सड़क से संसद तक गूंजती आवाज-दुष्यंत / सपना मांगलिक

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"एक खंडहर के हृदय-सी एक जंगली फूल सी,
आदमी की पीर गूगी ही सही गाती तो है।"

वास्तव में वह कवि, कवि नहीं वह शायर, शायर नहीं और वह लेखक, लेखक ही नहीं है जो कि अपने देश और समाज तथा उसमें निवास करने वाले अपने बंधुओं की पीड़ा को न समझ सके तथा उस पीड़ा को व्यक्त करने और शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने में अपनी लेखनी को हथियार न बनाए। कहते हैं कि "जहाँ न पहुंचे रवि वहाँ पहुंचे कवि", एक कवि ही मूक सवेद्नाओं को मुखर कर सकता। दिनकर ने भी तो कहा है कि "दो में से तुम्हें क्या चाहिए कलम या कि तलवार।" असली साहित्यकार वही है जो अपने समय की नब्ज़ हाथ में पकड़ कर उसकी पहचान रख सकता है। निर्मल वर्मा कहते थे कि "जैसे कटीली झाडियों में कोई कबूतर फंसा है और उसे बाहर निकाल कर लोगों को दिखाने में हाथ लहू - लुहान हो जाता है, वैसे ही सच्चाई को कागज़ पर उतारने में व्यक्ति को पूर्णतः छिल जाना पड़ता है।" दुष्यंत कुमार की कई ग़ज़लें इंदिरा गाँधी की निर्मम व्यवस्था पर करारा प्रहार करती थी।उस वक्त जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू किया था। तब सामाजिक सरोकार से जुडी हर चीज़ पर प्रतिबन्ध लगाए जा रहे थे चाहे वह कोई फिल्म हो साहित्य हो या पत्रकारिता। हर एक को संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा था। आम जनता घुट रही थी, परेशान हो रही थी और उसकी चीत्कार निर्मम सरकार के प्रतिबंधों और तानाशाही की वजह से कंठ में दबी थी, आम आदमी के कंठ में दबी उसी चीत्कार को दुष्यंत ने मुखर किया। उन्होनें ऐसी गज़लें लिखीं जिन्होंने सड़क से लेकर संसद तक विरोध की आवाज उठा दी। आम जनता का खोया हुआ आत्मविश्वास लौटाया और सामाजिक चेतना की अलख जगा दी। ऐसा नहीं है कि उससे पहले राष्ट्रीय काव्य लिखा ही नहीं गया। दिनकर जैसे राष्ट्र कवि रहे जिन्होंने कई देशभक्ति से ओत-प्रोत शायरी लिखीं, आजादी के संघर्ष के समय रामप्रसाद बिस्मिल जैसे शायर रहे जो 'सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है' जैसी अमर ग़ज़लें लिख गए। सुभद्रा कुमारी चौहान ने "बुंदेले हरबोलों के मुंह से शोर्य गाथा सुनवाई तो माखन लाल चतुर्वेदी ने "पुष्प की अभिलाषा" के माध्यम से मातृभूमि और उसके वीरों के महत्त्व को वर्णित किया। पर दुष्यंत ने इस मुल्क की व्यवस्था के सामने आदमी की बेबसी और लाचारी को इतना सशक्त और चुभने वाला स्वर दिया कि लोगों के सीधे दिल में उतर गया। इसकी एक बानगी देखिये-

"कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए."

इस शेर में दुष्यंत ने तत्कालीन सरकार के करनी और कथनी के अंतर पर करारा व्यंग्य किया है। कविता के माध्यम से भ्रष्टाचार को करारा तमाचा जड़ना शायद इसी को कहते हैं। और ऐसे तमाचे तत्कालीन व्यवस्था पर दुष्यंत ने एक बार नहीं बार -बार मारे हर बार मारे। क्योंकि धरती पर जलजला लाने के लिए किसी प्राकृतिक आपदा की ज़रूरत नहीं होती बस एक कवि या शायर का रोता हुआ दिल ही यह काम बखूबी कर देता है। विकास, समानता और उन्नति के झूठे वादे और वोट बेंक की स्वार्थी नीतियों पर क्षोभ प्रकट करते हुए, इस शेर में दुष्यंत लोगों का आगाह करते हैं कि -

