सच्चा दोस्त / लिअनीद अन्द्रयेइफ़ / सरोज शर्मा
व्लदीमिर जब रात को देर से अपने घर लौटते और दरवाज़े की घंटी बजाते, तो घंटी की आवाज़ के तुरंत बाद उन्हें अपने कुत्ते का भौंकना सुनाई देता। उन्हें कुत्ते के भूकने के स्वर ऊपर-नीचे होने से इस बात का अंदाज़ हो जाता था कि वह किसी अजनबी के घर में घुसने से डर रहा है या फिर अपने किसी क़रीब के व्यक्ति के घर लौटने पर ख़ुश हो रहा है। कुत्ते के भौंकने के बाद उन्हें दरवाज़े की तरफ़ बढ़ते क़दमों की आहट और अंत में दरवाज़े की कुंडी खुलने की चरमराहट सुनाई देती थी। घर में घुसते ही व्लदीमिर अँधेरे में ही अपने जूते और कोट उतारने लगते थे। उनकी चाची एक तरफ़ खड़ी होकर उनींदेपन में अनमनी सी उनके हाल-चाल पूछतीं और दूसरी तरफ़ उनका कुत्ता वास्युक गर्मजोशी से उनका स्वागत करता। वह पूँछ हिलाता हुआ उनके चारों तरफ़ चक्कर लगाता, उछलता हुआ अपने पंजें बार-बार उनके घुटनों पर टिकाता और अपनी गरम जीभ से उनके ठण्डे हाथ चाट-चाटकर गरम करता।
व्लदीमिर अपनी चाची के सारे सवालों का एक छोटा-सा जवाब देते, — ‘मैं थक गया हूँ’ और फिर अपने कमरे में घुस जाते। उनके पीछे-पीछे वास्युक भी उनके कमरे में आकर उनके पलंग पर चढ़ जाता। वे बत्ती जलाते और जैसे ही कमरे में रौशनी होती, व्लदीमिर साहब की निग़ाहें अपने कुत्ते की कजरारी आँखों से मिलतीं। वास्युक निग़ाहों ही निगाहों में उन्हें अपने पास बुलाता। उसे देखकर लगता कि वह कह रहा है — मेरे पास तो आओ ! आओ न मेरे पास, सहलाओ न मुझे ! इसके बाद वह उनका ध्यान पूरी तरह से अपनी ओर आकर्षित करने के लिए अपने आगे के पाँव सामने फैलाकर, उन पर अपना मुँह टेककर व्लदीमिर को एकटक निहारता रहता और अपनी पूँछ हिला-हिलाकर बार-बार ख़ुद को सहलाने का हठ करता। व्लदीमिर उसके पास आते, पलंग पर बैठते और उसके घने चमकीले बालों में हाथ फेरते हुए कहते — इस दुनिया में, बस, एक तू ही तो मेरा सच्चा दोस्त है !
जब व्लदीमिर वास्युक के पास बैठकर उसे सहलाते तो उसे बेहद मज़ा आता था और वह तेज़ी से अपनी पूँछ हिला-हिलाकर अपनी ख़ुशी ज़ाहिर करता था। वह अपने आपको एकदम ढीला छोड़कर कभी एक करवट लेटता तो कभी दूसरी, और बीच-बीच में किकियाता भी। कुत्ते को ख़ुशमिज़ाज देखकर व्लदीमिर ख़ुद भी ख़ुशी से मंद-मंद मुस्कुराते, उसे दुलारते और मन ही मन कहते — जितना तुम मुझे चाहते हो, इस दुनिया में कोई और दूसरा मुझे इतना नहीं चाहता !
