सड़क जादे का जन्म : शनि दशा / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
सड़क जादे का जन्म : शनि दशा
प्रकाशन तिथि : 17 मई 2020


अपने जन्म स्थान की ओर लौटते हुए कामगारों की मदद कर रहे हैं नागरिक। हाईवे पर उन्हें भोजन, पानी व कपड़े दिए जा रहे हैं। डॉक्टर भी जांच कर रहे हैं। दवाएं दी जा रही हैं। इस सड़क मंथन में अमृत निकल रहा है। कुछ संस्थाएं अपनी गाड़ियों में लोगों को कुछ दूर तक छोड़ रही हैं। बुरहानपुर में माइक्रो विजन, सेवा का कार्य बड़े पैमाने पर कर रही है। मानव सेवा का जज्बा परिस्थितियों के अनुरूप विराट होता जा रहा है। सेवा कार्य किसी एक शहर तक सीमित नहीं है। मानव सेवा नए तीर्थ स्थान गढ़ रही है। दया, दमन पर हमेशा भारी पड़ती है। देश की संपत्ति का आकलन बैंक या फोर्ट नॉक्स से नहीं ज्ञात होता। नागरिकों का कर्तव्य बोध ही देश की स्थायी संपत्ति है। घर लौटते कामगारों में कुछ की मृत्यु हुई है तो कई शिशु भी जन्मे हैं। क्या शिशु का नाम ‘सड़क जादा’ होगा? कुंडली में शनि दशा है। प्राय: हम अस्पताल में देखते हैं कि किसी वॉर्ड में मृत्यु हो रही है तो किसी अन्य कमरे में शिशु का जन्म हो रहा है। जन्म, मृत्यु और जन्म का चक्र अब सड़क पर चलते हुए भी देखा जा सकता है।

सड़कों पर मानवीय करुणा की लहरें प्रवाहित हैं। कहीं चोरी-चकारी भी हो रही है। इसे हम काजल की तरह मानें कि सत्य कार्य को नजर न लगे- ‘कहे रात से जलता दिया, बावली तूने ये क्या किया, कहीं दाग न लग जाए, कहीं आग न लग जाए’। नीरज होते तो अपने ‘कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे’ गीत में नए छंद जोड़ देते। फिल्म अभिनेता सोनू सूद ने कविता रची है- ‘न गुरूर तुझे लंबे होने पर ए सड़क, गरीब के हौसले ने तुझे पैदल ही नाप दिया’। अभिनेता कविता लिख सकता है, कवि अभिनय नहीं कर सकता। सृजन चक्की बड़ा महीन पीती है। ज्ञातव्य है कि कुछ दिन पूर्व भी सोनू सूद ने अपना होटल बेघरबार लोगों के लिए नि:शुल्क खोल दिया। जगह-जगह सहायता व करुणा के परचम लहरा रहे हैं। मानो बिस्मिल को दोहरा रहे हों- ‘देखना है जोर कितना बाजुए कोरोना में है’।

सामूहिकता के बल को रेखांकित करने वाली फिल्म ‘नया दौर’ में साहिर रचित गीत है- ‘साथी हाथ बढ़ाना, साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जाएगा, मिलकर बोझ उठाना’। वामपंथी कवियों और लेखकों ने सामूहिकता की शक्ति पर अनगिनत रचनाएं की हैं। शैलेंद्र ने फिल्म ‘बूट पॉलिश’ के लिए लिखा है-‘नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है, मुट्ठी में है तकदीर हमारी’, हमने किस्मत को अपने बस में किया है... ‘।

मिसेज ऊषा चंदेल को इतने रोग हैं कि उन्हें चलता-फिरता वॉर्ड मान सकते हैं। बीमारियां उनके शरीर को अपना घर समझती हैं जहां उन्हें प्यार-दुलार मिलता है। उन्हें प्राणायाम से राहत मिलती है। उन्हें चाय पीना पसंद है। वे अपने आपको रिश्वत देती हैं कि प्राणायाम करने के बाद ही अपनी प्रिय चाय का सेवन कर सकेंगी। मनुष्य स्वयं को प्रताड़ित करता है, रिश्वत देता है और किसी तरह खुशी की जेब कतरी भी करता है। उसके लिए खुशी सड़क पर पड़ा बटुआ भी है, जिसे वह बटुए के मालिक तक पहुंचाने के लिए मार भी खाता है। ‘जख्मों भरा सीना है मेरा, हंसती है मगर ये मस्त नजर..’।

आम लोगों के दिन-प्रतिदिन के जीवन में अनजाने ही दार्शनिक मूल्यों का पतन हो जाता है। यह सब सहज होता है। स्वस्फूर्त भी है। जीवन का समग्र ही निर्णायक है। किसी एक घटना या एक वाक्य के आधार पर कुछ निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता, क्योंकि मनुष्य पकता हुआ चावल नहीं है कि एक दाने से उसके पकने का अनुमान लगाया जा सके। जिया सरहदी की बलराज साहनी अभिनीत फिल्म ‘हम लोग’ में कामगार एक साथ भोजन करते हैं। सबके घर से लाए डिब्बों से थोड़ा-थोड़ा सब बांटकर खाते हैं। नरगिस के भाई अनवर हुसैन अभिनीत पात्र की आदत है कि वह केवल नीबू लेकर आता है और अपने इसी सहयोग के दम पर भोजन प्राप्त करता है। समाज में हमेशा बिचौलिए नीबू लिए घूमते हैं। कंगना रनोट अभिनीत फिल्म ‘क्वीन’ में कुछ फक्कड़ लोग एक ही कमरे में रहते हैं। एक-दूसरे की सहायता से मरते-मरते जी लेते हैं। क्लाइमैक्स में नायिका पर दबाव है कि वह अपने साथियों के रॉक-शो को देखने नहीं जाए, परंतु सहभागिता की भावना से संचालित नायिका शिरकत करती है।

ज्ञातव्य है कि हिंदुस्तानी सिनेमा के विकास में बॉम्बे टॉकिज नामक निर्माण संस्था के आर्थिक संकट के दौर में सभी कलाकारों और तकनीशियंस ने अपना मेहनताना लिए बिना ही एक फिल्म का निर्माण किया था। नसीरुद्दीन शाह अभिनीत ‘अ वेडनेसडे’ में एक आम आदमी अकेला ही व्यवस्था को हिला देता है। आतंकवादियों को मरवा भी देता है। वह अपने चातुर्य से उन्हें आत्महत्या के लिए बाध्य कर देता है। इस विस्थापन में सड़क पर जन्मे शिशु का जन्मस्थान क्या लिखेंगे? जन्म-मृत्यु का लेखा-जोखा रखने वाली संस्था के खाते में क्या दर्ज होगा? सारे खाते, बही खातों में दर्ज होते हैं। आधी हकीकत आधा फसाना। जनगणना भी मनगढ़ंत हो सकती है। स्टैटिक्स विभाग में कभी-कभी दो और दो चार नहीं बाईस दर्ज हो जाते हैं। आंकड़ों के आईने पर विश्वास मत करना। कबीर कहते हैं कि आज अनदेखी पर विश्वास करो, शैलेंद्र कहते हैं- मत रहना अंखियों के भरोसे। कबीर के दौर में उतनी धोखाधड़ी नहीं थी, जितनी शैलेंद्र ने अपने दौर में भोगी है। कैमरा तक झूठ बोलने लगा है।