"ये रोशनी है हकीकत में एक छ्ल लोगो
कि जैसे जल में झलकता हुआ महल लोगो।"

दुष्यंत कुमार का जन्म बिजनौर जनपद (उत्तर प्रदेश) के ग्राम राजपुर नवादा में 1 सितम्बर, 1933 को हुआ था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत कुछ दिन आकाशवाणी भोपाल में असिस्टेंट प्रोड्यूसर रहे। इलाहाबाद में कमलेश्वर, मार्कण्डेय और दुष्यंत की दोस्ती बहुत लोकप्रिय थी। वास्तविक जीवन में दुष्यंत बहुत, सहज और मनमौजी व्यक्ति थे। कथाकार कमलेश्वर बाद में दुष्यंत के समधी भी हुए. दुष्यंत का पूरा नाम दुष्यंत कुमार त्यागी था। प्रारम्भ में दुष्यंत कुमार परदेशी के नाम से लेखन करते थे। जब उनका शायर चिन्तन की गहराई में उतर जाता तो उन्हें यह चिन्ता हो उठती है कि-

"तमाम रात तेरे मैकदे में मय पी है
तमाम उम्र नशे में निकल न जाय कहीं।"

आजादी के बाद हमारे आंतरिक मूल्यों में इतनी गिरावट आयी है कि हम अपने ही भाई बंधुओं को धोखा देने से बाज नहीं आते, वशुधैव कुटुम्बकम की भावना का तो प्रश्न ही नहीं उठता। आज हर रिश्ते में हर आदमी में हम प्रेम नहीं मतलब खोजते हैं जिससे मतलब सिद्ध हो वही मित्र अन्यथा हम उसे पहचानते भी नहीं। गजलकार ने हमारी इस मनोदशा को कुछ यूँ व्यक्त किया है -

दुकानदार तो मेले में लुट गये यारो
तमाशबीन दुकानें लगाके बैठ गये।

भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी के माध्यम से सरकारी कार्यालयों में लालफीताशाही और अफसरों की मनमानी के चरम पर पहुँचने से दुष्यंत को कोफ़्त होती थी वह मेहनत का खाने के पक्षधर थे हराम का खाने वालों से या लूटमार करने वालों से उन्हें सख्त नफरत थी।तभी तो वह कहते हैं कि-

"यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा।"

आजादी से पूर्व लोगों का स्वप्न, राम राज्य की स्थापना और देश को पुन: सोने की चिड़िया बनाना था। मगर साम्प्रदायिक दंगे जातिगत वर्गीकरण और आरक्षण नेताओं का स्वार्थ की खातिर भोली भाली जनता को बरगलाना उन्हें ग़लत रास्ते पर ले जाने वाले भड़काऊ भाषण एवं प्रचार दुष्यंत को कभी रास नहीं आये। टूटते स्वप्नों के इस मायूसी भरे माहौल पर उन्होंने कहा -

"कहीं पर धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पर शाम सिरहाने लगा के बैठ गए
खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को,
सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए"

अपने ही वतन की आवोहवा में उन्हें परायेपन की बू आने लगी थी तभी तो इस शायर का भावुक ह्रदय बोल पडा -

यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए.

सत्ता का कहर और आम जन की खामोशी परे दुष्यंत को बड़ी हैरानी होती है कि क्या यही वह देश है जहाँ भगत, राजगुरु, सुखवीर जैसे क्रांतिकारी हुए थे? क्या यह वही देश है जहाँ सरदार बल्लभ भाई जैसे लोह पुरुष और रानी लक्ष्मी बाई और झलकारी वाई जैसी वीरांगनाओं ने जन्म लिया था? क्या यह वीर सुभाष का वही देश है जहाँ यह नारा लगाया जाता था कि "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा" और सुभाष के इतना कहते ही माएं अपने इकलौते पुत्रों को मातृभूमि पर शीश चढाने हँसते हँसते विदा करती थीं।नहीं यह वह देश नहीं नहीं यह वह वीर देशवासी भी नहीं लगते? आखिर क्या हुआ है इन्हें? क्यों पहन ली हैं वीर हाथों ने चूड़ियाँ? मन में उमड़ते घुमड़ते यह प्रश्न और जनता की खामोशी दुष्यंत को विचलित कर रही थी तभी तो वह पूछ उठे -

