ने घर से निकलना तक बंद कर दिया है।

... जिस लड़की के लिए उन्होने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया है, उसके बाप और भैया ने क़सम खाई है कि वे जल्दी ही किषोरदा सहित दोनों को परलोक पहुँचा देगे।

...दमयंती भाभी की बेटियों ने टयूसन देना शुरू कर दिया है और इस तरह घर पर आये संकट का बड़े साहस के साथ सामना कर रही हैं भोली लड़कियाँ।

... किषोर दा कि नौकरी खतरे में है, क्योंकि एक ब्याही-थ्याही पत्नी होते हुए दूसरी पत्नी रख लेने के कारण उनके अफसर ने उनको एक नोटिस थमा दिया है।

...वन्या को अपने जाल में फंसाने के लिए किषोर दा ने बड़ा गहरा जाल बुना था। बीहड़के गरीब बच्चों के लिए अनौपचारिक षिक्षा का एक प्रोजेकट बना कर वे कई-कई दिन तक घर से बाहर रहके बीहड़ों में घूमते रहते थे और समाजसेवा व एनजीओ में अपना कैरियर बनाने को उत्सुक खादी के कुर्ता-पजामा पहन कर घूमती वन्या उनके साथ ही रहा करती थी। उन्ही दिनों किन्ही भावुक क्षणों में उस लड़की को बहला-फुसला लिया था किषोरदा ने, जिसकी वज़ह से वन्या ने अपनी मंगनी तोड़ डाली।

किषोरदा का नाम मेरे लिए ऐसा नासूर हो चला था कि मैं उनसे नफ़रत भी नहीं कर पाता और उनके सामने जाना भी नहीं चाहता...एक लफंगे, स्वार्थी, एैयाष और उठाईगीरे आदमी की इमेज बन गई थी मेरे मन में उनकी।

अपनी तैनाती के दिनों के एक पुराने प्रकरण के सिलसिले में अदालत की पेषी पर मुझे किषोरदा के कस्बे में जाने का मौका मिला, तो मैं पहले से ही मन ही मन प्रार्थना करने लगा कि भले ही कस्बे में उनके होने की संभावना न के बराबर है, फिर भी वहाँ मुझे किषोरदा न मिल बैठें, पता नहीं गुस्से में क्या कर बैठूंगा मैं।

मेरी पेषी दोपहर बारह बजे ही निपट गई तो मेरे सामने समय काटने की समस्या थी, सोचा कहाँ जाऊँ?

सहसा बिचार आया, दमयंती भाभी से मिल चलूं, बेचारी इन दिनों बुरा वक़्त काट रही हैं। घरवाला छोड़ कर चला गया है और उनके जी को जवान होती दो-दो बेटियाँ और दो दुधमुंहे लडके बंधे है। जाने कैसे दिन काटती होंगी। उन्हे कहीं से पता लगेगा कि मैं कस्बे में आया था तो क्या सोचेंगी? कहेंगी कि दूसरों की तरह मैं भी भले दिनों का साथी हूँ, बुरा समय आया है तो मैंने मिलना भी गवारा नहीं किया।

बिना किसी सूचना के मुझे दरवाजे पर खड़ा देख आंगन में बैठी पढ़ रही किषोरदा कि बड़ी लड़की किसलय बिस्मय में भरी चीख उठी, 'अरे चाच्चा आप अचानक ऐस्से!' फिर भीतर को मुंह करके वह बोली, 'मौसी, देखो तो कौन आया है?'

