सच्चाई का नूर-1 (सज्जाद ज़हीर) / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
सज्जाद ज़हीर ने यह लेख 1956 में फ़ैज़ की शायरी की यथार्थवादी अंतर्वस्तु की विवेचना करते हुए लिखा था। यह लेख फ़ैज़ के सृजनात्मक विकास का सटीक मूल्यांकन प्रस्तुत करता है।
रावलपिंडी साज़िश के मुक़दमे के दिनों में फ़ैज़ के साथ मैं भी सेंट्रल जेल (हैदाराबाद, सिंध) में था। दिसंबर 1952 तक हमारे मुक़दमे की सुनवाई ख़त्म हो चुकी थी। हमें रोज़ रोज़ स्पेशल डिविज़नल ट्रिब्यूनल के इजलास में जाकर मुलज़िमों के कठघरे में घंटों बैठे रहने और उस दौरान गवाहों की शहादत, वकीलों की जिरह और उनकी बेमतलब क़ानूनी छानबीन से मुक्ति मिल गयी थी। अभी फै़सला नहीं सुनाया गया था और हम उम्मीदों के आलम में थे। उन्हीं दिनों एक दिन यह सूचना मिली कि दस्ते-सबा प्रकाशित हो गई। वैसे हम इसकी तमाम चीज़ें फ़ैज़ के मुँह से सुन चुके थे और उन्हें बार-बार पढ़ चुके थे। लेकिन इस ख़बर से हम में से तमाम कै़दियों को, जो साहित्य में रुचि रखते थे, एक ग़ैर मामूली खु़शी हुई। जेल के हाकिमों से अनुमति ले कर हमने एक दावत भी कर डाली, जिसमें हम तमाम क़ैदियों ने मिल कर फ़ैज़ को दस्ते-सबा के प्रकाशन पर मुबारकबाद दी। उस मौक़े पर अन्य बातों के अलावा मैंने यह भी कहा था कि बहुत अर्सा गुज़र जाने के बाद जब लोग रावलपिंडी साज़िश के मुक़दमे को भूल जायेंगे और पाकिस्तान की सन् 1952 की अहम घटनाओं पर नज़र डालेंगे तो यक़ीनन इस साल की सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना इस छोटी सी किताब का प्रकाशन ही होगा।
बहुत दिनों से कुछ नेकनीयत और बदनीयत लोग उर्दू साहित्य और विशेष रूप से प्रगतिशील परिवेश के पतन की बातें करते हैं। मैं इस नज़रिये को सही नहीं समझता। बल्कि मेरा ख़याल है कि उर्दू साहित्य का आधुनिक काल प्रगतिशील आंदोलन से ही रौशन है। यह दौर तक़रीबन 1930 से शुरू होकर अभी तक जारी है। और अगर हम पिछले चार-पांच साल को ही लें तो मेरे ख़याल में फ़ैज़ की दस्ते-सबा, ज़िंदांनामा, नदीम काज़मी की शोला-ए-गु़ल , सरदार जाफ़री की पत्थरों की दीवार, एहतेशाम हुसैन की तनक़ीद और अमली तनक़ीद, और मजनूं गोरखपुरी की नकुश वाफ़कार आदि किताबें इस दौर में काफ़ी लोकप्रिय हुईं। रचनात्मकता का सुखऱ् शोला, ‘जिसमें गर्मी भी है, हरकत भी’, तवानाई (ताक़त, शक्ति) भी, विपरीत हालात में न धीमा होता है और न बुझता है बल्कि जहालत की काली आंधियां इसे और भी भड़काती हैं और इस तरह संघर्ष और टकराहटों से गुज़र कर रचनात्मकता का यह सुखऱ् शोला ऐसी ताक़त हासिल करता है कि सच्चाई का नूर पहले से भी ज़्यादा निखरकर झिलमिलाने लगता है।
ज़िंदांनामा की ज़्यादातर नज़्में फ़ैज़ ने मंटगोमरी सेंट्रल जेल और लाहौर सेंट्रल जेल में लिखीं। यानी जुलाई 1952 से मार्च 1955 तक की लिखी हुई चीज़ें़ इसमें शामिल हैं। इसी दौरान हम एक दूसरे से बिछड़ गये। क्योंकि हम दोनों को चार-पांच साल की क़ैद बामशक्कत देने के बाद हुक्मरान ने फै़सला किया कि हम एक साथ जेल में न रखे जायें। फ़ैज़ को पंजाब में मंटगोमरी जेल भेजा गया और मुझे हैदराबाद सिंध से बलूचिस्तान सेंट्रल जेल। हम एक दूसरे से चिठ्ठी-पत्राी भी नहीं कर सकते थे। दूसरे दोस्तों के खतों और कुछ उर्दू पत्रिकाओं के ज़रिये मुझे फ़ैज़ की पंद्रह ग़ज़लें और नज़्में, जो ज़माना में लिखी गयी थीं, पढ़ने का मौक़ा मिला।
