सज्जाद जहीर के नाम 7 पत्र / प्रेमचंद

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पहला पत्र

पत्रांक 2

बनारस

15 मार्च (1936)

डीयर सज्जाद जहीर,

तुम्हारा 4 तारीख का खत मिला। मैं देहली गया हुआ था। 11 को लौटा हूँ तब यह खत देखा। हमने देहली में एक हिन्दोस्तानी सभा कायम की है जिसमें उर्दू और हिन्दी के अहले अदब (साहित्यकार) बाहम तबादलए-खयालात (पारस्परिक विचार विनिमय) कर सकें। सियासी मुदब्बिरों (राजनीतिज्ञों) ने जो काम खराब कर दिया है उसे अदीबों को पूरा करना पड़ेगा, अगर सही किस्म के अदीब पैदा हो जायँ। किसी तरह आपस की यह मुनाफिरत (घृणा) तो पैदा1 हो। अलीगढ़ के डा. अलीम साहब2 भी तशरीफ रखते थे। उनकी तजवीज (प्रस्ताव) थी कि तरक्कीपसन्द मुसन्निफीन को हिन्दोस्तानी सभा में या इसको उसमें शामिल कर दिया जाय। लेकिन अकसर लोग इस खयाल से मुत्तफिक (सहमत) न हो सके। खैर हिन्दोस्तानी सभा कायम हुई है और उर्दू-हिन्दी के मुसन्निफीन (लेखकों) में कुछ बदगुमानी (भ्रम) का इजाला (निवारण) हो जाय, तो कोशिश नाकाम न रहेगी।

आपने लखनऊ में अंजुमन की शाख कायम करने की कोशिश की है। बहुत बेहतर। लखनऊ है तो एक खास किस्म के अदीबों का अड्डा। लेकिन खैर, कोशिश करना हमारा काम है। पहले हम खुद तो वाजे तौर पर (स्पष्ट रूप से) समझ लें कि हम लिटरेचर को किस तरफ ले जाना चाहते हैं, जभी हम दूसरों को रास्ता दिखा सकते हैं। जब हमें तबलीग (प्रचार) करना है तो उसके लिए असलहे से मुसल्लेह (शस्त्र-सुसज्जित) होना पड़ेगा।

मेरी सदारत की बात। मैं इसका अहल (योग्य) नहीं। इज्ज (विनय) से नहीं कहता, मैं अपने में कमजोरी पाता हूँ। मिस्टर कन्हैयालाल मुंशी3 मुझसे बहुत बेहतर होंगे। या डाक्टर जाकिर हुसैन1। पंडित जवाहरलाल तो बहुत मसरूफ होंगे वरना वे निहायत मौजूँ (उपयुक्त) होते। इस मौके पर सभी सियासियात (राजनीति) के नशे में होंगे, अदबियात (साहित्य) से शायद ही किसी को दिलचस्पी हो लेकिन हमें तो कुछ न कुछ करना है। अगर मिस्टर जवाहरलाल ने कुछ दिलचस्पी का इजहार किया, तो जलसा कामयाब होगा।

मेरे पास इस वक्त भी सदारत के दो पैगाम हैं। एक लाहौर के हिन्दी सम्मेलन का, दूसरा हैदराबाद दक्कन के हिन्दी प्रचार सभा का। मैं इनकार कर रहा हूँ लेकिन वे लोग इसरार (आग्रह) कर रहे हैं। कहाँ-कहाँ प्रेसाइड करूँगा। अगर हमारी अंजुमन में कोई बाहर का आदमी सदर हो तो ज्यादा मौजूँ है। मजबूरी दरजे मैं तो हूँ ही। कुछ रो-गा लूँगा।

और क्या लिखूँ। तुम जरा पंडित अमरनाथ झा2 को तो आजमाओ, उन्हें उर्दू अदब से दिलचस्पी है और शायद वे सदारत मंजूर कर लें।

