सच्चे रंग / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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मां तुम कभी होली नहीं खेलती। आज तो मैं तुम्हें गुलाल लगाकर ही रहूंगा। मैंने सोमू को बहुत मना किया, नहीं माना तो गुस्से में डांट भी दिया। गुलाल हाथ में लिए वह उदास हो गया, फिर मुझसे ही रहा नहीं गया। उसे मनाया और कहा "बेटा मुझे नहीं पसंद रंग-गुलाल।" वह बोल उठा "मां क्या तुम बचपन से ही ऐसी हो बोरिंग-सी, सभी दोस्तों की माँ तो हंसती हैं, रंग खेलती हैं और एक तुम हो जो बस चुपचाप-सी घर के कामों में लगी रहती हो, बोलो न माँ क्या तुमने कभी रंग नहीं खेले?"

" ऐसा नहीं है रे, तेरी माँ पहले ऐसी बोरिंग टाइप की नहीं थी। उल्टे मुझे तो सिर्फ़ होली का त्यौहार ही पसंद था। अतीत के पन्ने जैसे एक झटके में फडफ़ड़ाने लगे और यादों की नदी बहने लगी। मैं जब तेरी उम्र की थी, बहुत खुशमिजाज थी। हमेशा हंसना और हंसाना काम था मेरा, दोस्तों की एक टोली हमेशा मेरे पीछे चलती थी। मैं सबकी लीडर। पूरे मोहल्ले की रौनक हुआ करती थी मैं। जिस रात होलिका दहन होता, उस रात हम पूरी रात जागते, लड़के-लड़कियाँ मिलकर होलिका बनाते, हमारे समूह में लड़के ज़्यादा लड़कियाँ कम ही थी। लड़के लकडिय़ां खरीदकर लाते और हम सब लड़कियाँ उस स्थान को गोबर से लीपकर रंगोली बनाकर सजाती, गोबर से बनी गुलेरियों की माला हर घर से आती थी। जब तक होलिका को रंग नहीं चढ़ता, कोई भी बच्चा रंग नहीं खेलता था। होलिका कि पूजा के बाद प्रसाद बंटता और शगुन का टीका लगाया जाता और फिर इंतज़ार होता अगले दिन का, लगता कब सुबह हो और धुलंडी शुरू हो।

हर रंग मुझे प्रिय था हरा, पीला, गुलाबी, बैंगनी, सब रंग, लेकिन मुझ पर गुलाबी रंग ख़ूब जंचता था। कई दिनों तक उसे जानबूझकर ठीक से साफ़ नहीं करती थी। स्कूल भी जाती तो जानबूझकर बाल और गाल गुलाबी करके ही जाती। धुलंडी के दिन मस्ती शबाब पर होती। हर घर से सहेलियों को निकालना और रंग देना और फिर अपनी टोली में शामिल करके अगले मिशन की ओर बढऩा। हमारी टोली में लड़के और लड़कियाँ सब होते थे। कभी खयाल ही नहीं आया कि ये लड़का है और हम लड़कियाँ और न परिवार वालों ने ही कभी टोका कि लड़कों से दूर रहो। हम आपस में दोस्त थे बस और हमारी मस्तियाँ साझा थी। मुझे कोई रंग नहीं लगा पाता था, रंग लगाना भी एक कला, एक हुनर माना जाता था, उसमें चपलता, चतुराई और चालाकी होती थी। सामने वाले को चकमा देकर उसके रंग को उसी पर पोत देना ये हुनर मेरी टोली में बस मुझे ही आता था। न भूख, न प्यास, न कोई चिंता न फ़िक्र दिन में दो-तीन बजे घर वापस आते तो बाबूजी से छिपकर मानो कोई गुनाह कर दिया हो और जल्दी से नहाकर कपड़े बदलकर किताबें उठा लेते, लेकिन शाम तक फिर कोई न कोई रिश्तेदार घर पर ज़रूर आ जाता और हम सभी को रंग से सराबोर कर देता। माँ और हम कई दिनों तक घर को साफ़ करते रहते थे। होली पर बदरंग हुई दीवारें दिवाली तक ही साफ़ हो पाती थी।