व्लदीमिर अभी जवान ही थे और लिखने-पढ़ने में उनकी गहरी रुचि थी। वे लेखक बनना चाहते थे। जब कभी वे काम से घर जल्दी लौट आते और बहुत अधिक थके हुए नहीं होते, तो वे लिखने के लिए बैठ जाया करते थे। तब उनका कुत्ता भी अपने चारों पाँव और मुँह समेटकर, एक गठरी-सी बना उनके पास बैठा रहता था। वह नींद में ही कभी-कभी एक आँख थोड़ी-सी खोलकर उनकी तरफ़ देखता और धीरे-धीरे पूँछ भी हिलाता। व्लदीमिर को जब कोई शब्द भूल जाता था, तब वे कुर्सी से उठकर कुछ सोचते हुए कमरे में चहलक़दमी करते और एक के बाद एक दो-तीन सिगररेटें पी जाते। व्लदीमिर का बहुत अधिक सिगरेट पीना वास्युक को कतई नहीं सुहाता था। तब वह अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करने के लिए ज़ोर-ज़ोर से पूँछ हिलाकर किकियाता था।
उसकी बेचैनी देखकर व्लदीमिर वास्युक के पास आकर उससे बातें करते और उसे दुलराते हुए उससे पूछते — वास्युक, तुम्हें क्या लगता है, क्या मैं कभी जानामाना लेखक बन पाऊँगा ? क्या कभी हम दोनों को भी शोहरत मिलेगी ? इसके जवाब में कुत्ता अपने हाव-भाव से ’हाँ’ कहता और हिनहिनाता।
— यह हुई न बात, तो, मेरी जान, जब मैं मशहूर हो जाऊँगा तब तुम्हें ख़ूब गोश्त खिलाऊँगा। पेट भरकर खाना और मस्त हो जाना। ठीक है न ?
वास्युक को गोश्त बहुत पसंद था, इसलिए वह एक बड़ी-सी अंगड़ाई लेकर अपनी ख़ुशी ज़ाहिर करता ।
कभी-कभी व्लदीमिर के घर में दोस्तों की महफ़िलें जमती थीं। उन पार्टियों के इंतज़ाम का सारा बोझ चाची के सर पर पड़ता था। वे खाने के सामान से लेकर वोदका तक ख़रीदकर लाया करती थीं। अपनी जेब में पड़े चिकटे और मुड़े-तुड़े रूबलों में से कुछ खर्च करते हुए उन्हें बहुत दुख होता था। जब व्लदीमिर की महफ़िल जमती तो उसके दोस्त खाने के साथ-साथ वोदका पीते, हँसी-ठठ्ठा करते और सिगरेटों का धुआँ उड़ाते हुए ज़ोर-ज़ोर से बातें करते। वे सब के सब अपनी ज़िन्दगी से नाख़ुश थे। उन सभी को अपने नसीब से शिकायत थी और दूसरों की कामयाबी देखकर उनके मन में जलन होती थी। व्लदीमिर के कुछ दोस्त ऐसे भी थे, जो उन्हें लेखन का घटिया काम छोड़कर दूसरा कोई ऐसा काम शुरू करने की सलाह देते, जिससे अच्छी कमाई हो। उनके कुछ पियक्क्ड़ दोस्त उनके साथ सिर्फ़ जाम टकराने के लिए उनके पास आते थे, तो उनके कुछ मित्र ऐसे भी थे, जो उन्हें शराब से सेहत को होने वाले नुकसान के बारे में उन्हें नसीहतें देते। उनके ये मित्र उन्हें यह भी समझाते कि उनमें कोई अनोखी पहल करने की जो सनक-सी उठती है और समय-समय पर उन्हें अवसाद के जो दौरे पड़ते हैं, उन सबकी जड़ यह वोदका ही है।
एक बार व्लदीमिर के घर में महफ़िल जमी हुई थी। काफ़ी देर से उनके पियक्क्ड़ दोस्त वहाँ बैठे हुए थे और अपने घर जाने का नाम नहीं ले रहे थे। वे लोग घर जाने के बजाय किसी क्लब या शराबख़ाने में बैठकर मौज़-मस्ती करना चाहते थे। मेज़बान व्लदीमिर भी उनकी इस बात से सहमत थे। जब वे लोग बेबात ही ज़ोर-ज़ोर से हँसते हुए घर से शराबख़ाने के लिए निकल रहे थे, तब चाची को उनपर बहुत ग़ुस्सा आ रहा था। वास्युक भी व्लदीमिर को इस हालत में देखकर बेहद परेशान था और उसकी आँखें नम थीं।
