सच्चाई का नूर-2 (सज्जाद ज़हीर) / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
सज्जाद ज़हीर की यह दूसरी विवेचनात्मक टिप्पणी 1970 में प्रकाशित हुई थी। तब तक फै़ज़ के चार कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके थे। उनकी सृजनशीलता के भिन्न-भिन्न पहलुओं को इसमें उद्घाटित किया गया है। सज्जाद ज़हीर इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि फ़ैज़ की शायरी में जो चीज़ निरंतर मिलती है, वह है उनकी रूह, उनका विशिष्ट व्यक्तित्व, चिंतन और कल्पना-नियोजन का आश्चर्यजनक अछूतापन।
फ़ैज़ का लगभग सारा कलाम उनके चार संग्रहों में है यानी सन् 1970 तक नक़्शे-फ़रियादी, दस्ते-सबा, ज़िंदांनामा और दस्ते-तहे-संग। यही उनके सृजनात्मक जीवन की मुकम्मल दास्तान है। ख़ुशक़िस्मती से हममें से बहुतों ने उन्हें बार-बार पढ़ा है। यह उनके अपने शब्दों में बयान की हुई दास्तान है: अस्ल, सच्ची, अंदरूनी, दिलचस्प, और बड़ी ख़ूबसूरत दास्तान। इसके अलावा और इससे बेहतर मैं या कोई दूसरा शख़्स क्या कह सकता है। मैं कभी-कभी सोचता हूं कि आखि़र लोग किसी कलाकार की बाहरी रोज़मर्रा की ज़िंदगी, उसकी आदतें और स्वभाव, उसकी समाजी हैसियत, उसकी चाल-ढाल, उसके बात करने या शेर पढ़ने के अंदाज़; वह कहां पैदा हुआ, उसने कितनी और कहां शिक्षा पायी, घोषित रूप से और खुफ़िया तौर पर कितनी औरतों से उसने मुहब्बत की; उसका राजनीतिक और सामाजिक दृष्टिकोण क्या है... और इसी क़िस्म की बहुत-सी बातें मालूम करने की कोशिश क्यों करते हैं? विश्वास किया जाता है कि हम इन बातों के मालूम हो जाने के बाद उस कलाकार के व्यक्तित्व को समझ लेंगे और यह भी जान लेंगे कि वह कैसा आदमी है। लेकिन दाने और मिट्टी और हवा और पानी और सूरज की रौशनी के बारे में सब कुछ मालूम करने के बाद भी हम फूल, उसके रंग की मोहकता, उसकी पंखड़ियों की नमी और कोमलता, उसकी उड़ती हुई महक यानी उसकी सारी लताफ़त और उसकी सुंदरता का अंदाज़ा कैसे लगा सकते हैं? वह बना तो उन्हीं चीज़ों के मेल से है जिनका ऊपर ज़िक्र किया गया है लेकिन उनसे किसी क़दर भिन्न है।
लोग नैतिकता के क्षेत्रा में आम तौर पर एक बात को सख़्त नापसंद करते हैं, और वह है कथनी और करनी का परस्पर-विरोध, यानी, हम कहें कुछ और, दावा करें कुछ और, अमल करें कुछ और। हमारा देश ऋषियों-मुनियों, औलियाओं-फ़कीरों, भक्तों और महात्माओं का देश है। लेकिन हमारे ही देश में ‘बगुला भगत’ का मुहावरा भी आम है, और हममें से अक्सर ने ख़ुद पिछले तीस-चालीस बरस में यह माजरा देखा है कि हमारे मुल्क में एक ख़ास क़िस्म की टोपी और लिबास, जो कभी देशभक्ति और निष्ठावान जीवन और विनम्रता की अलामत समझे जाते थे, अब आम हिंदुस्तानियों की नज़र से बिल्कुल उनसे उलट बातों के निशान समझे जाने लगे हैं। मैं समझता हूं कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान, बल्कि इन मुल्कों के बाहर भी जहां फ़ैज़ के बारे में लोगों को जानकारी है, फ़ैज़ की असाधारण लोकप्रियता और लोगों को उनसे गहरी दिली मुहब्बत का एक कारण उनके काव्य की खूबियों के अलावा यह भी है कि लोग फ़ैज़ की ज़िदंगी और उनके अमल, उनके दावों और उनकी कथनी में टकराव नहीं देखते। गो कि, मेरी राय में, अगर यह टकराव होता भी, तब भी इस वजह से कि कला की दुनिया के विधि-विधान प्रचलित नैतिक विधि-विधानों से अगर भिन्न नहीं तो दूसरे ही स्तर के होते हैं, उनकी काव्यात्मक हैसियत में कोई फ़र्क़ न आता।