समय कितनी जल्दी बीत गया, पता ही नहीं चला, हम सभी दोस्त धीरे-धीरे बिछड़ गए। कोई पढऩे विदेश चला गया, किसी का ट्रांसफर हो गया। मेरे बाबूजी ने मेरी शादी करवा दी। मेरी सभी सहेलियों में सबसे पहले मेरी शादी हो गई। वह भी मेरे शहर से बहुत दूर, एक बार शादी हो जाने के बाद मैं कभी फिर पलटकर अपने मायके नहीं आई और बचपन के बिछड़े दोस्त फिर जि़न्दगी में कभी नहीं मिले। जि़न्दगी कभी-कभी आपकी हंसी, आपकी खिलखिलाहट को चुरा लेती है। मैं फिर कभी नहीं हंस सकी और न वैसे खिलखिला सकी। ससुराल में सबसे बड़ी बहू थी। ससुराल के रिवाज़ नियम अलग थे। एक बड़ी-सी जेल में मेरे जैसी बहुत-सी स्त्रियाँ रहती थी। जो $खामोशी से अपने काम करती थी। हंसना तो जैसे उस घर में गुनाह था। उनके सुन्दर चेहरों पर कभी मुस्कान नहीं आती थी। ससुराल में जब पहली होली आई तो मैंने होलिका दहन की रात ही तय कर लिया था कि कल सुबह पूरे परिवार को अपने रंग में रंग दूंगी।

सुबह जल्दी उठकर जैसे ही रंग लेकर अपने देवर को रंग लगाने गयी, ससुर जी सख्त लहजे में बोले "कहाँ जा रही हो? हमारे यहाँ घर की बहुएँ होली नहीं खेलती।"

"लेकिन होली तो मेरा प्रिय त्यौहार..." मेरी बात बीच में काटकर वे बोले "जाओ रसोई घर में जाओ, आज मेहमानों का खाना है।" हम सब बहुएँ दिनभर रसोई घर में स्वादिष्ट व्यंजन बनाती रहीं। घर के सभी मर्द अपने दोस्तों के साथ होली मनाने बाहर चले गए और देर रात बेसुध होकर घर लौटे और पलंग पर ढेर हो गए। होली के लाल पीले नीले रंग मुझे उदासी से देखते रहे।

ये सिलसिला जीवनभर चलता रहा। मेरे जीवन में कभी होली नहीं आई... बचपन की होली, बचपन के दोस्त बहुत याद आते रहे, कैसे होंगे वे, क्या उनके जीवन से भी रंग ऐसे रूठे होंगे? क्या वे जानते होंगे कि रंगों की दीवानी मैं कैसे बेरंग हो गई। होली तो हर बरस आती रही, लेकिन मन हरा-गुलाबी कभी नहीं हो पाया। जीवन में कोई कमी तो नहीं थी, लेकिन रंग भी नहीं थे। समय बीत रहा था और इच्छाएँ मर रही थी। जब हम अपनी इच्छाओं के कोमल धागों को तोड़ देते हैं न तो मन की धरती बंजर होती जाती है। ऐसे ही मैं भी हो गयी। अब कोई रंग नहीं भाता और न किसी बात पर हंसी आती है। हाँ पहले रंगों से बड़ी मुहब्बत थी मुझे, अब अच्छे नहीं लगते, वे रंग कितने कच्चे थे न जो उतर गए, आंखों का काजल कितना गहरा था कि सब रंग धुल गए उसके बहाव में है न?

सोमू, खामोशी से मेरी बात सुन रहा था। उसने मुस्काते हुए कहा, आज से आप हर रोज़ होली मनाएंगी "कैसे?" मैंने हैरानी से पूछा। बोला ये लीजिये ब्रश और रंग, रंगों से मुहब्बत है न आपको, बस अब पेंटिंग शुरू कीजिये। ये रंग कच्चे नहीं मां, ये सच्चे रंग हैं भावनाओं के, अहसासों के ...ये कभी नहीं उतरते और न ये कभी धुलते हैं और इन्हें आपसे कोई नहीं छीन सकता।