अगली सुबह जब व्लदीमिर घर लौटे, तो उनका हाल बे-हाल था। उनकी टोपी कहीं खो गई थी और कपड़े धूल-मिट्टी में सने हुए थे। शराब के असर से वे अपने होशो-हवास में नहीं थे। वे अपने यार-दोस्तों के साथ गाली-गलौज कर रहे थे। उन्होंने बिना बात ही चाची को भी ख़ूब डाँटा-फटकारा। वे पहले भी कई बार इस तरह की हरकतें कर चुके थे। उनके ऐसे बरताव से चाची बहुत दुखी रहती थीं। कभी-कभी तो वे इतनी नाराज़ हो जातीं कि ख़ुदकुशी कर लेने की धमकी तक दे डालती थीं। व्लदीमिर अपने सबसे प्यारे दोस्त वास्युक को भी नहीं बख़्शते थे। वास्युक जब देखता कि व्लदीमिर के पाँव डगमगा रहे हैं, तो वह उनसे कतराने लगता था। व्लदीमिर जब उसे पास बुलाते तो वह उनके पास जाने के बजाय एक कोने में दुबककर बैठ जाता था। यह देखकर व्लदीमिर आग-बबूला हो जाते और उसे दो-चार बेल्टें जड़ देते और फिर सो जाते।
शाम के समय जब सुबह से काम पर गए लोग घर लौट रहे होते थे, तब व्लदीमिर साहब की आँखें धीरे-धीरे खुलतीं और उन्हें पहले दिन की शाम और रात का ख़याल आता। वे वोदका की खुमारी में होते। उनका सर दर्द से फट रहा होता, पाँवों में खड़े होने की ताक़त तक न होती थी। उनकी तबियत बहुत बिगड़ जाती थी। कभी-कभी तो हालत इतनी ख़राब हो जाती थी कि ऐसा लगता कि अब उनका अख़िरी समय दूर नहीं है। जिस कमरे में वे सोते थे उसी से सटी हुई रसोई थी। वहाँ से चाची के काम करने और बर्तन भांडों की आवाज़ पूरे घर में गूँजती। जब-जब व्लदीमिर का ऐसा हाल होता था, चाची उनका पूरा ख़याल रखतीं, पर अपनी नाराज़गी जताने के लिए उनसे बात नहीं करती थीं।
एक दफ़ा व्लदीमिर की तबियत काफ़ी बिगड़ गई। बिस्तर पर पड़े-पड़े वे छत पर एक धब्बे को ताकते हुए सोच रहे थे कि मेरा जीवन यूँ ही बरबाद हो रहा है। उनके दिल में ऐसे-ऐसे विचार आ रहे थे कि जीवन में न तो उन्हें कभी ख़ुशी मिलेगी और न ही शोहरत हासिल होगी। वे ख़ुद को एकदम अकेला और कमज़ोर महसूस कर रहे थे। तब उन्हें ऐसा लग रहा था कि इस भरी दुनिया में एक भी आदमी ऐसा नहीं है, जिसके साथ वे अपने ग़म, नाक़ामयाबी और ख़ुदक़ुशी करने जैसे पागलपन के दुखड़े को बाँट सके। वे अपने आप को धिक्कारते हुए कह रहे थे — ये जीना भी कोई जीना है… उन्हें अपनी ज़िन्दगी बेमानी लग रही थी।
रात में उन्हें बेहद तकलीफ़ हो रही थी। उनका माथा पसीने से तर था और वे रुआँसे-से हो गए थे। वे काँपते हुए हाथों से अपनी कनपटियाँ कसकर दबा रहे थे। उन्हें अपने बदन से वोदका और सस्ते चुम्बनों की बू आ रही थी। उनकी आँखें बंद थीं और मुँह से कराह निकल रही थी। पास में ही बैठा वास्युक उन्हें एकटक देख रहा था, उसके कान खड़े थे और वह उनकी लम्बी-लम्बी साँसें सुन रहा था। उसके हाव-भाव से ऐसा लग रहा था मानो वह उन्हें दिलासा देते हुए फुसफुसा रहा हो :
— मेरे प्यारे दोस्त ! तुम्हें क्या हो गया है ? क्या तुम बीमार हो गए हो ?
