सच पर मर मिटने की ज़िद / भारत यायावर
हिन्दी सिनेमा को जिन कुछ गीतकारों ने गरिमा और गहराई प्रदान की है, उनमें शैलेन्द्र प्रथम स्थानीय हैं। उनका योगदान अविस्मरणीय है। उनके गीत आज भी ताज़ा और बेमिसाल हैं। समय की धूल भी उन्हें धूमिल नहीं कर पाई।
जनकवि नागार्जुन ने शैलेन्द्र की स्मृति में एक कविता लिखी है — गीतों के जादूगर का मैं छन्दों से तर्पण करता हूँ —
सच बतलाऊँ तुम प्रतिभा के ज्योतिपुत्र थे, छाया क्या थी,
भली-भांति देखा था मैंने, दिल ही दिल थे, काया क्या थी।
जहां कहीं भी अंतरमन से, ऋतुओं की सरगम सुनते थे,
ताज़े कोमल शब्दों से तुम रेशम की जाली बुनते थे।
जन मन जब हुलसित होता था, वह थिरकन भी पढ़ते थे तुम,
साथी थे, मज़दूर पुत्र थे, झण्डा लेकर बढ़ते थे तुम।
युग की अनुगुँजित पीड़ा ही घोर घनघटा-सी गहराई
प्रिय भाई शैलेन्द्र, तुम्हारी पंक्ति-पंक्ति नभ में लहराई।
तिकड़म अलग रही मुस्काती, ओह, तुम्हारे पास न आई,
फिल्म जगत की जटिल विषमता, आखिर तुमको रास न आई।
ओ जन मन के सजग चितेरे, जब जब याद तुम्हारी आती,
आँखें हो उठती हैं गीली, फटने सी लगती है छाती।
शैलेन्द्र की लोकप्रियता का राज यह है कि वे जीवन और समय की नब्ज़ पर हाथ रखने वाले गीतकार थे। वे सामान्य मनुष्य की पीड़ा को अभिव्यक्त करते थे। उनके गीतों की भाषा में अलंकार नहीं मिलेगा। सीधे-सादे शब्द।सरल वाक्य-संरचना। बातचीत या संवाद की शैली। दो टूक कहने का अंदाज़। फिर भी अर्थ-गरिमा और भाव-गांभीर्य से भरा कथन। दिल को छू लेने वाला। जनता के भावों को अभिव्यक्ति देने वाला।
शैलेन्द्र अपने एक गीत में अपनी अभिलाषा को उजागर करते हैं —
सुनसान अंधेरी रातों में, जो घाव दिखाती है दुनिया
उन घावों को सहला जाऊं, दुखते दिल को बहला जाऊँ
सुनसान मचलती रातों में, जो स्वप्न सजाती है दुनिया
निज गीतों में छलका जाऊं, फिर मैं चाहे जो कहलाऊँ
बस मेरी यह अभिलाषा है।
इसी अभिलाषा के कारण शैलेन्द्र महान् गीतकार हो सके, जनकवि बन सके। सिनेमा में — जहाँ हर प्रकार की कला बिकती है या कहें कि कहानी, गीत, संगीत आदि कलाओं का यह एक बहुत बड़ा बाज़ार है — शैलेन्द्र के गीत अपनी साहित्यिकता और गरिमा बरकरार रख सके। उन्होंने जन-जीवन के स्वप्न, आकाँक्षा और पीड़ा को ऐसी वाणी दी, जो आज भी अमर है।
राज कपूर ने शैलेन्द्र के विषय में सही लिखा है — ‘‘उन्होंने पैसों के लोभ में गीत कभी नहीं लिखे...जब तक उनके अपने अन्तर्भावों की गूँज नहीं उठती, तब तक वे नहीं लिखते थे।’’ अर्थात् शैलेन्द्र के गीत व्यावसायिकता के एक बड़े क्षेत्र में अन्तर्आत्मा की आवाज थे. उनमें चिन्तन है, मनन है, दर्शन है, विचार है, आध्यात्मिकता है, कम शब्दों में बड़ी बात कहने की कला है। मर्म को छूने वाली हृदय की बात है। सच्चाई, सफाई, ईमानदारी और सादगी है।
शैलेन्द्र दिल की बात कहते थे और उसे संवेदनशील मनुष्य ही सुन सकता था, ग्रहण कर सकता था। झूठ, फरेब से उन्हें घृणा थी। सच पर मर मिटने की ज़िद। भले ही अनाड़ी या मूर्ख समझ लिये जाएँ, यह स्वीकार है। उनका काम है दर्द बांटना, लोगों के लिए प्यार रखना — यही वास्तविक रूप में जीने की कला है। जीना इसी का नाम है। यही कारण है कि शैलेन्द्र आम जनमानस में अपनी जगह बना सके। उन्होंने हिन्दुस्तानी दिल की पहचान की और उसे अभिव्यक्ति दी।
शैलेन्द्र के पिताजी केसरीलाल दास बिहार के रहने वाले थे। वे फौजी थे। वे जब रावलपिण्डी में पदस्थापित थे, तब वहीं 30 अगस्त, 1923 ई० में शैलेन्द्र का जन्म हुआ। उन्होंने शैलेन्द्र का नाम रखा शंकरलाल दास। जब उनका पाठशाला में नामांकन हुआ तो नाम लिखा गया — शंकरलाल केसरीलाल दास। अवकाश प्राप्ति के बाद शैलेन्द्र के पिताजी मथुरा में रहने लगे. शैलेन्द्र का बचपन, शिक्षा-दीक्षा सब मथुरा में ही हुआ। वे स्कूली जीवन से ही कविता लिखने लग गये थे। उन्होंने अपना कवि-नाम शैलेन्द्र रखा। अब पूरा नाम हो गया शंकरलाल केसरीलाल दास शैलेन्द्र। बाद में अपना दो शब्दों का नाम रखा — शंकर शैलेन्द्र।
मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद 1942 ई० में रेलवे में इंजीनियरिंग सीखने वे बम्बई आए। 1942 ई० के अगस्त क्रांति में वे शरीक हो गए और जेल गए। जेल से बाहर आने के बाद वे रेलवे में नौकरी करने लगे और इप्टा के थियेटर में काव्य-पाठ।
1947 ई० में राज कपूर एक बार अपने पिता पृथ्वीराज कपूर के साथ इप्टा के थियेटर में गए और उन्होंने शैलेन्द्र को काव्य-पाठ करते सुना। शैलेन्द्र सुमधुर कंठ से गा रहे थे — ‘‘मोरी बगिया में आग लगा गयो रे गोरा परदेशी...’’
राज कपूर उनसे बेहद प्रभावित हुए। उस वक्त राज कपूर अपनी पहली फिल्म बना रहे थे — ‘आग’। उन्होंने शैलेन्द्र से अपनी इस फ़िल्म के लिए गीत लिखने को कहा, लेकिन शैलेन्द्र ने इन्कार कर दिया। उन्होंने राज कपूर से दो टूक शब्दों में कहा — ‘‘मैं पैसे के लिए नहीं लिखता।’’
राज कपूर को शैलेन्द्र का यह अन्दाज़ लुभा गया। उन्होंने शैलेन्द्र को कहा कि अच्छी बात है, कभी इच्छा हो तो मेरे पास आइएगा।
उस ज़माने में भी लोग फ़िल्मों में जाने के लिए लालायित रहते थे, पर एक नौजवान कवि का पैसे के लिए नहीं लिखने की प्रतिज्ञा, मामूली बात नहीं थी। उस समय शैलेन्द्र में विद्रोही चेतना थी। अन्तर्मन में आग थी। जनवादी ओजस्विता थी। उनके गीत वामपंथी तेवर के थे। कुछ को बानगी के तौर पर उन्हें यहां प्रस्तुत किया जा रहा है —
वे अन्न-अनाज उगाते
वे ऊँचे महल उठाते
कोयले-लोहे-सोने से
धरती पर स्वर्ग बसाते
वे पेट सभी का भरते
पर खुद भूखों मरते हैं.
यह श्रमजीवी वर्ग के जीवन की त्रासदी को अभिव्यक्ति करने वाली पंक्तियाँ हैं। दूसरी कविता भगत सिंह को संबोधित —
भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की
देशभक्ति के लिए आज भी सज़ा मिलेगी फांसी की
यदि जनता की बात करोगे तुम गद्दार कहाओगे
बंब-संब की छोड़ो, भाषण दोगे, पकड़े जाओगे।
‘आज़ादी’ पर लिखी कविता की बानगी देखिए — उनका कहना है —
यह कैसी आज़ादी है
वही ढाक के तीन पात है, बरबादी है
तुम किसान मज़दूरों पर गोली चलवाओ
और पहन लो खद्दर, देश-भक्त कहलाओ।
रेलवे कर्मचारियों की हड़ताल को ज़ोर देने के लिए उन्होंने कविता लिखी थी— ‘‘हर ज़ोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है.’’— जो देश भर में एक नारे या स्लोगन के रूप में आज तक प्रयुक्त हो रही है। 1974 के आन्दोलन में रेणु जी ने ‘हड़ताल’ शब्द की जगह ‘संघर्ष’ शब्द रखकर इस नारे को और अधिक व्यापक रूप दे दिया था। इस कविता की प्रारम्भिक पंक्तियां इस प्रकार हैं —
हर ज़ोर- ज़ुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है !
मत करो बहाने संकट है, मुद्रा प्रसार इन्फ्लेशन है
इन बनियों और लुटेरों को क्या सरकारी कन्सेशन है?