मुखलिस

प्रेमचंद

1. प्रेमचंद सम्भवतः इस स्थान पर ‘नापैद’ या ‘पैदा न’ हो लिखना चाहते होंगे और शीघ्रता में ‘पैदा’ हो लिख गए होंगे। (‘नया अदब और करीम’ की सम्पादकीय टिप्पणी)

2. डा. अब्दुल अलीम (1905-1976) - लखनऊ विश्वविद्यालय के अरबी भाषा विभाग में व्याख्याता थे, जो उन दिनों अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में थे। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के उपकुलपति रहे। तरक्की उर्दू बोर्ड के भी अध्यक्ष रहे।

3. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी (1887-1971)-1937 में बम्बई सरकार में गृहमंत्री, 1952 में केन्द्र सरकार में खाद्य मंत्री, 1953 से 1958 तक उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहे। 1938 में भारतीय विद्या भवन, मुम्बई की स्थापना की। संविधान सभा के सदस्य रहे।


दूसरा पत्र

पत्रांक 3

बनारस

18 मार्च 1936

बिरादरम,

मेरा खत पहुँच गया होगा इसलिए मैंने आपके तार का जवाब न दिया। रात मिस्टर कन्हैयालाल मुंशी का एक तार आया है कि 4 अप्रैल को वर्धा में आल इण्डिया लिटरेरी कान्फ्रेंस हो रही है। महात्माजी इस तारीख को वर्धा में होंगे और उनके आरजी कयाम (अस्थायी निवास) का फायदा उठाकर फिर तारीख मुकर्रर (निर्धारित) की गयी है। मेरा शरीक होना जरूरी है। इसलिए मैं तो लखनऊ आ भी न सकूँगा। मेरा खयाल है कि अभी हमें किसी जलसे की फिक्र न करना चाहिए। कुछ दिन खमोशी से काम करने के बाद जलसे का एहतेमाम (आयोजन) किया जायेगा। अभी तो गिने गिनाये अहबाब (मित्र) जमा होंगे और हमारा मंशा फौत (इच्छा नष्ट) हो जायेगा।

मुखलिस

प्रेमचंद


तीसरा पत्र

पत्रांक 4

बनारस

19 मार्च 1936

डीयर सज्जाद जहीर,

तुम्हारा खत अभी मिला। मैं तुम्हें एक खत शायद कल लिख चुका हूँ जिसमें मैंने वर्धा में होने वाली आल इण्डिया कान्फ्रेंस का जिक्र किया है जो 4 अप्रैल को होने वाली है। वहाँ से मुझको लखनऊ आना है क्योंकि पण्डित जवाहरलाल की तकरीर (भाषण) का जो तर्जुमा होगा उसके लिए ऐसी जबान की जरूरत है जो कामन लेंगुएज हो। अगर हमारे लिए कोई लायक सदर नहीं मिल रहा है तो मुझी को रख लीजिए। मुश्किल यही है कि मुझे एक पूरी तकरीर लिखनी पड़ेगी। हाँ, अब मुझे जो एतराज मकामी (स्थानीय) कमेटियों के मुताल्लिक था, वह दूर हो गया। बेशक मकामी कमेटियों से मुस्तकिल और जिन्दा (स्थायी एवं जाग्रत) दिलचस्पी कायम रहेगी। देहली की हिन्दोस्तानी सभा का मकसद सिर्फ इत्तेहाद (एकता) और एक मुश्तरक जबान (साँझी भाषा) की तहरीक (आन्दोलन) को कायम रखना है। हमारा मकसद वसीअतर (अधिक विस्तृत) है। मेरी तकरीर में आप किन मसाइल (समस्याओं) पर बहस (चर्चा) चाहते हैं, इसका कुछ इशारा तो कीजिए। मैं तो डरता हूँ मेरी तकरीर जरूरत से ज्यादा दिलशिकन (हृदयविदारक) न हो। आज ही लिख दो ताकि मैं वर्धा जाने के कब्ल (पूर्व) उसे तैयार कर लूँ। वर्धा से आने पर पण्डितजी की तकरीर के तर्जुमे में मसरूफ हो जाऊँगा और तकरीर लिखने का मौका न मिलेगा। मिस्टर अहमद अली ने जो एक मजमून पढ़ा था उसकी नकल या असल भी भेजना और उनसे भी तकरीर के मौजूआत (विषयों) पर राय लेना।