जब व्लदीमिर उस बीमारी से उबर रहे थे, तब उनके यार-दोस्त उन्हें देखने और उनका हालचाल पूछने उनके घर आया करते थे। कुछ लोग उन्हें प्यार से डाँटते और पीना छोड़कर अपनी सेहत का ख़याल रखने की सलाह देते।
धीरे-धीरे व्लदीमिर ने अपने पियक्क्ड़ दोस्तों से छुटकारा पा लिया और उनके घर अड्डा जमना बंद हो गया। पर वे एकदम अकेले हो गए। शोहरत की चाह और अपनी तन्हाई से मुक्ति की तलाश में वे ख़ुद से ही गुफ़्तगू करते और अकेले बैठकर पीते। इस वजह से उनकी रातें बेहोशी में और दिन मदहोशी में गुज़रने लगे। सुनसान घर में चाची के तेज़ क़दमों की आवाज़ें अक्सर सुनाई देतीं। और बिस्तर पर पड़े व्लदीमिर लम्बी-लम्बी साँस लेते हुए बुदबुदाते :
— मेरे प्यारे वास्युक ! तुम अकेले मेरे दोस्त हो !...
समय हमेशा एक-सा नहीं रहता। आख़िर व्लदीमिर के दिन भी पलटे और उनके लेखन को मान्यता मिलने लगी। ज़िंदगी में शोहरत उनके क़रीब आने लगी थी, जिसके वे अक्सर सपने देखा करते थे। उनके सुनसान घर में रौनक छाने लगी, फिर से संगी-साथियों के जमावड़े होने लगे। उनके शोर के बीच चाची के क़दमों की आवाज़ न जाने कहाँ ग़ायब हो गई और व्लदीमिर की तन्हाई भी छूमंतर हो गई। इन सबके साथ ही कुत्ते की फ़ुसफ़ुसाहट भी शांत हो गई।
शोहरत आने के साथ ही शराब का साथ भी छूट गया। अब व्लदीमिर लिखने में इतने मशगूल हो जाते कि न तो उन्हें वोदका पीने का ख़याल आता और न ही वे अपनी चाची को भला-बुरा कहकर उन्हें नाराज़ करते। अब उनपर शोहरत का नशा छाने लगा था।
व्लदीमिर की ज़िन्दगी में होने वाले इन नए बदलावों से वास्युक भी बेहद ख़ुश था। उन दोनों की दोस्ती और गहराने लगी थी। जब अपनी काम-काजी बैठकों के बाद व्लदीमिर शाम को ख़ुशमिज़ाजी में घर लौटते, तो वास्युक पहले की तरह तेज़-तेज़ भौंककर उनका स्वागत करता। उन्हें इतने अच्छे मूड में देखकर वह भी मुस्कुराता, उसने भी हँसना सीख लिया था। जब वह हँसता था तो उसका ऊपरी होंठ थोड़ा ऊपर उठ जाता, उसके सफ़ेद दाँत झलकने लगते और नाक के पास सलवटें पड़ जाती थीं। वह बहुत चुलबुला हो जाता और अपने मालिक के साथ खेलने के लिए आतुर हो उठता। उनके हाथ में जो भी चीज़ होती, वह उसे उनसे छीनकर, अपने होठों से पकड़कर ऐसे दिखाता, जैसे उसे लेकर कहीं भाग जाएगा। जैसे ही व्लदीमिर उसे पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाते, वह एक क़दम पीछे चला जाता और उसकी चंचल-कज़रारी आँखें चमक उठतीं। कभी-कभी व्लदीमिर हाथ से चाची की तरफ़ इशारा करके कुत्ते से कहते ‘काट इन्हें, काट ले, ओ कटखने !’