"यहाँ तो सिर्फ़ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं
खुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा"

जहां आम आदमी की बोटियों को खाकर कुछ भूखे स्वान अपनी स्वार्थ पूर्ति में लिप्त थे वहीँ गरीव एक एक निवाले को तरस रहा था।आम जन की यह करूण व्यथा, यह दारुण दुःख दुष्यंत के सिवा कौन बयान कर सकता है? इन दो शेरों में कातिल और बिस्मिल दोनों को ही इंगित किया गया है-

"अब नयी तहजीब के पेशे-नज़र हम
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं।"

और

"हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत
तुमने बासी रोटियाँ नाहक उठाकर फेंक दीं।"

इन्हीं सारी तकलीफों ने दुष्यंत की गजल में एक क्रांति का स्वर भर दिया।और वह जानते थे उनके दिल से निकली आवाज में वह ताकत है जो गरम लावे की तरह से सरजमीं के लोगों के दिलों में धधक रही वेदना को ज्वालामुखी में परिवर्तित कर सकती है, जो चट्टानों को चूर चूर कर रेत बना सकती है।उनके इसी यकीन पर उनका ही यह शेर देखिये -

"वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए।"

वह देश के डरे-सहमे लोगों से अपील करते हैं कि डर के साए से बाहर आकर साहस के सूरज को सलाम करो क्योंकि अगर तुम नहीं बदलोगे तो तुम्हारा वक्त कैसे बदलेगा? और कौन बदलेगा? क्योंकि अपने मरे बिना स्वर्ग न आज तक किसी को प्राप्त हुआ है और न ही होगा।इसलिए मेरे देशवासियों आओ और हो जाओ एकजुट समाज में एक नयी चेतना लाने के लिए, अपना हक़ पाने के लिए, देश की बदहाल तस्वीर बदलने के लिये, आओ और बन जाओ उँगलियों से मुठ्ठी और तोड़ दो स्वार्थी सत्ता का तिलिस्म -

"पुराने पड़ गये डर फेंक दो तुम भी
ये कचरा आज बाहर फेंक दो तुम भी।"

वह अपनी शायरी को जन जन की आवाज बना क्रान्ति चाहते थे, और इसके लिए वह लोगों में दायित्व की भावना देखना चाहते थे जो उस वक्त ढूंढें नहीं मिल रही थी।व्यथित हो दुष्यंत को कहना पडा-

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।

और देश के प्रति अपने समाज के प्रति इसी भावना को जाग्रत करने के लिए उन्होंने फिर वह शेर कहा जो इतिहास बन गया।यह शेर दुष्यंत का प्रतिनिधित्व करता है, इसी शेर ने दुष्यंत को हिन्दी का मीर बना दिया।जो आज भी सड़क से लेकर संसद तक आम जनता की आवाज बनकर गूंजता है-

"सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।"

आम आदमी गरीवी, बेरोजगारी और भुखमरी से जूझ रहा था, सरकार आस तो बंधा रही थी मगर प्यासे की प्यास नहीं बुझा रही थी जनता का आक्रोश बढ़ता जा रहा था कहीं से भी कोई राहत या उम्मीद की किरण दूर दूर तक द्रष्टिगोचर नहीं थी। ऐसे हालात का दुष्यंत ने अपनी शायरी में यूँ जिक्र किया-

"ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा।
कई फ़ाके बिता कर मर गया जो उसके बारे में
वो सब कहते हैं कि ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा"

सता अपनी ताकत से अपने कार्यों को बढ़ा चढ़ा कर पेश कर रही थी, सरकारी नुमाइंदे सरकार का और उसकी योजनाओं का ढोल पीट रहे थे, वह ढोल जो कब का फट चुका था, और फटे ढोल की बेसुरी आवाज लोगों के कानों में जबरन गर्म शीशे की तरह डाली जा रही थी, सरकार और उसके गुलामों के लिए दुष्यंत ने क्या खूब कहा है कि -