वस्सलाम।

मुखलिस

प्रेमचंद


चौथा पत्र

पत्रांक 5

बनारस

26 मार्च 1936

डीयर सज्जाद जहीर,

खत और खुतबा (उद्बोधन) दोनों मिल गये। मशकूर हूँ। मैं अब वर्धा नहीं जा रहा हूँ क्योंकि आल इण्डिया अदबी कान्फ्रेंस जो वहाँ 3-4 अप्रैल को होने जा रही थी, अब मुल्तवी (स्थगित) हो गयी है। इसलिए मैं सदारत के लिए इनकार की जरूरत नहीं देखता। आप इसका ऐलान कर सकते हैं। मेरा खुतबा मुख्तसर (संक्षिप्त) होगा। मगर शायद मैं इतनी जल्द न लिख सकूँ कि उसे शाया (प्रकाशित) किया जा सके। इसकी जरूरत भी क्या है। पढ़ने के बाद शाया कर दिया जायगा।

मुखलिस

प्रेमचंद

1. यह पत्र मूलतः अंग्रेजी में लिखा गया था लेकिन इसका मूल अंग्रेजी पाठ सम्प्रति उपलब्ध नहीं है।

2. महात्मा गांधी ने नागपुर में हिन्दी साहित्य परिषद का अधिवेशन आयोजित किया था, जहाँ पहली बार हिन्दी-हिन्दुस्तानी की बहस छिड़ी और गांधीजी की कार्यप्रणाली के कारण हिन्दी और उर्दू का पारस्परिक विवाद विकसित हुआ।


पाँचवाँ पत्र

पत्रांक 61

दफ्तर हंस, बनारस

17 अप्रैल 1936

माई डीयर सज्जाद जहीर,

लाहौर से आज ही पलटा हूँ। तुम जानते होगे कि हम लोग 24-25 अप्रैल को महात्माजी की सदारत में नागपुर में एक आल इण्डिया लिटरेरी जलसा करने वाले हैं।2 उर्दू के लेखक भी मदऊ (आमंत्रित) किए गए हैं लेकिन मुझे उनके आने का कुछ ज्यादा यकीन नहीं है। मैंने मौलाना अब्दुल हक साहब1 से नागपुर आने की जाती तौर पर (व्यक्तिगत रूप से) दरख्वास्त की है लेकिन मुझे शुबहा (सन्देह) है कि लाहौर के सफर के बाद (मैं उनसे लाहौर में मिला था) वे नागपुर पहुँचने की तकलीफ उठाएँगे।

क्या तुम 23 अप्रैल को मेरे साथ नागपुर चल सकते हो?

भाई, इन्कार न करना, इससे हमारे मकासिद (उद्देश्यों) का भी थोड़ा बहुत प्रोपेगैन्डा हो जायगा।

पी.ई.एन. का एक खत भेज रहा हूँ। मादाम सोफिया वाडिया2 लखनऊ के जलसे की एक रिपोर्ट चाहती हैं। मेहरबानी करके उन्हें भेज दो। वे एक मजहबी खातून (धार्मिक महिला) हैं। मैं भी उन्हें जवाब लिख रहा हूँ।

रिपोर्ट उनके पास जरूर भेज दो। उसे वे अपने माहाना रिसाले (मासिक पत्रिका) पी.ई.एन. में छापेंगी।