बंगले मत झांको, दो जवाब, क्या यही स्वराज तुम्हारा है
मत समझो हमको याद नहीं, हैं जून छियालिस की घातें
जब काले गोरे बनियों में चलती थी सौदे की बातें
रह गयी गुलामी बरकरार, हम समझे अब छुटकारा है
प्रगतिवादी परम्परा में शैलेन्द्र की कविताएँ बहुत-कुछ जोड़ती हैं। उन्हें एक धार देती हैं। ‘‘खून-पसीने से लथपथ पीड़ित-शोषित मानवता की दुर्दम हुँकारें...’’ शैलेन्द्र की कविताओं में बार-बार सुनाई पड़ती है। उनमें प्रतिबद्धता है — सामान्य जन के प्रति एवं तीव्र आक्रोश है- शोषक वर्ग के प्रति।
शैलेन्द्र का एकमात्र काव्य-संग्रह — ‘न्यौता और चुनौती’ जो मई 1955 ई० में पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, बम्बई से प्रकाशित हुआ था, प्रगतिवादी कविता का एक स्वर्णिम दस्तावेज़ है।
तो ऐसी थी शैलेन्द्र की साहित्यक चेतना। वे पच्चीस वर्ष की उम्र में ही हिन्दी के लोकप्रिय गीतकारों में अपना स्थान बना चुके थे। देश भर में कहीं भी कवि-सम्मेलन हो रहा हो, उन्हें निमंत्रित किया जाता। लेकिन लोकप्रियता पाने के चक्कर में उन्होंने कभी भी अपनी रचनाशीलता को सतही नहीं बनाया. फिल्मों में जो सतही और भदेस गीति-रचना होती थी, उससे उन्हें घृणा थी। इसीलिए राज कपूर को उन्होंने गीत लिखने से इन्कार कर दिया। इस बीच वे शादी कर चुके थे। घर-गृहस्थी का खर्च काफी बढ़ गया था। एक बार उन्हें कुछ रुपयों की सख्त जरूरत पड़ी। कहीं से भी जुगाड़ होना मुश्किल था। तब उन्हें राज कपूर की याद आयी. वे राज कपूर के पास गए।
आगे का विवरण राज कपूर के ही शब्दों में — ‘‘ ‘आग’ बन गई। ‘बरसात’ शुरू हुई। उस समय हमारा ऑफ़िस फ़ेमस स्टुडियो महालक्ष्मी में था। ऑफिस में बैठा था कि चपरासी ने आकर खबर दी — कवि शैलेन्द्र आपसे मिलना चाहते हैं। मुझे ‘इप्टा’ वाली घटना याद आ गई। शैलेन्द्र कुछ निराशा, कुछ चिन्ता और कुछ क्रोध का भाव लिए बेधड़क मेरे कमरे में चले आए। आते ही बोले — याद है आपको, आप एक मर्तबा मेरे पास आए थे? फ़िल्मों में गाना लिखवाने के लिए? मैंने कहा था — याद है। वे तपाक से बोले — मुझे पैसों की ज़रूरत है। पांच सौ रुपए चाहिए। जो मुनासिब समझें, काम करवा लीजिएगा। किसी से दबकर या बात को घुमा-फिराकर कुछ कहना तो उन्होंने सीखा ही नहीं था।’’
फिर शैलेन्द्र ने राज कपूर की ‘बरसात’ फिल्म के लिए उसका शीर्षक गीत लिखा — ‘‘बरसात में हमसे मिले तुम सजन, तुमसे मिले हम, बरसात में।’’ यह 1949 की सबसे ज्यादा व्यावसायिक लोकप्रियता ग्रहण करने वाली फिल्म थी एवं शैलेन्द्र का लिखा यह पहला फिल्मी गीत इतना लोकप्रिय हुआ कि शैलेन्द्र की मांग फिल्मी दुनिया में अचानक बढ़ गई। ‘आग’ फिल्म के बाद राज कपूर की फिल्मों में सिर्फ शैलेन्द्र एवं हसरत के ही गीत हुआ करते थे, उसमें भी ज्यादातर शैलेन्द्र के ही। फिर राज कपूर की ‘आवारा’ 1951 ई. में प्रदर्शित हुई. इसका शीर्षक गीत — ‘‘आवारा हूं या गर्दिश में हूं आसमान का तारा हूं’’ ने भी लोकप्रियता का कीर्तिमान स्थापित किया। ‘श्री 420’ का शीर्षक-गीत — ‘‘मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंगलिस्तानी, सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी’’ तो कालातीत हो गया। राज कपूर की जिन अन्य फिल्मों में शैलेन्द्र ने यादगार गीत लिखे — उनमें ‘जिस देश में गंगा बहती है’, ‘बूट पॉलिस’, ‘अनाड़ी’, ‘संगम’ आदि प्रमुख हैं। इनके कुछ प्रमुख गीत हैं —
नन्हे-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है!
मुट्ठी में है तकदीर हमारी।
— बूट पालिस (1954)
इसी फिल्म का दूसरा गीत अपनी भाव-गर्भिता में एवं बच्चों को सम्बोधित अविस्मरणीय रचना है —
तू बढ़ता चल
तू रुक न कहीं, तू झुक न कहीं, तेरी है जमीं
तू बढ़ता चल
तारों के हाथ पकड़ता चल
तू एक है प्यारे लाखों में, तू बढ़ता चल
ये रात गई
वो सुबह नई !
यह रात भारत की गुलामी की थी और नई सुबह आज़ादी की है, जिसे हमारे बच्चों को नई आस्था, विश्वास और श्रम के साथ आगे बढ़ते हुए हासिल करना होगा, यह बात शैलेन्द्र कितने ओजस्वी, प्रभावपूर्ण एवं मार्मिक ढंग से रख रहे थे। ‘श्री 420’ का गीत ‘दिल का हाल सुने दिलवाला’ फिल्मी गीतों में एक नई शैली की गीति-रचना है। इसमें शैलेन्द्र ने भारत की भूखी-नंगी, दुखी-विपन्न जनता को अपनी वाणी दी है —
छोटे से घर में, ग़रीब का बेटा
मैं भी हूँ माँ के नसीब का बेटा
रंजों-गम बचपन के साथी
आँसुओं से जली जीवन-बाती
भूख ने है बड़े प्यार से पाला
दिल का हाल सुने दिलवाला !
गम से अभी आज़ाद नहीं हूँ
ख़ुश हूँ, मगर आबाद नहीं हूँ
मंज़िल मेरे पास खड़ी है
पाँव में मेरी बेड़ी पड़ी है
टाँग अड़ाता है दौलतवाला
दिल का हाल सुने दिलवाला !
‘जागते रहो’ फिल्म में मोतीलाल पर चित्रित किया गया और मुकेश के द्वारा गाया गया यह गीत एक नया जीवन-दर्शन प्रस्तुत करता है —
‘‘ज़िन्दगी
ख़्बाव है
ख़्बाव में झूठ क्या !
और भला सच है क्या !’’
यह गीत अपने ढांचे में नई कविता की तरह है। ‘अनाड़ी’ फिल्म का शीर्षक-गीत — ‘‘सब कुछ सीखा हमने, ना सीखी होशियारी, सच है दुनिया वालो कि हम हैं अनाड़ी !’’ जब मुकेश की आवाज में स्वर-बद्ध हुआ तो राज कपूर आधी रात को शैलेन्द्र के घर गए एवं उन्हें जगाकर गले से लगा लिया और कहा —‘‘शैलेन्द्र ! मेरे दोस्त! गाना सुनकर रहा नहीं गया। क्या गीत लिखा है?’’ उसी फिल्म में जीवन के अपने उद्देश्य को स्पष्ट करती शैलेन्द्र की ये पंक्तियां हर संवेदनशील मनुष्य को प्रभावित कर लेती हैं —
किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार
जीना इसी का नाम है !
रिश्ता दिल से दिल के ऐतबार का
ज़िन्दा है हमीं से नाम प्यार का
कि मरके भी किसी को याद आएँगे
किसी के आँसुओं में मुस्कुराएँगे
कहेगा फूल हर कली से बार-बार
किसी को हो न हो, हमें है ऐतबार
जीना इसी का नाम है !
शैलेन्द्र के गीतों में जो आज भी ताज़गी है, उनमें कहीं भी बासीपन की बदबू नहीं। इसका मुख्य कारण है उनका जीवन-दर्शन, जीवनादर्श और जिजीविषा से भरे हुए शब्द, जो हर युग में जीवन्त बने रहेंगे। ‘जिस देश में गंगा बहती है’ फिल्म का शीर्षक-गीत अपने देश की महानता, आदर्श और दुर्लभ विशेषता को इन शब्दों के द्वारा अभिव्यक्त करता है —
हम कल क्या थे, हम आज हैं क्या, इसका ही नहीं अभिमान हमें
जिस राह पे आगे चलना है, है उसकी भी पहचान हमें
अब हम तो क्या सारी दुनिया, सारी दुनिया से कहती है
हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है !
कुछ लोग जो ज़्यादा जानते हैं, इनसान को कम पहचानते हैं
ये पूरब है, पूरब वाले हर जान की क़ीमत जानते हैं
हिल-मिल के रहो और प्यार करो, इक चीज़ यही तो रहती है
हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है !
जो जिससे मिला सीखा हमने, गैरों को भी अपनाया हमने
मतलब के लिए अन्धे बनकर रोटी को नहीं पूजा हमने
अब हम तो क्या सारी दुनिया, सारी दुनिया से कहती है
हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है !
ऋषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित फिल्म ‘आशिक’ (1962) में शैलेन्द्र का यह गीत — ‘‘तुम जो हमारे मीत न होते, गीत ये मेरे गीत न होते !’’ सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ, किन्तु उनका दूसरा निम्नलिखित गीत उनकी आस्था-विश्वास एवं जीवन-दर्शन का एक मर्मस्पर्शी आख्यान है —
तुम आज मेरे संग हंस लो
तुम आज मेरे संग गा लो
और हँसते-गाते इस जीवन की उलझी राह सँवारो
दुख में जो गाए मल्हारें वो इन्सान कहलाए
जैसे बंसी के सीने में छेद हैं फिर भी गाए
गाते-गाते रोए मयूरा, फिर भी नाच दिखाए रे
फिर भी नाच दिखाए !
‘बरसात’ से लेकर ‘संगम’ तक राज कपूर की सभी फिल्मों में शैलेन्द्र ने गीत लिखे। राज कपूर की टीम में गीतकार के रूप में शंकर शैलेन्द्र एवं हसरत जयपुरी, संगीतकार — शंकर एवं जयकिशन, पटकथा लेखक — ख्वाजा अहमद अब्बास, छायाकार — राधू कर्मकार, गायक — मुकेश और मन्ना डे, कला-निर्देशक — एच.आर. अचरेकर आदि महान् प्रतिभाशाली लोग थे। इन सभी के सामूहिक प्रभाव से राज कपूर का महिमामण्डित एवं लोकप्रिय छवि का निर्माण हुआ था। पर शैलेन्द्र की प्रतिभा से दूसरे निर्माता-निर्देशक भी प्रभावित थे। विमल राय ने अपनी कई फिल्मों में उनसे गीत लिखवाए थे। देवानन्द एवं विजयानन्द ने ‘गाइड’ फिल्म में उनसे गीत लिखवाए थे. राज कपूर की फिल्मों से बाहर जाकर अन्य फिल्मों के लिए जो उन्होंने उल्लेखनीय एवं बेहतरीन गीत लिखे, उनमें से कुछेक की चर्चा करने से अपने को नहीं रोक पा रहा हूँ —
धरती कहे पुकार के
गीत बिछा ले प्यार के
मौसम बीता जाए...
अपनी कहानी छोड़ जा
कुछ तो निसानी छोड़ जा... (दो बीघा जमीन)
तू प्यार का सागर है
तेरी इक बून्द के प्यासे हम
लौटा जो दिया तुमने
चले जाएँगे जहाँ से हम... (सीमा)
काँटों से खींच के ये आँचल
तोड़ के बन्धन बाँधे पायल
कोई न रोके दिल की उड़ान को
दिल ये चला...आ आ आ आ...