। वास्युक सच में चाची के चारों तरफ़ चक्कर लगाता हुआ उन पर झपट्टा मारकर, अपने दाँतों से उनकी घघरी (स्कर्ट) थोड़ी-सी नीचे सरका देता। उसके बाद तिरछी निग़ाहों से वास्युक व्लदीमिर की ओर देखता। उसकी ये हरकतें देखकर बहुत कम हँसने वाली चाची भी मुस्कुराने लगतीं। वे उसे दुलराते हुए कहतीं — बहुत समझदार है हमारा वास्युक। बस, इसे सूप पीना ही पसंद नहीं है।
2
रात को पूरे घर में शांति छाई होती, बस, कभी-कभार जब कोई बड़ी गाड़ी सड़क पर से गुज़रती, तो खिड़की के काँच धीरे-से झनझनाने लगते। व्लदीमिर जब रात को देर क बैठकर लिखने का काम करते, तब कुत्ता उनके पास बैठा झपकी लेता रहता। व्लदीमिर के ज़रा-सा भी हिलने-डुलने से उसके कान खड़े हो जाते थे। तब वे उसकी तरफ प्यार से देखते हुए कहते — क्या है, भई ? क्या तुझे भूख लगी है ? क्या तू गोश्त खाना चाहता है ?
कुत्ता अपनी पूँछ हिलाता हुआ उनकी तरफ़ ऐसे देखता, मानो कह रहा हो — हाँ।
— हाँ, हाँ मैं तेरे लिए गोश्त ज़रूर ख़रीदूँगा। तू थोड़ा सब्र तो कर मेरे प्यारे, तुझे और क्या चाहिए ? तुझे सहलाऊँ क्या ! पर अभी तो नहीं सहला पाऊँगा। अभी मैं लिख रहा हूँ। तेरे साथ खेलने और तुझे दुलारने के लिए अभी मेरे पास समय नहीं है। जा अभी तो सो जा।
व्लदीमिर हर रात कुत्ते से गोश्त के बारे में पूछते और हर दिन उसे ख़रीदना भूल जाते। इसकी एक वजह यह थी कि उनके दिमाग़ में नई-नई रचनाओं के ख़याल तारी रहते थे और दूसरी बात उन्हें एक लड़की से मोहब्बत हो गई थी। अब वे हर समय या तो किसी रचना के बारे में सोचते या फिर अपनी माशूका के बारे में ही सोचते रहते थे। एक बार जब हाथ में हाथ डाले वे उसके साथ सैर कर रहे थे, तब एक दुकान के पास से गुज़रते समय उन्हें अपने कुत्ते के लिए गोश्त ख़रीदने का ख़याल आया तो, पर न जाने क्या सोचकर वे दुकान में नहीं घुसे। उन्होंने मज़ाक-मज़ाक में अपनी प्रेमिका को अपने कुत्ते वास्युक के बारे में बताया और उसकी सूझ-बूझ की ख़ूब तारीफ़ भी की। बातों-बातों में यह भी बताया कि जब वो ख़ुद बुरे दौर से गुज़र रहे थे, तब, बस, उसी को अपना अकेला दोस्त मानते थे। अँधेरी रातों में उसके साथ बतियाते हुए, उसे दुलराते हुए कई बार उससे यह वायदा किया था कि जब मेरे अच्छे दिन आएँगे, तब उसके लिए गोश्त खरीदूँगा …