जवाब का इन्तजार रहेगा।

तुम्हारा

प्रेमचंद

छठा पत्र

पत्रांक 7

बनारस

10 मई 1936

डीयर सज्जाद जहीर,

तुम्हारा खत मिला, शुक्रिया। मैं एक दिन के लिए जरा गोरखपुर चला गया था और वहाँ देर हो गई। मैंने यहाँ एक ब्रांच कायम करने की कोशिश की है। तुम उसके मुताल्लिक जितना लिटरेचर हो, वह सब भेज दो तो मैं यहाँ के ‘लेखकों’ को एक दिन जमा करके बातचीत करूँ। बनारस कदामतपरस्ती (रूढ़िवाद) का अड्डा है और हमें शायद मुखालफत (विरोध) का भी सामना करना पड़े। लेकिन दो-चार भले आदमी तो मिल ही जाएँगे जो हमारे साथ इश्तराक (सहयोग) कर सकें। अगर मेरी स्पीच1 की एक उर्दू कापी भी भेज दो और उसका तर्जुमा अंग्रेजी में हो गया हो और छप भी गया हो तो उसकी चन्द कापियाँ और मैनीफेस्टो की चन्द कापियाँ और मैम्बरी के फार्म की चन्द पर्तें और लखनऊ कान्फ्रेंस की कार्रवाई की रिपोर्ट वगैरह, तो मुझे यकीन है कि यहाँ शाख खुल जायेगी। फिर मैं पटना भी जाऊँगा और वहाँ भी एक शाख कायम करने की कोशिश करूँगा। आज बाबू सम्पूर्णानन्द2 से इसी के मुताल्लिक कुछ बातें हुईं। वे भी मुझी को आगे करना चाहते हैं। मैं चाहता था कि वे पेशकदमी (पहल) करते, मगर शायद उन्हें मसरूफियतें (व्यस्तताएँ) बहुत हैं। बाबू जयप्रकाश नारायण साहब3 से भी बातें हुईं। उन्होंने प्रोग्रेसिव अदबी हफ्तावार (साहित्यिक साप्ताहिक) हिन्दी में शाया करने की सलाह दी, जिसकी उन्होंने काफी जरूरत बताई। जरूरत तो मैं भी समझता हूँ लेकिन सवाल पैसे का है। अगर हम कई शाखें हिन्दी वालों की कायम कर लें तो मुमकिन है माहवार या हफ्तावार अखबार चल सके। अंग्रेजी मैगजीन का मसला भी सामने है ही। मैं समझता हूँ, हर एक जबान में एक प्रोग्रेसिव परचा चल सकता है, जरा मुस्तैदी की जरूरत है। मैं तो यूँ भी बुरी तरह फँसा हुआ हूँ। फिक्रे मआश (जीविका की चिन्ता) भी करनी पड़ती है और फिजूल का बहुत सा लिटरेरी काम करना पड़ता है। अगर हममें से कोई ‘होल टाइम’ (पूरा वक्त देने वाला) काम करने वाला निकल आये तो यह मरहला (लक्ष्य) बड़ी आसानी से तय हो जाये। तुम्हें भी कानून ने गिरफ्त कर रखा है। खैर, इन हालात में जो कुछ मुमकिन है वही किया जा सकता है।

1. मौलवी अब्दुल हक (1870-1961) - अंजुमन तरक्की उर्दू के संस्थापक सचिव, जो इस अधिवेशन में सम्मिलित हुए थे। देश विभाजन के उपरान्त पाकिस्तान चले गए और वहाँ भी अंजुमन तरक्की उर्दू की स्थापना की। बाबा-ए-उर्दू के नाम से विख्यात। अनेक पुस्तकों के लेखक व सम्पादक। उर्दू-अंग्रेजी शब्दकोश भी तैयार किया। ‘उर्दू की नश्वोनुमा में सूफिया-ए-कराम का हिस्सा’ शीर्षक पुस्तक विशेष रूप से प्रसिद्ध। रचनाएँ अनेक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित।