आज फिर जीने की तमन्ना है
आज फिर मरने का इरादा है... (गाइड)
शैलेन्द्र को तीन गीतों के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। ‘यहूदी’ के गीत — ‘ये मेरा दीवानापन है या मोहब्बत का सुरूर’ के लिए 1958 में। ‘अनाड़ी’ के गीत — ‘सब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी / सच है दुनियावालों कि हम हैं अनाड़ी’ के लिए 1959 में एवं 1968 में ‘ब्रह्मचारी’ फिल्म के इस गीत के लिए — ‘‘तुम गाओ मैं सो जाऊं’’, मृत्योपरान्त।
1960 तक शैलेन्द्र अपने गीतों की लोकप्रियता के कारण हिन्दी फिल्म-जगत् में बड़े गीतकारों की श्रेणी में पहली पायदान पर पहुँच चुके थे। उन्होंने इतना नाम-यश अर्जित कर लिया था, जिसे बहुत कम कलाकार लम्बा जीवन जीकर भी नहीं पा सके। वे अब अपनी निर्धनता से भी मुक्त हो चुके थे। उन्होंने खार में अपना मकान भी बनवाया और अपनी पहली फिल्म ‘बरसात’ की स्मृति में नाम रखा — ‘रिमझिम’। अपने घर के पास ही उन्होंने एक छोटा-सा फ्लैट खरीदा था, जिसमें शाम को अपने मित्रों के साथ बैठक करते। 1959 ई० में बिमल राय प्रोडक्शन में ‘परख’ नामक फिल्म बन रही थी। शैलेन्द्र ‘परख’ के लिए गीतों के साथ-साथ संवाद भी लिख रहे थे। उस फिल्म से जुड़े नवेन्दु घोष, बासु भट्टाचार्य, बासु चटर्जी, बी०आर० इशारा आदि शाम को शैलेन्द्र के पास जुड़ते और गपशप होती। उस गपशप में फिल्मों के अलावा साहित्यिक चर्चा भी होती। उसी समय मोहन राकेश के सम्पादन में राजकमल प्रकाशन से ‘पाँच लम्बी कहानियाँ’ नामक पुस्तक छपी थी, जिनमें एक कहानी ‘तीसरी कसम अर्थात् मारे गए गुलफ़ाम’ भी थी। इसे सबसे पहले नवेन्दु घोष ने पढ़ा और अत्यधिक प्रभावित हुए। उन्होंने बासु भट्टाचार्य को वह पुस्तक दी तथा इस कहानी को बांग्ला भाषा में अनुवाद करने को कहा। बासु भट्टाचार्य 1960 ई० में विमल राय प्रोडक्शन से अलग हो गए थे और स्वयं कोई फिल्म बनाने की सोच रहे थे। उन्होंने शैलेन्द्र को वह कहानी सुनाई। शैलेन्द्र को वह कहानी इतनी पसंद आई कि उस पर वे फ़िदा हो गए और उसके फिल्मीकरण का संकल्प लिया।
‘तीसरी क़सम’ का हीरामन ही सिर्फ गुलफाम नहीं था, रेणु दूसरे गुलफाम थे और तीसरे शंकर शैलेन्द्र. परदे पर दीखने वाले गुलफाम राज कपूर थे, पर परदे के बाहर वे एक सफल व्यावसायिक फिल्म-निर्माता थे. लेकिन ‘तीसरी कसम’ से राज कपूर की जो छवि निर्मित होती है- देहाती, भोला-भाला, पवित्र मन का और फूल की तरह का निर्दोष, स्निग्ध चेहरा, एक आम भारतीय जन की जीती-जागती छवि- वह अविस्मरणीय है. हिन्दी फिल्मों के इतिहास में यह दुर्लभ है. यह वास्तव में रेणु और शैलेन्द्र के भावों का प्रकटीकरण एवं प्रस्तुतिकरण था. जिस समय शैलेन्द्र ने ‘तीसरी कसम’ कहानी पढ़ी, उसी समय वह गुलफाम मारा गया. उन्होंने बासु भट्टाचार्य से कहानी सुनते ही फणीश्वरनाथ रेणु को 23 अक्टूबर, 1960 को एक पत्र लिखा- ‘‘बन्धुवर फणीश्वरनाथ, सप्रेम नमस्कार. ‘पांच लम्बी कहानियां’ पढ़ीं. आपकी कहानी मुझे बहुत पसंद आयी. फिल्म के लिए उसका उपयोग कर लेने की अच्छी पॉसिबिलिटीज (संभावनाएं) हैं. आपका क्या विचार है? कहानी में मेरी व्यक्तिगत रूप में दिलचस्पी है. इस संबंध में यदि लिखें तो कृपा होगी. धन्यवाद. आपका- शैलेन्द्र.’’
अब यहां थोड़ा ठहर कर दूसरे गुलफाम अर्थात् फणीश्वरनाथ रेणु के जीवन के विषय में संक्षेप में कुछ चर्चा कर लेना आवश्यक है. रेणु शैलेन्द्र से उम्र में दो साल बड़े थे, किन्तु उन्हीं जैसा रूप-रंग और हृदय. दोनों शब्द-शिल्पी थे और दोनों का लोक-हृदय था. शैलेन्द्र ने जिस तरह सन् बयालीस के आन्दोलन में भाग लिया था, वैसे ही रेणु ने भी. दोनों ने जेल की सजा काटी थी. शैलेन्द्र ने रेलवे मजदूरों की हड़ताल में सक्रिय रूप से भाग लिया था. रेणु ने भारत और नेपाल के कई मजदूर एवं किसान आन्दोलनों में भाग लिया था. रेणु बिहार के पूर्णिया जिले के औराही-हिंगना गांव के रहने वाले थे- एक मध्यमवर्गीय किसान परिवार के. खेती-किसानी ही उनकी जीविका का मुख्य साधन थी. किन्तु उनके पिताजी शिलानाथ मण्डल जब तक जीवित रहे, उन्हें घर-परिवार की कोई विशेष चिन्ता नहीं थी. उनका प्रारम्भिक जीवन साहित्यिक, सामाजिक और राजनीतिक सक्रियताओं से भरा था. वे अपने जनपद के अधिकांश गांवों में जाते, वहां के लोगों से उनका जीवंत सम्पर्क था. बहुत कम उम्र से उन्होंने लिखना शुरू कर दिया था. पहले कविताएं लिखा करते थे. बाद में उन्होंने कहानी एवं कथा-रिपोर्ताज लिखना शुरू किया. उनकी पहली परिपक्व कहानी ‘बटबाबा’ अगस्त, 1944 ई. के ‘साप्ताहिक विश्वमित्र’ (कलकत्ता) में छपी. फिर पहलवान की ढोलक, पार्टी का भूत, कलाकार, रखवाला, न मिटने वाली भूख, प्राणों में घुले हुए रंग, धर्म, मजहब और आदमी, खण्डहर, रेखाएं-वृतचक्र, धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे नामक कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में छपीं. 1946 ई. में श्री रामवृक्ष बेनीपुरी ने पटना से ‘जनता’ नामक साप्ताहिक पत्र पुनः निकालना शुरू किया, जिसमें रेणु के अनेक कथा-रिपोर्ताज छपे, जिनमें प्रमुख हैं- डायन कोसी, जै गंगा, रामराज्य, घोड़े की टाप पर लोहे की
रामधुन, एक-टू आस्ते-आस्ते, हड्डियों का पुल, हिल रहा हिमालय आदि. बनारस की ‘जनवाणी’ पत्रिका में उनका प्रसिद्ध कथा-रिपोर्ताज ‘नये सवेरे की आशा’ प्रकाशित हुआ. 1949-50 में रेणु ने पूर्णिया से एक साप्ताहिक पत्र का सम्पादन किया- ‘नई दिशा’. इसमें विभिन्न विधाओं की उनकी अनेक रचनाएं प्रकाशित हुईं. 1951 में नेपाल के निरंकुश राणाशाही के खिलाफ आन्दोलन में वे कोईराला-बन्धुओं के साथ शामिल हुए, जिस पर उन्होंने ‘नेपाली क्रांतिकथा’ नामक प्रसिद्ध रिपोर्ताज लिखा है. इसी वर्ष वे भीषण रूप से बीमार पड़े. स्वस्थ होने के बाद 1952 ई. में कालजयी उपन्यास ‘मैला आंचल’ की रचना की. 1954 ई. में वह प्रकाशित हुआ और देखते ही देखते रेणु हिन्दी के शीर्षस्थ कथाकारों की पंक्ति में शामिल हो गये. 1957 में उनका दूसरा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपन्यास ‘परती-परिकथा’ प्रकाशित हुआ. इस बीच छठे दशक में प्रकाशित उनकी कहानियों का संग्रह ‘ठुमरी’ 1959 ई. में प्रकाशित हुआ. इसी में रेणु की अमर कहानी ‘तीसरी कसम अर्थात् मारे गये गुलफाम’ भी शामिल है, जो 1958 ई. में पटना से प्रकाशित एक लघु पत्रिका ‘अपरम्परा’ में पहली बार प्रकाशित हुई थी. 1958 ई. से रेणु आकाशवाणी, पटना में सेवारत थे. आकाशवाणी, पटना के पते पर ही रेणु को शैलेन्द्र का वह पहला पत्र 1960 में मिला, जिसका उत्तर उन्होंने शैलेन्द्र को अपनी स्वीकृति देते हुए लिखा. रेणु के लिए शैलेन्द्र का वह पत्र उनमें एक नया उत्साह भरने वाला था. उसी समय टेलिविज़न-स्क्रिप्ट-राइटर्स के प्रशिक्षण की ट्रेनिंग के लिए रेणु की दिल्ली में बुलाहट हुई. नवम्बर, 1960 के पहले सप्ताह में ही वे आकाशवाणी, दिल्ली चले गये और शैलेन्द्र को सूचित किया कि वे तत्काल आकाशवाणी, दिल्ली में ही सम्पर्क के लिए उपस्थित मिलेंगे.
दिल्ली के आकाशवाणी भवन में ही 1959 ई. को दूरदर्शन की स्थापना हुई थी एवं प्रारम्भ में इसकी नींव रखने वालों में आकाशवाणी में कार्यरत कई प्रतिभाशाली लेखकों, कलाकारों का योगदान था. प्रसिद्ध कथाकार कमलेश्वर की नियुक्ति 1959 ई. में दूरदर्शन केन्द्र में ही हुई थी. प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक शिवेन्द्र भी उसमें कार्यरत थे. और रेणु के अन्तरंग मित्र वीरेन्द्र नारायण भी वहां थे. पी. एल. देशपांडे टेलिविजन केन्द्र के प्रमुख प्रोड्यूसर थे. साथ ही एक शंकर शैलेन्द्र नामक एक दूसरे व्यक्ति भी उसमें कार्यरत थे.