अब ज़िंदगी के हालात मेरे लिए काफ़ी ख़ुशगवार हैं और मैं आज़ाद फ़िज़ा में सांस ले सकता हूँ। इसके बावजूद जब मैं उन ज़हनी, जज़्बाती और रूहानी हालात का ख़याल करता हूं जो मुझ पर उस वक़्त छायी थीं, जब अपने इस प्यारे दोस्त और हमदम का कलाम पढ़ता था, तो इसका इज़हार अब मुश्किल मालूम होता है। शायद बेलाग आलोचना के लिए यह अच्छा भी नहीं है। यह भी सही है कि चूंकि हमारे बहुत से अनुभव, ज़िंदगी और अपने वतन को बनाने से जुड़े हमारे ख़्वाब, हमारा दर्द, हमारी नफ़रतें और हमारी आपबीती एक जैसी थीं, इसलिए फ़ैज़ के उन अशआर का मुझ पर ग़ैरमामूली असर होता था। मेरा दिल कभी ख़ून के आंसू रोता कि जो अपनी हुस्नकारी से सबकी ज़िंदगी को इतनी करुणा से संपन्न कर देता और अपने नग़मों से हम सबकी रगों में सुरूर की लहरें बहा देता है, कै़द की मुश्किलें उसकी ज़िंदगी का हिस्सा क्यों हैं। तो कभी मेरा ज़हन उस शायरी में मौज़ूद ख़यालात की ख़ुशनुमा गुलकारियों (कलात्मकता) से कसबे-शऊर करता (प्रबोधन पाता) जिनमें आधुनिक संघर्ष और इल्म की रौशनी इंसानियत के शरीफ़ तरीन जज़्बात से इस तरह मिल गयी है जैसे सूरज की किरणों में गर्मी और रौशनी मिली होती है।
फ़ैज़ की इन नज़्मों को मुकम्मल तौर पर देखने से हमें मालूम होता है कि जहां तक उनके सरोकारों, जिनको शायर ने इनमें पेश किया है, का ताल्लुक़ है, वे तो वही हैं जो इस ज़माने में तमाम प्रगतिशील इंसानियत के सरोकार हैं। लेकिन फ़ैज़ ने इनको इतनी ख़ूबी से अपनाया है कि वे न तो हमारी सभ्यता और संस्कृति की बेहतरीन परंपराओं से अलग नज़र आते हैं और न शायर की विशिष्ट मधुर गीतात्मक शैली से अलग।
उनमें मौज़ूद और प्रवहमान प्रगतिशीलता के अंदर हमारे वतन के फूलों की खूशबू है। उनके ख़यालात में उन सचाइयों और मक़सदों की चमक है जिनसे हमारी क़ौम के ज़्यादातर दिल रौशन हैं। अगर सभ्यता के विकास का अर्थ यह है कि इनसान अपनी मूल प्रकृति और रूहानी पतन से मुक्ति हासिल कर के अपने दिलों में कोमलता, अपनी दृष्टि में न्यायशीलता, और अपने किरदार में ठहराव और बुलंदी पैदा कर सके और हमारी ज़िंदगी अपनी पूर्ण और विशिष्ट हैसियत से बाहरी और अंदरूनी तौर पर साफ़ भी हो, तो फ़ैज़ की शायरी उन तमाम तहज़ीबी मक़सदों को छू लेने की कोशिश करती है। मेरा ख़याल है कि पाकिस्तान और हिंदुस्तान में इसकी लोकप्रियता का सबब यही है। लिहाज़ा फ़ैज़ के तमाम चाहने वाले नक़्शे-फ़रियादी, दस्ते-सबा और ज़िंदानामा के दीवाने होने के बाद भी उनसे यह उम्मीद रखते हैं कि उनकी अब तक की गयी रचनाओं के मुक़ाबले मात्रा और गुणवत्ता दोनों लिहाज़ से जो रचनाएं अभी नहीं हुई हैं, वे ज़्यादा मूल्यवान होंगी। (13 जनवरी 1956)
अनुवाद: बलवंतंत कौर मो.: 09868892723