2. सोफिया वाडिया (1901-1986) - 1933 में अन्तर्राष्ट्रीय पी ई एन (पोएट्स एडीटर्स नाविलिस्ट्स) के भारतीय केन्द्र की संस्थापक। मार्च 1930 से ‘आर्यन पथ’ नामक अंग्रेजी पत्रिका का सम्पादन किया और 1933 से अंग्रेजी पत्रिका ‘इंडियन पी ई एन’ का सम्पादन किया। थियोसोफिकल विचारधारा से गहरा जुड़ाव।

तुम्हारा ‘बीमार4 तो मुझे अभी तक नहीं मिला। मिस्टर अहमद अली साहब क्या इलाहाबाद में हैं? उन्हें दो माह की छुट्टी है। वे अगर पहाड़ जाने की धुन में न हों तो कई शहरों में दौरे कर सकते हैं और आगे के लिए उन्हें तैयार कर सकते हैं। ‘बीमार’ अभी तक न भेजा हो तो अब भेज दो।

यह खबर बहुत मसर्रतनाक (आनन्ददायक) है कि बंगाल और महाराष्ट्र में कुछ लोग तैयार हैं। हाँ, वहाँ सूबेजाती (प्रान्तीय) कान्फ्रेंसें हो जायें तो अच्छा ही है और अगला जलसा पूना में ही होना चाहिये क्योंकि दूसरे मौके पर राइटरों का पहुँचना मुश्किल हो जाता है। फाकामस्तों की जमात जो ठहरी। वहाँ तो एक पंथ दो काज हो जायेगा।

हिन्दी वाले प्दमितपवतपजल बवउचसमग से मजबूर हैं मगर गालिबन (सम्भवतः) यह खयाल तो नहीं है कि यह तहरीक उर्दू वालों ने उन्हें फँसाने के लिए की है। अभी तक उनकी समझ में इसका मतलब ही नहीं आया है। जब तक उन्हें जमा करके समझाया न जायेगा, यूँ ही तारीकी (अंधेरे) में पड़े रहेंगे। एक नौजवान हिन्दी एडीटर ने, जो देहली के एक सिनेमा अखबार के एडीटर हैं, हमारे जलसे पर यह ऐतराज किया है कि इस जलसे की सदारत तो किसी नौजवान को करनी चाहिये थी, प्रेमचंद जैसे बूढ़े आदमी इसके सदर क्यों हुए। उस अहमक को यह मालूम नहीं कि यहाँ वही जवान है जिसमें प्रोग्रेसिव (तरक्कीपसन्द) रूह हो। जिसमें ऐसी रूह नहीं, वह जवान होकर भी मुर्दा है।

नागपुर में मौलवी अब्दुल हक साहब भी तशरीफ लाये थे, उनसे दो रोज खूब बातें हुईं। मौलाना इस सिनो साल (आयु) में बड़े जिन्दादिल बुजुर्ग हैं।

और क्या लिखूँ, वह सब लिटरेचर और ‘बीमार’ का नुस्खा भेजिए। क्या बताऊँ, मैं ज्यादा वक्त निकाल सकता तो कानपुर क्या, हर एक शहर में अपनी शाखें कायम कर देता। मगर यहाँ तो प्रूफ और खुतूतनवीसी (पत्रलेखन) से ही फुर्सत नहीं मिलती।

हाँ, चोरी हुई मगर तशफ्फी (सन्तोष) इस खयाल से करने की कोशिश कर रहा हूँ कि मुझे एक हजार रुपये अपने पास रखने का क्या हक था?