रेणु से मिलने एवं ‘तीसरी कसम’ कहानी के फिल्मीकरण के अधिकार का अनुबन्ध करने शैलेन्द्र ने बम्बई से अपने साले संतोष ठाकुर को भेजा. दिल्ली के आकाशवाणी-भवन के टेलीविज़न-सेक्शन के एक कमरे में बैठकर रेणु ने अनुबन्ध-पत्र पर हस्ताक्षर पांच हजार रुपये लेकर किया. किन्तु बाद में शैलेन्द्र ने इस राशि को दस हजार रुपये कर दिया. दिसम्बर महीने में शैलेन्द्र ने रेणु को बम्बई बुलवाया. रेणु की यह पहली बम्बई-यात्रा थी, जिसे वे एक फिल्मी-यात्रा कहते थे. शैलेन्द्र ने रेणु को बड़े ही मान-आदर के साथ ठहराया. वहीं उनकी भेंट ‘तीसरी कसम’ फिल्म के निर्माण से जुड़े बासु भट्टाचार्य (निर्देशक), नवेन्दु घोष (पटकथा-लेखक), बासु चटर्जी एवं बाबूराम इशारा (सहायक निर्देशक) से हुई एवं ‘तीसरी कसम’ के फिल्मांकन की भावी रूपरेखा पर विस्तार से चर्चा हुई. तय किया गया कि ढाई-तीन लाख रुपये में अर्थात् कम बजट में इसका निर्माण कर लिया जायेगा. चूंकि बजट कम था, इसलिए इसे श्वेत-श्याम ही बनाने का निर्णय लिया गया, जबकि 1960 ई. तक हिन्दी की बहुतायत फिल्में रंगीन बनने लगी थीं. यह भी तय कर लिया गया कि पांच-छह महीने में इसकी शूटिंग पूरी कर ली जायेगी. संवाद-लेखन की जिम्मेदारी रेणु को दी गयी एवं तय किया गया कि गीत शैलेन्द्र के होंगे. अब यह तय करना था कि हीराबाई की भूमिका के लिए किस अभिनेत्री का चयन किया जाये एवं हीरामन की भूमिका के लिए किस अभिनेता का? इस प्रसंग को रेणु की जुबानी ही सुनिये-
शैलेन्द्रजी ने मुझसे पूछा था, ‘‘अच्छा! कहानी लिखते समय आपके सामने हीराबाई की कोई तस्वीर तो जरूर होगी. अब, जबकि फिल्म की बात हो रही है, तो फिल्म इंडस्ट्री में आपकी उस मूरत से कोई सूरत मिलती-जुलती नजर आती है? यानी, आप किसको इस भूमिका के लिए...’’
मैंने हंसकर जवाब दिया था, ‘‘भाई! हमलोग काननबाला, उमाशशि, यमुना, देविका रानी, सुलोचना और नसीम वगैरह के युग में सिनेमा देखा करते थे. अब तो सब चेहरे एक ही सांचे में ढले-से लगते हैं. किसका क्या नाम है, याद ही नहीं रहता.’’
‘‘यह तो बात को टालने वाली बात हुई.’’ वे हंसे थे.
थोड़ी देर के बाद मैंने कहा था, वह एक...‘प्यासा’ में माला सिन्हा के साथ कोई लड़की थी न...?’’
शैलेन्द्र ने बासु भट्टाचार्य की ओर देखा और बासु के मुंह से एक किलकारी के साथ निकला था- ‘स्साला!‘ मैं जानता था, यह कोई गाली नहीं. बंगाली विद्यार्थी जब किसी बात पर खुश होते हैं, तो उनके मुंह से यह शब्द अनायास ही निकल पड़ता है. किन्तु मैं झेंप गया था- शायद मैं किसी गलत और सर्वथा ‘मिसफिट’ चेहरे की बात कह गया.
शैलेन्द्र ‘ताड़’ गये थे. बोले, हमारे मन में भी उसी की सूरत है...आप क्या सचमुच उसका नाम नहीं जानते?...वह वहीदा रहमान है.’’
मैंने पूछा, ‘‘इंद्राणी रहमान की कोई लगती है क्या?’’
‘‘नहीं जी ! मगर नाचना जानती है.’’
दूसरे या तीसरे दिन वे वहीदा रहमान को कहानी सुनाने गये. लौटे तो बहुत खुश नजर आये. सूचना दी, ‘‘साहब! हो गयी आपके मन की हीराबाई! परसों हम एग्रीमेंट पर दस्तखत कराने जायेंगे...कहानी सुनकर उनकी आंखें छलछला आयीं.’’
मैंने धीरे से पूछा था, ‘‘और हीरामन?’’
शैलेन्द्र जी कोई जवाब देने के बदले मुस्कुराने लगे थे. बासु भट्टाचार्य को उन दिनों लोग ‘आग निगलनेवाला’ मानते थे. उसने कहा था, ‘‘शैलेन्द्र! तुम फिर सोचो...आमार एक्केबार आसल हीरामन चाय...’’
बासु के जाने के बाद मैंने पूछा था, ‘‘आप क्या राज कपूर साहब को लेने की बात सोच रहे हैं?...लेकिन, लेकिन...!’’
तब तक मुझे ‘जागते रहो’ के राज कपूर की याद आ गयी थी. मैंने कहा था, ‘‘राज साहब तो कर सकते हैं, लेकिन, करेंगे क्या? माने हीरामन की आत्मा में पैठ सकेंगे? सुना है अपनी तस्वीर के सिवा...!’’
शैलेन्द्र ने कहा था, ‘‘आप अगर यह मानते हैं कि वे कर सकते हैं, तो समझ लीजिए ‘करेंगे’...आपने सुना है, देखा तो नहीं?’’
फिर शैलेन्द्र राज कपूर के पास ‘तीसरी कसम’ की कहानी सुनाने पहुंचे. कहानी सुनकर राज कपूर बेहद प्रभावित हुए और सहर्ष इसमें काम करना स्वीकार कर लिया. फिर वे गम्भीरतापूर्वक बोले- ‘‘मेरा पारिश्रमिक एडवांस देना होगा.’’ शैलेन्द्र ऐसा सुनते ही मायूस हो गये. उन्हें राज कपूर से ऐसी अपेक्षा नहीं थी. शैलेन्द्र के बुझे हुए चेहरे को देखते हुए तब राज कपूर ने कहा, ‘‘निकालो एक रुपया, मेरा पारिश्रमिक! पूरा एडवांस.’’
फिर राज कपूर ने उन्हें समझाया कि फिल्म-निर्माण के चक्कर में तुम मत पड़ो. यह काम तुम्हें सूट नहीं करेगा. तुम कवि हो, कलाकार हो. लेकिन वे नहीं माने. राज कपूर ने दोस्त के नाते व्यापारिक सफलता के लिए कुछ गुर भी बताने चाहे, लेकिन शैलेन्द्र ने दृढ़ता से कहा- ‘‘यह मेरी फिल्म है, जैसा मैं चाहूंगा, वैसा ही बनेगी.’’ संवेदनशील कवि के लिए फिल्म-निर्माण के क्षेत्र में कदम रखना कितना घातक हो सकता था. वे शैलेन्द्र के भविष्य को लेकर आशंकित थे. तात्पर्य यह कि एक सच्चे शुभचिन्तक की तरह राज कपूर ने शैलेन्द्र को आगाह किया था और उन्हें मुसीबतों से बचाने के लिए ही समझाया था, किन्तु शैलेन्द्र अपनी जिद के पक्के थे- ‘तीसरी कसम’ बनाने के लिए मर-मिटने को तैयार. राज कपूर ने उनके बोझ को हल्का करने के लिए बगैर पारिश्रमिक इस फिल्म में काम किया. साथ ही आर.के. स्टुडियो से जुड़े अनेक कलाकारों ने भी शैलेन्द्र से पारिश्रमिक के तौर पर नहीं के बराबर ही लिया. शंकर-जयकिशन, मुकेश, हसरत आदि तो उनके राज कपूर की तरह ही अंतरंग मित्र थे. बासु भट्टाचार्य, नवेन्दु घोष, बासु चटर्जी, बाबू राम इशारा आदि बिमल राय प्रोडक्शन से जुड़े लोग थे, जिनके साथ शैलेन्द्र का प्रायः उठना-बैठना होता था और इन सभी के साथ मिलकर ही शैलेन्द्र ने ‘तीसरी कसम’ के निर्माण का निर्णय लिया था. इनमें से कोई पैसे के लिए फिल्म से नहीं जुड़ा था. यहां तक कि वहीदा रहमान भी शैलेन्द्र से आत्मीय संबंध के कारण, बहुत कम पैसों में काम करने को तैयार हो गयी थीं. ये सभी लोग एक महान् कहानी पर एक ऐसी फिल्म का निर्माण करना चाहते थे, जो हिन्दी सिनेमा के इतिहास में एक अमर कलाकृति के रूप में सदियों तक अविस्मरणीय रहे. इस टीम के केन्द्र में थे शैलेन्द्र.