मैं मिसाल के तौर पर चंद वाक़िआत आपको बताना चाहता हूं। फ़ैज़ 9 मार्च 1951 को लाहौर में अपने मकान से अचानक गिरफ़्तार कर लिये गये। उस वक़्त वे पाकिस्तान के दो सबसे महत्वपूर्ण अख़बारों पाकिस्तान टाइम्स और इमरोज़ के संपादक थे। उनके साथ पाकिस्तानी फ़ौज के चीफ़ आफ़ द जनरल स्टाफ़, जनरल अकबर ख़ान, और कई दूसरे फ़ौजी अफ़सरान भी बड़े ड्रामाई अंदाज़ में गिरफ़्तार कर लिये गये। सारा पाकिस्तान हिल गया। अख़बारों में रोज़ ये अफ़वाहें छपने लगीं कि इन सब लोगों को फ़ौजी बग़ावत की साज़िश के जुर्म में फ़ौरन गोली मार दी जायेगी। मैं उस वक़्त लाहौर में था और मुझे लोगों ने आकर बताया कि किसी को इसका पता नहीं है कि फ़ैज़ किस जेल में हैं। कई हफ़्ते उनकी बीवी और बच्चों को भी इसका पता न था। न किसी को फ़ैज़ से मिलने की इजाज़त थी। यह भी सुना गया कि फ़ैज़ को शारीरिक यातना पहुंचायी जा रही है (बाद में मालूम हुआ कि यह बात ग़लत थी)। अलबत्ता दूसरी बातें सही थीं; यानी वे बिल्कुल अकेले और तकलीफ़देह हालात में रखे गये थे। कोई किताब (सिवाय कुरान-मजीद के), अख़बार, पत्रिकाएं, या काग़ज़, क़लम-दवात तक, उनको नहीं दिया गया था। न ख़ुद कुछ लिख सकते थे, न किसी का कोई ख़त वग़ैरा पा सकते थे। सारांश यह कि परिस्थिति भयावह थी। इन्हीं हालात में फ़ैज़ ने वह अपना मशहूर कित’आ (किसी भी एक विषय पर उस सुसंबद्ध पदयोजना वाली कविता को क़ित्आ कहते हैं जिसमें प्रथम शेर के दोनों पद ग़ज़ल की तरह सम-तुकांत नहीं होते। मगर बाक़ी शेरों में तुकांत योजना ग़ज़ल की ही तरह होती है) कहा :
मता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गयी तो क्या ग़म है कि ख़ूने-दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैंने ज़बां पे मुहर लगी है तो क्या; कि रख दी है हरेक हलक़ए-ज़ंजीर में ज़बां मैंने
और इस मज़मून की ग़ज़ल भी कही :
हम परवरिशे-लौह-ओ-क़लम करते रहेंगे जो दिल पे गुज़रती है रक़म करते रहेंगे हां, तल्ख़िए-ऐय्याम अभी और बढ़ेगी हां, अहले-सितम मश्क़े-सितम करते रहेंगे मैख़ाना सलामत है, तो हम सुखिऱ्ए-मय से तज़ईने-दरो-बाते-हरम करते रहेंगे
मैंने फ़ैज़ का यह कलाम ख़ुद उनकी ज़बानी हैदराबाद-सिंध जेल में सुना; इसलिए कि उनकी गिरफ़्तारी के तक़रीबन तीन महीने के बाद मैं भी गिरफ़्तार कर लिया गया था और रावलपिंडी साज़िश केस के कुल कै़दी एक स्पेशल ट्रेन में लाहौर से हैदराबाद-सिंध पहुँचाए गए। यह स्पेशल ट्रेन और उसका सफ़र भी अजीबोग़रीब, और दरअसल स्पेशल था। हम तेरह क़ैदी एक ही ट्रेन के अलग-अलग डिब्बों में थे। हरेक क़ैदी दो स्टेनगन