अगले ही पल उसकी बुलाई मौसी हिरणी-सी छलांगें लगाती दरवाजे पर थीें, जिन्हे देख मैं भोंचक्का होकर ताकता रह गया था, क्योंकि वे और कोई नहीं वन्या थीं। वे वन्या, जिन्हे लेकर मैं जाने क्या-क्या सुनता और सोचता आ रहा था, इतने दिनों से।

वन्या अपनी उसी धज में थीं-सादा सूती कपड़े के सलवार-सूट और बेध्यानी में बंधे बालोें में से यहाँ वहा से छिटककर उड़ती लटें।

क्षण भर में ही पूरा घर इकट्ठा था-दमयंती भाभी समेत। मैंने भाभी के चेहरे को ज़्यादा ग़ौर से देखा-भीतर तक भेदने वाली नज़र से।

ताज्जुब! कि दमयंती भाभी के मन में कोई विषाद नहीं दिखा मुझे, बल्कि एक उल्लास था वहाँ। ...आनंद था। ...खुषी थी। ...शांति थी।

... और तभी किषोरदा दौड़े आये बाहर, 'आय हाय मेरे यार, कित्ते दिन बाद सुधि ली तुमने!'

मैंने देखा कि वे जो कह रहे हैं, घर का हर सदस्य मानो यही कह रहा था।

दो दिन रहा मैं उनके घर। उन दो दिनों में मेरे भीतर बैठा जासूसी मन लगातार टोह लेता रहा, पड़ताल करता रहा, तफतीस होती रही मन ही मन मेरे कि ये जो सब लोगों के बीच तालमेल दिख रहा है, यह स्वाभाविक है या बनावटी। मुझे दिखाने को ...बल्कि यह कहना मुनासिब होगा कि दुनिया को दिखाने को तो खुष नहीं दीख रहीं दमयंती भाभी, या फिर अपने बच्चों के भविष्य और ख़ुद की बेदखली बचाने के लिए तो ऊपरी प्रसन्नता नहीं ओढ़ ली भाभी ने। मौका मिला तो मैंने उनसे पूछा भी, लेकिन मेरी बात हंसी में उड़ाती वे मुझे आष्वस्त कर रही थीं कि मैं चिंतित न होंऊ, वे पूरी तरह प्रसन्न हैं और संतुष्ट भी।

उन दो दिनों में घर के कोने-कोने से प्रेम बरसता दिखा मुझे। कड़वाहट और नफ़रत का नामोनिषान न था वहाँ। बच्चियाँ बेहद प्रसन्न और मुखर लग रहीं थीं इस बार! और वन्या...वे तो जैसे अपने मूल स्वभाव में थी उन दिनों। बच्चियों के साथ एक सहेली और बड़ी बहन की तरह दिन भर उछलती-कूदती रहतीं, तो दमयंती भाभी के पहनने-ओढ़ने से लेकर खाने-पीने तक का ध्यान एक छोटी बहन की तरह रखती दिखीं वे। सबसे ज़्यादा आनंदित थे किषोर दा। बाहर से भीतर तक बेहद बदले और अलग-अलग से लगे वे। वन्या उनकी दोस्त थीं, सहचरीं थीं, परिचारिका थीं तो समवयस्क बहन-सी हिड़सने वाली सखी भी। किषोरदा कि हर रचना कि पहली पाठक थीं वे और आलोचक भी। एक समझदार बच्चे-सा बना लिया था उन्होने आलसी और जिद्दी किषोर दा को। तरूण बय से उनके चेहरे का हिस्सा बनी खसखसी दाड़ी गायब थी और उनकी खराब आँख तो जाने कब की सुधर चुकी थी।

दो दिन में अपनी दो कहानियाेंं के बदले में पूरी पांच कहानियाँ सुनी मैंने किषोर दा से। किषोर दा कि ये पांचों कहानियाँ प्रेमकथाऐं थीं। ताज्जुब तो ये था कि इन कथाओें की भाषा, अंदाज़ और तेवर में ग़ज़ब का बदलाव था, उनकी पहले की कहानियों की तुलना में। मुझे लगा जैसे पुनर्जन्म हुआ है किषोरदा का। सुखद सूचना तो यह थी लेखन में दुबारा गहरा विष्वास पैदा हो चला था उन्हें।

घर लौटते हुए मैं ओर से छोर तक बरसते प्रेम में डूबे किषोरदा के घर से रष्क कर रहा था।