सड़ा हुआ / चित्तरंजन गोप 'लुकाठी'
मैं दुकान के बाहर बेंच पर बैठा, अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा था। सामने लगभग आधा बोरा आलू रखा हुआ था जो सड़ गया था। उसकी गंध रह-रहकर नाक को तकलीफ दे रही थी। तभी सुजय बाबू गाड़ी से उतरा। थुल-थुल शरीर... भचर-भचर बोली ... बोली में झूठ बोलने का पुश्तैनी लाइसेंस ...। गाड़ी से उतरकर वह जैसे ही दुकान की तरफ़ बढ़ा, आलू की गंध से तिलमिला उठा। बोला का गुप्ता जी, यह सड़ा हुआ आलू? फेकिए कहीं।
"नहीं मालिक, बिक जाएगा।" गुप्ताजी ने जवाब दिया।
"बिक जएगा?" वह अचंभित होकर एक बार आलू की तरफ़ और दूसरी बार गुप्ताजी की तरफ़ देखा। फिर बोला, "यह आलू वैसा ही आदमी खरीदेगा जो...।"
"ई आलू कर कै रुपैया लेभीं, दोकानी बाबू?" कालुआ ने आते-आते पूछा।
"तीस रुपैया।" गुप्ता जी ने जवाब दिया।
"बीस रुपैया में देभीं?"
"ले ल ।"
कालुआ बीस रुपया देकर बोरा उठाने लगा। तभी सुजय बाबू पूछ बैठा, "क्या करोगे यह आलू?"
"एकरा बाछ-बुछके सिझाइबो आर तेल-मसाला देयके तरकारी बनाइबो। आर पूरा परिवार दुई-सांझ पेट भरके खाइब, बाबू।" कहते हुए कालुआ ने कंधे पर बोरा लादा और चल दिया।
सुजय बाबू ने फुसफुसाकर गुप्ताजी को कहा--- आज मुझे पता चला कि यहाँ सड़ा हुआ...भी रहता है।
"बहुत हैं।" गुप्ताजी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
सुजय बाबू के वाक्य के खाली स्थान का शब्द मेैं नहीं सुन पाया था, परंतु यह समझ गया था कि उसने उस शब्द का प्रयोग कालुआ के लिए किया था।
नहीं, नहीं, उसने अपने लिए नहीं किया था !