से लैस सिपाहियों और एक इंस्पेक्टर पुलिस के साथ फ़र्स्ट क्लास के एक डिब्बे में हिरासत में था। हम एक-दूसरे से मिल नहीं सकते थे, और न हमको यह पता था कि दूसरे डिब्बे में कौन है। लेकिन यह मौक़ा इन बातों के बयान करने का नहीं, और न अब इसका कोई ख़ास महत्व है। जेल के अंदर हमारी मुलाक़ात हुई, और हमने अपनी आपबीतियां सुनाने के बाद फ़ैज़ से पूछा कि शायरी का क्या हाल है, तब उन्होंने हमको अपनी ताज़ा चीज़ें सुनाईं। काग़ज-क़लम न होने की वजह से उस वक़्त तक, तीन महीने में, क्या हुआ, कलाम दर-अस्ल लौहे-दिल(हृदय की पाटी) पर ही लिखा हुआ था। हैदराबाद में जब हमें क़लम और काग़ज़ रखने की इजाज़त मिली, तब यह कलाम बयाज़ (शेरों के लिखने की कापी, नोटबुक) में क़लमबंद किया गया।
हैदराबाद सिंध के जेलख़ाने में हम तक़रीबन दो साल रहे। एक स्पेशल ट्रिब्यूनल (अदालत) जो जेल के अंदर ही बैठता था, उसके सामने हमको रोज़ाना पेश होना पड़ता था और हम सरकारी वकील की बहस और जिरह और सफ़ाई के वकीलों का जवाब, सैकड़ों गवाहों की गवाहियाँ यह सब सुनते रहते थे। आम तौर पर ये चंद घंटे निहायत बोरिंग होते थे। दूसरी या आखि़री पंक्ति के बायें सिरे पर मैं और फै़ज पास पास बैठे कानाफूसी करते रहते और सामने पड़ी हुई कापी पर कभी कार्टून बनाते, कभी गवाहियों पर अपने नोट लेते। हम ‘दंडसंहिता पाकिस्तान’ की अनगिनत धाराओं के तहत मुलज़िम क़रार दिए गए थे; जिनमें सबसे संगीन, फ़ौजी बग़ावत फैलाने का अभियोग था; जिसकी सज़ा मौत थी। हमें उस वक़्त हँसी आती थी जब हमारे खि़लाफ़ झूठी गवाहियां पेश होती थीं। इन मौक़ों पर कभी-कभी हम या हमारे साथी बेसाख़्ता हंस देते थे जो अदालत की तौहीन का पर्याय समझा जाता था। इस पर स्पेशल ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष जस्टिस अब्दुर्रहमान, जिनको हाई ब्लड प्रेशर की शिकायत थी, गु़स्से से बिल्कुल लाल-पीले हो जाते (वे बहुत गोरे-चिट्टे थे) और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर हमको ख़ामोश रहने का आदेश देते, और अगर इस पर भी किसी को और ज़्यादा हँसी आती, तो वे धमकी देते।
अपनी क़िस्मत का फ़ैसला करने वाले जज को नाराज़ कर लेना और भड़काना कोई दूरदर्शिता नहीं थी, लेकिन आखि़र हम भी मजबूर थे।
उन दिनों हम लोग हर पंद्रह दिन पर छुट्टी के दिन एक ‘तरही-मुशायरा’ (किसी नियत छंद और तुक योजना (‘तरह’) के अनुसार कही गयी ग़ज़लों का मुशायरा ‘तरही मुशायरा’ कहलाता है।) करते थे; जिसके लिए शेर कहना हर कै़दी के लिए लाज़िमी था। दरअसल यह फ़ैज़ के खि़लाफ़ एक षड्यंत्रा था, ताकि उनको शेर लिखने पर मजबूर किया जाये। इन्हीं हालात में फ़ैज़ ने यह ग़ज़ल लिखी :
तुम आये हो न शबे-इंतिज़ार गुज़री है तलाश में है सहर, बार-बार गुज़री है
और आप सब भी समझ सकते हैं कि इस मशहूर शेर को प्रेरित करनेवाले कौन से हालात थे :
वो बात, सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है।