लेकिन इस फिल्म के निर्माण में जो परेशानियां शुरू हुई तो अंत तक बनी रहीं. इसमें पहला व्यवधान यह आया कि वहीदा रहमान ने इस फिल्म में काम करने से मना कर दिया. फिर इसकी ‘नायिका’ के लिए नये चेहरे की तलाश में यह टीम निकली, लेकिन असफलता ही हाथ लगी. फिर तय किया गया कि नूतन को ‘नायिका’ के तौर पर लिया जाये. लेकिन फिर बात नहीं बनी. पुनः वहीदा रहमान बेहद आग्रह-अनुग्रह पर तैयार हुईं, किन्तु उसकी अपनी शर्तें थीं. शैलेन्द्र ने तय किया कि फिल्म का मुहूर्त रेणु के अंचल में किया जाये. पूरी टीम पूर्णिया आयी और 14 जनवरी, 1961 ई. को इसका शुभारम्भ हुआ. रेणु ने बैलगाड़ियों की दौड़ प्रतियोगिता करवायी, जिसकी शूटिंग हुई. पूर्णिया के विभिन्न क्षेत्रों एवं दृश्यावलियों का भी फिल्मांकन किया गया. ‘तीसरी कसम’ के कैमरामैन सुब्रत मित्र सत्यजित राय के पसंदीदा कैमरामैन थे. पूर्णिया की शूटिंग एवं सुब्रत मित्र के विषय में रेणु के शब्द देखिएः ‘‘एक बात कह दूं, मैं सुब्रत बाबू के कैमरे को सुब्रत बाबू की देह से भिन्न नहीं- उसका सजीव अंग मानता हूं. मेरे दिल में इस व्यक्ति (कैमरा सहित) के लिए असीम श्रद्धा है. मुझे याद है, आज से तीन वर्ष पहले (1961 ई. में) जब आउट डोर के लिए ‘लोकेशन’ देखने और गुलाबबाग मेले की शूटिंग के लिए ‘तीसरी कसम’ की यूनिट पूर्णिया गयी थी...‘पथेर पांचाली’, ‘जलसाघर’, ‘अपराजितो’, ‘अपूर संसार’ को सेल्यूलाइड पर अंकित करने वाले व्यक्ति (और मशीन) को निकट से देखने का सुअवसर मिला था. हम करीब एक सप्ताह साथ रहे थे. वे मेरे गांव- मेरे घर में कई दिन ठहरे ही नहीं थे- मेरी हवेली के अंदर (कथांचल के लोगों के चलने-फिरने, बोलने-बतियाने के ढंग को चित्रबद्ध करने के लिए!) परिवार की महिलाओं का ‘चलचित्र’ लिया था...तीन दर्जन बैलगाड़ियों की दौड़...आम के बाग की ढलती हुई छाया...सिंदूरी-सांझ की पृष्ठभूमि में उड़ते हुए बगुलों की पांतियां...इन सारे दृश्यों को ‘ग्रहण’ करते समय सुब्रत बाबू, के चेहरे पर एक अद्भुत चमक खेल आती थी...’’ ‘तीसरी कसम’ को यथार्थव्यंजक एवं प्रभावशाली बनाने में सुब्रत मित्र एवं उनके कैमरे की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी.
रेणु और शैलेन्द्र के ये अच्छे दिन थे. रेणु नियमित कहानियां, उपन्यास और रिपोर्ताज लिख रहे थे. शैलेन्द्र फिल्मों के लिए एक-से-एक बेहतरीन गीत लिख रहे थे. वे बार-बार मुस्कराते हुए एक दूसरे को देखा करते थे. ‘तीसरी कसम’ में एक कव्वाली है, जिसकी पंक्तियां वे जब साथ होते तो साथ गाते और न होते तो अपने पत्रों में उसका उल्लेख करते. रेणु ने ‘तीसरी कसम’ की शूटिंग को लेकर एक रचना लिखी है, जिसमें इस प्रसंग को इस प्रकार रखा है-
‘‘एक-डेढ़ घंटे के घनघोर-रिहर्सल के बाद पहली पंक्ति और नाच के पहले टुकड़े की ‘टेकिंग’ के लिए क्षणिक विश्राम दिया गया : लाइट्स ऑफ!’
तब, हम दोनों भाइयों (कथाकार और गीतकार) ने मिलकर नौटंकी का एक गीत गुनगुनाना शुरू कियाः
अरे तेरी बांकी अदा पर मैं खुद हूं फिदा,
तेरी चाहत का दिलवर बयां क्या करूँ?
यही ख्वाहिश है कि तू मुझको देखा करे —
और दिलोजान मैं तुझको देखा करू~ं...
...पिछले तीन वर्षों से हम दोनों किसी बात पर जब एक साथ अति-प्रसन्न होते हैं, तो नौटंकी की इन्हीं पंक्तियों को इसी तरह गाते हैं और एक-दूसरे को कई मिनट दिलोजान देखते रहते हैं, फिर हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाते हैं. हां, हम सैकड़ों योजन दूर बैठकर अपनी चिट्ठियों में भी इस गीत को गाते हैं.’’
जब ‘तीसरी कसम’ की शूटिंग समाप्त हुई तब-तक पूरी टीम बिखर चुकी थी. शैलेन्द्र के पास बचे थे राजकपूर और सुब्रत मित्र. वे राज कपूर के साथ मिलकर आर.के. स्टूडियो में फिल्म का संपादन कर रहे थे. 1961 ई. से 1965 ई. तक, यानी पांच वर्षों तक रुक-रुक कर या कभी लम्बे अन्तराल के बाद हुए शूटिंग के टुकड़ों को मिलाना-जोड़ना, बेहद श्रमसाध्य एवं पेचीदा मामला था. ‘तीसरी कसम’ के तीनों डायरेक्टर शैलेन्द्र का साथ छोड़कर अपने कामों में व्यस्त हो चुके थे. किन्तु शैलेन्द्र के लिए ‘तीसरी कसम’ को पूरा करना जीने-मरने का सवाल था. वे ‘तीसरी कसम’ और रेणु के रंग में डूबे हुए थे. ऐसी स्थिति में अकेले जूझते हुए उस समय की मशहूर सिने पत्रिका ‘माधुरी’ के संपादक अरविन्द कुमार ने उन्हें देखा था. वे कभी-कभी शैलेन्द्र के साथ ही आर.के. स्टुडियो चले जाते थे और कभी-कभार शैलेन्द्र की मदद भी कर देते थे. इस तरह ‘तीसरी कसम’ को एक स्वरूप मिला. शैलेन्द्र ने इससे उत्साहित होकर 16 फरवरी, 1966 ई. को रेणु को एक पत्र लिखा. रेणु उस समय गांव पर थे. उन्होंने अपने गांव औराही-हिंगना से शैलेन्द्र को इसका उत्तर लिखा, जो इस प्रकार हैः
तीसरी कसम जिन्दाबाद!
Village & P.O. Aurahi & Hingna
Via- Forbesganj
Dist.- Purnea (Bihar)
24.2.66
भाई जान, भाई जान
मेरी जान, मेरी जान !
आपका 18 फरवरी का पत्र मुझे कल मिला. घर भर में- गांव भर में- इलाके भर में आनन्द-उत्साह की एक नई लहर दौड़ गयी है. हर आदमी अपनी आंख से पत्र पढ़ लेना चाहता है...आपने लिखा है- ‘जादूगर सुब्रत जिंदाबाद.’ मैं कहता हूं- कविराज शैलेन्द्र जिंदाबाद! जिंदाबाद!!’’
मेरा प्रोग्राम? अब तक कोई प्रोग्राम ही नहीं था. अब, होली के बाद पटना. पटने में एक सप्ताह रह कर बम्बई के लिए प्रस्थान!
अचरज की बात! मुझे यहां एक ज्योतिषी ने, 15 फरवरी, 66 को महत्त्वपूर्ण बताते हुए कहा कि इसी तारीख को किसी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति होने की सम्भावना है. फिल्म के संबंध में मैंने उसे कुछ नहीं बतलाया था. किंतु, उसने कहा- चूंकि कार्यारम्भ ‘तिल संक्रांति’ के दिन हुआ था, इसलिए काम तिल-तिलकर हो रहा है. किन्तु, श्रेष्ठ हो रहा है.
इधर, मैं एक अनुष्ठान में लगा हुआ हूं. (मैं यह सब ढोंग करता हूं और इन पर पूर्ण आस्था रखता हूं.) पंद्रह दिन और रह गये हैं. यह पत्र मैं आपको ‘आसन’ पर बैठकर ही लिख रहा हूं. पंद्रह दिन हो गये- एक शब्द मुंह से नहीं निकला है. मैं सुन रहा हूं. इस ‘अंध-कोठरी’ में बैठकर- सभी ‘तीसरी कसम जिन्दाबाद’ कर रहे हैं.
एक उपन्यास (180 पृष्ठों का) लिख कर समाप्त किया है. दूसरे में हाथ लगाया है...‘माया’ विशेषांक (भारत-1966) में एक कहानी प्रकाशित हुई है- ‘आत्म-साक्षी’. आपको अच्छी लगेगी. आप पढ़ कर देखियेगा.‘तीसरी कसम’ रिलीज होने के बाद- तुरंत- ‘तीसरी कसम खाने की बेला’ शीर्षक संस्मरण-पुस्तक (‘अणिमा’ के नये अंक में श्रीमती अमृता प्रीतम ने ‘तीसरी कसम’ शीर्षक एक कहानी प्रकाशित करवाई है, जिसमें नई कविता की एक पंक्ति है- ‘‘आओ हम सब तीसरी कसम खायें...यह तीसरी कसम खाने की बेला है.’’) आ जायेगी. लिख रहा हूं- लिखता जा रहा हूं. जब-जब जिसकी सूरत उभर कर सामने आयी- जब-जब बम्बई की याद आयी- लिखता गया हूं.
स्वास्थ्य दुरुस्त है. चाहता तो हूं कि जब मिलूं आपसे- लाल-लाल गाल मैं आपका देखूं और आप मेरा...मुझे ख्वाहिश है कि तू मुझको देखा करे और दिलोजान मैं तुमको देखा करूं.
खबर है- लतिका ने मुझे निकाल दिया है- झूठा-बेईमान कह कर...एम.ए. की परीक्षा की जोरदार तैयारी में लगी हुई है और मैं यहां ढोंग धरकर घर में बैठा हूं. हो-हल्ला है यहां.
प्लीज-प्लीज...रुपये शीघ्र भेजिए, भाई साहब! बहुत ‘दुर्गत’ भोग रहा हूं. और कितना भेजियेगा? 500/- तो मैं कर्ज खाकर बैठा हूं. रुपये TMO से ही भेजियेगा. और Telegram office GS Forbesganj- P.O. Simraha Rly St. लिखने से पत्र मिल तो जाता है, लेकिन अपना PO अपना गांव ही है (औराही हिंगना)- By the way - Simraha Rly. St. की बात आपको कैसे याद आयी? मैंने तो लिखा नहीं था?
