सच्चा मित्र पश्मीना शाल है / बुद्धिनाथ मिश्र
जब-जब मैं अपने एक कवि मित्र को अन्नाटीम के मंच पर हुक्के की तरह माइक को एक हाथ से दूसरे हाथ में थमाने का राष्ट्रीय कार्य करते देखता हूँ, बाबा भारती की तरह मेरे मन में एक हूक-सी उठती है। पूरे देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने के लिए पिला हुआ वह मेरा मित्र सन् २००६ की आखिरी रात सिद्धार्थनगर के कविसम्मेलन के मंच का संचालन कर रहा था। उसने थोड़ी देर ओढ़ने के लिए मेरी पश्मीना शाल ली थी, जो आजतक नहीं लौटायी। वह शाल सचमुच अंगूठी से निकल जाती थी और नर्म-गर्म इतनी कि शरीर के जिस अंग से छू जाए, वह निहाल हो जाता था। वह शाल मुझे एक हजार साल की हिन्दी कविता के संकलन के उपलक्ष्य में कलकत्ता के ही एक सुसंस्कृत परिवार से सम्मान-स्वरूप मिली थी। वैसे, सरस्वती की कृपा से शालें तो मास में दो-चार मिल ही जाती हैं, बल्कि काव्यप्रेमी राजनेता मुलायम सिंह के सैफई गाँव के कवि सम्मेलन में तो हर कवि को रेमण्ड की पश्मीना शाल दी जाती है, मगर जो वस्तु जितनी मिहनत से प्राप्त होती है, उसके प्रति भावनात्मक लगाव भी उतना ही अधिक होता है। वह शाल कश्मीरी शिल्पकारों के हाथ की बुनी हुई थी। मेरे विश्वासी मित्र की अशोक वाटिका में जानकी की तरह बिसूर रही होगी उस शाल को पाने के लिए न जाने कितनी रातों की नींद मुझे गँवानी पड़ी।
बुजुर्ग लोग कहते हैं कि सच्चा मित्र पश्मीना शाल है--भाररहित, मुलायम, गर्म और दुर्लभ। जैसे पश्मीना शाल की देखभाल हमेशा की जाती है, उसी तरह सच्चे मित्र की भी हमेशा देखभाल की जानी चाहिए। मेरे लिए वह पश्मीना शाल किसी मित्र से कम नहीं थी। मेरे चारो ओर एक से एक कीमती शाल (वृक्ष) हैं, मगर पुरुष मित्र स्त्री मित्र की बराबरी कैसे कर सकता है? वह भी जाड़े के दिनों में!
भारत में उत्तम मित्र वह है जो अपनी दोस्ती का इजहार नहीं करता। जो आप बोलते हैं, आपका मित्र सुनता है, मगर आपका जिगरी दोस्त वह सुनता है, जो आप नहीं बोलते हैं। पश्चिमी देशों में कदम-कदम पर मित्र-भाव का प्रकटीकरण जरूरी माना जाता है। इसीलिए यूरोपीय देशों में ट्रेनों में, बसों में, पार्कों में, सड़कों पर, सार्वजनिक स्थलों पर युवक-युवतियाँ बाँहों में बाँहें डाले या कमर में हाथ डाले, एक दूसरे का आलिंगन करते, गालों पर चुम्बन लेते दिख जाएंगे। यह भारत के लिए भले ही अजूबा हो, मगर विदेशों में यह मैत्री की अभिव्यक्ति का अतिसामान्य और अनिवार्य कायिक माध्यम है। हमारे यहाँ ही नहीं , कई पश्चिमी देशों में भी मैत्री को वासना-रहित माना जाता रहा है। मगर अब शरीर की पवित्रता से कहीं ज्यादा मन की अंतरंगता को महत्व दिया जाने लगा है। अंतरंग मित्रों के लिए साथ और सहवास में इतना फर्क नहीं है, कि वह कोई मसला दोनों के बीच बने। भूमंडलीकरण और उदारीकरण के प्रभाव से भारत में भी सार्वजनिक स्थानों पर युवक-युवतियाँ ऐसी मुद्रा में दिख जाएँगी, जो अश्लील और वर्जित मानी जाती रही है। बीती सदियों में स्त्रियों के सामान्यतः घर में कैद रहने के कारण स्त्री-पुरुष के बीच मैत्री