उस लड़की ने हँसते हुए कहा—जनाब, आप महान हैं ! आपके क्या कहने, आप तो पत्थर में भी जान डाल सकते हैं ! महामहिम, आप मेरी एक बात ध्यान से सुन लीजिए कि मुझे कुत्ते ज़रा भी पसंद नहीं हैं। उनसे बीमारी होने का बहुत डर रहता है।
यह सुनकर व्लदीमिर ने चुपचाप हाँ में सिर हिला दिया। उस समय उन्हें अपने कुत्ते का ख़याल आया और यह भी याद आया कि वे उसके साथ खेलते समय कैसे उसे चूम लिया करते हैं, पर इस बारे में उन्होंने कुछ नहीं कहा।
एक शाम को जब व्लदीमिर घर वापस आए, वास्युक हमेशा की तरह दौड़कर उनके स्वागत के लिए दरवाज़े के क़रीब नहीं आया। चाची ने उन्हें बताया कि उसकी तबियत ख़राब है। यह सुनते ही व्लदीमिर को उसकी चिंता हुई और वे तुरंत उसे देखने के लिए उसके पास गए। वास्युक एक पतली-सी गद्दी पर एकदम उदास लेटा हुआ था। उसने व्लदीमिर को देखकर धीरे से पूँछ हिलाई। व्लदीमिर ने उसे छूकर देखा। उसका बदन और साँसें गरम थीं। व्लदीमिर ने कुत्ते को पुचकारते और सहलाते हुए कहा : — ओह ! बेटा तुम्हें तो बुखार हो गया ? तुम्हारा तो बदन जल रहा है। अब तुम आराम करो। ठीक हो जाओगे।
जवाब में कुत्ते ने धीरे से पूँछ हिलाई, उसकी कजरारी आँखें नम थीं।
व्लदीमिर ने मन ही मन कहा — वैसे तो इसे डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए, लेकिन मैं तो कल सारा दिन ही फँसा रहूँगा। खैर, कोई बात नहीं। ये ऐसे ही ठीक हो जाएगा।
अगले ही पल व्लदीमिर को अपनी महबूबा के साथ अगले दिन होने वाली मुलाक़ात का ध्यान आया और वे कुत्ते के बारे में भूलकर उसके बारे में और उसके साथ की जाने वाली मस्ती के बारे में सोचने लगे। अगले दिन शाम तक उसके साथ मौज़-मस्ती करने के बाद जब वे घर वापस आये, तो दरवाज़े के पास खड़े-खड़े थोड़ी देर तक दरवाज़े की घंटी का बटन ढ़ूँढ़ते रहे। और जब बटन मिल गया तो सोचते रहे कि इस बटन का करना क्या है ? जब उन्हें यह समझ आया कि घंटी बजाने के लिए बटन दबाना है… उन्हें ख़ुद पर हँसी आई।
— अरे भई दरवाज़ा खोलो ! मैं कब से खड़ा हूँ, दरवाज़ा खोलो !