उन्हीं दिनों एक दिन हमने अख़बारों में यह ख़बर पढ़ी कि अनारकली में एक ख़ूबसूरत लड़की, जिसके कंधों पर बालों की घटा छायी थी, हँसती-बोलती गुज़र रही थी। एक मौलाना किसी दुकान पर बैठे थे। उनको यह मंज़र देखकर ख़ुश होने के बजाय सख़्त गुस्सा आया, और इस बेपर्दगी में उन्हें इस्लाम की तौहीन नज़र आई। चुनांचे वे एक क़ैंची लिये हुए अपनी जगह से कूदे और लपककर उस बेचारी लड़की की ज़ुल्फ़ें काट दीं। ख़ैर, इस अनधिकार हस्तक्षेप पर मौलाना पकड़े गए और उनको सज़ा हुई। मालूम होता है, फ़ैज़ इस घटना से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने अपनी ग़ज़ल में यह शेर लिखा :
दिलबरी ठहरी ज़बाने-ख़ल्क़ खुलवाने (दुनिया का मुँह खुलवाने) का नाम अब नहीं लेते परीरू ज़ुल्फ़ लहराने का नाम
ज़ाहिर है, इन हालात में सबसे ज़्यादा रूहानी तकलीफ़ हमें उस वक़्त होती थी जब हम पर ग़द्दारी का, स्वदेश-विरोध का इल्ज़ाम लगाया जाता था। इसकी सफ़ाई हम उस अदालत में क्या पेश करते जो बनाई ही इसलिए गई थी कि विशेष क़ानून का सहारा लेकर (रावलपिंडी साज़िश के मुक़दमे के लिए एक ख़ास क़ानून बनाया गया था, जिसकी एक धारा यह भी थी कि यह मुक़दमा गुप्त रूप से चलाया जाएगा, और इसकी कार्रवाई के किसी हिस्से को भी प्रकाश में लाना स्वयं जुर्म होगा) तमाम अभियुक्तों को किसी-न-किसी प्रकार दंडित किया जाये। लेकिन फ़ैज़ चुप नहीं बैठे और अपनी अनेक कविताओं, ग़ज़लों, स्फुट रचनाओं (क़ित्’ओं) और छिट-पुट अश्’आर में उन्होंने अपनी ऐसी बेमिसाल सफ़ाई पेश की कि उन पर अभियोग लगानेवाले ख़ुद ही मुज़रिम नज़र आने लगे। इस क़िस्म की नज़्मों में ‘दो इश्क़’ और ‘निसार मैं तेरी गलियों पे’ ख़ास तौर पर इन भावनाओं को व्यक्त करती हैं। ‘दो इश्क़’ में फ़ैज़ ने नए और अछूते रूपकों का प्रयोग किया है :
तनहाई में क्या-क्या न तुझे याद किया है क्या-क्या न दिले-ज़ार ने ढूँढ़ी हैं पनाहें आँखों से लगाया है कभी दस्ते-सबा (ठंडी हवाओं के हाथ) को डाली हैं कहीं गर्दने-महताब में (चंद्रमा की गर्दन में) बाहें
तनहाई की भावनाओं का वर्णन करना हर कवि अपना पैदाइशी हक़ समझता है और आजकल कतिपय कवियों औार चिंतकों ने तो इसको बाक़ायदा दर्शन का रूप दे दिया है; और वे अपने तथाकथित एकाकीपन को इतनी अहमियत देते हैं जितना ज़ोर एक ईश्वर को माननेवाले मुसलमान अल्लाह-त’ आला के एकाकी और अद्वितीय होने को देते हैं। लेकिन आप ज़रा फ़ैज़ की इस दर्दनाक लेकिन हसीन तनहाई की कल्पना कीजिए जिसमें दस्ते-सबा की नर्मी और ठंडक प्रेयसी के हाथों की याद दिलाती है, और चांद की वक्रता को देखकर प्रिया की अनुपस्थिति में, उसके गले में बांहें डाल देने को जी चाहता है।
मानव-स्वतंत्रता, मानवीय मूल्यों की गरिमा, प्रेमपूर्ण सहज मानवीय संबंध, भद्र और पवित्र आचरण, मानवों पर होनेवाले हर प्रकार के जुल्म, शोषण, ज़ोर-ज़बरदस्ती और तानाशाही की समाप्ति का लक्ष्य और इस लक्ष्य और उच्चादर्श की प्राप्ति के लिए ऐसी साधना और संघर्ष कोई कायिक, मानसिक, आत्मिक रूप से एकाग्र समर्पित प्रेमी ही करता है। फ़ैज़ के श्रेष्ठ काव्य की विषयवस्तु यही है। उनका लहजा कभी नर्म, मुलायम और धीमा; कभी कठोर, तेज़ और दु्रत प्रवाहमय। उनके प्रतीक और व्यंजनाएं कभी सादा, कभी पेचीदा; बात में कभी सीधा-स्पष्ट और ओजस्वी संबोधन; कभी तह-ब-तह हज़ारों पर्दों और नक़ाबों में ढका-छुपा। मसलन देखिए इस ‘क़ित’ए’ का आहंग (स्वरनाद) कितना ओजस्वी और गूंजता हुआ है :