"दोस्त अपने मुल्क की किस्मत पर रंजीदा न हो
उनके हाथों में है पिंजरा उन के पिंजरे में सुआ"

जनता को जिस तरह दिवास्वप्न दिखाए जा रहे थे वीस सूत्रीय कार्यक्रमों का जिस प्रकार रेडिओ और दूरदर्शन पर धुआंधार प्रचार किया जा रहा था उस पर दुष्यंत ने अन्दर ही अन्दर भुनभुनाते हुए जो व्यंग्य किया -

जिस तरह चाहो बजाओ तुम हमें
हम नहीं हैं आदमी हम झुनझुने हैं।

निदा फ़ाज़ली उनके बारे में कहते हैं- "दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है। यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है।" दुष्यंत कुमार केवल व्यवस्था के विरुद्ध ही एक बगावत का स्वर ले कर नहीं उभरे, वरन उन्होंने तो तकनीकी तौर पर हिन्दी ग़ज़ल को मान्यता तक न देने या उसे हीन कह डालने की धृष्टता करने वालों को दो टूक जवाब दिए. ग़ज़ल बेहद अनुशासित विधा है। माना उसमें मतला, काफिया, रदीफ़, बह्र (छंद) व रुक्न को लेकर कई शायरों की खूब मारामारी चलती रहती है। पर जब दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों में 'शहर' नहीं 'शह्र' लिखना चाहिए आदि जैसी बातें कह कर उन्हें टोका गया, तो उन्होंने स्पष्ट जवाब दिया कि आप हमारे 'ब्रह्मण' शब्द को 'बिरहमन' बना सकते हैं, 'ऋतु' को रुत, तो हम 'शह्र' को 'शहर' क्यों नहीं लिख सकते। अपने सर्वाधिक व सर्वप्रसिद्ध दीवान 'साए में धूप' की भूमिका रूप लेख 'मैं स्वीकार करता हूँ।' में वे कहते हैं कि 'इन शब्दों का प्रयोग यहाँ अज्ञानता वश नहीं जानबूझ कर किया गया है। यह कोई मुश्किल काम नहीं था कि 'शहर' की जगह 'नगर' लिख कर इस दोष से मुक्ति पा लूँ, किंतु मैं ने उर्दू शब्दों का उस रूप में इस्तैमाल किया है जिस रूप में वे हिन्दी में घुलमिल गए हैं'। इस का अर्थ कि दुष्यंत कुमार ने, बोलचाल की भाषा को ही उचित मानदंड बनाया। दुष्यंत जैसे मनमौजी थे वैसी ही उनकी ग़ज़ल भी थीं। ग़ज़ल में चाहे जो हो रदीफ़ नहीं बदलता और दुष्यंत की इस ग़ज़ल को ज़रा देखें -

भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दआ
गिड़गिडाने का यहाँ कोई असर होता नहीं
पेट भर कर गालियाँ दो आह भर कर बद-दुआ
इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो
जब तलक खिलते नहीं हैं कोयले देंगे धुआँ

इस ग़ज़ल में बार बार रदीफ़ बदलता है। पर ऐसा बहुत ज़्यादा ग़ज़लों में नहीं है।

जो लोग खुद को सभ्रांत, जिम्मेदार और दयावान दिखाते हैं मगर देश के हालात और मुश्किलात से ताल्लुक नहीं रखते उनसे दुष्यंत को खासी चिढ थी।तभी तो ऐसे लोगों के लिए उन्होंने कहा है -

"लहू लुहान नजारों के ज़िक्र आया तो,
शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए।"

वतन परस्ती दुष्यंत की नस- नस में भरी थी, अपने वतन की तुलना गुलमोहर के पेड़ से करते हुए वह अपना देशभक्ति का जज्बा कुछ यूँ बयां करते हैं -

"जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।"