ज्यादा लम्बी नहीं चलती थी, क्योंकि मित्रता की लता को लतरने के लिए दरस-परस की सावनी झींसी आवश्यक है। इसीलिए अंग्रेज़ी में भी ‘बायफ़्रेंड’ और ‘गर्लफ़्रेंड’ यानी कच्ची उमर की दोस्ती के ही शब्द हैं, ‘वीमनफ़्रेंड’ या ‘मैनफ़्रेंड’ जैसे शब्द नहीं बन पाये। अब जब उद्योगीकरण के व्यापक प्रभाव से स्त्री-शिक्षा बढी़ है और उसके फलस्वरूप स्त्रियों की आबादी कार्यालयों में बढ़ने लगी है, तब स्त्री-पुरुष मैत्री यानी पकी उमर की दोस्ती भी बढ़ रही है। पार्टनरशिप की गृहस्थी इन दिनो जोरों पर है। जो समुदाय जितना आधुनिक है, वह समाज मित्रता के संदर्भ में धर्म-जाति-लिंग आदि की हदबंदियों को तोड़ने में उतना ही अग्रसर है।
वैसे, संस्कृत में मित्र शब्द सूर्य का पर्यायवाची भी है। द्वादश आदित्यों में एक आदित्य मित्र है। ब्रह्मा के पौत्र और मरीचि के मानस पुत्र कश्यप ऋषि की सात पत्नियाँ थीं, जिनमें अदिति से आदित्य उत्पन्न हुए और दिति से दैत्य। एक पिता के पुत्र होते हुए भी आदित्य और दैत्य दो विपरीत ध्रुव थे। मित्र और शत्रु भी दो विपरीत ध्रुव हैं। जातक की कुंडली में कोई ग्रह मित्र गृह में हैं या शत्रु गृह में, इससे बडा़ फ़र्क पड़ता है। जैसे एक सूर्य पूरे जग को आलोकित कर देता है, वैसे ही एक मित्र पूरे जीवन को आलोकित कर सकता है। जैसे सूर्य धरती का मित्र है, वैसे ही मित्र धरती का सूर्य है। किसी के जीवन को सफल या विफल बनाने में उसके मित्रों का बहुत बडा़ हाथ होता है। पहले बालकों को निर्देश दिया जाता था कि जीवन में यदि उन्नति करनी है तो ‘मित्रवान’ बनो, क्योंकि ‘मित्रहीन’ जीवन एक अंतहीन दंड है। इसीलिए पहले की शिक्षा-पद्धति में बच्चों को पंचतंत्र का ‘मित्रलाभ’ पढा़या जाता था, जिसमें अच्छे मित्र की पहचान बतायी गयी है। उन्हें यह भी कहा जाता था कि अपने साथियों में लडा़ई भी करो तो मित्रवत् न कि शत्रुवत्। ऐसे युद्ध के लिए एक अलग नाम ही दिया गया था-‘मैत्रेयिका’ यानी नूरा कुश्ती। शास्त्रों में ‘मित्रघ्न’ होना अर्थात् दोस्त के साथ विश्वासघात करना जघन्य पाप माना गया है। भारतीय भाषाओं में मित्रों की संख्या के आधार पर भी कुछ शब्द बने हैं, जैसे दो मित्रों की जोड़ी को ‘दुकडी़’ और चार मित्रों की जोडी़ को ‘चौकडी़’ कहते हैं। परिचितता (परिचय) मित्रता की पहली सीढी़ है और अन्योन्यता (परस्पर निर्भरता) उसकी संजीवनी। सौमनस्य मित्रता को बढा़ता है और वैमनस्य शत्रुता को चढा़ता है। मित्रता में परस्पर विश्वास जितना जरूरी है, उससे कहीं ज्यादा जरूरी है आपसी समझ।
मैत्री के दीर्घायुष्य के लिए पारस्परिक प्रेम, अपनत्व, ज्ञान और आदर- भाव इन गुणों का होना आवश्यक है। आवश्यकता पड़ने पर या संकट आने पर जो सहायता के लिए अविलम्ब हाथ बढा़ए, वह मित्र है। अरस्तू ने मैत्री को व्यापक अर्थ में ‘फीलिया’ नाम दिया है। उन्होंने गुणवत्ता के आधार पर मित्रता के कई स्तर भी निर्धारित किये हैं, जैसे आर्थिक सरोकार वाले मित्र, मौज -मस्तीवाले मित्र और वे मित्र जिनके साथ आप सद्गुणों का अनुगमन करें। निश्चय ही, सिसरो मित्रता के लिए सचाई और ईमानदारी को बेहद जरूरी मानते हैं। ईसाई कथाओं में ईसा मसीह उस व्यक्ति को धन्य मानते हैं जो अपना जीवन किसी मित्र के लिए निछावर कर देता है।