हमारे दम से है कू-ए-जुनूं में अब भी ख़जिल अबा-ए-शैख़-ओ-क़बा-ए-अमीर-ओ-ताजे-शही हमीं से सुन्नते-मन्सूर-ओ-क़ैस ज़िंदा है हमीं से बाक़ी है गुलदामनी-ओ-कजकुलही
(भावार्थ: अपना लंबा धार्मिक चुग़ा पहने हुए शैख़, शानदार लिबासों में शासकगण और मुकुट-छत्राधारी सम्राट हमारी जुनून की गलियों में हतप्रभ होकर लज्जा से भर जाते हैं। आत्मबलिदानी संत मंसूर और महान प्रेमी मजनूं (कै़स) के आत्मोत्सर्ग का धर्म हमीं से जीवित है। इसी प्रकार अपने दामन को फूलदार (यानी बलिदानी रक्त से रंजित) करने और कुलाह टेढ़ी रखने (यानी विद्रोह की आन लेकर जीने) की परंपरा भी हमीं से क़ायम है।)
और कभी इस बात को आहिस्ता से मुस्कराकर यों कह देते हैं:
इज्ज़े-अहले-सितम की बात करो इश्क़ के दम-क़दम की बात करो (चर्चा करो अत्याचरियों की विनम्रता और दीनता की। प्रेम के साहसिक चरण की चर्चा करो) बामे-सर्वत के ख़ुशनशीनों से अज़मते-चश्मे-नम की बात करो (ऐश्वर्य की उत्तुंग अट्टालिकाओं में प्रसन्न आवास करनेवाले के आगे अश्रुपूर्ण आंखों की गौरव-गरिमा का प्रसंग उठाओ।) जान जायेंगे जाननेवाले (समझने वाले समझ ही जायेंगे, फ़ैज़ ज़रा फ़रहाद - जैसे मज़दूर और जमशेद - जैसे बादशाह की चर्चा तो करो। (फ़रहाद का प्रेम आज भी अमर है; और जमशेद की बादशाहत का नामोनिशान तक नहीं।)) ‘फ़ैज़’ फ़रदाह्-ओ-जम की बात करो।
फ़ैज़ की सहल और सादा शायरी की बात आयी तो एक दिलचस्प वाक़िआ और सुन लीजिए।
हैदराबाद-सिंध के जेल में हम पर पहरा देने के लिए जो वार्ड मुक़र्रर थे उनमें एक साहब थे जिनको सब लोग नवाब साहब कहकर पुकारते थे। ये हज़रत गोरे-चिट्टे और काफ़ी मोटे-ताजे़ थे। हर वक़्त पान खाये रहते थे, और सिंधी और पंजाबी पहरेदारों के दरमियान वैसी ही वर्दी में होने के बावजूद अपनी साफ़-शुस्ता (प्रांजल) उर्दू और उसके लहज़े की वजह से फ़ौरन पहचाने जा सकते थे। दर्याफ़्त करने पर उन्होंने बताया कि वह लखनऊ के हैं, और शीशमहल के नवाबों के ख़ानदान के। वैसे, पाकिस्तान पहुंचकर, यू०पी० और हैदराबाद-दकन से आए हुए शरणार्थियों में से बहुत-से लोग नवाब बन गये हैं। बहरहाल इन साहब को जब मालूम हुआ कि ‘फ़ैज़’ शायर हैं और मैं लखनऊ के एक जाने-बूझे शिया ख़ानदान का हूं, तो हम दोनों में ख़ास दिलचस्पी लेने लगे। हम भी वार्डों की तलाश में रहते थे, जिनकी हमदर्दी की भावना से लाभ उठाकर हम उनसे छोटे-मोटे ग़ैर-क़ानूनी काम ले सकें (जिसे जेल की परिभाषा में ‘तिगड़म’ कहते हैं)। ज़ाहिर है नवाब साहब शायर भी थे। अपनी हलकी-फुलकी ग़ज़लें फ़ैज़ को सुनाते, और फ़ैज़ से कलाम सुनाने की फ़रमाइश करते। लेकिन फ़ैज़ का कलाम सुनकर थोड़ी-सी रस्मी तारीफ़ करके चुप साध लेते। एक दिन उन्होंने चुपके से मुझसे कहा: ‘हैदराबाद में एक मुशायरा होने वाला है। फ़ैज़ साहब ज़रा अच्छी-सी ग़ज़ल लिख दें (यानी वैसी नहीं जैसी फ़ैज़ आम तौर से कहते हैं जो नवाब साहब को ज़्यादा पसंद नहीं आती थी) तो बड़ा अच्छा हो, और नवाब साहब उसे मुशायरे में पढ़ देंगे।’
