सज़ा या सम्मान / राजेन्द्र यादव

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किसी किसान ने जैसे–तैसे एक खेत का जुगाड़ किया और उसमें मेहनत करके फसल उगाने लगा। आँधी, बारिश, तूफान, लगाव–कभी फसल ठीक हो जाती, कभी खराब। कभी सारा साल अपने खेत के सहारे निकाल देता तो कभी बाहर से मजदूरी करके कमी पूरी कर लेता।

एक दिन किसान मर गया।

उसके बेटे ने खेत संभाला और जिंदगीभर शान से रहा–प्रसन्न और आत्मनिर्भर। किसान ने जो खाद, पानी, गोड़ाई–निराई की थी, उसका लाभ बेटे को मिला और इसी फसल के आधार पर उसने काफी संपत्ति बनाई, पत्नी के गहने बनवाए, मकान खरीदा।

50 साल बाद अपनी किसी योजना के अन्तर्गत सरकार ने वह जमीन ले ली और वहाँ एक सार्वजनिक पार्क बनवा दिया। फलों और क्यारियों के लिए माली काम करने लगे। एक दिन एक माली ने गड्ढा खोदा तो उसमें से उसे अचानक एक बहुत पुराना घड़ा मिला। घड़े में पुराने कपड़े, गहने और दूसरी उपयोग की चीजें थीं, शायद कुछ मोहरें और अशर्फ़ियाँ भी। माली उन चीजों की सही कीमत जानने के लिए राष्ट्रीय संग्रहालय पहुँचा और वहाँ के अधिकारियों को सब कुछ दिखाया। अधिकारियों को लगा कि चीजें सचमुच बहुमूल्य हैं और उनसे इतिहास के कुछ ऐसे तथ्यों की जानकारी मिलती है, जिनके लिए शोधकर्ता बरसों से सिर खपा रहे थे। उन्होंने मुँहमाँगा दाम देकर वह सारी सामग्री खरीद ली और संग्रहालय की अलमारियों में लगा दी। यही नहीं, माली को एक बड़े आयोजन के साथ सम्मानित भी किया।

तब सवाल यह उठता है–जो कुछ माली को मिला, क्या उसके बदले में कीमत लेना व सम्मान पाना उसका अधिकार था? निकली हुई संपदा पर किसान के बेटे का हक बनता है या नहीं? अगर माली वह घड़ा न निकालता तो हो सकता है, वह सारी संपदा कभी किसी को न मिलती और जमीन के नीचे ही सड़ जाती। यह माली मुजरिम है या सम्मानित नायक, जिसने इतिहास की खोई हुई कडि़यों और एक बड़ी सांस्कृतिक संपदा को खोजकर निकाला है? अब हे विक्रमादित्य, तू ही बता कि इस माली को गोली मारी जानी चाहिए या उसके गले में हार पहनाया जाना चाहिए?