सड़क पर गिरा आज़ादी का बटुआ / जयप्रकाश चौकसे

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सड़क पर गिरा आज़ादी का बटुआ
प्रकाशन तिथि :15 अगस्त 2017


हुकूमते बरतानिया के तत्कालिन प्रधानमंत्री विन्सटन चर्चिल ने 1945 में कहा था कि भारतीय लोगों को स्वतंत्र नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे हुकूमत नहीं कर पाएंगे और प्रशासन-तंत्र के चिथड़े उड़ जाएंगे। आज़ादी के सत्तर वर्षों में भारत ने विन्सटन चर्चिल को गलत साबित कर दिया परंतु भीतरी सतह पर वे पूरी तरह गलत भी साबित नहीं हुए। प्रशासन में सांप्रदायिकता का प्रवेश हो गया और रिश्वत की दीमक ने ढांचे को खोखला बना दिया। भारत की आधारशिला संश्लेषण रही है, जिसे विगत समय में कमजोर कर दिया गया है। आज हम विभाजित लोग हैं। क्षेत्रीयता विकराल स्वरूप ग्रहण कर चुकी है। दरअसल, हम ब्रिटेन की 'बांटो और शासन करो' की नीति का ही अनुसरण कर रहे हैं। विभाजन के विष का जाम पूरा भरा है और उसकी बंूदें बाहर गिरती रहती हैं। इस जाम की विशेषता यह है कि यह खाली होते ही फिर पूरा भर जाता है। इसका मिज़ाज़ कुछ उस अक्षय पात्र की तरह है,जो श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को भेंट स्वरूप दिया था।

गंगा महज नदी नहीं है, वह भारत की संस्कृति की प्रतीक है। उसे धर्म से जोड़कर देखने से उसका विराट स्वरूप बौना हो जाता है। गंगोत्री से हुगली तक की 2,550 किलोमीटर की राह में अनेक नदियां उससे जा मिलती है। यहां तक कि दक्षिण से आने वाली नदी भी उससे इलाहाबाद से 40 किलोमीटर पहले मिल जाती है। इस तरह वह पूरे भारत की प्रतीक बन जाती है। 15 अगस्त 1985 को राष्ट्र के नाम अपने भाषण में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की बात की थी, जिसे अन्य नेताओं द्वारा जितनी बार दोहराया गया उतने प्रयास भी उसे प्रदूषण मुक्त करने के नहीं किए गए। भारत के किसी भी शहर में मरे हुए व्यक्ति की अस्थियों का कुछ अंश गंगा में बहाया जाता है ताकि मरने वाले को स्वर्ग मिले गोयाकि स्वर्ग कोई फिल्म है, जिसे देखने का टिकट गंगा से प्राप्त किया जा सकता है। यह चिरंतन बॉक्स ऑफिस खिड़की है।

गंगा भारत की संस्कृति की प्रतीक है और इस संस्कृति की आधारशिला संश्लेषण है अर्थात यह बहुलतावादी है और अनेकता में एकता इसी का मंत्र है। इस संस्कृति ने हमेशा बाहरी प्रभावों को अपने में समाहित किया है। गंगा की ही तरह अनेक नदियां इसमें मिलकर इसे मजबूत बनाती है। वर्तमान के हुक्मरान इसे अलग-थलग करके इसके आधार पर ही प्रहार कर रहे हैं। गंगा का वर्णन नेहरूजी ने इस तरह किया है, 'मैंने सुबह की रोशनी में गंगा को मुस्कराते, उछलते-कूदते देखा है। और देखा है शाम के साये में उदास, काली-सी चादर ओढ़े हुए, भेदभरी। जाड़ों में सिमटी-सी आहिस्ता बहते बहुत सुंदर धारा, और बरसात में दौड़ती हुई, समुद्र की तरह चौड़ा सीना लिए और संसार को नष्ट करने की शक्ति लिए हुए। यही गंगा मेरे लिए प्रतीक है भारत की प्राचीनता की, उसके विगत की स्मृति की, जो बहती है वर्तमान तक और बहती जा रही है भविष्य के महासागर की ओर।' नेहरू को फोटोग्राफी का शौक था और वे प्राय: पहाड़ों व नदियों के चित्र लेते थे। 1839 में चलते-फिरते चित्र लेने वाले मूवी कैमरे का इजाद हुआ। कुछ समय बाद ही जर्मन दार्शनिक बर्गसन ने कहा, 'मशीनी कैमरे और मनुष्य के मस्तिष्क में समानताएं हैं। मनुष्य की अांखें कैमरे के लेन्स की तरह है और उससे लिए चित्र मस्तिष्क के स्मृति के कोश में एकत्रित होते हैं तथा एक विचार उन स्थिर चित्रों को चलायमान कर देता है। नेहरू के मस्तिष्क से लिया गया भारत का चित्र आज डेवलपमेंट की प्रक्रिया में तोड़ा-फोड़ा जा रहा है, क्योंकि यह दौर ट्रिक फोटोग्राफी का है अर्थात फोटोग्राफ से भी झूठ प्रतिपादित किया जा सकता है।

विगत सत्तर वर्षों में अनेक परिवर्तन हुए हैं। समुद्र की उतंुग एवं सदैव चंचल लहरें परिवर्तन की प्रतीक हैं और समुद्र के गर्भ में स्थिरता है, कुछ अपरिवर्तनीय है। आज चुनौती सतत होते परिवर्तन और स्थिरता के बीच के तनाव को साधने की है। इतिहास बोध से वंचित शक्तियों ने उस गरिमामय इतिहास को एक ढोल की तरह बजाते हुए एक अजीबोगरीब शोर की रचना की है और इस प्रक्रिया में हमारी संस्कृति की संश्लेषण आधारशिला को तोड़ने का प्रयास किया है। यह संश्लेषण अर्थात सिंथेसिस ही हमेशा महत्वपूर्ण रहा है। हमें आज़ादी लम्बे संघर्ष के बाद मिली है परंतु हमने आज़ादी को उस रुपए कीतरह खर्च कर दिया, जो किसी को सड़क पर गिरे बटुए से मिला हो। हमारा व्यवहार उस लापरवाह युवा की तरह है, जिसे पिता की संपत्ति विरासत के बतौर मिली हो। रुपए का अवमूल्यन हुआ है परंतु आज़ादी का मूल्य हमने स्वयं गिरा दिया।

याद आता है ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'अनाड़ी' का दृश्य। पांच सितारा होटल में जश्न चल चल रहा है, रंगीन कपड़े पहने लोग थिरक रहे हैं, ठहाके लगा रहे हैं। नायक एक अमीर को खोजता आया है,जिसका पर्स कार से उतरते समय गिर गया था। वह पर्स लौटाते हुए पूछता है कि ये नाचते-गाते ठहाके लगाते लोग कौन हैं? जवाब है, 'ये वे लोग हैं, जिन्हें सड़क पर गिरे पर्स मिले और उन्होंने लौटाए नहीं।' हम सब विचार करें कि क्या आज़ादी सड़क पर गिरा हुआ बटुआ है और हमें उसे लौटाना है या हड़पना है?