मुखलिस

प्रेमचंद

1. प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन में पढ़ा गया अध्यक्षीय वक्तव्य।

2. डा. सम्पूर्णानन्द (1890-1969) - अध्यापन कार्य छोड़कर वाराणसी के ज्ञानमण्डल और काशी विद्यापीठ से सम्बद्ध रहे। तदुपरान्त स्वतंत्रता संग्राम में जुट गए और कई बार जेल यात्रा की। 1926 में उ.प्र. एसेम्बली के सदस्य बने और 1937 में शिक्षा मंत्री। 1955 में उ.प्र. के मुख्यमंत्री बने और फिर राजस्थान के राज्यपाल रहे। हिन्दी साहित्य सम्मेलन से मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त।

3. जयप्रकाश नारायण (1902-1979) असहयोग आन्दोलन के दौरान 1921 में पढ़ाई छोड़कर देश कार्य में लगे। आल इंडिया सोशलिस्ट पार्टी, पटना के तत्कालीन महासचिव। स्वतंत्रता के उपरान्त समग्र क्रान्ति के प्रणेता, जिनके नेतृत्व में हुए व्यापक जन-आन्दोलन के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को आपात्काल की घोषणा करनी पड़ी थी। 1977 में हुए आम चुनाव में इनके नेतृत्व में ही जनता पार्टी की सरकार अस्तित्व में आई।

4. सज्जाद जहीर के लिखे हुए नाटक का शीर्षक।

सातवाँ पत्र

पत्रांक 8

सरस्वती प्रेस, बनारस कैंट

12 जून 1936

डीयर जहीर,

भई माफ करना, तुम्हारे खत का जवाब जल्द न दे सका और न इलाहाबाद आ ही सका। मैंने अपनी तकरीर का तर्जुमा हिन्दी में करा लिया है और उसे जुलाई के ‘हंस’1 में निकाल रहा हूँ। अभी मदरसे और यूनिवर्सिटी बन्द हैं, इसलिए यहाँ एसोसिएशन की शाख शायद अगस्त से पहले न खुल सकेगी। आजकल तो इलाहाबाद में सन्नाटा होगा। ‘बीमार’ मैं पढ़ गया। बीमार तुम्हारा हीरो है मगर कहीं उसका कैरेक्टर जाहिर नहीं हुआ इसके सिवा कि वह बीमार है और एक अजीज (मित्र) के घर बोझ की तरह पड़ा हुआ है। वह अगर इस सोसाइटी के उसूल (सिद्धांत) और बरताव का कायल नहीं, अपनी सोसाइटी अलग बनाना चाहता है, अस्रे नौ (नवयुग) का पैगामबर (सन्देशवाहक) है तो उसका कुछ अमली इजहार (व्यावहारिक अभिव्यक्ति) तो उसे करना चाहिए। महज जबानी इश्तिराकियत (साम्यवाद) से क्या हासिल। मैं ऐसे कितने नौजवानों को जानता हूँ जो मजलिसे अहबाब (मित्रों की सभा) में सोशलिस्ट और कम्यूनिस्ट सब कुछ हैं मगर जब जवाँमर्दी दिखाने का मौका आता है तो हरमसरा (अन्तःपुर) में रूपोश (छुप) हो जाते हैं। बीमार को इस तरह नाजिर (दर्शक) के सामने आना चाहिए कि उससे हमदर्दी हो। मौजूदा हालत में तो अजीज ही से हमदर्दी होती और सलीमा2 ही बेइन्साफी पर माइल (आमादा) नजर आती है। जबान शुस्ता (परिमार्जित) है और मियाँ-बीवी का मुकालमा (वार्तालाप) बिल्कुल फितरी (स्वावभाविक)। मेरी तकरीर का अंग्रेजी तर्जुमा जो कर रहे थे?

मुखलिस

प्रेमचंद

1. हिन्दी मासिक जो बनारस से मुंशी प्रेमचंद के सम्पादन में मार्च 1930 से प्रकाशित होना आरम्भ हुआ था।

2. ‘अजीज’ और ‘सलीमा’ सज्जाद जहीर के नाटक ‘बीमार’ के दो पात्र हैं।