छोटे-बड़े, सभी को सश्रद्ध प्रणाम. पत्र दें — निश्चय।
भाई ही — रेणु
रेणु पर पांच सौ रुपये का कर्ज था और वे ‘दुर्गति’ भोग रहे थे. उधर शैलेन्द्र भी खस्ताहाल थे. उन पर कर्ज का पहाड़ चढ़ गया था. जो फिल्म ढाई-तीन लाख में पूरी करनी थी और समय लगना था पांच-छह महीने, उसे बनते-बनते पांच साल से ऊपर हो गये और खर्च बाइस लाख से ऊपर. जो रेणु शैलेन्द्र के लिए हृदय की स्पन्दन की तरह थे, उनको भी कुछ नहीं दे पा रहे थे. अजीब बेबसी का आलम था. उन्हें भरोसा था तो एक ही कि ‘तीसरी कसम’ रिलीज होगी और वे तमाम कर्ज से मुक्त हो जायेंगे. देखते-ही-देखते उनकी पूरी टीम बिखर चुकी थी. वे अकेले फिल्म को अंजाम तक पहुंचा रहे थे. ऐसे में भी उनका कलाकार-मन मरा नहीं था. वे सोचते थे कि कहीं मूल कहानी की आत्मा को ठेस न लगे. इसलिए रेणु को पत्र लिखकर बुला रहे थे और रेणु थे कि पैसे के अभाव में दुर्गति भोग रहे थे. फिर वे बीमार पड़ गये. उन्होंने शैलेन्द्र को लिखा- ‘‘मैं बहुत बीमार हूं. वजन दस पाउंड घट गया है. शाम को बुखार रहता है. खांसी है. एक्सरे रिपोर्ट अच्छा नहीं. दवा चल रही है- सुइयां पड़ रही हैं. अच्छा हो जाऊंगा...मुझे देखकर पहचान नहीं सकियेगा, अब. मैं तो चाहता हूं कि फिर ‘गुलफाम’ (अर्थात्, जब हम पहली बार मिले थे!) होकर ही आपसे मिलूं. इसलिए, दिन-रात एक कर- जाती हुई तंदुरुस्ती को वापस लाने में लगा हूं. पीना एकदम छोड़ दिया है. और अब पीने का जी भी नहीं करता. अब ठाकुर श्रीरामकृष्ण के ऊपर है, सबकुछ. क्योंकि बिला कसूर वे अपने प्यारे गुलफाम को क्यों मारेंगे?...प्यारे गुलफ़ाम! आफरी-सदआफरी!!)’’
रेणु आस्थावान प्राणी थे. दुखों, मुश्किलों, परेशानियों में वे अपने को रामकृष्ण को सौंपकर तनाव-मुक्त हो जाते थे, किन्तु शैलेन्द्र के साथ ऐसा नहीं था. वे ऐसी स्थिति में बेहद तनावग्रस्त हो जाते थे. अस्वस्थ होने पर रेणु ‘पीना’ छोड़ देते थे, किन्तु शैलेन्द्र का पीना बढ़ जाता था. इस तरह अपने कमजोर स्वास्थ्य के बावजूद रेणु तो जीवित रहे, किन्तु शैलेन्द्र का स्वास्थ्य बिगड़ता ही चला गया. शैलेन्द्र की असामायिक मृत्यु का एक कारण और था, और वह यह कि रेणु की तरह ही वे अत्यंत भावुक थे. उनमें करुणा की एक अजस्र-धारा बहती रहती थी. कोई भी मार्मिक प्रसंग हो, रेणु की तरह शैलेन्द्र की आंखें भी डबडबा जाती थीं. इसे निम्न प्रसंग से, जिसे रेणु ने लिखा है, महसूस किया जा सकता हैः
‘तीसरी कसम’ की शूटिंग के दिनों शैलेन्द्र जी मुझसे ‘महुआ घटवारिन’ की ‘ऑरिजिनल’ गीत-कथा सुनना चाहते थे ताकि उसके आधार पर गीत लिख सकें. एक दिन हम ‘पवई लेक’ के किनारे एक पेड़ के नीचे जाकर बैठे. ‘महुआ घटवारिन’ का गीत मुझे पूरा याद नहीं था. इसलिए मैंने एक छोटी-सी भूमिका के साथ ‘सावन-भादों’ का गीत अपनी भोंड़ी और मोटी आवाज में, भरे गले से सुना दिया. गीत शुरू होते ही शैलेन्द्र की बड़ी-बड़ी आंखें छलछला आयीं और गीत समाप्त होते-होते वे फूट-फूट कर रोने लगे. गीत गाते समय ही मेरे मन के बांध में दरारें पड़ चुकी थी. शैलेन्द्र के आंसुओं ने उसे एकदम तोड़ दिया. हम दोनों गले लगकर रोने लगे. ‘ननुआं’ (शैलेन्द्र का ड्राइवर) टिफिन कैरियर में घर से हमारा दोपहर का भोजन लेकर लौट चुका था. हम दोनों को इस अवस्था में देखकर वह चुपचाप एक पेड़ के पास ठिठककर बहुत देर तक खड़ा रहा...
घटना के कई दिन बाद, शैलेन्द्र के ‘रिमझिम’ में पहुंचा. वे तपाक से बोले- चलिए, उस कमरे में चलें. आपको एक चीज सुनाऊं. हम उनके शीतताप-नियंत्रित कमरे में गये. उन्होंने मशीन पर ‘टेप’ लगाया. बोले- आज ही ‘टेक’ हुआ है. मैंने पूछा- तीसरी कसम? बोले- नहीं भाई! ‘तीसरी कसम’ का टेक होता हो आपको नहीं ले जाता?ें यह ‘बंदिनी’ का है...पहले, सुनिए तो...रेकॉर्ड शुरू हुआ- ‘‘अब के बरस भेज भैया को बाबुल, सावन में लाजो बुलाय रे....अमुआं तले फिर से झूले पड़ेंगे...कसके रे जियरा छलके नयनवां...बैरन जवानी ने छीने खिलौने...बाबुलजी मैं तेरे नाजों की पाली...बीते रे जुग कोई चिठियो ना पाती, ना कोई नैहर से आये रे-ए-ए.’’ कमरे में ‘पवई-लेक’ के किनारे वाले दृश्य से भी मर्मांतक दृश्य उपस्थित हो गया. हम दोनों हिचकियां ले-लेकर रो रहे थे- आंसू से तर-बतर..शैली ने (तब बांटू, यानी हेमंत!) किसी काम से अथवा गीत सुनने के लिए कमरे का दरवाजा खोला और हमारी अवस्था देखकर पहले कई क्षणों तक अवाक् रहा. फिर कमरे से चुपचाप बाहर चला गयोंकमरे में बार-बार रेकार्ड बजता रहा और न जाने कब तक बजता रहता, यदि शकुनजी आकर मशीन बन्द नहीं कर देतीं.’’
ऐसे भावुक और संवेदनशील गीतकार-कथाकार यानी शैलेन्द्र-रेणु की जोड़ी थी, जो ‘तीसरी कसम’ के नायक हीरामन की तरह ही भोला-भाला, दुनियादारी के उलट-पेंच से दूर, दूषित और नापाक में भी पवित्रता की खुशबू पाने वाली, दुर्लभ व्यक्तित्त्व रखने वाली अविस्मरणीय जोड़ी थी.
शैलेन्द्र रेणु के बगैर ‘तीसरी कसम’ को ‘फाइनल टच’ कैसे दे सकते थे? किन्तु, उनके पास रेणु को बुलाने, ठहराने, खिलाने-पिलाने के भी पैसे नहीं थे. सिर से पांव तक वे कर्ज से डूबे हुए थे. लेनदारों का तकादा बराबर हो रहा था. यहां तक कि रेणु जो ‘तीसरी कसम’ के निर्माण के चक्कर में आकाशवाणी, पटना की लगी-लगाई नौकरी छोड़ चुके थे, आर्थिक तंगहाली से जूझ रहे थे, उनका देय भी नहीं दे पा रहे थे. फिर भी उन्होंने रेणु को बुलाया. रेणु आये और शैलेन्द्र की हालत देख अपने मित्र दीनानाथ शास्त्री के घर ठहर गये जो उस समय जुहू चर्च में रहते थे. वहां से उन्होंने अपने गांव के बालगोविन्द विश्वास को एक पत्र में लिखाः मैं 17.6.66 को बम्बई पहुंचा हूं. दिन में 12.30 बजे उतरा और दो बजे से काम पर दाखिल हुआ सो डटा हुआ हूं. यों, बमदेवत से पास होकर आ गयी है तस्वीर. किन्तु, म्कपजपदह और क्नइइपदह का सिलसिला लगा हुआ है ताकि तस्वीर में सामान्य त्रुटि भी न रह जाय. सुबह आठ बजे तैयार होकर निकलता हूं तो रात बारह बजे; कभी-कभी एक बजे वापस आता हूं. थक जाता हूं लेकिन नींद नहीं आती. एक-एक दृश्य दिमाग में नाचते रहते हैं. मैंने आकर पूरे तीन-तीन दृश्यों की कनइइपदह फिर से करवाई है. यानी संवादों को फिर से कहलवाया है. यों, 14 जुलाई तस्वीर रिलीज होने की कमंकसपदम है, किंतु व्यावसायिक पहलू को ध्यान में रखकर थोड़ी देर भी की जा सकती है. मसलन, जब तक ळनपकम न उतर जाय, इसको नहीं त्मसमेंम करें. मगर, तस्वीर मुकम्मिल हो गयी और भगवान की दया से ऐसी बनी है कि वर्षों तक लोग इसे याद रखेंगे. अपने मुंह अपनी तारीफ नहीं- कोई भी व्यक्ति यही कहेगा. ‘सजनवां बैरी हो गये हमार’ तो ऐसा बन गया है कि पुराने ‘देवदास’ के ‘बालम आय बसो मेरे मन में’ की तरह युगों तक गाया जायेगा. मैं ही नहीं- कई लोग ऐसे हैं जो इस गीत को सुनकर आंसू मुश्किल से रोक पाते हैं.
उसी समय उन्होंने अपने चचेरे भाई नगेन्द्र को पत्र में लिखाः ‘‘हां, सुब्रत ने मेरे एक अनुरोध का अक्षरशः पालन किया है. संवाद लिखते वक्त पांडुलिपि में मैंने ‘लाली लाली डोलिया’ वाले दृश्य में लिखा था- ‘‘बच्चों के झुंड के साथ, यानी पीछे-पीछे एक कुत्ता (देहाती) हो. और जब झुंड गाता, तालियां बजाता हुआ दूर निकल जाय, गाड़ी के पीछे- तब एक नंग-धड़ंग ढाई-तीन साल के बच्चे को सबसे पीछे दौड़ता हुआ दिखाया जाय.’’ सुब्रत ने हू-ब-हू उस दृश्य को वैसा ही फिल्माया है. लगता है अपना ही कोई बच्चा दौड़ा जा रहा है. ‘गांव की गोरी’ के लेखक की हरकतों के कारण फिल्म से पूर्णिया के सभी जगहों के नाम हटा दिये गये हैं. सिमराहा-स्टेशन का साइन-बोर्ड काट दिया गया है. सिर्फ एक जगह ‘गढ़बनैली’ का नाम रह गया है. गीतों में, दो गीतों ने
धूम मचाना शुरू कर दिया है- ‘‘सजन रे झूठ मत बोलो’’ और दूसरा- ‘‘सजनवां बैरी हो गये हमार.’’ दूसरे गीत को सुनकर मेरी आंखों से झर-झर आंसू झरने लगते हैं. जितनी बार सुनता हूं- यही हाल होता है. दुःख इसी बात का है कि तुम लोग सुन नहीं पा रहे हो. मैं क्या करूं? चेष्टा हो रही है कि बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में एक साथ रिलीज किया जाय- पन्द्रह दिन देर ही लगे किन्तु हो हर जगह एक साथ. यदि ऐसा हुआ तो अगस्त में पटना अथवा कटिहार में तुम लोग देख सकोगे. यदि पटना रिलीज के समय राज कपूर, शैलेन्द्र पटना आये तो तुमको पत्र दूंगा.