ऐसा नहीं है कि दुष्यंत के सीने में हमेशा आक्रोश का लावा ही प्रस्फुटित होता था। युवा दुष्यंत के सीने में जो दिल था वह रूमानियत भी जानता था और किसी के लिए धड़कता भी था। उनका लिखा यह शेर देखिये -

"एक जंगल है तेरी आँखों में जहाँ मैं राह भूल जाता हूँ"

दुष्यंत ने बयालीस वर्ष के अल्प जीवन में 'एक कंठ विषपायी', 'सूर्य का स्वागत', 'आवाज़ों के घेरे', 'जलते हुए वन का बसंत', 'छोटे-छोटे सवाल' और दूसरी गद्य तथा कविता की कई किताबों का सर्जन किया। दुष्यंत कुमार ने साहित्य की दुनिया में अपने कदम रखे, उस समय भोपाल के दो प्रगतिशील शायरों ताज भोपाली तथा क़ैफ़ भोपाली का ग़ज़लों की दुनिया पर राज था।ऐसे ऐसे सूरमाओं के बीच अपनी सहज सरल आम बोलचाल बाली शायरी और कविताओं से दुष्यंत ने जतला दिया कि लोगों के दिल में शिल्प नहीं भावनाएं उतरती हैं और अपने दिल की आवाज को दूसरे के दिल में उतारने का हुनर वह बखूबी जानते थे।आज दुष्यंत हमारे बीच नहीं हैं मगर दुष्यन्त की शायरी जनता के जुबान पर चढ़ी हुई हैं। इसलिए मीडिया के लोग भी विशेष मौकों पर अपनी बात जन तक पहुँचाने के लिए, उनके दिलों में उतार देने के लिए दुष्यन्त की शायरी का इस्तेमाल करते हैं। दुष्यन्त की ग़ज़लें कठिन समय को समझने के लिए विवेक और उनसे जूझने के लिए साहस प्रदान करती हैं। उनकी लोकप्रियता का अनुमान केवल इतनी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले चुनाव में दिल्ली के मुख्यमंत्री साहब और उनकी पार्टी दुष्यंत की यही पंक्तियाँ -

"मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए."

अलाप कर वोट मांगती फिर रही थीं, खैर उन्होंने देश की सूरत कितनी बदली इस का जिक्र यहाँ मुनासिब नहीं। मगर सड़क से संसद तक चाहे इंदिरा गांधी का दौर हो या राहुल गांधी का, बड़ी बेख़ौफ़ होकर एक ही आवाज गूंजती आई है और वह आवाज है युवा शायर दुष्यंत की जो अपनी अल्प आयु में ही जीती जागती किवदंती बन गए थे। दुष्यन्त की शायरी ज़िन्दगी की कटु सच्चाई है जिसे स्वीकारना ही होगा और क्यूँ न स्वीकारें दुष्यंत ने जो देखा वह लिखा जो महसूस किया वह लिखा कलम से नहीं दर्द भरे सीने के कागज़ पर आंसुओं की स्याही से लिखा। इसीलिए तो ज़िन्दगी के हर सुख- दुःख में उनकी शायरी होठों पर आ जाती है। उनकी शायरी अक्षरों का समूह नहीं व्यक्तियों का समूह है उनके कष्टों का उनकी भुक्ति का बही खाता है जिसमे उस दौर के समाज और सरकार के सारे लेखे - जोखे दर्ज हैं। उस दौर में ही नहीं उनकी शायरी हर दौर के व्यक्ति को अपनी आवाज लगने लगती है आम आदमी को वे अपनी आवाज़ लगने लगती हैं। समय को समझने और उससे लड़ने की ताकत देती ये शायरी हमारे समाज में हर संघर्ष में सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाली शायरी हैं। हम गर्व से कह सकते हैं कि हमारी मातृभाषा हिन्दी ने मीर, नजीर और ग़ालिब जैसे शायर भले ही न पैदा किये हों मगर दुष्यन्त कुमार जैसे शेर को पैदा किया है। और यही एकमात्र दुष्यंत, उर्दू शायरी की आँखों में आँखें डालकर कह सकता है कि -

"चलो अब यादगारों की अंधेरी पोटली खोलें
कम-स-कम एक वह चेहरा तो पहचाना हुआ होगा"