सच्चा मित्र वह है जो अपने मित्र की सफलता से खुश हो और उसकी विफलता से दुखी। एक पुराना मित्र बनने में सालों लग जाते हैं, इसलिए एक सच्चा मित्र शालवृक्ष की तरह है। वह जितना पुराना होगा, उतना ही कीमती होगा। लोगों का कहना है कि नये मित्र बनाओ, मगर पुराने की उपेक्षा मत करो, क्योंकि पहला चाँदी है तो दूसरा सोना।अब्राहम लिंकन किसी के जीवन की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि उसकी मैत्री को ही मानते थे। सामान्यतः मैत्री समान वय और समान स्तर पर ही होती है, मगर बौद्ध लोग एक ‘कल्याण-मित्र’ भी मानते हैं जिसमें एक अभिज्ञ और दूसरा अल्पज्ञ होता है। भगवान बुद्ध सभी भिक्षुओं के कल्याण-मित्र थे।
मित्रों के प्रकार भी कई हैं। कुछ पत्र-मित्र होते हैं जो आपस में शायद ही कभी मिल पाते हैं। इन दिनों इंटरनेट ने भी मित्र बनाने का पुनीत कार्य करना शुरू कर दिया है। इंटरनेट की मैत्री देश की हदों को अक्सर पार भी कर जाती है। मोबाइल की मैत्री आसपास के सीवानों को ही छू पाती है। जिगरी दोस्त वे हैं जिनके बीच कोई रहस्य छिपा नहीं होता है। हालाँकि ‘कामरेड’ शब्द भी मैत्री का ही पर्याय है, मगर इसका प्रयोग ज्यादातर सेना में या बामपंथी राजनीतिक मुहाल में होता है।खास बात यह है कि जो कामरेडशिप युद्ध के समय महसूस की जाती है, वह दोस्ती नहीं है। कवि बिहारी के एक दोहे का सहारा लें तो कह सकते हैं कि प्रचंड गर्मी से(दीरघ दाघ निदाघ) बचने के लिए ‘अहि-मयूर मृग-बाघ’ भले ही कुछ देर एक साथ रह लें , मगर स्थिति सामान्य होते ही उनके बीच की जातिगत शत्रुता फिर उभर आएगी। मित्रता में वह ताकत है कि वह दो विपरीत दिशाओं को एक में जोड़ दे। अंग्रेज़ी में ‘ओपेन’ का विलोम ‘क्लोज’ है, मगर जो दोस्त जितना क्लोज है, वह उतना ही एक दूसरे के प्रति ओपेन है। सच्चे दोस्त ‘दो तन एक मन’ होते हैं। जैसे झरने का पानी जाड़े के दिनों में भी नहीं जमता, उसी तरह सच्ची दोस्ती गर्दिश के दिनों में भी अवरुद्ध नहीं होती।
हम सभी एकपंखी देवदूत हैं। हम तबतक उड़ नहीं सकते, जबतक कि कोई दूसरा पंख हमसे नहीं जुड़ता है। जब सन्नाटा सुहाना लगे तब समझ लें कि आपके आसपास आपका मित्र मौजूद है। ऐसे दोस्त एक-दो ही होते हैं। बहुत सारे दोस्त होने का मतलब है कि कोई भी गहरा दोस्त नहीं है। मैत्री में या तो झील का विस्तार पाइये, या कुएँ की गहराई। कुएँ का क्षेत्रफल कभी बडा़ नहीं होता है। एक सच्चा मित्र एक हज़ार रिश्तेदारों से बेहतर है। हालाँकि मित्रता में भी प्रेम होता है, मगर ‘लव’ के अर्थ में प्रेम अंधा होता है, जबकि मित्रता आँख मूँद लेती है, आपकी बुराइयों की ओर से। प्रेम दर्द देता है, जबकि मैत्री भावनात्मक सम्बल।
सच्चा मित्र आपको यानी आपकी अच्छाइयों और बुराइयों को आपसे ज्यादा जानता है, फिर भी आपको चाहता है।मेरी वह पश्मीना शाल इसीलिए पूरी गर्मजोशी से मुझे अपने अँकवार में भर लेती थी।