मुझे शुरू से अंत तक के संवाद की कापी तैयार कर देनी पड़ी है. संक्षिप्त कहानी, कथासार तथा प्रमुख दृश्यों का ज्तंदेबतपचजपवद आलेख तैयार किया है. अभी और न जाने क्या-क्या काम है!’’
2 जुलाई, 1966 की रात आर.के. स्टुडियो के शानदार ऑडिटोरियम में एक ‘कव्वाली’ का विशेष आयोजन था. इसमें शैलेन्द्र रेणु को लेकर पहुंचे थे. कार्यक्रम शुरू होने वाला था. तभी राज कपूर की आवाज सुनकर रेणु चौंक गये थे. वे कह रहे थे- ‘‘अजी, खेला तो पर्दे के अन्दर है. अभी तो लोगों को जमाने के लिए ‘जमनिका’ दिया जा रहा है.’’ फिर बात-बात पर- ‘‘जा रे जवानी!’’ ‘‘जा रे जमाना!’’ -रेणु को लगा ‘तीसरी कसम’ का संवाद बोलकर राज कपूर साहब रेणु जैसे देहाती-गंवार का मखौल उड़ा रहे हैं!
किन्तु ऐसा था नहीं. दरअसल राज कपूर हीरामन-मय हो चुके थे. उनकी पत्नी ने बताया कि वे घर में भी आजकल इसी लहजे में बोलते हैं- फेनूगिलासी, डैमफैटकैटलैट, उपलैन...
वहां से लौटते हुए रेणु ने शैलेन्द्र से कहा- ‘‘भाई साहब! अपना हीरामन तो सचमुच हीरा आदमी है. सभी ‘डायलाग’ तीसरी कसम का ही बोल रहा था.’’
लेकिन कुछ ही समय बाद ‘अपना हीरामन’ शो-मैन राज कपूर में बदल गया. वह सोचने लगा कि फिल्म का दुखांत कहीं उसकी सफलता में बाधक न बन जाये. राज कपूर ने शैलेन्द्र को चौंकाते हुए कहा कि इसके अंत में नायक-नायिका को मिला दो. और, इस बात के लिए वे अड़ गये. उन्होंने शैलेन्द्र को बेतरह समझाया. पर वे टस-से-मस नहीं हुए. और राज कपूर उनसे नाराज हो गये. यह शैलेन्द्र के लिए बेहद मंहगा पड़ा. जो वितरक आर.के. की फिल्मों के थे, राज कपूर के साथ थे, वे भी राज कपूर की हां-में-हां मिलाते हुए ‘तीसरी कसम’ को दुखांत से सुखांत बनाने के लिए शैलेन्द्र पर जोर देने लगे.
शैलेन्द्र ने रेणु से कहा- ‘‘वे लोग फिल्म का अंत बदलकर हीरामन-हीराबाई को मिला देना चाहते हैं. यदि मुझे बम्बइया फिल्म ही बनानी होती तो ‘तीसरी कसम’ जैसे विषय को लेता ही क्यों?’’
शैलेन्द्र का रोम-रोम कर्ज से डुबा हुआ था, ‘तीसरी कसम’ की व्यावसायिक सफलता पर ही उनका आर्थिक भविष्य निर्भर करता था, किन्तु वे उसका अंत बदलना नहीं चाहते थे. शैलेन्द्र ने रेणु को सारी स्थिति समझा दी. टक्कर राज कपूर जैसे व्यक्ति से थी, जो न केवल फिल्म के हीरो थे, बल्कि उनके मित्र और शुभचिंतक भी थे. दबाव से तंग आकर आखिर शैलेन्द्र ने कह दिया कि लेखक को मना लीजिए तो वे आपत्ति नहीं करेंगे.
इस सन्दर्भ में शैलेन्द्र के साथ राज कपूर एवं उनके वितरकों की अंतिम बैठक हुई. रेणु बाहर थे. शैलेन्द्र ने रेणु को बुलवाया. कमरे में अच्छा-खासा जमघट था. उन्हें देखते ही शैलेन्द्र बोले- ‘‘रेणुजी, ये लोग कहानी का अंत बदलना चाहते हैं. मैंने साफ-साफ कह दिया है, मैं अन्त नहीं बदलना चाहता. यदि रेणुजी तैयार हो जायेंगे, तो ठीक है.’’...रेणु शैलेन्द्र के चेहरे को देखते रहे. इतना चुक जाने पर भी इस कहानी पर कितना विश्वास था और कितना लगाव! रेणु चुपचाप खड़े थे कि शैलेन्द्र ने लोगों को सम्बोधित कर कहा- ‘‘इस कहानी के लेखक आ गये हैं. अगर आप इन्हें यकीन दिला सकें...’’ और रेणु की ओर एक दृष्टि फेंककर चुपचाप बाहर चले गये. रेणु थोड़ी देर तक शांत खड़े रहे, तब किसी ने उन्हें बैठने के लिए कहा. वे बैठ गये किन्तु उन्हें लगा कि किसी दलदल में फंस गये हों और धीरे-धीरे भीतर धंसते ही जा रहे हों. फिर भाषण शुरू हुआ. उपन्यास क्या है? साहित्य क्या है? फिल्म क्या है? पाठक क्या है? खर्च क्या है और फिल्म-निर्माण क्या है? उसका आर्थिक-पक्ष क्या है? -ऐसे विचार-प्रवर्तक भाषण शायद पूना फिल्म इंस्टीट्यट में भी नहीं होते होंगे. फिर शैलेन्द्र पर चढ़े कर्जे और उसे उतारने की दुहाई दी गयी.
रेणु को वह कमरा अदालत जैसा लग रहा था. तभी किसी ने कहा- ‘‘आप कहानी का अंत बदल नहीं सकते?’’ रेणु उसके चेहरे को चुपचाप देखते रहे. फिर उनमें एक व्यक्ति ने कहा- ‘‘लेखकजी, बुरा न मानें, तो एक बात कहूं...आप साहित्यकारों के साथ यही दिक्कत है, आप लोग ‘एडजेस्ट’ नहीं करते.’’ रेणु मन ही मन सोच रहे थे, हम लेखक लोग जीवन में कितना ‘एडजेस्ट’ करते हैं, ये पैसे वाले क्या जाने. तभी किसी ने कहा- ‘‘हम लोगों ने कहानी का नया ‘ऐण्ड’ सोचा है. कहें तो सुनाऊं?’’ रेणु के मुंह से अनायास निकल गया- ‘‘सुनाइये!’’
‘‘हां साहब, वह जो अपना बैलगाड़ी वाला है...क्या तो नाम है...हीरामन...हां-हां वही हीरामन! देखिये, क्या कमाल का ‘ऐण्ड’ जमाया है. आप वाह कर उठेंगे.’’
रेणु ने सभी चेहरों को देखा. वे सभी संतुष्ट और प्रसन्न थे.
‘‘तो साहब, हीरामन प्लेटफारम पर आता है...बाकी बातें ठीक हैं...आपने अच्छा लिखा है...पर मेरे को कहना है बिदाई का टेंस सीन...कभी हीराबाई का क्लोजअप...कभी हीरामन का क्लोजअप...चेहरे पर कभी एक एम्प्रेशन कभी दूसरा...बाकी डायलाग ठीक है...तभी हीरामन की आंखें गीली हो जाती हैं...वह चेहरा घुमा लेता है...क्लोजअप ऑफ हीरामन...आंसू से भीगा एक दुखी चेहरा...यहां राज साहब कमाल कर देंगे...मेरा दावा है, उनके चेहरे को देखकर पब्लिक की आंखें भीग जायेंगी...कट टू इंजन का ऊपरी हिस्सा- धुआं...जैसे जिन्दगी अब धुएं के सिवा कुछ नहीं- जैसे हीराबाई भी एक धुआं-सी आयी और हवा में उड़ गयी...लेखक साहब, आप खुद सोचिए, ढेर सारे माने निकलेंगे...कट, इंजन के भीतर के ड्राइवर का सिर्फ हाथ...सीटी वाली रस्सी पर...कट, इंजन का ऊपरी हिस्सा- जोर की सीटी...कट- हीरामन पीठ फेरे खड़ा है...कट- हीराबाई देख रही है...गाड़ी धीरे-धीरे सरक रही है...हीरामन पीठ फेरे खड़ा है...हीराबाई हीरामन के चेहरे को आखिरी बार देखना चाहती है...अपने-आप में घुटती है...गाड़ी सरकती जा रही है...कट- इंजन का ऊपरी हिस्सा...फिर जोर की सीटी...कट- रस्सी पर ड्राइवर का हाथ...धीरे-धीरे वह हाथ एक लड़की के हाथ में बदल जाता है- चेन पर...कट- वही हाथ हीरामन के कंधे पर...हीरामन घूमकर देखता है...सामने हीराबाई खड़ी है...दोनों की आंखें गीली हैं...दोनों एक-दूसरे से लिपट जाते हैं...गाड़ी चली जा रही है...दोनों लिपटे हुए हैं. यह शॉट क्रेन से लिया जाये, तो मजा आ जायेगा...दोनों लिपटे खड़े हैं...दूर, बहुत दूर तक जाती हुई गाड़ी...अनन्त में खो जाती है...कहिए, ‘जमता’ है न?’’
रेणु उस सज्जन को देखते हैं. वे पसीने-पसीने हो गये हैं. कहानी-सुनाने की कला पर रेणु मुग्ध हैं. वे सोचते हैं- शायद बम्बई में इसी तरह कहानी बेची जाती है.
फिर उस कथा-वाचक सज्जन ने पूछा- ‘‘जमता है न?’’
रेणु ने कहा- नहीं !
और जज की तरह उठकर वे कमरे से बाहर आ गये. बाहर शैलेन्द्र परेशान-से इधर से उधर टहल रहे थे. रेणु को देखते ही एकदम निकट आ गये- ‘‘क्या फैसला किया?’’ ‘‘वही जो आपने किया था.’’ शैलेन्द्र ने रेणु को बांहों में भर लिया और सुबकने लगे.