आख़िर घंटी बजी। अंदर से दरवाज़े की तरफ़ बढ़ते क़दमों की आहट और अंत में दरवाज़े की कुंडी खोलने की चरमराहट भी सुनाई दी। व्लदीमिर मज़े में कुछ गुनगुनाते हुए सीधे अपने कमरे में चले गए और थोड़ी देर इधर से उधर टहलते रहे। इसके कुछ देर बाद उन्हें यह एहसास हुआ कि बत्ती भी जलानी चाहिए। बत्ती जलाकर, कोट उतारा और फिर एक जूता खोलकर, उसे हाथ में पकड़कर देर तक ऐसे निहारते रहे, मानो यह वही सुंदरी हो, जिसने उनसे दिन में अपने प्यार का इज़हार करते हुए कहा था — मुझे आपसे मोहब्बत है।
बिस्तर पर लेटने के बाद भी वे तब तक अपनी माशूका के बारे में सोचते रहे, जब तक उन्हें अपनी बग़ल में कुत्ते की काली चमकती हुई थूथन दिखाई नहीं दी। कुत्ते को देखकर व्लदीमिर के दिमाग़ की बत्ती जली और उन्हें यह सोचकर थोड़ी शर्म आई कि वे बीमार वास्युक के बारे में तो पूरी तरह से भूल ही गये थे। लेकिन जल्दी ही उन्होंने ख़ुद को यह कहकर समझा लिया कि कुत्ता बीमार है तो क्या हुआ ? वह तो पहले भी कई दफ़ा बीमार हो चुका है और फिर ठीक भी हो गया। उसे दिखाने के लिए डॉक्टर को कल घर बुलाया जा सकता है। अभी मुझे न तो बार-बार कुत्ते के बारे में सोचने की फुर्सत है और न ही इस बात पर पछताने की ज़रूरत है कि मैं इसके बारे में भूल गया था। इससे कुछ होना-वोना तो है नहीं, सिर्फ़ मेरी ख़ुशी ही कम होगी।
अगली सुबह वास्युक की हालत और बिगड़ गई। बुखार तो पहले से ही था अब उलटी और होने लगी। वह कभी भी घर में गन्दगी नहीं करता था। उलटी आने पर वह हर बार घर से बाहर निकला करता था। लड़खड़ाते हुए जब वह चलता तो ऐसा लगता था, मानो नशे में हो। उसके बाल हमेशा की तरह चमक रहे थे, लेकिन उसमें बिलकुल भी ताक़त नहीं थी, इसलिए उसका सर नीचे झुका हुआ था। उसे बीमारी से भी ज़्यादा कष्ट व्लदीमिर के बर्ताव से हो रहा था। पहले जब कभी वह बीमार होता था, तब व्लदीमिर अपनी चाची के साथ मिलकर उसकी पूरी देखभाल करते थे। वे ख़ुद उसका मुँह पकड़कर दवाई अंदर डालते थे, पर इस बार वह बहुत बुरी तरह से बीमार हो गया था और उसे बहुत तकलीफ़ हो रही थी और व्लदीमिर उसकी तरफ़ से लापरवाह थे। हालाँकि उसकी हालत उनसे देखी नहीं जा रही थी, लेकिन फिर भी उन्होंने उसे चाची के सहारे छोड़ दिया था। जब उसकी कमज़ोर और मार्मिक कराह उनके कानों में पड़ती, तो वे अपने दोनों हाथों से दोनों कान बंद कर लेते और यह याद करके हैरान भी होते कि वे उसे कितना प्यार करते थे।
शाम को घर से बाहर निकलने से पहले व्लदीमिर ने एक बार कुत्ते की ओर झाँककर देखा। तब चाची वास्युक के पास बैठी उसे सहला रही थी। कुत्ता पाँव फैलाकर एकदम बेहोश-सा गद्दी पर पड़ा हुआ था। वह हिल-डुल भी नहीं रहा था। उसे पास से देखने पर यह समझ में आ जाता था कि उसकी साँसें तेज़-तेज़ चल रही हैं और वह दर्द से कराह रहा है। जब व्लदीमिर धीरे-धीरे उसका सर सहला रहे थे, तब उसका कराहना तेज़ हो गया और ऐसा लग रहा था मानो वह उनसे शिकायत कर रहा हो। व्लदीमिर उसे पुचकारते हुए बोले — अरे भई ! तुम्हारा तो हाल काफ़ी ख़राब है। मुझे पता है कि तुम ठीक हो जाओगे। जब तुम्हारी तबियत ठीक हो जाएगी, मैं तुम्हारे लिए गोश्त खरीदूँगा। पास खड़ी चाची मज़ाक में बोली — मैं तो इसे सूप खिलाकर ही रहूँगी।