मैंने फ़ैज़ को नवाब साहब का पैग़ाम पहुंचा दिया, और यह भी कह दिया कि इस लखनऊ वाले पर तुम्हारे कलाम का कोई रौब नहीं पड़ा है। अगर उसे ख़ुश रखना है तो उसके मतलब की कोई चीज़ कहो। फ़ैज़ बोले ‘भाई, तुम लखनऊवालों को ख़ुश करना मेरे लिए मुश्किल है। आखि़र मैं सियालकोट का पंजाबी हूं, लेकिन चलो, कोशिश करते हैं। अलबत्ता नवाब साहब से कह दो कि इसके एवज़ में हमारे लिए एक शराब की बोतल का इंतज़ाम करेंगे।’ (बोतल के दाम फ़ैज़ ने अदा किये थे) ।
न गुल खिले हैं; न उनसे मिले, न मय पी है अजीब रंग में अबके बहार गुज़री है
एक दिन में फ़ैज़ ने नवाब साहब की फ़रमाइश पूरी कर दी और यह ग़ज़ल लिखी:
तेरी सूरत जो दिलनशीं की है (दिल में बसायी है) आशना (परिचत) शक्ल हर हसीं की है
इस ग़ज़ल में नवाब साहब की पसंद के ये दो शेर थे:
शैख़ से बेहिरास (बेझिझक) मिलते हैं हमने तौबा अभी नहीं की है
ज़िक्रे-जन्नत, बयाने-हूर-ओ-कु़सूर (कु़सूर क़स्र का बहुवचन; अर्थात् महलात) बात गोया यहीं कहीं की है
नवाब साहब भी वादे के पक्के निकले। एक दिन शाम को चुपके से ‘जिन’ की एक बोतल जेब में रख लाये, और मेरे हवाले कर दी। गर्मियों के दिन थे। हमने बड़े तकल्लुफ़ से उसे शाम के वक़्त शरबत में मिलाकर पिया। लेकिन उस दिन के बाद फिर जेल में पीने से तौबा कर ली। शराब दरअस्ल आज़ादी और ख़ुशदिली के माहौल में पीने की चीज़ है। दिल कहीं भटके और जेलख़ाना, और अनगिनत अभावों के आलम में इसके असर से दिल की ख़राबी और बढ़ जाती है। इन हिक़ायतों और लतीफ़ों की तो पूरी किताब लिखी जा सकती है, और आप शायद उन्हें सुनकर बोर भी न हों। ... लेकिन मेरी राय में फ़ैज़ की शायरी से लुत्फ़ उठाने के लिए उसको इन वाक़िआत और परिस्थितियों और प्रेरणास्रोतों से जोड़ने की कोई ख़ास ज़रूरत नहीं है हालांकि इन्होंने रचनाप्रक्रिया में सहायता दी है; और यह कि उसका सृजन एक ख़ास सरज़मीन में पैवस्त होने के बावजूद, उससे अलग, भिन्न, और विशिष्ट है (भले ही इस शेरो-शायरी के प्रेरक तत्वों के रूप में वे उसका आवश्यक अंश हों)। लेकिन फ़ैज़ की सृजनात्मक प्रतिभा से गुज़रने के बाद उनका महत्व आंशिक मात्रा और दूसरे दर्जे का होकर रह जाता है; और जो चीज़ हमको मिलती है वह फ़ैज़ की रूह, उनका विशिष्ट व्यक्तित्व, और चिंतन और कल्पना-नियोजन का आश्चर्यजनक अछूतापन, और कला का अद्वितीय कौशल, हुस्न और लताफ़त और पाकीज़गी और पावन मूल्यों की एक अनंत खोज: जैसे बहार के मौसम में तरह-तरह के फूलों से रौशन किसी बाग़ में मिलीजुली अनजानी महक से भरी मादक हवाओं के हलके झोंकों में होती है। आप उसे महसूस कर सकते हैं, उनको पकड़ना और पहचानना मुश्किल है, इसलिए कि उनकी जैसी और कोई दूसरी चीज़ नहीं, और न ही कला के उत्कृष्ट रूप-जैसी है।