हिन्दी की अनेक कथाकृतियों पर फिल्में बनी हैं, लेकिन ऐसा यानी शैलेन्द्र जैसा निर्माता जो रेणु को मिला, वह दुर्लभ है. रेणु यह स्पष्ट तौर पर स्वीकार करते थेः अगर शैलेन्द्र का निधन न होता और यह फिल्म ठीक से प्रदर्शित हो पाती तो व्यावसायिक दृष्टि से भी सफल होती. लेकिन वह एक साजिश का शिकार हो गयी, जिसमें अपने-बेगाने जाने किन-किन का हाथ था और इसकी वजह यह थी कि उन्हें भय था कि ‘तीसरी कसम’ अगर ल हो गयी तो बम्बइया फार्मूले पर वह बहुत बड़ा आघात होगा.
कल्पना कीजिए कि शैलेन्द्र झुक जाते और ‘तीसरी कसम’ के अंत में हीरामन तथा हीराबाई को मिला दिया जाता तो क्या होता? सबसे पहले मूल कहानी की आत्मा ही मर जाती. इसमें तीसरी कसम की सार्थकता भी समाप्त हो जाती. फिल्म को व्यावसायिक सफलता मिलती या न मिलती, कहा नहीं जा सकता, किन्तु यह निश्चय तौर पर कहा जा सकता है कि इसके निर्माण के लिए शैलेन्द्र ने जो साधना की थी, वह निरर्थक हो जाती. शैलेन्द्र कवि थे, गीतकार थे और अपने लिखे हुए में एक-भी वाक्य बदलना उन्हें गंवारा न था, फिर जिस कहानी की आत्मा को अपने अन्दर रचाये-बसाये थे, उसमें थोड़ा भी हेर-फेर उनके दिल को ठेस पहुंचाने वाली थी.
बम्बई में रेणु का काम खत्म हो चुका था. उनके पास लौटने के लिए टिकट के भी पैसे नहीं थे. उन्होंने ‘जलवा’ नामक एक कहानी लिखी तथा तीसरी कसम पर एक संस्मरण और उसे
‘धर्मयुग’ में दे आये. धर्मवीर भारती ने उसे तुरंत छापा और बम्बई के लेखकों ने उस पर गोष्ठी की. रेणु को पारिश्रमिक मिला और वे किसी तरह पटना लौटे.
रेणु बम्बई में थे तो शैलेन्द्र को उनका संग-साथ अच्छा लग रहा था, उन्हें टूटने से बचाये हुए था. अब वे अकेले हो गये- उदास और गुमसुम. लोगों से मिलना-जुलना बेहद कम हो गया. ‘तीसरी कसम’ से जुड़े अनेक लोग अपने पारिश्रमिक के लिए उनसे तगादा करते रहते. उनमें एक व्यक्ति थे असित सेन, जिनका कोई तगादा नहीं आया. शैलेन्द्र ने एक दिन उन्हें फोन किया- असित दा! आपको पैसे की जरूरत नहीं?
असित सेन ने कहा- क्या बात है? नेकी और पूछ-पूछ.
तब शैलेन्द्र ने अपनी पीड़ा बताई- फिल्म खत्म हुए देर नहीं हुई और सभी मुझ पर गिद्ध की तरह टूट पड़े हैं.
इधर फिल्म प्रदर्शित नहीं हो पा रही थी और यह स्थिति थी कि एक लेनदार ने तो उनके खिलाफ अदालत का वारण्ट निकलवा दिया- उनकी गिरफ्तारी के लिए. शैलेन्द्र जो नियमित फिल्मों के लिए गीत लिख रहे थे, ऐसे में वह भी नहीं कर पा रहे थे. उन्हें फिल्म बनाते वक्त भरोसा था कि राज कपूर और विमल राय के वितरक उन्हें सहज ही उपलब्ध हो जायेंगे, किन्तु राज कपूर उनसे रूठे थे और उनके वितरक शैलेन्द्र से नाराज हो गये थे. विमल राय के नहीं रहने से उनके वितरक बिखर गये थे- वहां से भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी. वे अस्वस्थ रहने लगे. तनाव के कारण पीना बढ़ गया.
वैसी ही मनःस्थिति में उन्होंने ‘ज्वेल थीफ’ के लिए एक गीत लिखा- रुला के गया सपना मेरा! वह ‘सपना क्या था? ‘तीसरी कसम’ ही तो वह सपना था, जो रुक-रुककर, घिसट-घिसट कर, अनेक झंझट और झमेलों में फंस-फसकर किसी तरह पूरा हुआ था और प्रदर्शित नहीं हो पा रहा था. शैलेन्द्र को जार-जार रुला रहा था. रेणु थे जो उनके आंसू पोंछते, किन्तु वे पटना जा चुके थे. राज कपूर ने अंतिम दौर तक साथ दिया था, लेकिन अब रूठे हुए थे. शैलेन्द्र के ये ‘मीत’ थे, ‘प्रीत’ थे- कैसे मनाऊं मितवा, गुन मोरे एकहूं नांही! इधर-उधर से खबरें उड़ रहीं थी- तरह-तरह की अफवाहें! इनसे शैलेन्द्र और भी व्यथित हो रहे थे, उद्विग्न हो रहे थे. कुछ खबरें छनकर रेणु के पास भी पहुंच रही थीं. उन्होंने शैलेन्द्र को लिखा- इधर की खबरों से चिंतित हूं. पता नहीं राज साहब किस ‘मूड’ में हों. लगता है, सब कुछ अपने साथ घटा है.
शैलेन्द्र इतना कुछ झेल रहे थे- पीड़ा, संत्रास! इतना टूट चुके थे और टूट-टूट कर बिखर चुके थे, किन्तु ‘तीसरी कसम’ से कोई छेड़-छाड़ करे, यह उन्हें बर्दाश्त नहीं था. वे फिल्म के निर्माता थे, निर्देशक नहीं, किन्तु, यह शत-प्रतिशत उनकी फिल्म थी. उनका कवि हृदय पूरी फिल्म में समाया हुआ था. इसीलिए कई लोगों को लगा कि ‘तीसरी कसम’ सेल्यूलाइड पर अंकित एक कविता है.
रेणु ने एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग के विषय में बताया है, जो शैलेन्द्र की मनःस्थिति का द्योतक है- ‘‘मुझे याद है ‘तीसरी कसम’ के होर्डिंग बन रहे थे. निर्माण विभाग का आदमी आकर शैलेन्द्र से कहने लगा, ‘फणीश्वरनाथ रेणु’ तो बहुत लम्बा नाम है, बहुत जगह घेर लेगा. इसे पी. एन. रेणु कर देते हैं. शैलेन्द्र ने उसे डांटा कि नाम पूरा जायेगा. हां, अपने नाम में से शंकर कटवा कर सिर्फ शैलेन्द्र लिखने को कह दिया.’’
ऐसा था शैलेन्द्र का व्यक्तित्व! उन्होंने रेणु को लिखा था- सब भाग गये- अपने-पराये, दोस्त-यार! यहां तक कि ‘तीसरी कसम’ को पूरा करने का श्रेय शायद मुझ अकेले को मिले. रोऊं या खुश होऊं- कुछ समझ में नहीं आता. पर ‘तीसरी कसम’ पर मुझे नाज रहेगा, पछतावा नहीं.
29 सितम्बर को उन्होंने रेणु को फिल्म के रिलीज होने की सूचना दी, पर वह दिल्ली एवं उत्तर प्रदेश के कुछ शहरों में प्रदर्शित हो पायी. उन्होंने लिखा- मुझे अपनी फिल्म का प्रीमियर देखना भी नसीब न हुआ.
और उनकी तबीयत बिगड़ती चली गयी. 3 दिसम्बर को दोपहर वे राज कपूर के यहां आये और चुपचाप बैठे रहे, मानो अलविदा कहने आये हों. 14 दिसम्बर को राज कपूर जब अपना जन्मदिन मना रहे थे, खबर आयी कि शैलेन्द्र नहीं रहे. पूरा फिल्म-जगत मर्माहत हो उठा.
शैलेन्द्र का गुजर जाना रेणु के लिए एक आघात की तरह था. यह असामयिक निधन था. इसको रेणु ने शहादत कहा है. उन्होंने सही लिखा है कि शैलेन्द्र को शराब या कर्ज ने नहीं मारा, बल्कि वह एक ‘धर्मयुद्ध’ में लड़ता हुआ शहीद हो गया.
शैलेन्द्र की मृत्यु से सबसे ज्यादा मर्माहत रेणु थे. वे एकांत में उनकी याद में ताउम्र आंसू बहाते रहे. कभी उन्हें लगता, ‘तीसरी कसम’ के चक्कर में ही उनकी मृत्यु हुई, इसलिए उसके जिम्मेदार वही हैं. 1967 से 1969 -ये तीन वर्ष ऐसे हैं, जब रेणु कुछ भी लिख नहीं पाये. जो कथाकार बगैर लिखे जीने की कल्पना तक नहीं कर सकता था, वह कुछ भी लिख नहीं पा रहा था. 1967 के मध्य में राजकमल चौधरी का देहांत हो गया और फिर ऋत्विक घटक का जो रेणु के अंतरंग मित्र थे. 1969 ई. के अंत में रेणु भीषण रूप से बीमार पड़े. मरणासन्न अवस्था में उन्हें पटना मेडिकल अस्पताल में भर्ती कराया गया. वे मरते हुए शैलेन्द्र, राजकमल चौधरी और ऋत्विक घटक को याद करते. इन तीनों की मृत्यु के बाद इनकी छाया रेणु के मन में मंडरा रही थी. स्वस्थ होने के बाद उन्होंने अस्पताल की अपनी मनःस्थिति पर फंतासी में या कहें स्वप्न-चित्रों के सहारे एक कहानी लिखी- ‘रेखाएं-वृतचक्र’ जो ‘सारिका’ (1970) में छपी थी. कहा जाता है कि इसमें रेणु ने अपने व्यक्तित्त्व के साथ शैलेन्द्र, राजकमल एवं ऋत्विक घटक के व्यक्तित्व को भी समाहित किया है.
आज न शैलेन्द्र हैं, न रेणु- किंतु, ये सिनेमा एवं साहित्य के ऐसे अविस्मरिणीय व्यक्तित्व हैं, जिन्हें सिनेमा एवं साहित्य में एक कालजयी परम्परा एवं स्तम्भ की तरह सदियों तक याद किया जाता रहेगा. शैलेन्द्र के गुजर जाने के बाद जो ‘तीसरी कसम’ ठीक से प्रदर्शित नहीं होने के कारण बॉक्स ऑफिस पर असफल हो गयी थी, वह देश भर में प्रदर्शित हुई एवं अपार जनसमूह ने उसे अपनाया. उसे राष्ट्रपति पुरस्कार के साथ-साथ अनेक पुरस्कार मिले. लेकिन शैलेन्द्र इन सब को देखने के लिए नहीं थे- वे अपनी ‘कहानी’ एवं अपनी ‘निशानी’ छोड़कर इस धराधाम से जा चुके थे.