कुत्ता आँखें बंद किए वैसे ही लेटा रहा। चाची के मज़ाक से व्लदीमिर थोड़ा मुस्कुराकर जल्दी से घर से बाहर निकले और घोड़ागाड़ी में बैठकर चले गए। उन्हें इस बात का डर था कि कहीं वे अपनी महबूबा के पास देर से न पहुँचे।
हलकी-हलकी सरदी शुरू हो गई थी। बाहर हवा ताज़ा और साफ़ थी। पूनम की उस शाम आकाश में बहुत सारे तारे चमक रहे थे। एक ख़ूबसूरत लड़की अपने आशिक़ का इंतज़ार कर रही थी। गहरे अँधेरे कुएँ में चाँद की परछाई की तरह… प्यार में डूबे दो दिल अपने में मस्त थे। उन्होंने मिलकर बहुत अच्छा समय बिताया, ज़िन्दगी और सुख-दुख की ख़ूब बातें कीं।
व्लदीमिर जब रात को घर वापस लौट रहे थे, तब वे ख़ुशी से सातवें आसमान पर थे। जब वे घर पहुँचने वाले थे तब उन्हें अचानक अपने कुत्ते का ध्यान आया और उनके दिल में एक टीस-सी उठी। जैसे ही चाची ने दरवाज़ा खोला उन्होंने पूछा :
— हमारा वास्युक कैसा है ?
— वह तो ख़तम हो गया। तुम्हारे जाने के एक घंटे बाद उसने दम तोड़ दिया।
मरे हुए कुत्ते को चाची जंगल में दफ़ना आई थीं। वैसे भी व्लदीमिर कुत्ते की लाश नहीं देखना चाहते थे क्योंकि उनके लिए उसे देखना बेहद दर्दनाक होता। घर में सन्नाटा छाया था। व्लदीमिर थोड़ी देर आँखें बंद करके चुपचाप बैठे रहे, परन्तु जैसे ही वे सोने के लिए लेटे, अचानक उनकी रुलाई फूट पड़ी। उन्हें इस बात की ग्लानि हो रही थी कि जब उनका एकमात्र सच्चा दोस्त यहाँ घर में अकेला मर रहा था, उस वक़्त वे एक लड़की को चूम रहे थे। उन्हें यह सोचकर रोने से भी डर लग रहा था कि यदि चाची को मालूम चलेगा कि वे कुत्ते को याद करके रो रहें हैं तो वे उनके बारे में क्या सोचेंगी।
व्लदीमिर के सच्चे और वफ़ादार दोस्त वास्युक को गए काफ़ी समय बीत चुका था। जैसे यकायक उन्हें लेखन में शोहरत मिली थी वैसे ही एक झटके में उनकी शोहरत के दिन बीत गए। उनके पाठकों ने उनसे बड़ी उम्मीदें लगाई थीं, पर अब उन सब पर पानी फिर गया था। कहते हैं न कि मुसीबत अकेले नहीं आती। पाठकों ने बड़ी जल्दी उन्हें भुला दिया और उनकी माशूका ने भी उनसे मुँह मोड़ लिया। उस लड़की को लगा कि उनके साथ दोस्ती करके उसने बड़ी भूल की थी।
व्लदीमिर की रातें फिर से बेहोशी में और दिन मदहोशी में गुज़रने लगे। सुनसान घर में चाची के तेज़ क़दमों की आवाज़ें पहले से भी ज़ोर से सुनाई देतीं। और बिस्तर पर पड़े व्लदीमिर लम्बी-लम्बी साँस लेते हुए बुदबुदाते :
— मेरे प्यारे दोस्त ! तुम मेरे अकेले दोस्त हो !...
व्लदीमिर अपना कमज़ोर हाथ कुत्ते के सिर पर फेरने के लिए नीचे लाते, पर उनका अकेला सच्चा दोस्त वास्युक वहाँ नहीं होता।
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : सरोज शर्मा
भाषा एवं पाठ सम्पादन : अनिल जनविजय
मूल रूसी भाषा में इस कहानी का नाम है —’द्रूक’ (Леонид Андреев — Друг)